खुद को जानने का सरल तरीका || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली में (2020)

Acharya Prashant

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खुद को जानने का सरल तरीका || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली में (2020)

प्रश्नकर्ता: आपने ऐसे बताया कि “तुम कौन हो उसको जानो।“ तो इसको हम कैसे जानें और मन से कैसे अपने-आप को अलग कर के देखें और मन को कैसे अपने ऊपर हावी न होने दें, ‘मैं’ को कैसे कंट्रोल करें हम; और इवेन्चुअली माइंड और बॉडी से डिस्टेंस बना कर रखें और उसको ऐज़ ऐन इंस्ट्रुमेंट यूज़ कर पाएँ? इज़ इट पॉसिबल ?

आचार्य प्रशांत: कभी कुछ ऐसा करा है जो बहुत करीब रहा हो तुम्हारे दिल के? पूछ रहे हैं, “मैं जानूँ कैसे कि मैं कौन हूँ? मैं कैसे जानूँ, खासतौर पर, कि मैं शरीर नहीं हूँ?” कभी कुछ ऐसा चाहा है जो बहुत-बहुत तुम्हारे दिल के निकट का हो? ज़्यादातर लोगों ने चाहा होगा। और जब तुम पाओगे कि तुम कुछ ऐसा करना चाहते हो जो बहुत-बहुत ज़रूरी है और ये नालायक शरीर तुमको वो काम करने नहीं दे रहा, तब तुम समझ जाओगे कि तुम शरीर हो या कोई और हो। तुम्हें कहीं पहुँचना बहुत ज़रूरी है, किसी की जान का सवाल है, और शरीर कह रहा है, “नहीं, पहले खाना खा लेते हैं, भूख उठ रही है;” शरीर कह रहा है, “सो ही जाते हैं,” तब तुम समझ जाओगे कि शरीर के इरादे तुम्हारे इरादों से बहुत अलग हैं।

समझ में आ रही है बात?

देखो न कि तुम्हारी मूल इच्छा क्या है, और तुम पाओगे कि तुम्हारी मूल इच्छा शरीर की इच्छाओं से मेल खा ही नहीं रही है। शरीर बिल्कुल वही चीज़ें चाहता है जो कोई बंदर चाहता है, घोड़ा चाहता है, हाथी चाहता है, अमीबा या हाइड्रा चाहता है। शरीर अभी तक वही सब चाह रहा है, शरीर का जैसे कोई इवोल्यूशन हुआ ही नहीं है। जैसे ये जो ब्रेन है, ये पूरे इवोल्यूशन के बाद भी अपनी पुरानी इंस्टिंक्ट्स छोड़ ही नहीं पाया है; जैसे कि इंटेलेक्ट तो आ गई है, लेकिन वो इंटेलेक्ट अभी-भी पुरानी इंस्टिंक्ट्स की गुलाम ही है। तो हम जिसको इवोल्यूशन बोलते हैं, वो शारीरिक तौर पर हो गया है, चेतना का कोई इवोल्यूशन हुआ ही नहीं है। और जो शारीरिक तल पर पूरी चेतना है, वो चेतना जो शरीर से ही संबंधित है, वो बिल्कुल बंदर वाली ही है।

ये तुम्हें तय करना है कि तुम चेतना के कौन-से तल पर हो— वो जो शरीर से संबंधित है या वो जो कुछ ऊँचा पाना चाहती है। और तुम कोई भी फैसला कर सकते हो। तुम कह सकते हो कि “मुझे तो साहब बंदर जैसी ही ज़िंदगी बितानी है,“ तो आप वही करोगे जो बंदर कर रहा है, बस उसको आप ज़्यादा इंटेलेक्चुअल तरीके से करोगे। बंदर दिन-भर क्या करता है? इधर से उधर भागता है, खाने के लिए, कभी किसी को दाँत दिखा रहा होता है, डरा रहा होता है, किसी बंदरिया का पीछा कर रहा होता है। यही सब काम आप भी करोगे, आप ज़रा बडे़ तरीके से करोगे, इंटेलेक्चुअल तरीके से करोगे, लगेगा कि आप कोई बहुत बड़े आदमी हो। लेकिन वो जो आप बड़े-बड़े काम कर रहे हो, जब आप उनकी जड़ों तक जाओगे तो आप पाओगे आप बिल्कुल वही काम कर रहे हो जो बंदर करता है, बस आप बहुत ज़्यादा अपने-आप को महिमामंडित कर रहे हो।

बंदर के पास इतना अहंकार नहीं होता, कि “मैं बड़ा आदमी हूँ।“ आप काम बंदरों वाला ही कर रहे हो, बस अहंकार के साथ और कर रहे हो। बंदर केले के पीछे भाग रहा है, आप पैसे के पीछे भाग रहे हो, एक ही तो चीज़ है न! बंदर भी और बाकी लोगों को दाँत दिखा रहा है, धमका रहा है, कि “भाग जाओ यहाँ से, इस इलाके पर मेरा कब्ज़ा है,“ आप भी किसी इलाके पर वर्चस्व करने के लिए बड़े आतुर हो; बंदर वाला ही तो काम है! बस आप ये सारा काम बहुत सोफ़िस्टिकेशन के साथ करोगे, अंग्रेज़ी में करोगे, बंदर बस ‘खों-खों’ करता है, इतना ही अंतर है। वैसा जीवन अगर जीना हो तो वो भी एक विकल्प है। वैसा अगर नहीं जीना, अगर कहना है कि “भाई, जंगल पीछे छूट गया, अब भीतर के बंदर समान नहीं जीना है मुझे। चेतना के ऊँचे तलों पर पहुँचना है। कुछ और जानना है, कुछ और समझना है, कुछ और होना है,” तो वो भी एक विकल्प है, चुनना आपको है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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