प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। जो सवाल मैं पूछना चाहती थी, वह सवाल किसी दोस्त ने ही पूछ लिया। एक बहुत गर्व की बात लगती है और हर्ष की बात है कि हमारे जो चैनल्स हैं, उसके सब्सक्राइबर्स और व्यूअर्स की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। बहुत खुशी होती है जब वह ग्राफ ऊपर की ओर जाता है।
लेकिन एक ग्राफ और है, जो इसके पैरलल (समांतर) चलता है। मेरे कुछ जानने वाली दोस्त हैं जो इस चैनल से जुड़ी हुई हैं, जो सुनती हैं, हालाँकि किताबें अभी माँग के पढ़ती हैं। लेकिन उनके मन में एक अहंकार का भाव, मुझे लगता है कि एक स्टेप (तल) ऊपर हो जाता है, जब वो बड़े गर्व के साथ कहती हैं कि "हाँ, हमने भी सब्सक्राइब किया है, हम सुनते हैं, हमें भी पता है, किताबें ख़रीदते हैं या यूट्यूब पर सुन लेते हैं।" बात यहाँ तक ठीक लगती है कि चलिए एक रास्ता लोगों को दिखाया गया है और वो उस रास्ते पर सही चल पा रही हैं। लेकिन अगले दिन जब उनके साथ वार्तालाप होती है, तो ज़िंदगी के जो किन्तु और परन्तु हैं, वो जस के तस वहीं के वहीं रह जाते हैं।
वही अपनी मेंटल हैरेसमेंट (मानसिक उत्पीड़न) सोशल हैरेसमेंट (सामाजिक उत्पीड़न) फाइनैन्शल हैरेसमेंट (आर्थिक उत्पीड़न) और न जाने और कितनी तरह की जो प्रॉब्लम्स (समस्या) हैं, जो अब तक ज़िंदगी में चली आ रही हैं, वो अभी भी उसी लेवल (स्तर) पर हैं। तो जब कोई डिस्कशन (चर्चा) होता है, तो अगर उन्हें ये कहा जाता है कि आप दो-तीन सालों से सुन रही हैं, पढ़ रही हैं, तो आचार्य जी का कहना है कि "ये मत दिखाओ कि कितना जानते हो, ये दिखाइए कि जी कैसे रहे हो।" तो यहाँ तो जो आपका बौद्धिक स्तर है, वो ऊपर हुआ है, व्यवहार में आपके वो चीज़ें अभी तक नहीं आईं। तो जो भी आपकी परिस्थिति है, उसको लेकर आप समझौता क्यों करती हैं?
अगर आप आचार्य जी की ही बात को मान कर चलती हैं, तो उन्होंने कहा है कि विकल्प आपके सामने है, जो आपको ठीक लगता है, आप उसमें से चुन लीजिए। अब यहाँ उनका जवाब होता है कि उन्होंने ही तो कहा है कि "जो आपकी आत्मा को उत्थान नहीं दे सकता, वहाँ से हट जाइए, उन्हें छोड़ दीजिए।" पर छोड़ कर जाए कहाँ? रहना तो इसी माहौल, इसी पारिवारिक और सामाजिक परिवेश में ही है। और ऊपर से फिर आचार्य जी ही कहते हैं कि स्त्रियों को तो प्रकृति ने ही ऐसा बनाया है कि उसे एक संबल की ज़रूरत है। माने कि हर स्तर पर आपके ही कहे हुए वाक्यों को अपने पक्ष और विपक्ष में, दोनों तरीक़ो से इस्तेमाल कर लिया जाता है।
तो यहाँ पर मुझे लगता है कि अध्यात्म को वो सिर्फ़ एक पेन किलर (दर्द निवारक) की तरह ही इस्तेमाल करना चाहती हैं कि इंस्टन्ट (तात्कालिक) अभी जो समस्या है, उसका समाधान हो जाए और जो रूट (जड़) है समस्या की हमारी, जो डीप रुटेड कॉज (मूल कारण) है वो बना रहे। यहाँ मुझे लगता है कि क्या महिलाएँ—और साथ में, माफ़ कीजिएगा, वो लोग भी जो शारीरिक रूप से पुरुष हैं लेकिन हो सकता है कि स्वभावगत स्त्रैण हैं, अभी भी—मैं ये सवाल पूछना चाहती हूँ कि क्या अध्यात्म हमारी रोजमर्रा की जिंदगियों के लिए एक पेन किलर का काम करे या उस समस्या को ही जड़ से ख़त्म कर दें, ताकि वो समस्याएँ हमारी ज़िंदगी में रहे ही नहीं? फिर सवाल ये आता है कि क्या करें, जो हमारे प्रति हैरेसमेंट (उत्पीड़न) है किसी भी तरह का, उसे बर्दास्त कर लें, करनेवाले को माफ़ कर दें या उसके प्रति हम विरोध करें? तीनों में से हमारे पास कौन-सा विकल्प होना चाहिए? तो इसके बारे में मैं आपसे प्रकाश चाहती हूँ।
आचार्य प्रशांत: देखिए, मैंने कोई बात अगर कही है, तो उसको उद्धृत करना तो ग़लत नहीं है, पर उसको आधा उद्धृत करना अर्थ का अनर्थ कर देता है। मैंने कभी कह दिया होगा कि ‘प्रकृति ने महिलाओं को ऐसा बनाया है कि उनको सहारे की ज़रूरत पड़ती है। शारीरिक तौर पर तो प्रकृति ने महिला को अपेक्षतया दुर्बल ही बनाया है।‘ इतना तो याद रह गया और ये नहीं याद रहा कि मैंने कहा है कि “शरीर नहीं हो, प्रकृति नहीं हो, चेतना हो आप। शरीर होगा जैसा होगा, चेतना तो मुक्ति ही चाहती है न, चाहे स्त्री की हो या पुरुष की हो? प्रकृति ने आपको कैसा बनाया है, ये बात याद रह गई; लेकिन प्रकृति के पार जाना ही चेतना का लक्ष्य है, ये बात याद नहीं रही?”
प्रकृति ने तो हम सब में सौ तरह के गुण-दोष भर दिए हैं, क्या करें उसका, कुछ नहीं कर सकते। स्त्रियों में स्त्रियों वाले दोष भर दिए हैं और पुरुषों में पुरुषों वाले दोष भर दिए हैं; उसका क्या करें? प्रकृति है, प्रकृति ने ऐसा बनाया है। माँ है, उसने बना दिया ऐसा। मैं उसके आगे क्या कहा करता हूँ?
मैं कहता हूँ, प्रकृति ने तुम्हें जो कुछ भी दिया है तुम्हें उसी का उपयोग करके उसका उल्लंघन करना है। तुम्हें आगे जाना है, बिऑन्ड (परे)। अब वो बिऑन्डनेस (पारातीत) वाली बात देवीजी लोग सब दबा गईं। बार-बार मैं बोलता हूँ, आगे जाओ, बंधनों को जानो और फिर उनका उल्लंघन कर दो, तोड़ दो। वह बात बिल्कुल पचा गईं। ये चीज़ ठीक नहीं है।
अब आप जो कह रही हैं कि क्या करें, अगर घर में ऐसा माहौल हो, वगैरह। देखिए, इसकी कोई निश्चित-सी एक दवाई नहीं हो सकती। आप चिकित्सक के पास जाते हैं, कोई चीज़ ऐसी भी होती है, जिसमें वो कहता है ‘ठीक है आप कल ही आ जाइए, आपकी एक छोटी-सी सर्जरी है, मैं कर दूँगा, खेल ख़त्म। उसके बाद आपको चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। बीस मिनट का ऑपरेशन है बस, कोई छोटी-सी गाँठ है, मान लीजिए, वो निकाल कर ख़त्म कर दूँगा।‘
और ऐसी भी चीज़ें होती हैं, जिनकी दवा छह-छह साल चलती है। और ज़रूरी नहीं है कि जिस चीज़ की दवा छह साल चलती हो, वह बहुत गंभीर ही मसला हो। वो कोई साधारण-सा त्वचा रोग भी हो सकता है, लेकिनक्रोनिक (दीर्घकालीन) है, वो चल रहा है, छह छह साल उसकी दवाई चलेगी, तब जाकर उसमें कुछ सुधार आता है।
तो इसमें कुछ बताया नहीं जा सकता कि अगर जीवन में लोग हैं, जो परेशान करते हैं, तो उनका करना क्या है। ये तो आपकी अपनी ललक पर निर्भर करता है, समझ पर निर्भर करता है;मुक्त हो जाने की कितनी गहरी आकांक्षा है, इस पर निर्भर करता है;दूसरे व्यक्ति से संबंध में गहराई कितनी है, इस पर निर्भर करता है। नहीं तो एक टका-सा जवाब, तो ये हो सकता है कि कोई बहुत परेशान कर रहा है, तो बाहर निकलो, छोड़ो, क्या कर रहे हो।
लेकिन ये टका-सा जवाब बहुत काम का नहीं होता। क्योंकि बहुत बार ऐसा भी होता है कि वो जो दूसरा व्यक्ति है,जो आपको परेशान कर रहा है, हो सकता है उसमें सुधरने की, बच जाने की संभावना हो। हम उस संभावना को भी ख़ारिज नहीं कर सकते न। तो उसमें बहुत सारी बातें होती हैं, कई वेरिएबल्ज़ (चर) होते हैं। उन सबको दिमाग में लेकर के काम करना होता है, लेकिन नीयत यही रखनी होती है—कुल मिलाकर मुझे सफ़ाई चाहिए, शांति चाहिए, मुक्ति चाहिए।
और देखिए, ये वाली बात कि आचार्य जी ने बोला कि जहाँ मन साफ़ न होता हो, उस जगह पर नहीं रहो, ये बात बिलकुल है, और हमें ये भी दिख गया है कि हम जिन जगहों पर हैं, जिन रिश्तों में हैं, वहाँ मन गंदा ही गंदा होता रहता है;लेकिन छोड़कर जाए भी तो जाए कहाँ? रहना तो यहीं पर है न? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं हो सकता। इसका कहीं कोई जवाब नहीं है, न किसी ग्रंथ में है, न किसी गुरु ने दिया, न मेरे पास है। इसका जवाब तो सिर्फ़ आपकी मुमुक्षा दे सकती है। ललक कितनी है, भीतर कितनी ज़ोर से आग धधक रही है, सिर्फ़ वहाँ से जवाब आ सकता है। क्योंकि उस जवाब को जीना तो आपको पड़ेगा न।
गुरुजी आपको बोल दें कि "नहीं-नहीं, जो चीज़ ग़लत है, उसको आज ही ख़त्म करो, नया जीवन शुरू करो।" गुरुजी सिर्फ़ बोल देंगे, ये सब करेंगे आप। और ये सब करा आपने और करके उसको झेलने का आप में माद्दा (सामर्थ्य) ही नहीं है, तो भुगतना भी फिर आपको ही पड़ेगा। नहीं? तो ये तो बहुत व्यक्तिगत बात होती है;मुझे कितनी दूर तक जाना है। जिन्हें बहुत दूर तक नहीं जाना, आपने बिलकुल ठीक कहा, अध्यात्म उनके लिए मनोरंजन मात्र है, पेन किलर , थोड़े बहुत अपना मज़े ले लो और फिर अपना ये करो।
हर तरह के देखिए, दुनिया में प्राणी हैं, किसी को अंत तक जाना है, किसी को बस मनोरंजन करना है। आप जो भी प्रकार ढूंढेंगी, आपको मिल जाएगा। आपको अपना देखना होता है। और कोई इसका उत्तर नहीं होता।
रहना तो यहीं पर है, ठीक है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि वहाँ नहीं रहना है, मैं नहीं कह रहा हूँ कि घर तोड़ दीजिए और कहीं और चले जाइए। पर यह तो बताइए न, जब आपने कहा कि यहीं पर रहना है, तो आपके दिमाग में गणित क्या चल रहा था? रहने और रहने में अंतर होता है। (दोहराते हैं) रहने और रहने में अतंर होता है न। एक होता है कि यहीं पर रहना है;क्योंकि प्रेम है;एक होता है कि यहीं पर रहना है;क्योंकि स्वार्थ है। वहीं पर क्यों रहना है? बताओ। आप कहीं पर स्वार्थ के कारण रह रहे हो, तो विकल्प बस यही नहीं होता कि वहाँ अब रहो ही मत।
आप किसी जगह पर स्वार्थ के कारण रह रहे थे, और मैंने कहा कि स्वार्थ के कारण कहीं मत रहो;तो क्या मैंने सिर्फ़ यह कहा कि उस जगह को छोड़ दो? या मैंने यह कहा कि स्वार्थ के कारण नहीं, प्रेम के कारण रहो? बोलो। पर जब मैं कहूँगा कि जहाँ पर तुम स्वार्थ या भय के कारण रह रहे हो, वहाँ मत रहो, तो आप ऐसे प्रदर्शित करेंगे जैसे कि मैंने कहा है कि वह जगह ही छोड़ दो। आप यह क्यों नहीं सोचतें कि मैंने कहा है कि स्वार्थ और डर छोड़ दो? पर स्वार्थ छोड़ने में चोट लगती है, तो उसकी हम बात नहीं करना चाहतें।
ज़्यादातर लोग जिन भी जगहों पर फँसे हुए हैं—घर, नौकरी, व्यापार, रिश्ते—वहाँ पर इसलिए थोड़े ही फँसे हुए हैं कि बड़ा प्रेम है? प्रेम फँसाता है क्या किसी को? फँसे आप इसलिए हैं कि डरते हैं या स्वार्थ है। फीयर एंड ग्रीड (डर और लालच) के अलावा क्या होता है, जो आपको फँसा ले चूहेदानी में? डर के कहीं रह रहे हो; वहाँ पर रानी की तरह क्यों नहीं रह सकते? जब डर हट जाता है, जब स्वार्थ हट जाता है, तो जिस जगह पर हो, वहीं के मालिक हो जाते हो। फ़कीरों को, इसीलिए बादशाह बोला गया है। कहते हैं, वह जो तख्त पर बादशाह बैठा हुआ है;उससे ऊपर का बादशाह होता है फ़कीर। क्योंकि उसके पास स्वार्थ नहीं होता। "फ़िक्र का फांका करे, ताका नाम फ़कीर।"
आप रह लीजिए अपने ही घर में, बेशक रह लीजिए; रहने का तरीका, रहने का केंद्र क्यों नहीं बदल सकते? कौन कह रहा है कि रिश्ता तोड़ दो;पर रिश्ते का स्वभाव क्यों नहीं बदला जा सकता? पर तुम यह नहीं कहोगे कि आचार्य जी कह रहे हैं कि रिश्ते का स्वभाव बदल दो;आप प्रचारित कर देते हो इधर-उधर जाकर के कि ये आचार्य जी हैं, कहते हैं—'रिश्ता तोड़ दो!’ भैया, मैंने “स्वार्थ तोड़ने को बोला है।“
लेकिन तुम कह रहे हो, "रिश्ता रहेगा तो स्वार्थ का ही रहेगा। रिश्ता अगर रखूँगी तो स्वार्थ का ही और अगर आचार्य जी बोलेंगे स्वार्थ का रिश्ता नहीं रखना है, तो मैं कहूँगी फिर रिश्ता ही तोड़ दो, फिर काहे के लिए इस आदमी को ढोना है। इसमें ऐसा है ही नहीं कुछ, गंधाते उद्बिलाओ जैसा तो है यह, इसके साथ काहे को रहेंगे। एक ही चीज़ इससे मिलती थी—महीने का बँधा-बँधाया रोकड़ा—अगर आचार्य जी कह रहे हैं, स्वार्थ का रिश्ता इससे रखना ही नहीं है, तो फिर काहे का इससे रिश्ता रखेंगे।"
मैं कह रहा हूँ, प्रेम का रिश्ता नहीं हो सकता था क्या? "प्रेम! अजी प्रेम हटाइए, रोकड़ा बताइए, रोकड़ा।"
यह मेरे साथ अन्याय हो रहा है कि नहीं? कह रहे हैं, “घर तोड़वाने की बात कर रहे हैं। मैं स्वार्थ तोड़वाने की बात कर रहा हूँ। मुझे तुम्हारे घर पर बुलडोज़र चलाने से क्या मिलेगा? लेकिन ये जो भी बोल लें, रहना तो हमें यहीं है।" मैं कहाँ कह रहा हूँ कि तुम अपना सामान पैक करके कहीं और भाग जाओ! पर जहाँ रह रहे हो, वहाँ जानवर की तरह रहना ज़रूरी है क्या? टॉमी! मैं कह रहा हूँ क्या कि कहीं और चले जाओ? लेकिन जहाँ रह रहे हो, वहाँ इंसान की गरिमा के साथ नहीं रह सकते क्या?” यह बोल रहा हूँ। ग़लत बोल दिया?
और इसमें कोई आप ताज़्जुब मत बताइए कि कोई दो-दो, तीन-तीन साल से सुन रहा है, तब भी उस पर कोई अंतर क्यों नहीं पड़ा। बीस-बीस, चालीस-चालीस साल से सुनकर भी किसी को कोई अंतर नहीं पड़ता। बात सुनने भर की है ही नहीं। गीता क्या आज लिखी गई है? तो कृष्ण की बात तो सदा से उपलब्ध रही है, इतनी जगह पढ़ी-सुनी भी जाती है; उससे लेकिन भला कितने लोगों का हो पाया? बहुत ऐसे भी लोग हैं, जो आजीवन गीता पाठ करते रह गए, फिर भी उनको कुछ नहीं मिला। बात आपकी नीयत की है। कृष्ण भी आपकी नीयत की प्रतीक्षा करते हैं।
आप जब चाहोगे सिर्फ़ तभी आपको गीता से लाभ होगा। आप गीता को भी अन्यथा अपने मनोरंजन का साधन बना सकते हो। तो ये कोई तर्क नहीं हुआ कि ये कौन से हैं, इनको तो वो दो साल से सुन रही हैं, लेकिन उनको कोई फ़ायदा तो हुआ नहीं। दो सौ साल में भी नहीं होगा; क्यों होगा? क्यों होगा? श्रवण, फिर मनन, फिर निदिध्यासन, फिर समाधि। श्रवण मात्र से क्या हो जाएगा? आगे का काम कौन करेगा?
और यहाँ तो श्रवण भी आधा-अधूरा होता है। चालीस मिनट के वीडियो में एवरेज वॉच टाइम आठ मिनट; तर गए! वह आठ ही मिनट में उनको लगा कि देख लिया। श्रवण भी कहाँ हो रहा है पूरा? या पूरा वीडियो चला भी दिया है, तो ऐसे अपना चला दिया है और उधर कुकर की सीटी बज रही है! उधर नुन्नू रो रहा है! गेट पर घंटी बज गई! रेडियो भी चला रखा है एफएम, उसमें कोई डीजे आकर अपना ज्ञान बाँट रहा है—आरजे!
और "नहीं, हमने भी सुना, हमने भी सुना। हाँ, हाँ, आचार्य जी का वो वीडियो आया था, हमने सुना है।" कव्वाली है! कि बज रही है और तुम वहाँ दाल में तड़का मार रहे हो, और कह दो कि हमने भी सुना है! ऐसे सुनना पड़ता है, कुछ और नहीं, मोबाइल फोन भी बाहर रहेगा, सबकुछ बंद करके सिर्फ़ सुनेंगे, तब मात्र श्रवण हो पाता है;मनन-निदिध्यासन तो अभी और आगे होगा। हम कह रहे हैं, आपका तो श्रवण ही नहीं हो पाता, मनन और निदिध्यासन तो बहुत दूर की बात है।
ये बातें अभी आप जैसे सुन रहे हो, ये बातें अभी रिकॉर्ड होंगी फिर वीडियो में जाएँगी; वो वीडियो वाले ऐसे ही सुनेंगे जैसे आपने अभी सुनी? श्रवण तो हो नहीं पा रहा; आगे के काम कैसे होंगे? इमानदारी से बताइएगा, आप में से कितनों के साथ ऐसा हुआ है कि कुछ देख रहे थे वीडियो वगैरह—मेरा ही मान लीजिए—और आधे में ही छोड़ दिया कभी-ना-कभी? लो! सभी के साथ हुआ है। अभी यहाँ आधे में छोड़ कर दिखाओ। यहाँ छोड़ कर दिखाओ न आधे में। ये अंतर होता है श्रवण और श्रवण में।
यूट्यूब क्या है, यूट्यूब ऐसा है जैसा—सांत्वना, बेचारे यहाँ आ नहीं पाए तो चलो रिकॉर्डिंग ही देख लो। ऐसा है कि जैसे पार्टी हो गई हो और जो उसमें आ नहीं पाए उनको तस्वीरें दी जाएँ। उन्हें क्या मिलेगा? बढ़िया बना है, हरा-भरा कबाब, जो पार्टी में आए थे, उन्होंने खा लिया बाकियों को वीडियो भेजा गया यूट्यूब पर। उन्हें क्या मिला है? "माखन-माखन संतों ने खाया, छाछ जगत बपरानी।"
जिनके पास इतना समय नहीं, इतनी निष्ठा नहीं, इतने संसाधन नहीं कि सामने आकर बैठें, उनको यूट्यूब रूपी सांत्वना दे दी जाती है, कंसोलेशन , लो बेटा तुम यह रख लो, फ़ोटो देखो फ़ोटो, स्वादिष्ट है न। हाँ, बहुत बढ़िया है, फ़ोटो देखो। वह फोटो से स्वाद लेते हैं भोजन का, वह भी आधा-अधूरा।
तो अभी मनन और निदिध्यासन दूर है, श्रवण भी—पहली बात तो चालीस मिनट के वीडियो में दस मिनट, वो भी कुकर की सीटी के साथ, वो भी सामने न बैठ के, स्क्रीन के सामने बैठ के; तो क्या सुन रहे हैं?
बिल्कुल आते हैं, लोग आएँगे, "आचार्य जी आपको तीन साल से सुन रहा हूँ, तो मैं बस यह जानना चाहता था कि मैं बड़ा लालची किस्म का हूँ और कामुक प्रवृत्ति का हूँ, तो अगले जन्म में मैं कुत्ता बनूँगा कि बिल्ली?" यह वास्तव में ही हुआ है, महोत्सव में ही हुआ है कि तीन साल से सुनने के बाद आए हैं और ये मुझसे पूछ रहे हैं कि अगले जन्म में कुत्ता बनेंगे कि बिल्ली!
किसी ने अचार्य प्रशांत को दो दिन भी सुना हो, तो वह भली-भांति जान जाएगा कि अगला जन्म, पिछला जन्म, पुनर्जन्म, आत्मा-जीवात्मा, इसको लेकर के क्या बोला है मैंने। ये साहब दावा कर रहे हैं कि तीन साल से सुन रहा हूँ। इन्होंने ऐसे ही सुना है, वीडियो चला और उधर फट से नुन्नु ने पॉटी कर दी, वो एक हाथ से पॉटी साफ़ कर रहे हैं, कान में भी पॉटी घुस गई; अब क्या सुनेंगे वो?
ये बातें सुनने के लिए बहुत शांत, बहुत एकाग्र होकर, बड़े निष्ठा से बैठना पड़ता है, सारे जगत को दूर करके, संसार को बिल्कुल किनारे रखकर—ये तब जब स्क्रीन के सामने बैठे हों। और स्क्रीन पर सुनते ही कही गई बात का प्रभाव एक बट्टा दस रह जाता है। एक बट्टा दस भी आपको मिल पाए, उसके लिए आवश्यक है कि पूरी निष्ठा और शांति, एकाग्रता से सुनें।
और एक बट्टा दस की जगह दस बट्टा दस सुनना है; तब तो सामने ही आकर बैठना पड़ेगा। "सामने नहीं जाएँगे, संस्था वाले डोनेशन (अनुदान) माँगते हैं! फ्री में सुनेंगे यूट्यूब में, हम बहुत चतुर हैं, हम स्मार्ट हैं न। सामने चले जाएँगे, हमको ऐसे ही मुफ़्त में आकर बैठने दें। ये संस्था बड़ी लालची है, पुराने समय में तो जब साधु-फ़कीर, गाँव-गाँव घूमते थे तो बोलते थे और कोई भी आकार सुन लेता था, लेकिन ये आचार्य जी के संस्था वाले कहते हैं कि नहीं डोनेशन होना चाहिए, डोनेशन नहीं है तो वोलंटियरिंग (स्वयंसेवा) करी हो तब आओगे।"
तो ठीक है रखो अपनी चतुराई अपने साथ, यूट्यूब में सुनो। और उसमें बीस मिनट का वीडियो है और आठ मिनट चला कि बीच में ऐड (विज्ञापन) आ जाता है। आचार्य जी समझा रहे थे, मुक्ति क्या है, समाधि क्या है, और तब ही अचानक बीच में विज्ञापन आ गया —"ये देखिए नए प्रकार की लान्श़रे "(अंतर्वस्त्र)—अब लगा लो समाधि! होता है न? अब तो वीडियो के बीच-बीच में भी रोक कर विज्ञापन दिखाते हैं। हाँ, देखो यूट्यूब पर, मज़े लो। मैं वहाँ बता रहा हूँ कि करुणा क्या है, अहिंसा क्या है;और बीच में वो तुम्हें मुर्गे का उड़ता हुआ जिस्म दिखाना शुरू कर देंगे कि उड़ रहा है मुर्गा—मुर्गा माने छिला हुआ मुर्गा—माँस उसका उड़ रहा है, लाश गिर रही है। लो, कर लो करुणा और अहिंसा! बड़े होशियार हो न, देख लो यूट्यूब पर।
"तो आचार्य जी आप विज्ञापन क्यों नहीं बंद कर देतें?" नहीं करूँगा। जितना विज्ञापन से आता है, उतना तुम अतिरिक्त आकर के रख दो, तो विज्ञापन बंद कर देंगे। उस विज्ञापन से जो आता है, वो हमारे प्रचार के काम को आगे बढ़ाने में खर्च होता है। और विज्ञापन से जो आता है, उससे दस गुना हम खर्च करते हैं प्रचार में। देखो यूट्यूब पर।
और बताता हूँ, यह उदित खड़ा है, इसने पता है क्या करा है? शास्त्रों पर जितने सबसे ज़्यादा गहरे वीडियो हैं वो सब लॉक कर दिया है। अब धीरे-धीरे मैं पीछे बढ़कर खुलवा रहा हूँ, एक नया चैनल ही बना दिया है—शास्त्रज्ञान नाम से। तो “माखन-माखन” तो यूट्यूब पर है भी नहीं। यूट्यूब पर तो यही सब है बस, जो सवाल पूछते हैं, आकर के, "हवस बहुत उठती है, आचार्य जी, क्या करें?" सीधे एक दिन में ढाई लाख व्यूज़।
पचीसों गीताओं पर, पचासों उपनिषदों पर और दुनिया का कोई ऐसा महत्वपूर्ण ग्रंथ नहीं होगा जिस पर मैंने बहुत-बहुत न बोला हो;उसको आप कौन-सा देख रहे हो यूट्यूब पर! जब आप बोलते भी हो आचार्य जी आपको दो साल से सुन रहा हूँ; तो क्या सुन रहे हो? एक-एक मिनट वाले शॉर्ट्स और उसमें भी चुन-चुन कर वही वाले शॉट कि 'बीवी बहुत सताती है,' 'बॉस कमीना निकले तो'। इसी तरह के तो टाइटल दिए जाते हैं। सब अब इसमें बिल्कुल पारंगत हो गए हैं, ऐसे-ऐसे टाइटल (शीर्षक) देते हैं कि लग रहा है सी ग्रेड मूवी है, तुरंत देखो!
यूट्यूब पर, कह रहे हो, सुन रहे हो; तो क्या सुन रहे हो? यही सब तो —'प्रेम का नाम', 'हवस का काम', 'घर-घर में पॉर्नस्टार' —ये सब बहुत देखा है लोगों ने। पंद्रह-पंद्रह मिलियन, चालीस-चालीस मिलियन इनके व्यूज़ हैं। जो असली विडियोज़ हैं, वो दो सौ, चार सौ व्यूज़ पर पड़े हैं, वैसे हज़ारों हैं।
जल्दी से प्रभावित मत हो जाइएगा अगर कोई कह दे कि उसने आचार्य जी को दो साल से सुना है। दो साल से क्या सुना है? दो साल से कौन-सा वाला कंटेंट (सामग्री) सुना है?
मिलते हैं लोग ऐसे भी, “ओ, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ, बहुत बड़ी फैन हूँ, प्लीज-प्लीज-प्लीज ,” ये-वो, ऐसा, पूरा बता दिया। फिर "मैं सेल्फ़ी ले सकती हूँ?, “हाँ, ले लीजिए।“ “आपका नाम नहीं याद आ रहा, तीन साल से सुन रही हूँ।"
पक्का इन्होंने क्या सुना है? वही जो एक मिनट वाला मसाला होता है। और वो एक मिनट वाला मसाला सुन-सुन कर इनको लगा है कि इन्होंने सुन लिया!
आप संतुष्ट नहीं लग रहीं हैं? (प्रश्नकर्ता से पूछते हैं)