खो गया आनंद? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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खो गया आनंद? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज़ाद मन को पुन: कैसे प्राप्त करूँ? यदि मेरा आनन्द खो गया है, तो पुनः उस आनन्द को कैसे प्राप्त करूँ?

आचार्य जी: खोता नहीं है। अगर होता है, नहीं खोता है। अगर खोया है तो खोने लायक़ ही था, असली नहीं था। आने-जाने वाली चीज़ थोड़े ही है आनन्द। ये सब हमारे भीतरी छल होते हैं, भ्रम कि पहले बहुत आनन्द था अब नहीं है। पहले खुशी रही होगी। सबको यही लगता है कि बचपन में कितना आनन्द था और जब बचपन में थे तो छिछन बहाये, लार टपकाये, भैं-भैं करते रोते घूमते थे कि जब बड़े हो जाएँगे तब पिंटू भैया को मारेंगे।

अब जब बड़े हो गये हैं तो बताते हैं कि बचपन जैसा आनन्द तो कभी था ही नहीं — ‘वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।’ जिसको देखो वही ‘मेरा स्वर्णिम बचपन।' या कि ब्रेकअप के बाद ख़ूब होगा, जब तक वो मेरी प्रेम कहानी थी — ‘पूछो मत, हीर-रांझा फ़ीके पड़े थे, लैला-मजनू कोचिंग माँगने आये थे। ऐसा था मेरा प्रेम प्रसंग, ऐसा था।’ और हक़ीक़त ये है कि जब चल रहा था तब ख़ूब दिन-रात दुआ माँगते थे कि कब ये टरे। नहीं तो ब्रेकअप होता क्यों? लैला-मजनू का ब्रेकअप हुआ था कभी?

पर वर्तमान के झूठ को न देखना पड़े और वर्तमान की चुनौती को न स्वीकार करना पड़े, इसके लिए हम अतीत का एक बहुत बड़ा और ज़्यादा बड़ा झूठ खड़ा कर देते हैं। हम ये नहीं मानते हैं कि हम जैसे हैं सदा से ऐसे ही थे, क्योंकि विकार और वृतियाँ तो हममें जन्मजात हैं, पैदा ही उनके साथ हुए थे। हम कहते हैं, ‘नहीं, हमारा सबकुछ ठीक चल रहा था। अभी आजकल अकस्मात दुर्घटनावश थोड़ा सा ख़राब हो गया है। हम ऐसे है नहीं, जैसे अभी दिख रहे हैं। हम तो बहुत बढ़िया चीज़ हैं। हमने तो बड़े सुनहरे पल जिये हैं। आजकल बस थोड़ी सी गड़बड़ हो गयी है। आजकल, बस आजकल।’

अरे! आजकल नहीं हो गयी है, जीवन सदा से रूखा-सूखा था। जिसको देखो वही बताने आता है कि बस आजकल कुछ हो गयी है। पुलिस वाले ने किसी को पकड़ा छेड़ते हुए और जहाँ थप्पड़ मारा, तो बोले, ‘आजकल।’ वो बोले कि तू सदा का लफंगा है, आजकल? पर सबको यही बताना है।

नहीं बेटा, ऐसा नहीं है। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) सबसे पहले ये स्वीकार करो कि जो कुछ भी आता-जाता है, प्रकट-अप्रकट होता है, उठता-गिरता है उसमें दम नहीं है। जिस चीज़ में दम होता है उसमें ऐसी कशिश होती है, ऐसा आकर्षण कि तुम उसे जाने दोगे ही नहीं। अगर वो चीज़ असली थी तो तुम्हारे जीवन से विदा हुई कैसे, विदा कैसे हो गयी?

एक बार तुमने विनम्रतापूर्वक ये मान लिया कि ग़लती नयी नहीं है, बहुत किसी पुरानी ग़लती को ही मैं आगे बढ़ा रहा हूँ, फिर सम्भावना उठती है उस ग़लती को ठीक करने की, फिर सम्भावना उठती है अनन्त आनन्द में प्रवेश की। अनन्त — जो अब जाएगा नहीं।

बात समझ रहे हैं?

अगर अभी आपके जीवन में दुख, बेचैनी, उदासी वगैरह कुछ हो, तो कृपा करके अपनेआप को ये ढाँढस न दें कि आपके साथ कोई नयी-नयी अनहोनी घटना घट गयी है। पहले भी ये उदासी थी, बस अप्रकट थी। पहले भी ये थी बस अप्रकट थी, छुपी हुई थी। मुस्कान तले दबी हुई थी। फिर मुस्कान सूखकर झड़ गयी, मुस्कान के पीछे की उदासी सामने आ गयी। और ये उदासी मुस्कान से ज़्यादा सच्ची है। क्यों? क्योंकि उदासी तो पहले भी थी अप्रकट और अभी भी है प्रकट, मुस्कान रवाना हो गयी झड़कर, तो ये उदासी हमारा सत्य है — बीते हुए कल का भी और आज के दिन का भी।

हम सदा से उदास ही हैं और इसको कोई अपने ऊपर व्यक्तिगत आपेक्ष मत मानिएगा। हर आदमी जो पैदा होता है वो उदासी के लिए ही पैदा होता है। आप इसमें कोई अपवाद नहीं हो गये। और न अगर आप अपनी उदासी स्वीकार कर लें, तो ये कोई बड़े व्यक्तिगत अपमान की बात हो जाएगी।

बुद्ध भी उदास ही पैदा हुए थे। अवतारों को भी उदासी ही झेलनी पड़ती है। जन्म लिये का दंड है, जो जन्मे सो पाये। ये जन्म लेने का दंड है। जन्म क्यों लिया? उदास नहीं होना था तो जन्म नहीं लेना चाहिए था। पैदा हुए हो, तो भुगतोगे। ये स्वीकारोक्ति फिर मूल समाधान की राह प्रशस्त करती है।

बात समझ रहे हैं?

आप क्या करेंगे? अगर आपने अपनेआप को ये जता दिया कि बीच में ठीक चल रहा था आजकल गड़बड़ चल रहा है, तो जानते हैं आप क्या करेंगे? जो कुछ बीच में चल रहा था आप कोई-न-कोई तरीक़ा निकाल लेंगे उसी को दोहराने का। और आप तरीक़ा पा ज़रूर जाएँगे। क्योंकि बीच में जो चल रहा था वो सब नक़ली था। नक़ली चीज़ें तो आसान होती हैं, ले आएँगे आप। पर जैसे पहले जो चल रहा था नक़ली था, वैसे ही उस नक़ली का भविष्य में आप जो दोहराव लेकर आएँगे वो भी नक़ली ही होगा। जैसे पहले जो चल रहा था वो थमा नहीं, मिट गया, वैसे ही भविष्य में आप जो लेकर के आएँगे वो थमेगा नहीं, मिट जाएगा।

अधिकांशत: हमारे भविष्य की योजनाएँ यही होती हैं — अतीत का एक झूठा दोहराव। अतीत का दोहराव मात्र नहीं, अतीत का झूठा दोहराव। दोनों में अन्तर है। अतीत में दुख था अगर ये बात हम मान लें तो क्या हम भविष्य में भी अपने अतीत को दोहराना चाहेंगे? नहीं।

तो हम दो गड़बड़ियाँ करते हैं। पहली बात तो अतीत में जो कुछ था उसको हम अपनी स्मृति में ही झुठला देते हैं। आदमी बड़ा कारीगर है, हैरतंगेज़ कारनामे करता है। ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ़ तथ्यों को ही नज़र-अन्दाज़ करते हैं, हमें जो तथ्य मिल गये थे, अपनी स्मृति में हम उनके साथ घपला कर देते हैं। हुआ कुछ और होता है याद कुछ और रख लेते हैं।

आप लोगों से मिलेंगे, वो बिलकुल भरोसे के साथ, दावे के साथ बोलेंगे, ‘तुम को पता है ऐसा-ऐसा हुआ था।’ आप कहेंगे, ‘ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं।' वो कहेंगें, ‘नहीं, हुआ था।’ आप प्रमाण दिखा देंगे, मान लीजिए आपने कोई तस्वीर दिखा दी या आपने कोई डॉक्यूमेंट (दस्तावेज़) दिखा दिया उनको, वो तब भी कहेंगे, ‘नहीं-नहीं, ये सब नहीं, हमें अच्छे से याद है, पूरा याद है मुझे।’ हमारी स्मृति भी बड़ी धोखेबाज़ है। बुद्ध कहते हैं कि मुक्ति की ओर बढ़ने के जो अंग हैं उसमें से एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है सही स्मृति, सम्यक् स्मृति। सम्यक् स्मरण — याद तो सही रखो।

क़ुरान कहती है, ‘जिन पर मेहरबानी हो जाती है उनकी याददाश्त ठीक हो जाती है।’ ये बात बड़ी अजीब है, पर इस बात में मर्म है। क्योंकि हम अतीत की झूठी स्मृतियाँ रखना चाहते हैं। अतीत गड़बड़ था, उसको हमने अपनी स्मृति में कैसा सँजो लिया…। कैसा सँजो लिया? जैसे कि पता नहीं कितना आनन्दप्रद था — ‘रिमझिम-रिमझिम सोने की झालरों की बारिश हुआ करती थी आज से पाँच साल पहले मेरे जीवन में।'

जब अतीत के प्रति हमने ये झूठी स्मृति रखी तो अब हम भविष्य में इसी झूठी स्मृति को दोहरा भी देंगे और यही फिर हमारे जीने का तरीक़ा बनता है। हर आदमी भविष्य के लिए जी रहा है और भविष्य में वो चाह क्या रहा है? झूठे अतीत को दोहराना, झूठे अतीत को दोहराना।

अगर नहीं मानोगे कि अतीत गड़बड़ रहा है, तो सज़ा ये मिलेगी कि भविष्य में भी उसी अतीत की पुनरावृत्ति होगी। चाहते हो ऐसा? तो चुपचाप ईमानदारी से, विनम्रता से मान लो कि आज तक जो जिया है वो सब गड़बड़-ही-गड़बड़ रहा है। कभी वो गड़बड़ प्रकट रही है और कभी अप्रकट रही है। कभी दुख सीधा-सीधा सामने रहा है और कभी दुख छुपा हुआ रहा है। रहा तो दुख ही है।

ये मानना बड़े साहस, बड़े जीवट का काम है। क्योंकि ये मान लिया तो मानना पड़ेगा कि आज तक जो जिया, आज तक जो जहाँ-जहाँ ऊर्जा का निवेश किया, जितने काम किये, जितने सम्बन्ध बनाये वो सब गड़बड़ है। तो कोई बहुत ही दिलेर आदमी चाहिए ये मानने के लिए कि आज तक का जो पूरा अतीत रहा है, वो नहीं ठीक रहा है और मैं ऐसी जगह पर खड़ा हूँ जहाँ मैं सबकुछ एक झटके में अस्वीकार कर सकता हूँ कि हाँ, आज तक जिये जीवन का बहुत मूल्य नहीं है।

लेकिन जो ये दिलेरी दिखा पाये, उसके लिए ही फिर एक वर्तमान जीवन की सम्भावना खुलती है। वो फिर ये नहीं कहता कि मुझे भविष्य में पुराने अतीत को दोहराना है। अब उसके लिए भविष्य का बहुत कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। उसे दोहराना ही नहीं है, कह रहा है, ‘दोहराऊँ क्या? दुख था, उसको दोहराकर क्या मिलेगा, भाई!' जब आपको कुछ दोहराना नहीं तो आपकी ज़िन्दगी से भविष्य विदा हो गया। अब वर्तमान खुलता है आपके लिए।

समझ रहे हैं?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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