प्रश्नकर्ता: प्रणाम गुरुदेव। चरण स्पर्श। मुझे प्रश्न नहीं करना है एक अनुरोध है कि आपके पिछले शिविर से जो कुछ सीखा उससे कामवासना में निम्नता आयी जिससे पत्नी की ओर से खिन्नता हमको समझ में आयी। पत्नी से सत्र से जुड़ने का अनुरोध भी किया आरम्भ में वो तैयार नहीं हुई लेकिन पिछले तीन दिनों से सत्र में हम दोनों मौजूद हैं।
कुछ दिनों से लग रहा है कि कोई हमारी मन में कामना भी नहीं है और निष्कामता भी स्पष्ट नहीं हो पा रही। मानसिक तौर पर कुछ धुआँ जैसा लगता है कि कुछ भी नहीं है, कोई नहीं है। सबकुछ धुएँ जैसा अस्पष्ट है। कुछ कामना भी नहीं हो रही है और निष्कामता भी नहीं हो पा रही।
आचार्य प्रशांत: किसी व्यक्ति को वास्तव में दूसरे व्यक्ति का शरीर नहीं चाहिए। मेरी ये बात आपको चौंकाएगी क्योंकि विशेषकर आजकल हम देखते हैं कि इंसान-इंसान के शरीर के पीछे ही बड़ा आतुर है। है न? बलात्कार और फिर बलात्कार के बाद हत्या और इस तरह के कितने ही मामले रोज़ प्रकाश में आते हैं। लेकिन यकीन मानिए कामी-से-कामी आदमी को भी वास्तव में शरीर नहीं चाहिए।
शरीर से तो हम काम चलाते हैं, काम-चलाऊ चीज़ शरीर है किसी तरह शरीर के साथ गुज़र-बसर कर लेते हैं। क्योंकि जो हमें वास्तव में चाहिए वो मिल नहीं रहा होता है तो शरीर को हम एक सस्ते विकल्प की तरह इस्तेमाल करते हैं। बात समझ रहे हैं? जैसे बच्चे को माँ न मिल रही हो तो आप उसको धाय दे-दें, गोद नहीं मिल रही उसकी तो उसको आप खिलौना दे-दें, दूसरे के शरीर से अपने भीतर की रिक्तता की पूर्ति करना ऐसा ही है कि जैसे कोई बच्चा खिलौने से दिल बहलाये।
दिल बहल जाता है थोड़ी देर को और जब बहल भी रहा होता है तो पता होता है कि ये वो चीज़ तो है ही नहीं वास्तव में, कोई खिन्न नहीं होगा किसी से। काम का रिश्ता अगर टूटे भी तो किसी में किसी से कोई खिन्नता नहीं आएगी, अगर ‘काम के रिश्ते’ का स्थान ले-ले ‘प्रेम का रिश्ता’।
लेकिन अगर प्रेम न हो और कुल सम्बन्ध में था शरीर और शरीर भी छिन जाए तो फिर क्षुब्धता आती है फिर चिढ़ उठती है फिर व्यक्ति को पूछना पड़ता है कि सम्बन्ध में बचा ही क्या। अब बचा ही क्या? और सवाल जायज़ है, ‘अब बचा ही क्या?’ या तो ये करिए कि अगर सम्बन्ध में से जो प्राकृतिक चीज़ें होती हैं उनको कम कर रहे हैं तो उस कमी की पूर्ति करिए ऊँची चीज़ों से कि भाई शरीर का आदान-प्रदान अब उतना नहीं होता लेकिन अब करुणा का, ज्ञान का, प्रेम का आदान-प्रदान होता है। फिर कोई शिकायत नहीं करेगा।
बल्कि अब जो दूसरा व्यक्ति है वो अनुग्रहीत हो जाएगा, ज़्यादा आनन्दित अनुभव करेगा, कहेगा, ‘अब रिश्ते में ज़्यादा गहराई आ गई। पहले कुल क्या था? यही नोचा-नोची चलती थी कुछ देर के लिए हो जाता था इससे ज़्यादा क्या? अब जो मिल रहा है वो ज़्यादा गहरा, ज़्यादा स्थायी है, ज़्यादा असली है वो छिनता नहीं है।
तो आपकी अगर आध्यात्मिक प्रगति हो रही है तो उसका फल अपने निकट के लोगों के साथ ज़रूर बाँटें। और ये बात सब पर लागू होती है क्योंकि देखिए ये निश्चित रूप से होता है कि आदमी की विचारणा में, मन में, चेतना में जब गहराई आती है, शुद्धि आती है तो वो बहुत सारे ऐसे काम करने से थोड़ा हिचकिचाने लगता है जिनको वो पहले आँख मूँदकर के खूब कर जाता था।
दोस्त-यारों के साथ, जैसे इन्होंने कहा, व्यर्थ समय गुज़ारने में, फिर आदमी हिचकिचाने लगता है; वो कहता है, ‘नहीं-नहीं-नहीं।’ टीवी रेडियो पर व्यर्थ की चीज़ें देखने-सुनने से आदमी कतराने लगता है। इसी तरीके से ये जो बहुत सारे विवेकहीन समाजिक उत्सव होते है आदमी की उनमें जाने में भी रुचि ज़रा कम हो जाती है। तो बहुत सारी चीज़ें हैं जो ज़िन्दगी से हटने लगती हैं। जब ये सब हटने लगे न ज़िन्दगी से, तो खाली जगह मत छोड़ दीजिएगा। खाली जगह छोड़ेंगे तो दूसरों को भी खीझ होगी और आपको भी खीझ हो जाएगी। आप कहेंगे, ‘आध्यात्म ने तो हमारा छीन लिया कुछ।’ और छीनेगा तो है ही। आध्यात्म का मतलब ही ये है कि बहुत सारी चीज़ें जो अभी आप कर रहे हैं वो फिर व्यर्थ लगने लगेंगी आपका वो करने में मन ही नहीं लगेगा।
तो वो जो खाली जगह फिर पैदा हो — ‘रिक्तता’, उसको किसी ऊँची च़ीज से भरिए। वो जो रिक्तता पैदा हुई है वो मौका है, उसको किसी ऊँची-से-ऊँची चीज़ से भरिए। फिर मज़ा आएगा। फिर आनन्द देखिए, फिर शिकायत कोई नहीं करेगा बल्कि सौ बार आकर धन्यवाद देंगे। कहेंगे कि तुमने ख़ुद को तो बनाया ही अपने स्पर्श से मुझे भी सँवार दिया, धन्यवाद!
ये सावधानी सबको बरतनी है। सिर्फ़ नकारने से, काट देने से और रोक देने से, काम नहीं चलेगा। कुछ अगर घटाया है जो क्षुद्र था, तो अब कुछ जोड़िए भी जो ऊँचा है, महत् है, विशाल है।
YouTube Link: https://youtu.be/LFqhkraTBes