कौन हैं शिव?

Acharya Prashant

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कौन हैं शिव?
शिव कोई ऐसी इकाई नहीं हैं, जो अपना कोई निजी, पृथक या विशिष्ट व्यक्तित्व रखती हो। हम सब जहाँ पहुँचना चाहते हैं, हमारी एक-एक गतिविधि जिस अवस्था को हासिल करने के लिए है, उसका नाम है—शिव। सब समय, सब स्थान मन का विस्तार हैं और शिव मन का केन्द्र हैं। शिव इसलिए नहीं हैं कि उनके साथ और बहुत सारे किस्से जोड़ दो। शिव इसलिए हैं ताकि हम अपने किस्सों से मुक्ति पा सकें। शिव कोई देवता, भगवान या ईश्वर नहीं हैं, शिव सत्य मात्र हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, आज महाशिवरात्रि है तो महादेव के बारे में कुछ बता दीजिए कि कैसे उनसे हमारी सभ्यता जुड़ी हुई है और कैसे हम मानवों के लिए वे भगवान हैं? किस तरह से वे हमारे लिए उपयोगी हैं? कुछ ऐसा बता दीजिए कि शिवमय आज ही हो जाए हम लोग।

आचार्य प्रशांत: यह ऐसे ही सवाल है कि कोई पूछे कि, "बताइए कब ऐसे हुआ और कैसे ऐसे हुआ कि पेड़ की पत्ती का संबंध पेड़ की जड़ से हो गया?" सिविलाइजेशन, सभ्यता की बात कर रहे हैं। पूछ रहे हैं कैसे उसका महादेव से संबंध बैठा। पूछा है कि कैसे वे उपयोगी हैं हमारे लिए।

सभ्यता तो इंसान की बनाई हुई चीज है न? इंसान की ही जो जड़ है, इंसान का ही जो केंद्र बिंदु है उसकी तरफ इशारा करने के लिए शिव शब्द की रचना हुई। शिव कोई व्यक्ति थोड़े ही हैं। वो कोई ऐसी इकाई नहीं है जो अपना कोई निजी, पृथक या विशिष्ट व्यक्तित्व रखती हो। तुम अभी प्रश्न पूछ रहे हो क्योंकि समाधान चाहिए। ये जो समाधान पा लेने की चाह है, यह मन का शिवत्व के प्रति प्रेम है। और अगर मिल गया समाधान तो वह है मन का शिवत्व में लीन हो जाना। हम सब जहाँ पहुँचना चाहते हैं, हमारी एक-एक गतिविधि, जिस जगह को, बिंदु को, अवस्था को हासिल करने के लिए है, उसका नाम—शिव।

जिस तरीके से तुमने प्रश्न रखा है, ऐसा लग रहा है जैसे शिव को कोई ऐतिहासिक पात्र समझ रहे हो कि जैसे आदिकाल में कोई शिव हुए थे या महादेव हुए थे, इस तरह की बातों से बचना।

जो समय के पार हो, उसे समय के किसी बिंदु पर अवस्थित नहीं करते। न तो यह कह देते हैं कि वह कल-परसों का है, न यह कह देते हैं कि वह आदिकालीन है। न यह कह देते हैं कि वह सागरों में विराजता है, न यह कह देते हैं कि वह पहाड़ की चोटियों पर बैठा है।

जो समय में कहीं पर नहीं है वो किसी स्थान पर भी नहीं हो सकता। सब समय, सब स्थान मन का विस्तार हैं और शिव मन की मंजिल हैं, मन का केंद्र हैं, मन की प्यास हैं। सब स्थानों के नाम होते हैं क्योंकि सब स्थान तो मन के विस्तार में ही हैं। मन के विस्तार में जो कुछ होगा उसका नाम होगा, उसकी कहानी होगी, उसके गुण होंगे। लेकिन जो मन के केंद्र पर है, न उसका कोई नाम होता है, न उसकी कोई कहानी होती है, न उसका कोई गुण होता है, न उसका कोई स्थान होता है। लेकिन हमारी ज़िद कि कुछ तो उसको कहकर बुलाना है तो फिर जो छोटे-से-छोटा, अतिसंक्षिप्त और शुभ नाम हो सकता था, वो दे दिया शिव।

तो शिव इसलिए नहीं हैं कि उनके साथ और बहुत सारे किस्से जोड़ दो। शिव इसलिए हैं ताकि हम अपने किस्सों से मुक्ति पा सकें। शिव हमारे सब किस्सों का लक्ष्य हैं, गंतव्य हैं। शिव को भी एक और किस्सा मत बना लो।

आजकल खूब चलन है कि शिव ने ये करा फिर शिव ने वो कहा फिर शिव ऐसे थे, शिव प्रथम योगी थे, ये सारी बातें। हालाँकि हमारे पुराणों में भी इस तरह की बातें खूब वर्णित हैं। शिव-पुराण ही है पूरा एक। लेकिन उन सबको भी पढ़ते वक्त इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि सगुण रूप में शिव की प्रस्तुति सिर्फ श्रोताओं के लिए, पाठकों के लिए, पहले चरण के नए-नए साधकों के लिए की जाती है।

नए आदमी को निर्गुण, निराकार बहुत बेबूझ लगता है। अहम् का वास्ता जीवनभर सगुण और साकार इकाइयों से ही पड़ता रहा है न और अहम् ने उनसे रिश्ते भी खूब बना लिए हैं। तो जब उसके सामने ये सम्भावना भी लाई जाती है कि कुछ हो सकता है जो आपके सब अनुभवों से न्यारा हो, आगे का हो—आपके सारे अनुभव तो सगुण के हैं, साकार के हैं—कुछ हो सकता है जो आपके सब अनुभवों से अतीत हो, तो अंहकार को ये बात पसंद नहीं आती।

क्योंकि अगर हमारे अनुभवों से आगे का कुछ है तो इसका मतलब हमारे अनुभवों में बहुत दम नहीं है। हमारे अनुभव फिर ख़ारिज किए जा सकते हैं लेकिन हमने तो अपना सारा जीवन उन्हीं चीज़ों पर आश्रित किया हुआ है न जो आँखों से देखी, कानों से सुनी, हाथों से छुई, मन से सोची जा सकती हैं। और वो सारा खेल किसका है? सगुण साकार का। तो नए-नए आदमी का मन आसानी से निर्गुण में रमता नहीं। तो उसकी मदद के लिए फिर कुछ किस्से बता दिए जाते हैं, सिर्फ़ मदद भर के लिए। वो किस्से उपयोगी हैं पर सत्य तो शिव ही हैं। किस्से सच नहीं हैं। किस्सों से लाभ ले लो पर सच तो शिव मात्र को जानो। ठीक है?

देवता नहीं हैं शिव। पूछ रहे हो महादेव से हमारी सभ्यता का तुक कैसे बना, रिश्ता कैसे बना। ये सब काम देवताओं के होते हैं। उनके बारे में तुम पूछ सकते हो कि “वैदिक सभ्यता के किस चरण में वरुण और इंद्र और मारुत आदि देवता होते थे? और फिर किस चरण में अग्नि आदि देवताओं की महत्ता कम हो गई?”

देवता आदमी के दिमाग की उपज हैं। इसीलिए उनका नाता तुम समय आदि से जोड़ सकते हो। तुम ये तक कह सकते हो कि “ईसापूर्व इतने हज़ार वर्ष से इतने हज़ार वर्ष तक अमुक देवता का ज़्यादा वर्चस्व था और फिर हज़ार साल बीतने के बाद इस साल से इस साल तक ये कुछ नए देवता हैं जो ज़्यादा प्रभावशाली हो गए।” ये सब बातें वहाँ करी जा सकती हैं।

शिव को देवता मत बना लो। पर मन, देवताओं के साथ उसे सुविधा रहती है क्योंकि देवता हमारे ही जैसे हैं, खाते हैं, पीते हैं, चलते हैं। उनके भी हाथ-पाँव हैं, वाहन है। लड़ाइयाँ करते हैं, पीटे जाते हैं। उनकी भी पत्नियाँ हैं। उनकी भी कामनाएँ हैं तो शिव को भी देवता बना लेने में हमें बड़ी रुचि रहती है। पर अगर यह कर लोगे तो अपना ही नुकसान करोगे।

शिव न देवता हैं, न भगवान हैं, न ईश्वर हैं, सत्य मात्र हैं। और अंतर करना सीखो। देवता, भगवान, ईश्वर ये तीनों एक ही कोटि में आते हैं। इनका सम्बन्ध मन से है। ये मन के विस्तार के लक्षण हैं। तीनों में से ही ब्रह्म-सत्य कोई नहीं। शिव ब्रह्म-सत्य मात्र है। न देवता ब्रह्म-सत्य है, न भगवान, न ईश्वर। शिव है। हाँ जो कहानियाँ वगैरह हैं जिसमें तुम शंकर-विवाह वगैरह पढ़ते हो—पढ़ते हो न? कि शंकर जी चले भूतों की बारात लेकर के, पार्वती को ब्याहने और ये सब—वो सब किस्से किनके हैं? वो किस्से सब शंकर भगवान के हो गए। शंकर भगवान भी आवश्यक हैं क्योंकि जैसा मैंने कहा मन आसानी से निर्गुण निराकार में रमता नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, पिछले वर्ष शिवरात्रि तक मित्रजनों के साथ धतूरे के नशे में मग्न रहता था। इस वर्ष आपके साथ सत्संग करने का मौका मिला। क्या अध्यात्म भी एक प्रकार का नशा है जो मुझे यहाँ खींचकर ले आया?

आचार्य प्रशांत: इस सवाल से क्या पाना चाहते हो? ये तो बड़ा काव्यात्मक सवाल है कि क्या अध्यात्म भी नशा है। मैं कह दूँगा नशा है, पन्द्रह मिनट बोल दूँगा, तुम पाना क्या चाहते हो? नशा?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: फिर?

प्रश्नकर्ता: जब से आपको सुन रहा हूँ तब से अध्यात्म की तरफ और आकर्षण हुआ है और अब खिंचा ही चला जा रहा हूँ इसकी तरफ। तो मैं जानना चाहता हूँ कि इतनी क्या शक्ति है जो इस तरफ और-और खिंचे चला जा रहा हूँ? और सुनना चाहता हूँ आपको।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे पीछे कोई सांड पड़ा हुआ हो—यहाँ ऋषिकेश में बहुत हैं, आजमाना—और तुम भाग रहे हो और भागते-भागते गुज़रो तुम एक बरगद के पेड़ के नीचे से और पेड़ से पूछो कि “वटवर, आपमें क्या शक्ति है जो मैं आपकी तरफ खिंचा चला आया?” तो क्या बोलेगा पेड़? बोलेगा “मुझमें कोई शक्ति नहीं है, तुम अपनी जान बचा रहे हो।" और फिर आगे बढ़ोगे कुछ और तुमको मिल जाए। पर्वत से पूछ रहे हो, “हे नागपति! आपमें क्या शक्ति है जो मैं आपकी तरफ खिंचा चला आया?” फिर जा रहे हो, गंगा किनारे पहुँच गए। वहाँ कह रहे हो, “हे मंदाकिनी की बालुका! हे रेणुका! आपमें क्या शक्ति है, मैं खिंचा चला आया?” मामला सांड का है। उसका नाम नहीं ले रहे। मुझमें कुछ विशेष नहीं है। मेरी ओर नहीं खिंचे चले आ रहे, अपनी आफतों से दूर भाग रहे हो।

अध्यात्म में कुछ खास मिल थोड़े ही जाता है कि किसी दिशा में जा रहे हो तो वहाँ पर कुछ पा लोगे। पाने का नाम नहीं है, जान बचाने का नाम है अध्यात्म। पाना क्या है? नशे में थे, बेहोश थे। कभी कोई सांड अपनी सींग से कोचता था। कभी किसी की दुलत्ती खा लेते थे। नशा इतना गहरा था कि पिट कर भी हिलते नहीं थे। अब बस ज़रा-सा होश आया है तो अपनी जान बचाने के लिए सार्थक काम कर रहे हो। दूर भाग रहे हो उन सब चीज़ों से जो तुम्हारी दुर्गति करती हैं। यही अध्यात्म है।

कुछ पाने के लिए नहीं भाग रहे हो। जो सांड से जान बचाने को भाग रहा है, बताओ वो प्राप्ति की दिशा में भाग रहा है क्या? वो मुक्ति की दिशा में भाग रहा है। इन दोनों में अंतर समझना।

दुनिया में आदमी जब किसी दिशा भागता है तो प्राप्ति के लिए भागता है। अध्यात्म में भी बहुत ज़ोर से भागता है आदमी पर सिर्फ मुक्ति के लिए, प्राप्ति के लिए नहीं।

ये थोड़ी है कि सांड ने तुम्हें दौड़ा लिया तो बहुत ज़ोर से दौड़ोगे तो तुमको कंठहार मिल जाएगा, हीरे-मोती मिल जाएँगे। पूछें “आपको ये सब क्यों उपलब्ध हुआ मान्यवर?” बोलें, “वो है पीछे लफंगा सांड, उसने दौड़ाया और हम बहुत ज़ोर से दौड़े तो हमे उसका पुरस्कार मिला है। ये देखो हीरे-मोती।” जब सांड दौड़ाए और तुम दौड़ लो तो पुरस्कार में हीरे-मोती नहीं मिलते हैं, बस जान बचती है। अध्यात्म यही है कि एक ही ज़िन्दगी है बर्बाद करे दे रहे हो, रोज़ पिट रहे हो, अरे बचा लो जीवन।

मेरी तरफ इसलिए आ रहे हो क्योंकि यहाँ पिटाई नहीं हो रही। यहाँ कुछ विशेष नहीं है। यहाँ तेल-मालिश नहीं हो रही है। यहाँ तुम्हें कोई खास सुविधा-सहूलियत नहीं मिल रही है। समझ रहे हो? यहाँ कोई प्राप्ति नहीं हो रही है तुमको। बस ये है कि जब यहाँ आ रहे हो, इधर की तरफ बढ़ रहे हो तो उन सब चीज़ों से जान बचा पा रहे हो जिसमें अन्यथा फँसे रहते थे।

इस दरवाज़े की खासियत ये है कि यहाँ सांड नहीं प्रवेश कर सकता। बस ये है। इसलिए यहाँ आते हो। बाहर निकलोगे तो वो खड़े हैं इंतज़ार में और बहुत गुस्से में हैं। बिल्कुल आवाज़ें कर रहे हैं, उनके मुँह से झाग निकल रहा है। अपनी खुरों से वो ज़मीन खोद रहे हैं। पूँछ फटकार रहे हैं। उनका शिकार यहाँ आकर थोड़ी देर के लिए सुरक्षित हो गया है। बाहर निकलोगे फिर दौड़ाए जाओगे। फिर (यहाँ) आ जाना।

शिवरात्रि है आज, तो ध्यान शिव की प्रतिमा पर नहीं दो, शिव की महिमा पर नहीं दो। शिवरात्रि मनाने का, महाशिवरात्रि के उत्सव का सबसे अच्छा तरीका है कि तुम ध्यान अपनी हालत पर दो। यही शिवत्व है।

शिव माने बोध। ऋभुगीता पढ़ोगे तो वहाँ बार-बार शिव प्रकाश रूप ही हैं। उस प्रकाश में, उस रौशनी में खुद को देखो, अपनी हालत को देखो, अपनी ज़िन्दगी को देखो। यही महाशिवरात्रि का पर्व है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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