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कौन है गीता का पात्र? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कौन है गीता का पात्र? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। अभी का जो संदर्भ है, कृष्ण भगवान जो अर्जुन को समझा रहे हैं कि, ‘जब हम कर्म कर रहे हैं अर्जुन, तो तुम क्यों नहीं कर रहे?’ तो ये बात मुझे समझ में नहीं आयी कि उनका निष्कामकर्म का प्रयोजन क्या है? अहम् को—जो सत्य की खोज में रहता है या सत्य की तरफ़ बढ़ता है—जो शक्ति चाहिए सत्य की तरफ़ बढ़ने के लिए वो प्रदान करना; क्या ये कृष्ण के निष्कामकर्म का प्रयोजन है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, आपने अभी माईक पकड़ रखा है, आपकी गर्दन एक ओर को झुकी हुई है, आपकी आँखों में कौतूहल है; आप जानते हैं आप क्या चाह रहे हैं? आप जिसको चाह रहे हैं उसको ही कृष्ण का नाम दिया गया है। तो कृष्ण को चाहने की वजह से ही अभी आप गति कर रहे हैं न! ये प्रश्न एक तरह की गति है, क्रिया है। अभी करी न? ये क्यों प्रश्न पूछा है आपने? आपको समाधान चाहिए; उसी समाधान का नाम कृष्ण है।

तो कृष्ण कह रहे हैं, 'मैं ही तो सारी गति करा रहा हूँ। मैं न होता, तुम्हें मेरी चाहत न होती, तो तुम ये सवाल नहीं पूछते।' तो ये सवाल किसने पुछवाया? तो इसलिए कहा जाता है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसे करवाने वाले कृष्ण ही हैं।

देखो उन्होंने सवाल पुछवा दिया! अब अगर मैं जवाब दूँगा तो वो जवाब भी किसलिए है? ताकि कोई समाधान मिल सके और समाधान का ही दूसरा नाम क्या है? कृष्ण। तो देखो कृष्ण ने जवाब भी दिलवा दिया! कृष्ण ही पूछ रहे हैं, कृष्ण ही जवाब दे रहे हैं; अहंकार फ़ालतू फुदक रहा है, उसको लग रहा है, ‘मैं कर रहा हूँ।’ देखो कैसे दिख रहे हैं! (प्रश्नकर्ता की तरफ़ इशारा करते हुए)।

प्र२: ये जानना भी ऑटोमेटिक है कि कृष्ण पूछ रहे हैं और कृष्ण ही जवाब दे रहे हैं?

आचार्य: अगर ये जानो, तो कृष्ण पूछ रहे हैं; ये नहीं जानोगे, तो तुम पूछ रहे हो।

प्र२: पर इस भाव में रहते-रहते…

अचार्य: भाव नहीं है, भाव नहीं है। मैं अगर बोल रहा हूँ, मैं अगर प्रशांत बनकर बोलने लग जाऊँ, तो प्रशांत ही बोल रहा है। मैं कृष्ण बनकर बोलने लग जाऊँ तो भी प्रशांत ही बोल रहा है।

प्र२: तो फिर कोई वेश होगा उनका तो कैसे पता चलेगा?

आचार्य: पता नहीं, मैं कैसे उसका अनुमान लगाऊँ। मुझे प्रशांत बनकर बस नहीं बोलना है। मैं प्रशांत बनकर नहीं बोल रहा, तो काम कृष्ण का हो रहा है।

प्र२: और इसीलिए अंडरस्टैंडिंग (समझ) में रहना ही ज्ञान है?

आचार्य: प्रशांत में न रहना ज्ञान है। क्योंकि जैसे ही आप कहोगे न फ़लानी चीज़ में रहना ज्ञान है, पता नहीं कौनसी चीज़ पकड़ लो, मुझे डर लगता है। आप अंडरस्टैंडिंग के नाम पर कोई कंक्लूजन (निष्कर्ष) पकड़ लोगे और कंक्लूजन सब गड़बड़ होते हैं।

प्र२: तो रास्ता क्या है?

आचार्य: राम जानें क्या रास्ता है। मैं रास्ता बनाऊँगा तो ग़लत ही हो जाएगा। मुझे बस अपने रास्ते पर नहीं चलना है।

प्र२: तो मैंने एक चीज़ जानी है कि अहंकार जो है वो बीच में आता है, हर चीज़ का विश्लेषण करता है, ‘हाँ और न’ करता है। मैंने आपकी 'अहम्' किताब में पढ़ा था कि जो भी विचार आता है वो एक तरह का मल है, जिसको त्यागना ज़रूरी है। वो आया है, उसे जाना भी ज़रूरी है। आप उसको विचारिए मत, उसको समझिए मत। तो इस अंडरस्टैंडिंग के बाद वो चाहत तो अभी वहीं की वहीं है। आज अगर मैं इस चीज़ को समझता हूँ कि कहने वाला भी कृष्ण है, पूछने वाला भी कृष्ण है, बताने वाला भी कृष्ण है…

आचार्य: आपको ये बात कहनी ही नहीं चाहिए। और मैंने कह दी है, उसको मेरी ग़लती मान लीजिए। कुछ बातें कहने का अधिकार सिर्फ़ उसको होता है जो उन बातों को जी रहा हो। जानना बहुत व्यर्थ की बात है, जानने के नाम पर आप कुछ भी कर लेते हो। कोई प्रमाण है कि जानते हो? गीता ने कह दिया, आप जान गए – ऐसे कैसे जान जाओगे भाई?

मैंने कह दिया, आपने सुन लिया, आप जान गए – ऐसे नहीं जाना जाता, जी कर जाना जाता है। तो कुछ बातें कहने का अधिकार सिर्फ़ उनको होता है जिन्होंने जी हों।

आप तो यही देखते रहिए, सचेत रहिए कि कहीं आप तो नहीं बोल रहे। आप नहीं बोल रहे माने आपकी वृत्तियाँ, आपका अहंकार, आपके अतीत, आपके पूर्वाग्रह, ये सब तो नहीं बोल रहे हैं। आपको बस ये जानना है। कृष्ण बोल रहे हैं, कृष्ण सुन रहे हैं, वो हटा दीजिए; वो मैंने बोला नहीं, आपने सुना नहीं, छोड़ दीजिए।

प्र२: सिर्फ़ अवेरनेस में रहना है कि क्या हुआ?

आचार्य: आप कोई-न-कोई सिद्धांत बनाना चाहते हो, आप जो भी सिद्धांत पकड़ोगे, आपको भारी पड़ेगा। आप सुरक्षा ढूँढ रहे हो।

प्र२: बिना सिद्धांत के कैसे आगे चलेंगे?

आचार्य: मैं बिना सिद्धांत के जवाब कैसे दे रहा हूँ?

प्र२: स्पॉन्टेनियस (स्वतः स्फूर्त)।

आचार्य: बस वैसे ही। जैसे आपने सवाल पूछ लिया था बैठे-बैठे। किसी सिद्धांत से पूछा था?

प्र२: नहीं, एकदम से आया था।

आचार्य: मज़ा आया था न?

प्र२: हाँ। मतलब ऐसे ही है कि बस ले लो और दे दो।

आचार्य: बस। और फिर माईक भी मिल गया अनुकम्पा की तरह। आपने अपनी ओर से शुरुआत कर दी, देखिए कृष्ण ने कहा, ‘चलो ठीक है! अब इसको मेरी इतनी ही कामना है कि इसने अनुमति भी नहीं माँगी, अनुशासन भी भंग कर दिया, तो चलो वत्स इसको माईक प्रदान किया जाए।‘ तो ये सब हो जाता है, इसका मतलब ये नहीं कि और लोग ये सब करने लगें।

प्र२: एक छोटा-सा प्रश्न और। सुबह बात हुई थी जिसमें हम देह की बात कर रहे थे। तो देह से मैं जो समझा वो ये था कि सबकुछ, एक सुई से लेकर ब्रह्माण्ड तक, देह है। जब मैं जन्म से ही इस संरचना में जी रहा हूँ, इससे सीख रहा हूँ, तो बोध के लिए इससे विमुख कैसे हो सकता हूँ, इससे अलग कैसे हो सकता हूँ?

आचार्य: देखिए, जन्म के साथ जो चीज़ें हैं उनसे आप रोज़ पृथक होने की कोशिश करते ही रहते हो, तो इसमें इतनी बड़ी क्या बात हो गई? आपके जन्म से आपको भाषा मिली थी क्या?

प्र२: नहीं, वो सब सीखी बाहर के एनवायरनमेंट से।

आचार्य: कपड़े मिले थे? गीता मिली थी? मनुष्य का पूरा जीवन ही उसके जन्म से आगे और ऊपर जाने की अनवरत प्रक्रिया है। बस, आगे जाना है, ऊपर जाना है; ये बात होश में होनी चाहिए। नहीं तो पता नहीं कहाँ पहुँच जाओगे!

प्र२: और होश में होने का तात्पर्य क्या है, आचार्य जी?

आचार्य: ये साफ़ देखना कि इस वक़्त 'मैं' करके बोल कौन रहा है। और अगर वो (अहम्) बोल रहा है, तो उसको बहुत महत्व न देना। ठीक है, तुझे अपनी बात बोलनी थी, तूने बोल ली। भीतर एक बैठा हुआ है जानवर, वो कर रहा था कू-कू, उसने कर लिया; मैं अपना काम करूँ। आप इंसान को समझ पा रहे हो, इंसान क्या चीज़ है? एक कोई जानवर बताइए, कोई भी? गेंडा। गेंडा पैदा होता है, उसके बाद जीवन में कोई भाषा सीखता है? कपड़ा पहनता है? यूट्यूब देखता है?

इंसान क्यों करता है ये सबकुछ?

प्र२: कहीं-न-कहीं उसे ऊपर बढ़ने की चाह है।

आचार्य: ये बात! तो यही देखना है कि अगर ऊपर बढ़ने की चाहत है, तो ऊपर बढ़ भी रहा हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि चाहत ऊपर बढ़ने की है और गिर नीचे रहा हूँ? कर्म तो कर इसलिए रहा हूँ क्योंकि भीतर कुछ है जो ऊपर जाना चाहता है, कहीं ऐसा तो नहीं कि वो गड़बड़ हो गया हो सबकुछ, भीतर घपला हो गया हो और नीचे ही गिर रहे हों?

प्र२: तो अगर मैं खुश जीवन व्यतीत कर रहा हूँ, और तनावमुक्त जीवन है, तो क्या ये प्रमाण है कि मैं सही दिशा में हूँ?

आचार्य: मैं 'हाँ' कहना चाहता हूँ पर कहूँगा नहीं क्योंकि आप जिसको स्ट्रेसफ्री कहते हो वो बहुत सुपरफिशियल फ्रीडम फ्रॉम स्ट्रेस (तनाव से सतही मुक्ति) है।

प्र२: तो आप बताइए, वो कैसा होगा जीवन?

आचार्य: जिसको अगर मैं बहुत स्ट्रेस्ड आउट करना चाहूँ तो भी उसमें स्ट्रेस ना आए। वो वैसे ही था—जब पहले लोग आते थे, कहते थे, एमटीएम बोलते थे हम उसको—लोग मिलने आते थे, पूछा जाए, ‘क्या है, कैसा है, सब बढ़िया चल रहा है?’ कहते थे, ‘कुछ नहीं! सब बढ़िया चल रहा है, सब आनंद-आनंद है, क्रोध हमें कभी आता नहीं।’

ऐसों को मैं दो मिनट के भीतर क्रोधित कर देता था। कहता था, ‘देखो झूठ बोल रहे थे न।’ भीतर-भीतर क्रोध लिए बैठे हो, और ऊपर से अज्ञान इतना है, आत्मज्ञान का इतना अभाव है कि कह रहे हो कि तुम्हें क्रोध नहीं है। ज़रा-सा मैंने सतह को खुरचा और क्रोध बलबला कर बाहर आ गया।

प्र२: क्रोध तो आता है लेकिन अभी आपके वीडियोज़ देखने के बाद ये हुआ है कि उसको लेकर भी थोड़ा अवेयरनेस (बोध) रहती है कि आया है।

आचार्य: पता नहीं, मैं जानता नहीं। आपका जीवन है, आप ही बता सकते हैं। देखिए, एक कहावत है कि शैतान अगर लगे कि मर गया है, तो भी दस बार जाँचो कि क्या सही में मर गया है। अपने बारे में भीतर से कोई अच्छी खबर आ रही हो न, तो और सावधान हो जाइएगा कि कुछ और पक रहा है, कोई नयी साज़िश हो रही है भीतर।

माया ऐसी चीज़ है, कबीर साहब कहते हैं कि जब वो तुम्हारे सामने होती है तो सींग मारती है और जब तुम्हें लगता है कि तुमने उसको भगा दिया, तो अचानक रुक जाती है और पीछे से दुलत्ती मारती है।

प्र२: तो बचाता कौन है?

आचार्य: तुम उसकी दुलत्ती की तरफ़ मुँह करके मत खड़े रहो, मुँह कृष्ण की ओर कर लो। यही तरीका है, और कोई तरीका नहीं है।

"माया छाया एक सी बिरला जाने कोय"

लगेगा कि माया को जीत लिया, तो ऐसे आत्मविश्वास से भरपूर होकर उसे देखने लगोगे कि ये प्रमाण है मेरी जीत का — भागती हुई माया। मानो ही मत कि जीत लिया, जीवनभर इस विश्वास से बच कर रहो कि जीत लिया। असावधान नहीं हो जाना है कभी भी, कभी भी। जिस क्षण तक तुम जी रहे हो, उस क्षण तक भीतर का शैतान जी रहा है।

प्र२: तो कभी वो स्टेज (चरण) आएगा जब हमको लगेगा कि ज्ञान प्राप्ति हो गई?

आचार्य: ये सवाल कौन पूछ रहा है?

प्र२: ये भी अंदर से ही आ रहा है।

आचार्य: वो क्यों पूछ रहा है?

प्र२: वो जानना चाह रहा है।

आचार्य: वो जासूसी करना चाह रहा है। वो कह रहा है, ‘आगे कुछ होने वाला है क्या? पहले से ही बता दो ताकि मैं तैयारी कर लूँ’, मैं क्यों बताऊँ?

प्र२: इस यात्रा का अंत तो है न?

आचार्य: कौन पूछ रहा है?

प्र२: मुझे लगता ये एक अच्छा पॉइंट है कि हर बार मैं अपने आपसे पूछता रहूँ कि कौन पूछ रहा है। ठीक है, धन्यवाद!

आचार्य: पहले जब नया-नया था न, तो मुझमें उत्साह ज़्यादा था। तो ये मैं कभी करता ही नहीं था कि कोई बात पूछी गई और उत्तर न दूँ। मुझे लगता था कि मैं योद्धा हूँ, जिसपर बड़ी ज़िम्मेदारी है दुनिया को बचाने की। तो आधे सवाल का भी मैं पूरा नहीं, दूना जवाब देता था। फिर धीरे-धीरे यात्रा में समझ में आया कि नुकसान हो जाता है। कुछ प्रश्नों का उत्तर मौन ही होना चाहिए। तो मैं भी सीख रहा हूँ, आप भी सीखते चलिए।

आप खड़े ही रह गए (पहले प्रश्नकर्ता को हँसते हुए संबोधित करते हुए)।

प्र: आचार्य जी, वो द्वंद्व इसलिए भी उठ रहा है कि अगर कृष्ण को हम ब्रह्म या आत्मा या सत्य समझते हैं, तो एक तो है कि आत्मा कुछ करती नहीं है, ये जितना भी कर्म बोध या कर्तृत्व है, ये तो अहम् का ही है। तो इसमें अगर हम कृष्ण को ब्रह्म की तरह देखते हैं तो फिर वो क्यों कह रहे हैं कि ये सारा कर्म जब मैं कर रहा हूँ तो अर्जुन तुम क्यों नहीं करोगे?

आचार्य: ये वो उससे बोल रहे हैं जिसे लग रहा हो कि कुछ कर्म हो रहा है। आपको लग रहा है न कि कर्म हो रहा है? तो कृष्ण कहते हैं कि यदि तुम्हें लग रहा है कि कर्म हो रहा है, तो मैं करता हूँ। आपको तो लग रहा है न कि संसार में गति चल रही है? चारों ओर हवा बह रही है, पेड़-पौधे बड़े हो रहे हैं, इंसान आ रहे हैं जा रहे हैं, लोग जी रहे हैं मर रहे हैं; चारों तरफ़ आपको दिखाई दे रही है न गति? तो आपसे कह रहे हैं, ‘तुम्हें अगर गति दिख रही है तो करने वाला मैं हूँ।‘

आप ऐसे हो जाइए कि आपको गति दिखाई ही न दे। आप कहें ये सब गति तो यूँ ही है, मिथ्या है, मन का खेल है। तो कृष्ण कहेंगे, ‘अगर गति नहीं है तो मैं अकर्ता हूँ। अगर तुम्हें लग रहा है कि गति है तो मैं कर्ता हूँ। अगर गति नहीं है तो मैं अकर्ता हूँ। तुम पर निर्भर करता है बाबा!’

प्र३: आचार्य जी, क्या आपको प्रशांत बुला सकता हूँ?

आचार्य: हाँ, हाँ बुलाइए जो भी।

प्र४: प्रशांत, करीबन तीन महीने से सुन रहा हूँ आपको। सबसे पहले तो आपकी संयम की दाद देता हूँ, धन्यवाद। सर, एक बात का उत्तर चाहूँगा, इतना बारीक है ये मिलान, ब्रह्म और अहम् का, इनमें सतत भेद करते रहने में बहुत एफ़र्ट (श्रम) लगता है। जारी रहें या रुक कर देखना पड़ेगा?

आचार्य: जितना उसमें आप श्रम करेंगे आज, कल उससे कम श्रम लगेगा उसी तल पर। और अगर प्रेम हो आपमें तो एक तल और ऊपर उठ जाइए, नयी चुनौती स्वीकार कर लीजिए, वहाँ बराबर का श्रम लगेगा। तो ये तो आपके प्रेम पर निर्भर करता है कि आप मेहनत कितनी करना चाहते हैं। आमतौर पर जब आप श्रम करते हैं तो प्रेम और बढ़ जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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