कटते जंगल, गिरती मानवता

Acharya Prashant

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कटते जंगल, गिरती मानवता
कुल 4000 मिलियन हेक्टेयर हमारे पास जंगल है पृथ्वी पर, और लगभग पिछले 10 सालों में ही हमने उसमें से 500 हटा दिया। सबसे ज़्यादा कहाँ हटाया जाता है, मालूम है? गरीब देशों में — जैसे भारत। 2015 से 2020 के बीच जिन देशों में सबसे ज़्यादा फॉरेस्ट कवर हटाया गया, उनमें से एक भारत है। एक लंबे अरसे तक पृथ्वी के 50% क्षेत्र पर जंगल थे। अभी कितने हैं? 30%। ये पृथ्वी ऐसे चल ही नहीं सकती। क्या समाधान है इसका? जब तक हम इंसान को ही नहीं बदलेंगे, हम देश और पॉलिसीज़ को कैसे बदल सकते हैं? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सर, पिछले दिनों आपने एक जगह पर कहा था कि 2025 एक निर्णायक साल होने वाला है। सबसे ख़तरनाक साल होने वाला है।

आचार्य प्रशांत: ख़तरनाक साल।

प्रश्नकर्ता: तो मैं आपसे यह समझना चाहता हूँ कि आपने ऐसा क्यों कहा था? 2025 हमारे लिए ख़तरनाक क्यूँ होने वाला है?

आचार्य प्रशांत: ये लोग तो हैप्पी न्यू ईयर कराने आए हैं सब। और शुरुआत ही इससे हो गया कि 2025 आज तक का सबसे ख़तरनाक साल होने वाला है। स्केरी न्यू ईयर, हैप्पी न्यू ईयर की जगह। कारण कोई इधर एक, दो, दस साल के भीतर नहीं बैठा हुआ है। बहुत लम्बा चौड़ा कारण है और उसकी चोट शताब्दियों तक जानी है।

कोई घाव ऐसा होता है जो भर जाता है साल में, चार साल में। तो हम नहीं कहते कि बहुत ख़तरनाक चोट लग गई है पर ऐसा एक रोग लगा है जिसका उपचार सौ-हज़ार सालों में उसको कहते हैं, सेंटेनियल और मिलेनियल टाइम स्केल्स उनमें भी संभव नहीं होने वाला। और घड़ी टिक-टिक कर रही है बहुत हमारे पास समय नहीं है। इसलिए मैंने कहा बहुत सोच समझ के ज़िम्मेदारी के साथ कि ये सबसे ख़तरनाक नववर्ष है मानव इतिहास का, आज तक का, 2025।

देखिए, यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज है। इसमें बीच, बीच में कुछ बातें बताऊँगा, जो सूचना जैसी है, उसको ले लीजिएगा। उसी से बात पूरी समझ में आएगी। तो उसके तहत हर साल लोग मिलते है। जैसे अभी मिले थे न बाकू में। सारे देश वहाँ पर बैठक करते हैं, उसे बोलते हैं, कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, सीओपी। तो जो इक्कीसवीं सीओपी हुई थी, पेरिस में, वहाँ पेरिस समझौता हुआ। पेरिस समझौता और पेरिस समझौते ने कहा 2015 में कि जितना अभी कार्बन एमिशन का स्तर है, इसको 45 प्रतिशत घटाना होगा 2030 तक और नेट ज़ीरो पर आना होगा 2050 तक। क्यों आना होगा? ये आंकड़े क्यों निर्धारित करे गए? इसलिए निर्धारित करे गए ताकि किसी भी तरीके से जो तापमान में वृद्धि है, ग्लोबल टेंपरेचर राइज़ है, उसको दो डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे रोका जा सके। यह उद्देश्य था।

कहा कि डेढ़ डिग्री हम चाहते हैं, पर डेढ़ डिग्री न भी हो पाए; तो दो डिग्री से ज़्यादा आगे नहीं जाना चाहिए टेंपरेचर राइज़। ये हमने 2015 में समझौता करा था, 195 देश मिलकर बैठे थे। और सबको ये बात समझ में आई थी कि दो डिग्री पर इसको रोकना बहुत ज़रूरी है। तो लक्ष्य था टेंपरेचर राइज़ को रोकना, डेढ़ डिग्री का लक्ष्य निर्धारित किया गया। और उसके लिए जो रास्ता सुझाया गया वो ये था कि 2030 तक अपने एमिशन्स को लगभग आधा कर दो और 2050 तक नेट ज़ीरो पर आ जाओ। नेट ज़ीरो क्या होता है कि जितना एमिट कर रहे हो उतना प्राकृतिक रूप से इको-सिस्टम एब्ज़ॉर्ब भी कर लें। तो कुल मिलाकर के ह्यूमन एक्टिविटी के द्वारा वातावरण में ज़रा भी कार्बन ऐडिशन न हो, ये नेट ज़ीरो है। तो कहा गया कि नेट ज़ीरो 2050 तक हो जाए और 2030 तक लगभग 45 प्रतिशत आप कम कर दो।

तो इसके लिए सब देशों ने मिल-बैठ कर के बड़ी लंबी चौड़ी नेगोसिएशन, खींचतान के बाद एनडीसी अपने अपने लिए निर्धारित करे, एनडीसी क्या है? नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन, हर देश ने अपने लिए लक्ष्य बनाया कि मैं अपना, अपना एमिशन इतना इतना कम करूँगा और लक्ष्य सबके अलग अलग थे क्योंकि सब देशों की आर्थिक पृष्ठभूमि दूसरी होती है। कोई अमीर है, कोई गरीब है, किसी के एमिशन ज़्यादा हैं जैसे भारत के पर कैपिटा एमिशन बहुत कम है। तो उसमें ये सब भी हुआ कि जो विकसित देश हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से ज़्यादा एमिशन्स करे हैं, वो विकासशील देशों को पैसे भी देंगे, आर्थिक सहायता देंगे ताकि वो अपने एमिशन्स कट कर सके, बहुत तरह की उसमें बातें हुई। पर उन सारी बातों का जो सार था वो ये था कि 2030 तक 45 प्रतिशत एमिशन्स जितने हैं, उनको कम करना है।

अच्छा, तो और वो एमिशन्स कम होते रहे, उस पर प्रगति होती रहे उसके लिए कहा हर साल मिलेंगे। और वो सीओपी होता है हर साल और हर पाँच साल में जो आपने अपने लिए टारगेट बनाए हैं, उनको आपने कितना पाया, उसके हिसाब से अगले पाँच साल के बनाए जाएँगें। तो 2015 में बने थे 2020 के लिए और फिर 2020 में बने हैं 2025 के लिए। अगले साल फिर से उसकी बजेटिंग होगी कि किसको कहाँ जाना है, 2025 में अब हम फिर से वैश्विक स्तर पर सभी देश अपने अपने टार्गेट एमिशन्स का स्तर निर्धारित करने जा रहे हैं। ये होने जा रहा है 2025 में।

हमने कहा था कि हम 2030 तक 45 प्रतिशत कम करेंगे। खुशी मनाई थी, मिठाई बंटी थी। अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ; 2024 आ गया दस साल हो ही जाएँगें 2025 लगेगा तो पन्द्रह साल का हमने अपने आप को समय दिया था 2015 से 2030 के बीच में, उसमें से दस साल हमने बिता दिए हैं और अब इस साल हम फिर से अपने लिए बजट निर्धारित करने जा रहे हैं। और 2030 तक पहुँचने का आखिरी नेशनल बजट होगा सभी देशों का। तो बताइए हम कहाँ तक पहुँचे होंगे? हमें 45 प्रतिशत कम करने थे और जो अभी हमारा कर्व है, जो हमारी ट्रैजेक्टरी है, वो क्या बोल रही है हमने कितना काम करा है या क्या करा है?

हमने यह करा है कि जो दुनिया भर के सारे देशों ने अपने लिए एनडीसी रखे हैं, अगर उनको आप 100 परसेंट शत प्रतिशत भी पा लो तो एमिशन्स में बस दो प्रतिशत की कमी आने वाली है। यह आपका बेस्ट केस सिनैरियो है। अभी यह नहीं है कि आपने जो टार्गेट बनाया है, वो अचीव नहीं हो रहा है। पेरिस एग्रीमेंट ने बोल दिया कि इतना करना है 2030 तक। अच्छा इतना तो करना है। वो तो एक एग्रिगेट फिगर है। अब उस एग्रीगेट फिगर को सब देशों ने आपस में बांटा। 194 देश और 195 यूरोपियन यूनियन, इन्होंने आपस में बांटा, इतना, इतना, इतना, इतना करना। उन्होंने अपने अपने लिए लक्ष्य बनाए।

ये जो लक्ष्य बनाए गए हैं, इनको अगर पूरा भी हासिल कर लिया जाए तो जो एमिशन्स हैं उनमें बस 2.6 प्रतिशत की कमी आने वाली है अगर पूरा भी हासिल कर लिया जाए तो। और आपको क्या लगता है कितना हासिल किया जा रहा होगा? जिन्होंने जितने लक्ष्य बनाए हैं, ज़्यादातर देश अपने लक्ष्यों का आधा भी नहीं हासिल कर रहे हैं। और जब हम प्रतिशत लेते हैं टार्गेट कम्पलीशन का तो उसमें जो देश सबसे पीछे हैं, उनमें भारत का भी नाम है। यह अलग बात है कि आपने अपने लिए जो बनाया है लक्ष्य टारगेट एनडीसी, आप उसको अगर पा भी लो तो कुल मिला कर के कितनी कमी कर पाओगे? दो परसेंट की, करनी कितने की थी? 45 प्रतिशत की कमी करनी थी। और आप अगर अपने द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय लक्ष्य पूरी तरह भी पा लो कार्बन रिडक्शन का, अगर पा भी लो तो भी कितनी कर पाओगे दो प्रतिशत और हम यह दो प्रतिशत भी नहीं कर पा रहे हैं।

तथ्य यह है कि 'कार्बन एमिशन रिडक्शन' छोड़ दीजिए, 'कार्बन एमिशन' साल दर साल बढ़ रहे हैं।

और उन्हें कितनी तेज़ी से कम करने की ज़रूरत है, ये इसी से समझ लीजिए कि हमने कहा था कि 2030 में हमको उनको लगभग आधा कर देना है, हम एक इमरजेंसी पर खड़े हैं, ये बात हमें 2015 में ही पता थी, 2015 में हमने कहा 2030 तक आधा करो और 2050 तक नेट ज़ीरो करो। पहली बेईमानी ये करी कि वहाँ एग्रीमेंट तो हो गया, वहाँ से वापस आ गए। उसके बाद हर देश ने जब अपने अपने लिए अलग-अलग लक्ष्य बनाए तो लक्ष्यों में ही बेईमानी कर दी। वो लक्ष्य ही ऐसे थे कि उनको पूरा पा लो तो भी कुछ हासिल नहीं होने वाला। और उसके बाद वो जो बनाए भी थोड़े बहुत, उनको भी दूर-दूर तक पाने के कोई आसार नहीं है।

कार्बन एमिशन हमें इतनी तेज़ी से कम करने है, थोड़ा-सा कम तेज़ी से भी कम करोगे तो भी कुछ बहुत भयावह घटने वाला है। (ग्राफ स्क्रीन पर दिखाया जा रहा है) हमें इतनी तेज़ी से कम करने है, अगर आप इतनी तेज़ी से भी कम करोगे, जो डिक्रीज़ है, उसका जो स्लोप है, ढलान है, वो थोड़ा भी कम होगा तो भी एक तरह की प्रलय है। और यहाँ तो ये छोड़ो कि कितनी तेज़ी से काम हो रहा है, कम नहीं हो रहा, बढ़ रहा है। बढ़ रहा है और बढ़ रहा है।

आप अगर ग्लोबल टेंपरेचर राइज़ का कर्व देखेंगे तो वो है इनक्रीजिंग एट एन इनक्रीजिंग रेट, न सिर्फ़ बढ़ रहा है, हमें कम करना है और न सिर्फ़ बढ़ रहा है, बल्कि एक्सेलरेट कर रहा है, बढ़ तो रहा ही है, यह बढ़ने की दर भी बढ़ रही है। हम यहाँ पर खड़े हुए हैं। क्यों पेरिस एग्रीमेंट ने कहा कि डेढ़ डिग्री पर रोक देना भाई? क्यों कहा? क्योंकि डेढ़ डिग्री पर कुछ बहुत खास है जो शुरू हो जाता है डेढ़ से दो डिग्री के बीच में, वैसे ये तो पता होगा न कि डेढ़ डिग्री का जो लक्ष्य हमने लॉन्ग टर्म निर्धारित करा था कि हम ग्लोबल वार्मिंग को हमेशा के लिए डेढ़ डिग्री पर रोक देना चाहते हैं 2050 और 2050 के बाद भी, वो डेढ़ डिग्री सन 2024 में ही हमने तोड़ दिया ये ख़ुशखबरी तो मिली होगी कि नहीं मिली है?

हमने कहा था कि डेढ़ डिग्री वो अधिकतम राइज़ है, जिसके बाद टर्म यूज़ होती है 'लिवेबल प्लैनेट' बचेगा। डेढ़ डिग्री के बाद प्लैनेट लिवेबल नहीं रह जाएगा, किस वजह से नहीं रह जाएगा, उस कारण पर भी आ जाएँगें। पर वो जो हमने अपने लिए लॉन्ग टर्म एक लिमिट निर्धारित करी थी डेढ़ डिग्री की, वो लिमिट हमने 2024 में ही पार कर दी है- 1.54 पर हम आ चुके हैं। बस इतनी सी बात है कि अभी उसको फॉर्मली एकनॉलेज नहीं किया जाएगा। क्योंकि ये डेटा एक दो सालों का है 2023, 2024। उसको फॉर्मली एकनॉलेज करा जाता है, क्लाइमेट में लॉन्ग टर्म ट्रेंड लिए जाते हैं। तो दस साल, बीस साल तक जब देखा जाएगा कि लगातार डेढ़ डिग्री से ऊपर है, तब जा कर के उसको आधिकारिक, ऑफिशियल स्वीकृति मिलेगी कि हाँ, माना की डेढ़ डिग्री पर वो हो चुका है।

यह सबको स्पष्ट था कि डेढ़ डिग्री पर कुछ बहुत ख़तरनाक होता है, बहुत ख़तरनाक। एक टिपिंग पॉइंट है डेढ़ डिग्री। क्या होता है ऐसा? अच्छा, मैं पूछूँ क्या होता है ऐसा? उससे पहले यह तो स्पष्ट है न कि डेढ़ डिग्री वाली बात अब बहुत पीछे छूट गई। अब हम उसको रोक नहीं सकते वो छूट गया। पेरिस में हमने अपने साथ मज़ाक करा था।

पेरिस में हमने कहा था 2030 तक हमें 45 प्रतिशत एमिशन कम करने है और 2050 तक हमें नेट ज़ीरो पर आ जाना है। वो हमने मज़ाक करा था अपने साथ कम करना तो छोड़ो हमने और बढ़ा दिया है।

ये स्पष्ट हो रहा है? क्या होता है डेढ़ डिग्री पर? डेढ़ से दो डिग्री के बीच में फीडबैक साइकल्स सक्रिय हो जाते हैं, जिसके बाद अब आपके हाथ में नहीं रह जाता किसी भी तरीके से तापमान वृद्धि को रोकना अब आप नहीं रोक सकते। मिटियॉरोलॉजी एग्जैक्ट साइंस नहीं है। तो हम यह नहीं कह सकते कि वो बिल्कुल डेढ़ पर होगा या 1.62 पर होता है या कुछ साइकल्स होते हैं जो डेढ़ डिग्री पर सक्रिय होते हैं कुछ 1.8 पर होते हैं। पर वैज्ञानिकों का मानना है कि ये सारे साइकल्स, मैं अभी आपसे उनकी बात करूँगा, ये सारे साइकल्स डेढ़ से दो डिग्री के बीच में सक्रिय होना शुरू हो जाते हैं। और ये साइकल्स म्यूचुअली रीइन्फोर्सिंग भी होते हैं, मतलब एक साइकिल शुरू हुआ तो उसके शुरू होने की वजह से ही दूसरा साइकिल शुरू हो जाता है। कैसे होते हैं ये साइकल्स, समझेंगे।

इनमें से एक दो ऐसे हैं जिनकी मैं आपसे कई बार बात कर चुका हूँ। तो आपको पता है कुछ और आपको नए नए आज सुनाऊँगा नव वर्ष की खुशी में।

तो सबसे पहले तो जो आइस है, आर्कटिक आइस हो गई, ग्लेशियल आइस हो गई, उससे संबंधित। तो बर्फ सफेद रंग की होती है। है न? तो उस पर जब धूप पड़ती है, रेडिएशन पड़ता है तो क्या करेगी? वो उसको रिफ्लेक्ट बैक कर देती है, रिफ्लेक्ट बैक कर देती है तो हीट एब्ज़ॉर्प्शन नहीं होता, है न?

तो ये काम बर्फ करती थी, पर तापमान वृद्धि के कारण बर्फ रही है पिघल। जब बर्फ पिघलती है तो बर्फ के नीचे से क्या एक्सपोज़ हो जाता है। पत्थर या सेडीमेंट्स या कभी कभी मिट्टी सॉइल, ये किस रंग के होते हैं? ये गाढ़े रंग के होते हैं। जब ये गाढ़े रंग के होते हैं तो ये क्या करते हैं, ये रेडिएशन को एब्ज़ॉर्ब करते हैं, जब ये एब्ज़ॉर्ब करेंगे तो ये क्या हो जाएँगे, गर्म। जब ये गर्म हो जाएँगे तो इनके ऊपर जो बर्फ है या इनके बगल में जो बर्फ है वो और ज़्यादा पिघलेगी, जब और ज़्यादा बर्फ पिघलेगी तो और ज़्यादा ये जो रॉकी मैटर है, डार्क ये और ज़्यादा एक्सपोज़ होगा। जब ये और एक्सपोज़ होगा तो और गर्म होगा और गर्म होगा तो और बर्फ पिघलेगी, और बर्फ पिघलेगी तो और एक्सपोज़ होगा, और एक्सपोज़ होगा तो और गर्म होगा और गर्म होगा तो और बर्फ पिघलेगी। अब आप इसको नहीं रोक सकते, अब आप इसको नहीं रोक सकते।

अब ये साइकिल शुरू हो गया तो हो गया। आप इसको नहीं रोक सकते। और ये कहाँ तक जाएगा, इस बारे में दुनिया के नेता अपने अपने लोगो से कुछ बोलते नहीं हैं, चुप रहते हैं। और ये छह डिग्री, सात डिग्री, आठ डिग्री, पता नहीं कहाँ तक जा सकता है। बात करना भी व्यर्थ है क्योंकि वो बात करने के लिए कोई बचेगा नहीं। हम बहुत नाजुक लोग हैं, विशेषकर जो हमारी मनुष्य प्रजाति है, होमो-सेपियंस, एक बहुत नैरो टेंपरेचर रेंज के भीतर ही हम जी सकते हैं। हम जंगल पर आश्रित नहीं हैं, हमें फसले उगानी होती हैं। वो जो हमारी फसलें हैं वो भी कुछ खास जगहों पर ही उगती हैं। कुछ खास तरीके की वो बारिश मांगती है, कुछ खास तरीके का वो तापमान मांगती है। वो ये भी मांगती है कि अगर हवा भी चले तो कितनी चले, कितनी न चले, बारिश हो भी तो किस मौसम में हो, किस मौसम में न हो।

तो इंसान बहुत ज़बरदस्त तरीके से आश्रित है, प्रकृति पर और आबादी भी हमने इतनी बढ़ा ली है कि उसको खिलाना एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है।

तो बहुत कुछ ऐसा हो जाएगा जैसे ही ये साइकिल सक्रिय होते है कि उसकी चर्चा ना हीं करी जाए तो बेहतर है। और साइकल्स पर आते हैं बहुत सारे। बर्फ की बात हम कर रहे हैं। तो पर्माफ्रॉस्ट, पर्माफ्रॉस्ट क्या होता है? पर्माफ्रॉस्ट साइबेरिया अलास्का कैनाडा इन जगहों की वो चट्टान होती है या मिट्टी होती है जो लगातार जमी ही रहती है। और जब ये जमी रहती है तो ये अपने भीतर बहुत सारा कार्बन रोके रहती है, बांधे रहती है। पर्माफ्रॉस्ट में कितना कार्बन है? जितना पृथ्वी के पूरे वातावरण में कार्बन है उससे दो गुना लेकिन ये अभी तक सिक्वेस्टर था, बंधा हुआ था, लॉक्ड था, क्यों लॉक्ड था क्योंकि इसके ऊपर बर्फ चढ़ी हुई थी, इसके ऊपर बर्फ चढ़ी थी। जैसे जैसे बर्फ पिघलती जा रही है, ये कार्बन ऑक्सीजन के संपर्क में आता जा रहा है और एटमॉस्फेयर में वातावरण में रिलीज़ होता जा रहा है कार्बन डाईऑक्साइड बन के।

जब ऑक्सीजन मिल जाता है ऑर्गेनिक मैटर को, तब तो फिर भी कम नुकसान होता है उससे सिर्फ़ कार्बन डाईऑक्साइड बनती है। लेकिन जब वो ऑर्गेनिक मैटर जो मिट्टी में है, चट्टान में है, जब उसको पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलता तो उसका एनेरोबिक ऑक्सीडेशन होता है और तब कार्बन डाईऑक्साइड नहीं बनती है तब मिथेन बनती है। और मिथेन का जो ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल होता है वो कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा 85 गुना होता है। मतलब कार्बन डाईऑक्साइड के 85 मॉलिक्यूल जितनी हीट ट्रैप करेंगे उतनी ही मिथेन का एक अकेला मॉलिक्यूल करता है। यह पर्माफ्रॉस्ट जो है यह पिघल रहा है और बहुत तेज़ी से पिघल रहा है। और इसके पिघलने से कार्बन डाईऑक्साइड और मिथेन दोनों ही वातावरण में रिलीज़ हो रहे हैं। समझ में आ रही है बात ये?

और इसको आप रोक नहीं सकते। उसने एक बार पिघलना शुरू किया तो क्या करेगा वो? हवा में क्या डालेगा? मिथेन और मिथेन जैसे ही जाएगी वातावरण में वो क्या करेगी? और तापमान बढ़ाएगी, जब और तापमान बढ़ाएगी तो पर्माफ्रॉस्ट और पिघलेगा जब और पिघलेगा तो वातावरण में और क्या जाएगी? मिथेन, जब वो जाएगी और तापमान बढ़ाएगी तो और पिघलेगा इसको आप रोक नहीं सकते।

आप नेट ज़ीरो कर भी दीजिए तो भी नहीं रुकेगा। नेट ज़ीरो का मतलब है कि ह्यूमन एक्टिविटी से हम अब कोई अतिरिक्त एडिशनल कार्बन डाईऑक्साइड एटमॉसफेयर में नहीं जोड़ेंगे। आप मत भी जोड़ो तो भी ये साइकिल सक्रिय हो गया तो अब पछताए होत क्या? अब आपको जो करना है कर लो। तापमान...। तो अब इसको बोलते हैं रन अवे क्लाइमेट चेंज जिसको आप रोक नहीं सकते। इसी के लिए शब्द इस्तेमाल होता है कार्बन बॉम्ब जिसको आप रोक नहीं सकते, उसका चेन रिएक्शन होता है। अब वो शुरू हो गया तो अब हो गया आप उसको नहीं रोक पाओगे।

इसी तरह से होते हैं, पीटलैंड। पीटलैंड क्या होते हैं? और क्यों उनकी बात कर रहे हैं। क्योंकि पर्माफ्रॉस्ट के बाद सबसे ज़्यादा कार्बन इन्होंने ही अपने भीतर हमेशा दबा रखा होता है। ये कौन-सी जगह होती है, वेटलैंड्स जानते हैं न आप वेटलैंड्स क्या होते हैं? फ्लडेड जगह, जहाँ पर जमीन के ऊपर या पत्थरों पर, मिट्टी पर या ऑर्गेनिक मैटर पर लगभग हमेशा पानी चढ़ा रहता है, लगभग हमेशा वहाँ पर पानी चढ़ा रहता है। जब वहाँ लगभग हमेशा पानी चढ़ा रहता है तो वहाँ पर ऑक्सीजन कम रहती है न? ऑर्गेनिक मैटर है और उसके ऊपर लगातार पानी चढ़ा हुआ है जैसे वेटलैंड होता है। तो अब जब पानी चढ़ा हुआ है तो नीचे जो ऑर्गेनिक मैटर है उसे ऑक्सीजन तो बहुत मिलेगी नहीं कि मिलेगी?

थोड़ी बहुत मिलेगी वो भी जो पानी में घुली रहती है तो उसका जो डीके होता है वो एनेरोबिक होता है। बहुत सारी वहाँ पर मिथेन स्टोर हो जाती है। कितनी मिथेन स्टोर करते हैं पीटलैंड्स। पृथ्वी के सारे जंगल जितनी कार्बन डाईऑक्साइड स्टोर करते हैं, उससे ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड इक्विवेलेंट पीटलैंड्स में स्टोर्ड है। और ये जो पीटलैंड्स हैं, इनकी ड्राइंग हो रही है। जैसे जैसे पृथ्वी गर्म होती जा रही है, ये सूखते जा रहे हैं। सूखने के कारण?

सिर्फ़ यही नहीं है कि पृथ्वी गर्म हो रही है यह भी है कि आप वहाँ पर जाकर के अर्बन डेवलपमेंट कर देते हो। या जो पीट होती है उसके कई तरीके के इस्तेमाल होते है, हार्टीकल्चर में होता है, फ्यूल में होता है। आप वो पीट निकाल लेते हो। तो ये पीटलैंड्स सूखते जा रहे हैं। तो पानी के नीचे जितने मीठे और कार्बन डाईऑक्साइड दबी हुई थी, अब वो क्या हो रही है, वो एक्सपोज़ हो रही है, वो एक्सपोज़ हो रही है तो कहाँ जा रही है? वो वातावरण में जा रही है, जब वातावरण में जाएगी तो तापमान को और बढ़ा रही है। जब और बढ़ा रही है तो जो पीटलैंड्स है, यह और ज़्यादा सूख रहा है। और इनमें से पर्माफ्रॉस्ट से और पीटलैंड्स से इतनी ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है, जितनी कि ह्यूमन एक्टिविटी से तो कभी निकल भी नहीं सकती।

ह्यूमन एक्टिविटी से इतनी निकली है कि इंडस्ट्रियल एज आने के बाद से 1750 से अभी तक हमने 280 पीपीएम से लगभग ४३० पीपीएम कर दिया है। यह हमारा काम है पर यह करके हमने एक ऐसे दानव को जगा दिया है जो हमारी एक्टिविटी से कहीं ज़्यादा कार्बन अब एटमॉसफेयर में छोड़ रहा है। और ये सब कुछ शुरू हो चुका है। लेकिन दुनिया के नेता अपनी अपनी जनता से यह बात बिल्कुल नहीं कर रहे हैं। यह बात छुपाई जा रही है, क्यों छुपाई जा रही है? क्योंकि कार्बन एमिशन टार्गेट्स अगर आपको मीट करने हैं तो आपकी जो विकास की अवधारणा है और जिस तरीके से चुनावी सपने बेचे जाते हैं जनता को वो रोकने पड़ेंगे। तो कोई नेता खुल करके अपने देश की जनता को नहीं बता रहा है कि आप प्रलय के कितने पास आ चुके हैं। कोई नहीं बता रहा।

अमेरिका में ट्रंप जैसे नेताओं ने तो 2020 में बाहर ही कर दिया था अमेरिका को पेरिस समझौते से ही, फिर वो वापस किया 2021 में। पर वो अभी भी यही कह रहे हैं कि नहीं, हम मानते नहीं कि एन्थ्रोपोजेनिक हैं, क्लाइमेट चेंज को। जहाँ मान भी लिया गया है, वहाँ मैंने आपको बताया ही कि जो राष्ट्रीय लक्ष्य हमने चुने हैं, रिडक्शन के वो कितने बचकाने हैं। जैसे चुटकुला हो कि उन लक्ष्यों को पा भी लो तो हमने क्या कहा कितना परसेंट रिडक्शन हो जाएगा दो परसेंट और करना कितना था? 45 परसेंट।

कोई नेता, कोई राजनेता अपने देश से सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि ये जो सच है, यह बहुत, बहुत कड़वा होगा।

ये सच हमसे कहेगा कि अपने बाकी सारे धंधे छोड़ो, अपनी बाकी सारी वरीयताएँ पीछे रखो सीधे सीधे तुम्हारे अस्तित्व का सवाल है खासकर अगर तुम अभी युवा हो और तुम्हारे बच्चे वगैरह है तो। तुम अपने बच्चों के लिए बिल्कुल नर्क की आग छोड़ के जा रहे हो। आज तुम्हारे बच्चे को ज़रा सी धूप लग जाए, या गर्मी लग जाए तो तुम कहते हो अरे अरे यह क्या हो गया, बिजली चली जाए, ऐसी न चले तुम्हारा बच्चा परेशान हो जाता है। और तुम अपने बच्चे के लिए सीधे सीधे हेलफायर छोड़ के जा रहे हो।

लेकिन यह बात कोई नेता बताएगा नहीं, मीडिया इसको कवर नहीं कर रहा है क्योंकि कवर करने का मतलब होगा यह जलजला-सा आएगा बिल्कुल। तो सब एक फूल्स पैराडाइस में है। फूल्स पैराडाइस समझते हैं? बेवकूफ आदमी जो सोच रहा है सब ठीक है और वो सिर्फ़ बेवकूफ ही नहीं है, वो बेईमान भी है। इस कदर बेईमान हैं अगर कोई आके उसको सच बताए तो सच को अस्वीकार करेगा और सच बताने वाले का ही मुँह नोच लेगा। ये चल रहा है पूरी दुनिया में, भारत में भी।

हम फीडबैक साइकिल्स की बात कर रहे थे। समुद्र पर आते हैं। तीन-चार तरह के फीडबैक साइकिल्स हैं जो सीधे सीधे समुद्र से संबंधित है। बिल्कुल समुद्र की सतह से शुरुआत करते हैं। जब तापमान बढ़ता है तो ज़ाहिर-सी बात है कि ज़्यादा पानी भाप बनेगा, वाष्पीक्रत होगा। और ये जो वाटर वेपर है ये अपने आप में एक ज़बरदस्त ग्रीन हाउस गैस होती है। आपको ताज्जूब होगा ये जान के कि दुनिया का आधे से ज़्यादा ग्रीन हाउस इफेक्ट कार्बन डाईऑक्साइड से नहीं वाटर वेपर से है। क्योंकि वाटर वेपर वातावरण में बहुत प्रचुरता से मौजूद है। सत्तर प्रतिशत तो हमारा सर्फ़ेस एरिया ओशन्स का है न? तो वहां पर वाटर वेपर बहुत मौजूद रहती है।

और जब तापमान बढ़ेगा तो वाटर वेपर भी बढ़ेगी ज़्यादा वेपोराइज होगा न। वो और क्लाइमेट चेंज को बढ़ाएगा। जब क्लाइमेट चेंज बढ़ेगा तो उसका वाष्पीकरण (वेपोराइजेशन) भी बढ़ेगा तो भाप बढ़ेगी, भाप बढ़ेगी तो और गर्मी होगी और गर्मी होगी तो और भाप बढ़ेगी और भाप बढ़ेगी तो और गर्मी होगी। और ये सब चल रहा है। ये सतह पर होता है।

इसी तरीके से ओशन्स की जो कार्बन कैरिंग कैपेसिटी होती है वो टेंपरेचर से इनवर्सली प्रपोर्शनल होती है। तापमान जब बढ़ता है तो पानी के लिए कार्बन डाईऑक्साइड सोखना मुश्किल होता जाता है। तो हमारे समुद्र जितने गर्म होते जाएँगे जो कार्बन सिंक्स का वो काम करते थे; दो तरह के कार्बन सिंक होते हैं प्रकृति में ज़्यादा बड़े वाले, एक होता है ओशन्स और दूसरा होता है जंगल। तो हमारे ओशन्स जो कार्बन सिंक का काम करते हैं वो काम उनका कमज़ोर पड़ता जा रहा है। तापमान बढ़ेगा तो उनमें जो कार्बन डाईऑक्साइड कॉन्सन्ट्रेशन है उनकी कैरिंग कैपेसिटी कम होती जाती है। कार्बन डाईऑक्साइड कम सोखते हैं और वाटर वेपर ज़्यादा बनती है। दोनों तरीकों से आप मारे गए। ये हुई हरकत समुद्र की सतह पर, हम फीडबैक साइकिल्स की बात कर रहे हैं।

अब आप समुद्र में थोड़ा-सा नीचे चलिए। जब आप नीचे चलते हैं तो आप कोरल्स को जानते हैं। जीवाश्म, जो रीफ बनाते हैं वो सुन्दर सुन्दर जिनकी तस्वीरें आती हैं। पहले ज़्यादा सुन्दर आती थी, अब आता है कि देखो बर्बाद हो गई। कोरल रीफ्स। तो ये जो कोरल्स होते हैं इनकी एक्टिविटी तापमान बढ़ने के साथ मंद, शिथिल पड़ने लगती है क्योंकि प्रकृति ने इनको एक खास तापमान पर काम करने के लिए बनाया है तो इन्होंने जितना ऑर्गेनिक काम कर रखा होता है पहले से, वो भी टूटने बिखरने लगता है, उसका ऑक्सिडेशन होने लगता है और उससे कार्बन डाईऑक्साइड और मिथेन दोनों जेनरेट होते हैं। ये समुद्र के बीच में होता है। ये भी एक साइकिल है। जितना आपका समुद्र गर्म होता जाएगा, उतना कोरल रीफ समाप्त होते जाएँगे और वो जितना समाप्त होते जाएँगे उतना वो कार्बन एमिट करते जाएँगे।

अब समुद्र में नीचे चलते है। समुद्र के तल पर मीथेन के हाइड्रेट्स पड़े होते हैं, समुद्र का जो हमारा तल है उसमें मीथेन के हाइड्रेट्स हैं और वो एक टेंपरेचर पर स्टेबल रहते हैं। केमिस्ट्री का साधारण-सा सूत्र होता है भाई कि हर कम्पाउंड हर टेंपरेचर पर स्टेबल नहीं होता, बहुत सारे होते हैं जिन्हें सिर्फ़ गर्म कर दो तो टूट जाते हैं। जानते हैं न हम ये? तो ये जो मीथेन के हाइड्रेट्स हैं, ये समुद्र के तल पर पड़े रहते हैं ओशन्स फ्लोर पर और वहाँ ये अपना स्टेबल रहते हैं। पर जैसे जैसे तापमान बढ़ रहा है ये टूट रहे हैं। और ये मीथेन छोड़ रहे हैं। और वो मीथेन वातावरण में पहुंच रही है।

सत्तर प्रतिशत पृथ्वी का जो क्षेत्र है सर्फ़ेस एरिया, वो ओशन्स का है। तो सोचो कि कितने सारे एरिया पर ये हाइड्रेट्स पड़े हुए हैं। और वहाँ से जो मिथेन निकल रही है वह किस क्वान्टिटी की होगी। और ये सब अभी लगातार चल रहा है, लगातार चल रहा है, समझ में आ रही है बात ये? बहुत दूर की लग रही है? अच्छा, ओशियन दूर का है तो यह जो मिट्टी है न हमारी ये मिट्टी भी जब गर्म होती है तो इसमें जो ऑर्गेनिक मैटर होता है उसका ऑक्सीडेशन होता है। ये मिट्टी खुद कार्बन डाईऑक्साइड एमिट करने लग जाती है जैसे जैसे तापमान बढ़ता है।

हमने बर्फ की बात करी, हमने समुद्र की बात करी, हमने मिट्टी की बात करी, अब हम जंगलों की बात करे? कि जंगलों में ये फीडबैक साइकिल कैसे सक्रिय हो रहे हैं? एक पेड़ होता है जो कार्बन डाईऑक्साइड सोखता है, यह तो हम सब जानते हैं। तो अगर इकोसिस्टम हरा भरा है, प्राकृतिक है, स्वस्थ है तो पेड़ का काम होता है कार्बन डाईऑक्साइड सोखते जाना, इसको बोलते है उसकी सिक्वेस्टरिंग। देखो वो कार्बन डाईऑक्साइड जो वातावरण में रहती तो घातक हो सकती थी, पेड़ ने उसको क्या बना दिया?

पेड़ ने उसको तना बना दिया, पत्ती बना दिया, फल बना दिया, सब्जी बना दिया। तो पेड़ बड़ा जादू करता है। वो कार्बन डाईऑक्साइड को लेकर उससे अच्छी अच्छी चीजें बना देता है। लेकिन वही पेड़ जब गिर जाता है तो उसका जो ऑर्गेनिक मटीरियल है वो तना है वो डिकम्पोज़ होगा और जब वो डिकम्पोज़ होगा डिकंपोज़िशन आप सब जानते हैं ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया होती है। जब वो डिकम्पोज़ होगा तो वो कार्बन डाईआक्साइड छोड़ेगा।

एकदम उल्टा हो जाएगा मामला। कहाँ तो वो कार्बन डाईऑक्साइड सोखा करता था और अब वो कार्बन डाईऑक्साइड एमिट कर रहा है। वो कार्बन सिंक होता था जंगल, वो कार्बन सोर्स बन गया है। अमेजन में कांगो बेसिन में और जो हमारे साउथ इस्ट एशिया के ट्रॉपिकल फॉरेस्ट हैं, उनमें ये हो रहा है। उनके बहुत बड़े बड़े इलाके हैं इस वक्त जो नेट कार्बन सोर्सेज बन चुके हैं। मतलब उस जंगल के होने से कार्बन और ज़्यादा एमिट हो रहा है, क्यों?

फॉरेस्ट फायर आ गई, आपने तापमान इतना बढ़ा दिया दुनिया के सब देशों में, 2022 में, 2023 में किस कदर फॉरेस्ट फायर हुई थी, वो सब आप जानते ही हैं। जब फॉरेस्ट फायर लगेगी तो क्या होगा? जलेगा सब कुछ, जब सब कुछ जलेगा तो क्या होगा? कार्बन डाईऑक्साइड एमिट होगी। इसके अलावा जब हीट बढ़ती है एटमॉसफेयर में, तो उससे तमाम तरीके के एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स होते हैं। जैसे ज़्यादा बारिश हो गई, ज़्यादा बारिश हो गई, तो पेड़ को क्या होगा? गिरेगा जब गिरेगा तो डिकम्पोज़ होगा। ज़बरदस्त तूफान आ गया, ज़बरदस्त तूफान आएँगें, तो पेड़ो का क्या होगा? गिरेंगे जब गिरेंगे तो डिकम्पोज़ होंगे।

तो वही पेड़ जिन्होंने दुनिया भर की कार्बन अपने भीतर समा रखी है, उन्ही पेड़ों के लिए हमने ऐसा माहौल, ऐसा मौसम तैयार कर दिया है कि वही पेड़ उल्टे अब कार्बन एमिट कर रहे हैं। जीएगा तो सोखेगा और गिरेगा या जलेगा तो उत्सर्जित करेगा, एमिट करेगा। और यह चल रहा है।

जितना आप टेंपरेचर बढ़ाते जा रहे हो, उतने साइक्लोन्स बढ़ते जा रहे हैं, साइक्लोन्स बढ़ते जा रहे हैं, तो पेड़ों को क्या होता जा रहा है, गिरते जा रहे हैं। इसके अलावा जैसे जैसे वेदर चेंज होता है, वैसे वैसे एक पेड़ के लिए अपनी पूरी ऊँचाई पाना असम्भव मुश्किल होता जाता है। एक ज़बरदस्त किस्म का चक्रवात आ जाए, न जाने कितने पेड़ उखड़ जाएँगें। बारिश का जो पूरा पैटर्न है, वो बदल जाए तो कहाँ से पेड़ खड़ा होगा? पहले तो खड़ा नहीं होगा माने, जो सोखने का काम था, कार्बन डाईऑक्साइड वो नहीं करेगा। दूसरे, जितना वो पेड़ है भी, उतना भी नहीं रहेगा वो गिर जाएगा। जब गिरेगा तो और ज़्यादा एमिशन करेगा।

और ये मैं अभी एंथ्रोपोजेनिक एमिशन की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं नहीं बात कर रहा हूँ कि हमारा जो एनर्जी और ट्रांसपोर्ट सेक्टर है, वो कितनी कार्बन एमिट करता है। मैं नहीं बात कर रहा हूँ कि हमारी फूड इंडस्ट्री और एग्रीकल्चर कितना कार्बन एमिट करते हैं। मैं बात कर रहा हूँ नेचुरल फीडबैक साइकिल्स की जो एंथ्रोपोजेनिक है भी नहीं, जो अब हमारे कंट्रोल में, नियंत्रण में है भी नहीं। माने आप बिल्कुल साधु बन जाइए। अब कहिए मैं सुधर गया, मैं सीधा आदमी हो गया। अब मैं कोई कार्बन नहीं एमिट करूँगा गलती हो गई, माफ कर दो, आप ये कर भी दो, तो भी अब मामला नहीं रुकने का। तीर छूट चुका है। और ये तो तब है जब आप साधु बन जाओ। साधु बनने की हमारी कोई तैयारी है नहीं।

अब बताइए स्वैग से करें 2025 का स्वागत? इस साल फिर सारे देश, भारत भी अपने आप को धोखा देने के लिए 2030 के लिए नए लक्ष्य बनाएंगे। कैसे बना लोगे? 2015 से 2025 तक हद दर्जे की बेईमानी और मक्कारी करी है हमने। अब 2025 से 2030 में कैसे जादू कर लोगे छोटा काम ही नहीं करा गया तो बड़ा काम कैसे कर लोगे? ये लगभग ऐसी बात है कि एक आदमी को तीन दिनों में तीन किलोमीटर चलना था। वो इतना आलसी और मक्कार है कि दो दिन में चला पचास मीटर, तीन दिन में कितना चलना था? तीन किलोमीटर, माने तीन हज़ार मीटर, दो दिन में वो चला है पचास मीटर। और कहा कोई बात नहीं, आखिरी दिन 2950 चलूँगा। यह हो सकता है? तुम अगर इतना चल सकते तो तुमने पहले दो दिन ही कुछ चल लिया होता।

2025 में सब देश मिलकर के फिर से एक दूसरे से और स्वयं से झूठ बोलेंगे, कोई तरीका नहीं है कि 2030 में एक प्रतिशत भी रिडक्शन हो पाए, 45 प्रतिशत तो दूर की बात है। हमारा कार्बन एमिशन का स्तर हर साल और बढ़ रहा है। जितनी पीपीएम सीओटू है एटमॉसफेयर में, उसमें हम हर साल इजाफा कर रहे हैं, कम नहीं कर रहे हैं। और प्रकृति ने अब बात अपने हाथ में ले ली है, वो कह रही है, अब मैं देख रही हूँ।

अब फीडबैक साइकिल्स प्रकृति के पास है, हमारे पास नहीं है। और ये सब फीडबैक साइकिल एक दूसरे को भी रीइनफोर्स करते हैं।

उदाहरण के लिए अगर पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है तो ओशियन का भी वेपोराइजेशन बढ़ रहा है, एक साइकिल दूसरे साइकिल को रीइनफोर्स कर रहा है। और आपस में ये सब एक दूसरे को एक तरह का कंपाउंडिंग इफेक्ट दे रहे हैं। और इस पूरी प्रक्रिया में जो हम कार्बन डाईऑक्साइड ऐड कर रहे हैं, वो तो अलग है, हम जितनी जोड़ रहे हैं, वो तो अलग ही है।

पृथ्वी के भीतर बहुत ज़बरदस्त तरीके का कार्बन भरा हुआ है। जितना कार्बन पृथ्वी की सतह पर है। और सतह माने इतना ही नहीं कि जहाँ मिट्टी होती है थोड़ा गहराई तक, वायुमण्डल में, वातावरण में तो उसका एक बहुत छोटा-सा प्रतिशत है। ये जो कार्बन हमारे एटमॉसफेयर में भर गया है, ये कहाँ से आया है? मंगल ग्रह से आया है क्या? कहाँ से आया है? यह पृथ्वी की सतह से ही तो आया है न। और हम अपनी हवस की पूर्ति के लिए पृथ्वी को हर तरीके से लगातार खोदते जा रहे हैं। हर तरीके से।

पृथ्वी का ही कार्बन है इस मिट्टी का, इसके नीचे की चट्टानों का यही कार्बन है, जो ऊपर जा रहा है। नीचे से सीधे सीधे मिथेन और कार्बन डाईऑक्साइड भी निकाल सकते हैं या नीचे से फ्यूल ऑयल गैस निकाल सकते हैं जिनको जब आप जलाते हो तब वो कार्बन डाईऑक्साइड बन जाते हैं पर वातावरण में जितना भी कार्बन डाईऑक्साइड है, वो आया पृथ्वी से ही है। और पृथ्वी से वो अपने आप नहीं आया, हमने निकाला है, हम अपनी हवस के लिए, वहाँ पृथ्वी को खोदते जा रहे हैं, हर तरीके से बर्बाद करते जा रहे हैं और उसका जो कार्बन है, वो यहाँ आता जा रहा है।

मानव इतिहास के सोलह कॉनसिक्यूटिव, सोलह सबसे गर्म महीने अभी चल रहे हैं। अभी ये जो पिछले सोलह महीने है न, एक-दो नहीं, पिछले सोलह महीने क्रमशः क्रमवार मानव इतिहास के सबसे गर्म महीने हैं, अब सोचना भी नहीं पड़ता। अब हमें पता है कि जो अगला महीना आएगा, वो भी मानव इतिहास का सबसे गर्म महीना होगा। और हमें ये भी पता होता है कि वो बहुत ठंडा महीना होगा। उदाहरण के लिए जब जनवरी 2025 की बात करो, वो बड़ा गर्म होने वाला है। जैसे दिसम्बर गर्म है, ये दिसम्बर है, इसमें जो औसत तापमान है, वो भी ज़्यादा है और जो औसत वृष्टि है, प्रेसिपिटेशन है, वो भी बहुत ज़्यादा है। न इतनी बारिश होती है दिसम्बर में, और न माहौल, इतना गर्म रहता है दिसम्बर में।

हमारी जो इंडस्ट्री है न, ऊनी कपड़े, बेचने वाले, हीटर बेचने वाले, ये सब घाटे में जा रहे हैं। बड़ा गर्म दिसम्बर है, और बारिश और हो रही है, छाते वालों को नहीं, समझ में आ रहा है कि हम क्यों चूक गए, हीटर वाले कह रहे हैं, हम छाते के बिज़नेस में आ जाए तो चलेगा? ये जो हमारा दशक ही चल रहा है, ये मानव इतिहास का आज तक का सबसे गर्म दशक है।

वर्ल्ड मीट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन के होमपेज पर ही, इंडस्ट्रियल एक्टिविटी जब से शुरू हुई है, तब से आज तक का क्लाइमेट चेंज का कर्व है। वो कर्व एक बार दिखाओ सबको या कहीं भी, और भी मिलेगा वह कर्व ऐसा नहीं है कि वो ऐसा है, वो ऐसा है। (हाथ से कर्व को समझाते हुए।) हम अपने आप को इंटेलिजेंट स्पीशीज़ बोलते हैं। शायद हम इस पृथ्वी की पहली प्रजाति होंगे, जिसने सेल्फ डिस्ट्रक्ट करा हैं। 'इंटेलिजेंट'। हम बाकी प्रजातियों को कहते हैं, उनके पास बुद्धि नहीं है, ज्ञान नहीं है, चेतना नहीं है।

मनुष्य इस पृथ्वी की पहली इकलौती प्रजाति होने जा रहा है, जिसने स्वयं को ही वाइप आउट कर दिया। और उस पर तुर्रा ये कि अभी भी बहुत मिलेंगे, फन्ने ख़ान, जो कहेंगे ये सब तो होक्स है।

बताओ कहाँ कोई गर्मी है, इतनी तो ठंडी है, इतनी गर्मी है। तो तुमने यह क्यों पहन रखा है उतार दे। ट्रम्प जब पिछली बार थे अमेरिका के राष्ट्रपति, तो एक दिन बहुत ठंड पड़ी, एक दिन बहुत ठंड पड़ी। तो बोलते हैं, कहाँ है क्लाइमेट चेंज, इतनी तो ठंड पड़ रही है, कौन-सी ग्लोबल वार्मिंग? तो भारत की एक बच्ची थी उत्तर पूर्व की, उसने कहा कि अंकल पहले तो आप क्लास फोर में जाओ और वेदर और क्लाइमेट का अंतर पढ़ो डिफिनिशन नहीं पता है आपको। बात एक व्यक्ति की नहीं है, ऐसी बातें कर-कर के दुनिया के सबसे विकसित मुल्क में राष्ट्रपति का चुनाव जीत लिया गया।

ख़तरनाक बात यह है कि अगर चुनाव जीतने हैं तो ऐसी बातें करनी ज़रूरी है। ख़तरनाक बात यह कि दुनिया में जो भी लोग चुनाव जीत रहे हैं, वो ऐसी ही बातें करके जीत रहे हैं। पिछले छह-सात सालों से दुनिया भर में राइट विंग बहुत मजबूत होती जा रही है। और राइट विंग का क्लाइमेट चेंज पर या तो इंडिफरेंस का स्टैंड हैं या डिनायलिज़्म का, क्लाइमेट डिनायलिज़्म समझते हैं न? हो ही नही रहा, कुछ नहीं है ऐसा, ये सब वैज्ञानिक झूठ बोल रहे हैं। और जो लोग जो नेता जितनी ऐसी बातें करते हैं, उन्हें उतने ज़्यादा वोट मिलते हैं।

चार-पाँच कर्व्स हैं, यह आप लोग अपने लिए एक्टिविटी की तरह करिएगा। ह्यूमन पोपुलेशन ग्रोथ, कॉन्सेंट्रेशन ऑफ एटमॉस्फेरिक सीओटू, ग्लोबल जीडीपी ग्रोथ, ग्लोबल इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन और ऑवियस्ली एटमॉस्फेरिक टेंपरेचर राइज़। इनके कर्व्स अगल बगल रख के देखिएगा, क्या पता चलता है? इनके सबके दुनिया की जीडीपी ग्रोथ, दुनिया की जनसंख्या ग्रोथ और दुनिया की कार्बन डाईऑक्साइड और टेंपरेचर की राइज़। ये सारे कर्व्स जब आप अगल बगल रख के देखेंगे 1750 से लेकर के 2020 तक तो आपको क्या दिखाई देगा? ये सारे कर्व्स बिल्कुल एक हैं, एकदम एक है।

बात बहुत सीधी है, दो चीज़ें हैं जो मार रही हैं हमारे ग्रह को, हमारी प्रजाति को, सारी, प्रजातियों को। पहला जनसंख्या और दूसरा कंजंप्शन, पॉपुलेशन एंड कंजंप्शन।

इतना सीधा मामला है। बहुत ज़्यादा इसमें साइंस चाहिए भी नहीं है। हमारी स्पीशीज़ ने अपनी आबादी बढ़ा-बढ़ा के, बढ़ा-बढ़ा के और भोग भोग के, सब कुछ बर्बाद कर डाला। तो ज़ाहिर-सी बात है अगर कुछ समाधान अभी भी हो सकता है जिस हद तक अब संभावना बची है, वरना एक बार फीडबैक साइकिल सक्रिय हो गए, तो बचने की संभावना कम होने लग जाती है। अगर कुछ संभावना भी है बचने की, तो वो यही है कि यही दोनों चीज़ें कम करो।

क्या? आबादी और कंजंप्शन। और आबादी और कंजंप्शन भी दो अलग अलग चीज़ें नहीं हैं। वो दोनों इंसान की एक ही वृत्ति से निकलती है। क्या? भोगो भोगो। जो मूल अहंता है, जो गहरा अज्ञान है, वही ये दोनों काम करता है। और इसलिए जो लोग ये काम करते हैं, अक्सर दोनों काम करते है। नहीं मिलेगा व्यक्ति जो दोनों में से एक ही काम कर रहा है।

आम आदमी की दोनों ख्वाइशें होती हैं। हम बहुत सारे हो जाए और हम बहुत सारा भोगे, क्योंकि ये दोनो ख्वाइशें एक ही है। लेट मी कंज्यूम एंड लेट मी कंज्यूम फ्रॉम ऐज़ मेनी हैंड्स, ऐज़ मेनी बॉडीज़, ऐज़ मेनी माउथ्स ऐज़ पॉसिबल।

आपकी संस्था जो काम कर रही है, वो समाधान है, वो एकमात्र समाधान है। और ये बहुत विवशता की स्थिति होती है जब आप जानते हो कि समाधान क्या है, पर उस समाधान को कार्यान्वित करने का, एक्सीक्यूट करने का आपके पास कोई तरीका नहीं होता। मेरे पास एक ही तरीका है कि मैं आपको बता रहा हूँ, बार बार जितने तरीकों से हो सके। इसके अलावा न तो नीति निर्धारण में मेरा कोई दखल है, न आपके निर्णयों पर।

हमारी जो ज़िन्दगी की अंडरलाइंग फ़िलॉसफ़ी है वही इन सारे कर्व्स का कारण है। हमारी अंडरलाइंग फ़िलॉसफ़ी है, ख़ुद को नहीं जानो, बाहर जाकर के भोगो, अपनी तरफ नहीं देखो बाहर जो कुछ भी है उसे कंज्यूम करते चलो उसने यह कर दिया है।

और वर्ल्ड पॉपुलेशन और कार्बन डाईऑक्साइड के जो दो कर्व्स हैं, उनको ध्यान से देखिए, (ग्राफ स्क्रीन पर प्रदर्शित होता है) मजा आया? एकदम एक हैं न? लोग कहते हैं कैसे कम करें सीओटू कॉन्सेंट्रेशन, ये रहा देख लो। इसी तरीके से जो फॉरेस्ट लॉस है और जो पॉपुलेशन का कर्व है वो देखो। आप पैदा होते हो जब मैंने कहा कि एक बच्चा अगर आज पैदा होता है तो हज़ारों-लाखों पौधों और पशुओं और पेड़ों की लाश पर पैदा होता है तो लोगों को बड़ा बुरा लगा। बोला ऐसे क्यों बोल रहे हैं। हमारा बच्चा पैदा होगा तो वो क्या लाखों पेड़ काटेगा, लाखों जानवर काटेगा? वो देखो, पहला कर्व देखो और आखिरी कर्व देखो। पहला और आखिरी कर्व देखिए और बताइए क्या मैंने गलत कहा कि आज अगर बच्चा पैदा होता है तो एक बच्चे के पैदा होने का मतलब है कि आपने लाखों जानवर मार दिए और लाखों पेड़ काट दिए। क्या मैंने गलत कहा?

इसमें आप और भी कर्व्स ऐड कर सकते हैं। मटीरियल प्रोडक्शन, हम कितना इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन कर रहे हैं प्रतिवर्ष। वो कर्व भी बिल्कुल ऐसा ही है। वही अज्ञान की वृत्ति जो हमें मजबूर करती है और बच्चे पैदा करो और बच्चे पैदा करो। वही वृत्ति हमें कहती है कि अब भोगो भी तो और चीज़ें होनी चाहिए। अब तीन-चार बच्चे हो गए हैं तो घर बड़ा लेना पड़ेगा। इतने सारे लोग क्या है एक स्कूटर में बैठ के चलेंगे तो अब गाड़ी भी लेनी पड़ेगी। जिसको हम कहते हैं न फैमिली इज़ द यूनिट ऑफ सोसाइटी, थोड़ा सब्र से सोचिएगा, फैमिली इज द यूनिट ऑफ कंजंप्शन।

हमारी पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था बनी ही इसलिए है कि हम अपनी तादाद बढ़ाएं और खुशहाली के नाम पर और ज़्यादा पृथ्वी को बर्बाद करें। वो चल गया था एक लंबे अरसे तक वो चल गया था, लगभग 1850 तक भी चल जाता, 1900 तक भी चल रहा था, अब नहीं चल सकता तो कोई ये तर्क न दे की अरे हज़ारों सालों से जो व्यवस्था चली आ रही है वो तोड़ दे क्या? हज़ारों सालों से यह नहीं हो रहा था। अब जो हुआ है, यकायक हुआ है और बहुत ज़बरदस्त हुआ है तो हज़ारों सालों का तर्क और हज़ारों सालों की दुहाई मत दो।

आज तुमको जीने के नए तरीके चाहिए अगर जीना चाहते हो तो। पुराने तरीकों से नहीं जी सकते।

पुराने अरमान अब नहीं चलेंगे। पढ़ाई क्यों की है? ताकि पैसा आ जाए, ताकि घर खरीदूं, ताकि ये करूं, वो करूं, पचास काम करूं। नई इंडस्ट्री लगानी है, जंगल काटने हैं, मैन'स कांक्वेस्ट ऑफ नेचर, ये सब करके दिखाना है। और हैप्पी लाइफ़ का मतलब यह है कि देखो, मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूँ तो मेरे बारह बच्चे हैं पाँच औरतों से। आज से 2000 साल पहले के जानवर हो, वो ये सब काम करता था। आज का ज़रा भी सजग आदमी होगा, वो ये देखेगा न।

ये सब आँकड़े हैं या मैं बस बकवास ही करता रहता हूँ? हम इनसे बहस कर सकते हैं और आप बहस कर के मुझे रोक सकते हो। जो फीडबैक साइकिल सब एक्टीवेट हो गए उनको रोक लोगे क्या? रोक लोगे? हमने कहा फॉरेस्ट सबसे बड़ा सिंक होता है। अगर हम यहाँ पर एक कर्व और दिखा पाए कि पृथ्वी के पूरे क्षेत्रफल का कितना हिस्सा जंगलों द्वारा आच्छादित था, सोलहवीं शताब्दी, सत्रहवीं शताब्दी और वर्तमान में तो आपको एक बड़ी ज़बरदस्त चीज़ देखने को मिलेगी। पचास प्रतिशत, एक बहुत लंबे अरसे तक पृथ्वी के पचास प्रतिशत क्षेत्र पर जंगल थे। 50 परसेंट। अभी कितने है? 30, तीस।

पचास से नीचे ये पृथ्वी चली नहीं सकती। अगर वैसे समझो तो इंसान अगर बत्तमीजी न करे। तो पृथ्वी में कितने क्षेत्र पर जंगल होंगे? दो क्षेत्रों को अगर तुम हटा दो, दो तरह के डेज़र्ट होते हैं, एक कोल्ड डेज़र्ट और एक हॉट डेज़र्ट। उनको हटा दो तो हर जगह जंगल ही जंगल होगा। लगभग पूरी पृथ्वी ही जंगल से भरी होगी। जो सबसे ठंडी जगह होती है, वहाँ भी बड़े ज़बरदस्त जंगल होते है, उन्हें बोरियल फॉरेस्ट बोलते है। जो साइबेरियन फॉरेस्ट, कोनीफेरस फॉरेस्ट, ये सब होते हैं, वहाँ भी जंगल होते हैं।

इंसान की बत्तमीजी से पहले लगभग पूरी पृथ्वी ही जंगल थी। रेगिस्तान को हटा दो और जो एकदम ही बर्फ से ढके हुए क्षेत्र हैं, उनको हटा दो। तो उसको घटाते घटाते हम 30 प्रतिशत पर ले आए हैं और 30 प्रतिशत भी सरकारी आंकड़ा है। इसमें क्वालिटी ऑफ़ जंगल जब तुम शामिल करते हो तो और ज़्यादा धक्का लगता है। सरकारें किसी तरह अपना पिंड छुड़ाने के लिए कहीं पर जहाँ बहुत कम ट्री डेनसिटी हो, उसको भी क्या डिक्लेयर कर देती है? ये तो फॉरेस्ट है। कहीं पर यूनीकल्चर, मोनोकल्चर कर दिया, उसको भी क्या बोल देते हैं कि यह तो फॉरेस्ट है। फॉरेस्ट ही नहीं है तो कौन सोखेगा कार्बन?

और फॉरेस्ट हो नहीं सकते, आप आबादी बढ़ा रहे हो, वो कहाँ रहेगा? उसके खाने के लिए अन्न उगाना पड़ेगा न, खेत कहाँ से आएँगें? जंगल काट के ही तो खेत बनेगा और हमारा फॉरेस्ट कवर हर साल और कम होता जा रहा है। कुल 4000 मिलियन हेक्टेयर हमारे पास फॉरेस्ट है पृथ्वी पर। और लगभग पिछले दस सालों में ही हमने उसमें से 500 हटा दिया। हम इतनी जल्दी में है, कमौन बेबी मेक इट फ़ास्ट। हम बहुत जल्दी में है। सबसे ज़्यादा कहाँ हटाया जाता है मालूम है? गरीब देशों में जैसे भारत। 2015 से 2020 के बीच में जिन देशों में सबसे ज़्यादा फॉरेस्ट कवर हटाया गया, उनमें से एक भारत है। जल्दी से जल्दी डेवलपमेंट, मांगता।

और सबसे वेल-प्रिज़र्व्ड फॉरेस्ट कौन से हैं? जो आपके टेम्परेट फॉरेस्ट हैं, यूरोप वगैरह के, और जो और ऊपर के आपके साइबेरियन फॉरेस्ट वगैरह है, वो फिर भी बचे हुए हैं। सबसे ज़्यादा काटे कहाँ जा रहे हैं? ब्राज़िल में, अफ्रीका में, भारत में, मलेशिया, इंडोनेशिया में।

जो अमीर हुआ है, यूँ ही अमीर थोड़ी हुआ है। वो अमीर इसलिए तो हुआ है न कि अपनी मौज करेगा, मर्ज़ी चलाएगा, दूसरे को भोगेगा। तो जैसे एक अमीर आदमी दूसरे गरीब के ऊपर चढ़ कर बैठता है, वैसे एक अमीर देश भी तो गरीब देशों पर चढ़के बैठेगा न? क्या समाधान है इसका? जब तक हम इंसान को नहीं बदलेंगे, हम देश को कैसे बदल सकते हैं, बदल सकते हैं? हम इंसान को नहीं बदलेंगे तो पॉलिसीज़ बदलने वाली है? क्या कौन बदलेगा पॉलिसीज़? वेदांत पूछता है न? कर्ता कौन है? डूअर कौन है? डूअर को बदले बिना डीड बदल सकती है क्या?

तो आपके साथ आपकी संस्था इसी डूअर को, एक्टर को, कर्ता को बदलने का प्रयास कर रही है पर ऐसा लगता नहीं, हमारी गति पर्याप्त है। जिस पैमाने पर ये काम होना चाहिए उससे बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है। और समय नहीं है।

(ग्राफ को देखते हुए) अब जो पॉपुलेशन वाला कर्व है, उसको उल्टा करके इसके ऊपर लगा दो तो दोनों कैसे हो जाएँगे, एकदम एक से हो जाएँगे। पॉपुलेशन बढ़ी फॉरेस्ट घटा। एक आपको, आंकड़ा दूँ, कमज़ोर दिल वाले न सुने। या जिन्होंने ज़्यादा खा-वा लिया, वो न सुने। उलट दोगे, पिछले पचास सालों में ही कुल मिलाकर के जितनी हमारी वाइल्ड पॉपुलेशन थी, जंगलों के भीतर हम उसका 75 प्रतिशत समाप्त कर चुके हैं।

मतलब दुनिया भर के जंगलों में कुल मिला कर के अगर 40 पशुपक्षी हुआ करते थे तो सिर्फ़ पचास साल के अंदर हमने उसको दस कर दिया है। 75 प्रतिशत साफ कर दिए। ये है थलचर, जो रहते हैं ज़मीन पर। और जब उनकी बात करो, जो रहते हैं पानी के नीचे 85 प्रतिशत साफ़ कर दिए। कोई नहीं बच रहा इस पृथ्वी पर हमारे अलावा, हम किसी को भी नहीं छोड़ रहे हैं। एकदम ही नहीं कोई बच रहा है। सोचिए न, 85 परसेंट पॉपुलेशन डिक्लाइन, मनुष्य की तादाद बढ़ती जा रही है। और दूसरों को पिछले 50 साल के अन्दर-अन्दर हमने 85 प्रतिशत खत्म कर दिया। वो एकदम ही नहीं बचे, कहाँ बचेंगे यही तो रहते थे वो। वो, तो यही रहते थे तो कैसे बचेंगे?

गीता इस वक्त इसलिए नहीं है कि आपको स्वर्ग पहुँचा देगी। गीता इसलिए है कि वो शायद पृथ्वी बचा देगी। स्वर्ग वगैरह छोड़ दो अभी तो पृथ्वी बच जाए यही बहुत बड़ी बात है।

कैसे रुकेगा? समाधान क्या है? आम आदमी ही समाधान है। क्योंकि दुनिया में जो देश सबसे ज़्यादा एमिशन कर रहे हैं वो सब डेमोक्रेटिक है। G-20 आप जानते हैं न G-20? वो दुनिया के 80 से 90 प्रतिशत कार्बन एमिशन का ज़िम्मेदार है और G-20 पूरा डेमोक्रेटिक है। मैं क्या कहना चाहता हूँ, बात किसके हाथ में है? बात आपके हाथ में है लेकिन आपको बेवकूफ बनाया जा रहा है, आपको ऐसे मुद्दों में उलझाया जा रहा है जो बिल्कुल नकली है ताकि आप ये बात न करो। जो दुनिया के छह देश हैं जो सबसे जयादा एमिशन करते हैं। यूएस, चाइना, भारत, रशिया, यूरोपियन यूनियन, ब्राज़िल ये सब के सब या तो डेमोक्रेटिक हैं या कम से कम सेमी-डेमोक्रेटिक हैं। यह कोई एक राजनेता नहीं कर रहा है, ये जनता करवा रही है, ये हम करवा रहे हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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