श्रोता १: कर्ताभाव से कैसे दूर रहें?
वक्ता: कर्ता झूठ है। कर्ताभाव से दूर रहने के लिए कोई यकीन नहीं चाहिए, कोई ग्रन्थ नहीं चाहिए, खुली हुई आँख चाहिए। साफ़-साफ़ दिख जाएगा कि कर्ता झूठ है। कौन है वह जो कुछ भी करने का दावा करता है? आप हाथ बढ़ाते हो, आपके सामने चाय का प्याला रखा है, आप उठाते हो, क्या वास्तव में विकल्प था आपके पास? एक बार आपके शरीर की रचना हो गयी, उसके बाद आप कहाँ दावा कर पाओगे कि मैं खाता हूँ, मैं पीता हूँ? और आपके शरीर की क्या रचना हुई है उसमें आप कहीं कर्ता नहीं थे। जब आप अपने शरीर के कर्ता नहीं हो, तो शरीर की भूख के कर्ता कैसे हो सकते हो? शरीर की पूरी रचना है, उसके कर्ता आप नहीं हो, तो शरीर जो भी कुछ मांगता है, जो भी उसकी दशाएं हैं, उनके करता आप कैसे हो सकते हो? जैसे ही आँख खोलकर देखेंगे, जैसे ही दृष्टि का दायरा स्पष्ट होने लगेगा, कि यह जो हो रहा है वह पता नहीं कितनी ताकतों के आपस में मिल जाने से हो रहा है, आपको समझ आएगा कि उसमें ‘मैं’ कहाँ खड़ा होता हूँ। कहीं भी नहीं।
आप जवान होते हो, कोई स्त्री आपको दिख जाती है और आपका दावा होता है, ‘मुझे प्रेम हो गया’। ना अपने पुरुष होने के कर्ता आप, ना अपने जन्म के कर्ता आप, ना आपके शरीर में जो रासायनिक गतिविधियाँ होती हैं उनके कर्ता आप, ना उन परिस्तिथियों के कर्ता आप जिनमें सामने कोई दूसरा व्यक्ति पड़ गया है, कोई स्त्री पड़ गयी है, तो फिर इस प्रेम के कर्ता आप कहाँ से हो गए? और जो बातें मैंने बोलीं इनमें से एक भी अगर कम होती तो, आपको प्रेम नहीं हो सकता था। आपका एक ख़ास वर्ष में जन्म होना चाहिए, आपकी एक विशेष उम्र होनी चाहिए, आपका एक ख़ास लिंग होना चाहिए और आपके मन में उस औरत से मिलती-जुलती एक छवि होनी चाहिए, तभी वह आपको पसंद आएगी। और वह जो छवि है, वह जिन परिस्थितियों से आती है उनके करता भी आप नहीं हैं क्योंकि आप नहीं फैसला करते कि कब पैदा होंगे और किन परिस्थितियों में बड़े होंगे। तो फिर इस प्रेम के कर्ता आप कहाँ से हो गए? हम सब अच्छे से जानते हैं कि हमारे मन में पहले ही एक खाका बैठा रहता है कि किस तरह का व्यक्ति हमें पसंद आएगा। और जो वो छवि बैठी होती है मन में, वह पूरी तरीके से बाहरी प्रभावों से आती है। जब वह छवि बाहरी प्रभावों से आती है तो हमारा प्रेम हमारा कैसे हो गया? और फिर उस प्रेम से संतानें पैदा हों तो उन संतानों के कर्ता आप कैसे हो गए?
जब जीवन में सब परिस्थिति जन्य है, तो कर्ता भाव से बड़ा झूठ और कोई हो ही नहीं सकता ना? जो कर रहा है वह ‘पूर्ण’ कर रहा है और कर्ता का दावा यह होता है कि ‘मैं’, जो एक खण्ड हूँ, ‘मैं’ कर रहा हूँ। करने वाला पूर्ण है। जब सब कुछ मिलता है, जब पूरा अस्तित्व मिलता है तभी कोई छोटी से छोटी घटना भी घटती है। एक हल्का-सा हवा का झोंका भी आपको अनुभव इसलिए होता है क्योंकि पूरे अस्तित्व की सारी ताकतों का आपस का जो मेल है, वह ऐसा होता है कि एक हवा का झोंका चल पड़ता है। जो भी हो रहा है वह पूर्ण का नतीजा है। अगर किसी को हक़ है कर्तत्व का श्रेय लेने का तो वो पूर्ण है। अस्तित्व अकेला है जो दावा कर सकता है कि ‘मैंने’ किया। और आप तो खण्ड हो, आप तो अहंकार हो, आप तो टुकड़े हो! टुकड़ा ही कर्ता बनना चाहता है। उस टुकड़े को क्या हक़ है अपने को कर्ता घोषित करने का?
तो यह विपरीत सी बात है कि जो वास्तविक कर्ता है उसे कोई शौक ही नहीं है यह दावा करने का कि ‘मैं कर रहा हूँ’। और जो कर ही नहीं रहा है उसे बार-बार यह भ्रम होता है कि मैंने किया। और यह भ्रम भी इसलिए होता है क्योंकि उसकी नज़र छोटी है। उसकी दृष्टि व्यापक नहीं है, पूर्ण को देख ही नहीं पाती। वो अपने छोटे से मन को लेकर बैठा होता है और जहाँ उसका कोई योगदान नहीं, जहाँ उसका कोई हाथ नहीं, जहाँ उसके किये कुछ हो नहीं रहा वहाँ भी उसको यही लग रहा होता है कि ‘मैं’ कर रहा हूँ। और इस भाव के कारण कि ‘मैं’ कर रहा हूँ, वह तरह-तरह के बोझ उठाए रहता है। ऐसे बोझ जो हैं ही नहीं पर उसने उठा रखे हैं। जहाँ तुम्हें कुछ करना नहीं वहाँ भी तुम इस बात का बोझ लेकर, तनाव लेकर के चल रहे हो कि ‘मैं’ ना करूँ तो क्या हो जाएगा। तो कर्ताभाव कोई विधि नहीं है मन को शांत करने की। कर्ताभाव से मुक्ति कोई साधन नहीं है अहंकार को गिराने का, कर्ता भाव झूठ ही है। उसमें कोई तथ्य नहीं है। आपको धार्मिकता की ज़रुरत नहीं है कर्ताभाव को ठुकराने के लिए। एक वैज्ञानिक ज़्यादा अच्छे से समझ पाएगा कि हम कर्ता हैं ही नहीं। आप जो कर रहे हैं, उसके कारण झूठ में बैठे हुए हैं। आपका गुस्सा, आपका प्रेम, आपकी उलझनें, आपके लक्ष्य, वह आपके हैं ही नहीं। दुनिया भर की परिस्थितियों से पैदा होते हैं वह सब। तो आप उनके कर्ता कैसे हुए? इसलिए कर्ता भाव में तथ्य कुछ नहीं है, मान्यता भर है। आप माने बैठे हो कि आप कर्ता हो। तो इसलिए कर्ता भाव से मुक्ति के लिए कुछ करना नहीं है। क्योंकि जो है ही नहीं उसे हटाने के लिए करना क्या होगा। जो है ही नहीं और बस माना गया है उससे मुक्ति के लिए क्या करना होगा? मानना छोड़ना होगा। मान, मान कर आपने कर्ता को पैदा किया है। मानना बंद कर दीजिये, कर्ता कहीं नहीं बचेगा।
ज़रा सा कुछ घट जाए या बढ़ जाए तो पूरे अस्तित्व में सब कुछ बदल जाना है। फिर कोई घटना वैसे नहीं घटेगी जैसे घट रही है। जो हो रहा है वह समूचे की लीला है। अगर आप अपने आपको समूचा ही समझते हो, तो अपने आपको कह लीजिये कि मैं कर्ता हूँ। फिर कोई दिक्कत नहीं। पर यदि आप दावा करो कि आप कर्ता हो तो आपको साथ में यह भी कहना पड़ेगा कि मैं खण्ड नहीं हूँ, पूर्ण हूँ। मैं हिस्सा नहीं हूँ, मैं समूचा हूँ। लहर बेशक दावा कर सकती है समुद्र होने का, पर तब उसको यह मानना पड़ेगा कि वह लहर नहीं है, पानी ही है। लहर जब तक लहर है उसे कोई हक़ नहीं है यह कहने का कि मैं उठ रही हूँ और मैं गिर रही हूँ। पर लहर बड़ी आशंकित रहती है, मैं अभी उठी हूँ, अभी जवानी चल रही है, फिर बूढ़ी हो जाऊँगी और मर जाऊँगी। लहर ने क्या कर लिया है? जो कर रहा वह सागर कर रहा है। तेरा उठना भी सागर से, तेरा गिरना भी सागर में। पर लहर के सिर पर बड़ा बोझ है। लहर में अभिमान आ सकता है, लहर हताश भी हो सकती है, क्योंकि लहर ने अपने आपको एक नाम दे दिया है। क्या नाम दे दिया है? ‘मैं लहर हूँ’! और लहर ने अपनी सीमाएँ निर्धारित कर दी हैं। कि यहाँ से यहाँ तक जो है वह लहर है, और जो उसके आगे है वह लहर नहीं है। अब ठीक-ठीक देखकर बताइये कि क्या सही में लहर कहीं शुरू और कहीं खत्म होती है? उसकी सीमाएँ काल्पनिक हैं। लहर का मूल तत्व ठीक वही है जो पूरे सागर का है। पानी! पर लहर अपने आपको पानी बोलती नहीं है। वह अपने आप को लहर बोलती है। इस मूल तत्व की एकता को जैसे ही आदमी देखना शुरू करता है, कर्ताभाव हट जाता है।
श्रोता 2: एक प्रश्न है। इस सेशन में अगर कोई देरी से आया, तो वह कौन है जो देरी से आया?
वक्ता: देखिये, कुछ दिन पहले एक बात हुई थी जिसको हमने शीर्षक दिया था, ‘कर्तव्य सज़ा है नासमझी की’। अगर आपको आचरण की एक संज्ञा दी जा रही है तो यह नासमझी की सज़ा है। कर्ता ही नासमझी है। आचरण उनको सिखाया जाता है जिनका बोध सोया होता है। जिनका बोध जग जाता है उनका कोई कर्तव्य नहीं बचता, उनके लिए कोई आचरण नहीं बचता। वह हर आचरण से मुक्त हो जाते हैं। कर्तव्य सिर्फ उनके लिए है जिनका अपना दीपक ढका ही हुआ है। तो उनको फिर बाहरी रोशनी दी जाती है।
दूसरी बात आपने कहा, ‘यह कौन है जो देरी से आ रहा है, या वह कौन है जो कुछ भी करता है?’ पूरे का खेल है। जो समय पर आया, वो भी पूरे की लीला के चलते आया और जो देर से आया वो भी उस पूरे की लीला के चलते आया। फिर प्रश्न यह आया कि जो देर से आया उसको कोई दण्ड क्यों? वह तो देर से आया ही नहीं। अगर कोई भूल-चूक अपराध कर रहा है, तो वह तो कर ही नहीं रहा, पूरा अस्तित्व कर रहा है। फिर दण्ड किसी को क्यों दिया जाता है? दण्ड आपको इसलिए दिया जाता है क्योंकि आप मानते हो कि आप देर से आये।
जिस क्षण आप अपने को कर्ता मानना छोड़ दो आपको कर्मफल मिलना बंद हो जाता है।
कर्म हुआ कि आप से देरी आये और आप अपने आप को कर्ता मानते हो, कि मैं देरी से आया। ज्यों ही आप अपने आप को कर्ता मानना बंद कर दो, आप कहो परम की इच्छा थी हमारा देर से आना, त्यों ही आप यह भी कहो कि डांट भी किसको पड़ रही है? उसी को पड़ रही है। वही खेलता है, तो जीत भी जो हो रही है वह किसकी है? उसकी हो रही है। हार भी है तो किसकी है? उसकी! बड़ी तारीफ हो रही है, तो किसकी हो रही हैं? उसकी! और बड़ी भद्दी डांट पड़ गयी, तो किसकी? उसकी। कर्मफल आपको भुगतना ही पड़ता है क्योंकि आप अपने आप को उस कर्म का कर्ता माने बैठे हो। मत मानो, नहीं भुगतोगे! क्योंकि कर्मफल भुगता नहीं जाता। हमने एक पुराने मौके पर कहा है कि कर्मफल आप खुद मांगते हो, ग्रहण करते हो! कर्ता कर्मफल को ग्रहण करता है। जहाँ कर्ता नहीं है, वहां कर्मफल को ग्रहण करने वाला कोई बचता ही नहीं। तो डांट पड़ी, पर उस डांट को ग्रहण करने वाला ही कोई नहीं था। डांट तो पड़ रही है, पर कोई है ही नहीं उस डांट को ग्रहण करने वाला। कोई नहीं था। डांट किसको पड़ रही है? जो देरी से आया। हम थोड़े ही देरी से आये।
आप यहाँ बैठे हो, आपके बराबर में कोई और बैठे हैं। यहाँ से उनको कई बातें बोली जा रही हों, तो आप थोड़े ही ग्रहण करते हो उसे। आप क्या बोलते हो? मैं वह थोड़े ही हूँ! तो वैसे ही, ‘ठीक, हो गया कुछ उल्टा-पुल्टा, आ रहा है कर्मफल, हम ले ही नहीं रहे। हम वह हैं ही नहीं जिसने वो कर्म किया था’।
एक पहचान होती है जिसे बुरा लगता है। आप अपने आप को उस पहचान से बांधो नहीं, आपको बुरा नहीं लगेगा। कोई आपको लाख कटु वचन बोलता रहेगा, आपको बुरा नहीं लगेगा अगर आप उस पहचान से अपने आपको बांधो नहीं। उसी पहचान का नाम कर्ता है। कर्ता कौन है? एक पहचान। आप अपने आपको उससे बांधो नहीं, आपके साथ जो भी होता रहे, आपको उससे ना अच्छा लग सकता है, और ना बुरा।
श्रोता 2: कभी अगर कहीं बैठे हैं, और भूख लग गयी, तो उसे तो नियंत्रित करना पड़ेगा ना?
वक्ता: नियंत्रित करने वाला वो है जो नियंत्रण कर रहा है, और एक क्षण ऐसा आएगा कि आपका सारा नियंत्रण टूट जाएगा और आपको भागकर खाना ही पड़ेगा।
श्रोता 2: उस पल तो उसे नियंत्रण करना ही पड़ेगा ना?
वक्ता: हाँ, ठीक है! और जिस क्षण पर सारा नियंत्रण टूट जाता है और आप जाकर खाने ही लग जाते हो, उस क्षण पर भी एक घटना घट रही है।
मन, बुद्धि, संयम, बोध और भूख: यह अलग-अलग नहीं हैं। नियंत्रण की भाषा से ऐसा अहसास होता है जैसे बुद्धि और भूख विपरीत खड़े हों, एक दूसरे के। जिसे भूख कह रही हो कि चलो और खा लो और बुद्धि कह रही हो कि नहीं, रुको अभी! अभी मत खाना, यह बड़ी भूल है। जहाँ से संयम आता है, जहाँ से बोध आता है, ठीक वहीं से भूख भी आती है। उन सबका कर्ता एक है। यह बांट के देखने की दृष्टि आपकी है, यह खण्ड आपने किये हैं, यह टुकड़े आपने किये हैं। मेरा एक हिस्सा है जो कुछ करना चाहता है और मेरा एक दूसरा हिस्सा है जो उस करने को रोकना चाहता है, दमन करना चाहता है, नियंत्रण करना चाहता है। यह हिस्से आपने किये हैं। मैं आपसे पूछ रहा हूँ, जो आपको समझने की ताकत दे रहा है, जो हर ताकत के पीछे की ताकत है, उसके अलावा और कौन है जो आपको भूख दे रहा है? और कौन है? तो आप उसके ऊपर छोड़ दो। जब भूख उसने दी और भूख को समझने की ताकत उसने दी, तो अब कर्म क्या होना है, यह वह खुद ही निर्धारित कर देगा। आप बस बीच में घुस कर मत बैठ जाना कि मैं तय करूँगा कि कब खाना है और कब नहीं खाना है। अपने आप फैसला हो जाएगा। इसलिए मैंने कहा कि एक क्षण ऐसा आता है जब आप कहते हो कि अब खा ही लेते हैं। आप होंगे बहुत बड़े संयमी, लेकिन एक क्षण पर आपको कहना पड़ेगा कि अब हो गया। वो क्षण आने दो, अपने आप आएगा। जो भूख दे रहा है वही इस बात का निर्णय भी दे देगा कि कब तक भूख को रोकना है और कब खाना खा लेना है। लेकिन इसमें बहुत उलझन होगी क्योंकि इसमें तुम्हें कुछ पता नहीं चल रहा है। कोई फार्मूला नहीं मिल पा रहा है कि सही-सही कितने घंटे तक भूख को रोकना है।
इसमें तो कुछ उत्तर ही नहीं मिला कि देखो अगर तीन घंटे का सत्र हो तो सवा घंटे तक भूख को रोकना उचित है। उसके बाद तुम्हें पूरी मुक्ति है कि कुछ भी जाकर खा लो। अब यह लगती बात ठीक मुझे, क्योंकि अब मैं कर्ता हो सकता था। मैं कहता, ‘मैंने सवा घंटे तक भूख को दबाकर रखा और सवा घंटे बाद मैंने जाकर खा लिया’। और जो लोग आचरण पर चलते हैं वह भी इस बात से खुश हो जाते कि बड़े लोगों ने बताया है कि सवा घंटे की जो सीमा है वह बड़ी पवित्र सीमा है, उसका उलंघन मत करना। सवा घंटे तक व्रत रखो और उसके बाद आज़ादी है खा लेने की। अब इसमें मन बड़ा खुश रहेगा, लेकिन यह मूर्खता है, यह धार्मिकता नहीं है। धार्मिकता यह कहती ही नहीं कि कितनी देर रोकना और कितनी देर नहीं। धार्मिकता कहती है, जिसने भूख दी है और जिसने भूख को समझने की ताकत दी है, वही यह निर्णय भी कर लेगा कि कब खाऊँ और कब ना खाऊँ। ‘कोई दिन ऐसा हो सकता है कि मैं एक क्षण को भी अपनी भूख का दमन ना करूँ और कोई दिन ऐसा भी हो सकता है कि मैं चौबीस घंटे बिना खाए रह गया। अरे, बात बात की बात है, क्या फार्मूला है इसमें’। इसमें कोई समय सीमा नहीं हो सकती। और समय सीमा अगर है भी तो उस समय को बस एक है जो जान सकता है। कौन? वो जो समय का मालिक है। हम नहीं जान सकते। उसको ही तय करने दो कि किस बिंदु पर आकर के यह कह देना है कि अब मैं भोजन ग्रहण कर रहा हूँ। उसको ही यह तय करने दो ना। जब समय भी उसका है और भूख भी उसकी है और बोध भी उसका है तो तुम काहे को परेशान हो रहे हो? ‘भूख लग रही है, खाएँ कि ना खाएँ’। अरे जिसने भूख दी है वो बता देगा कि अब खालो। पर तुम्हारी दुविधाएँ, तुम्हारे अनिर्णय, तुम्हारी शंकाएँ यहाँ से आती हैं कि तुम भूख को अपना काम नहीं करने देते। तुम भूख के ऊपर बैठ जाते हो। मैं तुमसे कह रहा हूँ तुम शरीर को खुला छोड़ दो, वो खुद जानेगा कि कब क्या करना है। शरीर की अपनी एक समझ होती है या यूँ कह लो कि जिसको तुम शरीर या जिसको तुम इंटेलिजेंस कहते हो, वह दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं। तुम्हारे रेशे-रेशे में बोध समाया हुआ है। वो ठीक-ठीक जानता है कब क्या करना है। तुम उसको खुला तो छोड़ो। तुम उसके मालिक बन कर बैठ जाते हो इसलिए तमाम तरह की विकृतियाँ आती हैं फिर। तुम शरीर को छोड़ दो, वो खुद जानेगा क्या करना है।
अब यह बात सुनने में जितनी आकर्षक लग रही है, उतनी ही भयानक भी लग रही है। ‘अरे बाप रे, क्या हो जाएगा अगर हमने शरीर को खुला छोड़ दिया। क्योंकि मेरी भूख का तो ठौर-ठिकाना ही नहीं है और एक नहीं पांच तरह की भूख हैं मेरी। सर, जो बात मैंने पेट की भूख के बारे में पूछी, क्या वह बाकी भूखों पर भी लागू होती है क्या?’ हाँ, होती है, पूरी तरह से होती है। तुम्हें कोई ज़रुरत ही नहीं है कुछ तय करने की। जो होना होगा, हो जाएगा। भूख तुम्हारे तय करने से लगती है?
तो यह कौन सी हरकत है कि मैं तय करूँगा कि कब भूख मिटानी है? जब तुम्हारे तय करने से भूख लगी नहीं, तो तुम्हारे तय करने से मिटनी क्यों चाहिए? पर नहीं, तुम्हें वहां भी एक आचरण-संहिता चाहिए। जो लोग तुम्हें आचरण देते हैं तो उनसे कहो कि भूख को भी आचरण दें। कि तू कब लग और कब नहीं। कहो उनसे जाकर, और उनसे कहो कि बोध को भी आचरण दें कि तुझे क्या समझ में आना चाहिए और क्या नहीं। तेरी इतनी ज़ुर्रत नहीं होनी चाहिए कि कुछ बातों को समझ ले। जाओ कहो उनसे कि बोध को भी आचरण दें। अरे किसी को भी आचरण दिया ही नहीं जा सकता क्योंकि सारे आचरणों के पीछे की ताकत एक है। तुम उसको बताना चाहते हो कि तू क्या कर और क्या ना कर? तुम्हारी इतनी हैसियत हो गयी? सोच कर देखो!
जब चलाने वाला एक है, करने वाला एक है तो तुम आचार-संहिता दे किसे रहे हो?
श्रोता १: पर हम छात्रों को पानी पीने जाने के लिए भी मना कर देते हैं।
वक्ता: कोई दिक्कत नहीं है मना करने में, पर तुम मत मना करो। बेशक़ मना करो और बेशक़ अनुमति भी दो, सब कुछ करो, कोई दिक्कत नहीं है; पर तुम मत करो। फिर जो उचित होना है वह होगा। कर्म रहे, कर्ता ना रहे क्योंकि कर्ता सिर्फ एक है। सिर्फ एक हस्ती है जो कर्ता हो सकती है। उसके अलावा कोई दावा ना करे, यह कुफ्र है, बहुत बड़ा। यह दावा करना कि ‘मैं कर रहा हूँ’। तुम कर ही नहीं रहे। तुम्हारे माध्यम से कार्य हो रहे हैं। यह कहना भी बस एक कहने वाली बात है, पर ठीक है। थोड़ा समझ में आएगा कि मेरे माध्यम से कार्य हो रहे हैं क्योंकि यहाँ पर भी अहंकार आ जाता है कि ‘मैं माध्यम तो हूँ ना’! अरे जैसे पाइप माध्यम होता है पौधों को सींचने का। वो न हो तो पौधे कैसे सिंचेंगे? तो इतनी तो अहमियत है हमारी कि हम बस माध्यम हैं। तो इसमें भी अहंकार आ ही जाता है, पर फिर भी कहने के लिए ठीक है। तुम तो सही में माध्यम भी नहीं हो। तुम कुछ भी नहीं हो क्योंकि तुम पूर्ण हो। तुम कुछ नहीं हो क्योंकि तुम परम पूर्ण हो।
कार्यों को होने दो। यह डर क्यों है कि अगर मैं होने दूंगा तो आग लग जायेगी। और आग लगती है तो लगे। जो लगवा रहा है वह जाने। दुनिया उसी की जल रही है, तुम्हारा क्या जाता है? तुमने थोड़े ही बनाई है, जिसने बनाई है उसकी जल रही है। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? यह इतना बड़ा तंत्र रचा किसने है? जिसने रचा है उसका खराब हो रहा है, वह जाने। ‘भई तेरा घर है, तू जाने! मुझे क्यों परेशान करे रहता है?’ जिसका बोझ है उसे उठाने दो ना।
श्रोता ३: कहते हैं कि हिंदुस्तान की गुलामी का एक बहुत बड़ा कारण यह रहा कि हमने सब ऊपर वाले पर छोड़ दिया।
वक्ता: यह बहुत बड़ा अंधकार है कहना कि ऊपर वाला करने वाला है, हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि यह कहकर कि हम कुछ नहीं कर सकते, जो हो रहा है तुम उसको रोकने की कोशिश कर रहे हो।
दो तरह के मूर्ख होते हैं,
एक जो करने की कोशिश करते हैं,
और दूसरे जो रोकने की कोशिश करते हैं।
ना तो तुमसे यह कहा गया है कि भूख को लगवाओ ज़बरदस्ती, और ना तुमसे यह कहा जा रहा है कि भूख को रोको ज़बरदस्ती। बुद्धों ने हमेशा क्या कहा है? जाग्रति में क्या होता है? जाग्रति में यह होता है कि जब भूख लगती है तो खा लेते हैं, जब नींद आती है तो सो लेते हैं। जब जो होना है वह हो रहा है। ना हम उसे धक्का दे रहे हैं, और ना हम उसमें अड़चन डाल रहे हैं। अभी-अभी समय आया है युद्ध का और तुम कहो कि हम करेंगे नहीं, तो यह गहरा अहंकार है। तुम अस्तित्व के सामने खड़े हो, तुम वह होने ही नहीं दे रहे जो होना चाहिए।
तो उसको ही तुम पागल मत समझ लेना जो करने की कोशिश में लगा है। जो कह रहा है ‘करूँगा, करूँगा’, वह तो गहरा अहंकारी है ही, और दूसरा अहंकारी वह है जो रोकने की कोशिश में लगा है। ‘नहीं होने दूंगा, नहीं होने दूंगा! भूख नहीं लगने दूंगा’। यह परम अहंकार है! ‘युद्ध नहीं करूँगा’। तुम कौन होते हो यह तय करने वाले? और यह सब आचरण वाले लोग हैं, यह नहीं करना है। सेक्स नहीं करना है, नहीं करना है। जहाँ से तुम्हारा शरीर आया, जहाँ से काम आया, उसको ही तय करने दो ना। तुम क्यों अपनी बुद्धि बीच में लगा रहे हो। तुम्हारी बुद्धि सिर्फ तुम्हारा अहंकार है। जिसे तुम अपनी बुद्धि कहते हो कि यह मेरा निर्णय है, वह तुम्हारा निर्णय क्या है तुम्हारे अहंकार के अलावा। कोई भी निर्णय अहंकार के अलावा होता क्या है? क्योंकि निर्णय जहाँ भी है वहाँ कोई निर्णयता बैठा हुआ है। वह कौन है? वह कर्ता है, छोटा, खण्ड!
तो मन एक ध्रुव से दूसरे पर कूदने के लिए तैयार रहता है। जो बात कर रहे हो कि भारत का पतन इसलिए हुआ कि आध्यात्मिकता का अँधेरा छा गया! आध्यात्मिकता का कोई अँधेरा नहीं होता। हर अँधेरा अहंकार का होता है। आध्यात्मिकता तो परम प्रकाश है, अँधेरा नहीं! हर अँधेरा अहंकार का अँधेरा है।
संतों ने बड़े मज़े ले लेकर ये बात कही है,
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होकर सोए|
अनहोनी होनी नहीं, होनी होए सो होए||
जो हो नहीं सकता वह होगा नहीं, जो होना है हो। हल्क़े हैं! इसका मतलब यह नहीं कि आप भाग्यवादी हो जाओ कि जो होना है सो होगा। इसका मतलब यह है कि जब जो हो रहा हो उसको होने भी दो। अगर होनी यही है कि तुम गहन कर्म में उतरो, तो उतरो गहन कर्म में। रुक मत जाना और ये मत सोचने लग जाना कि मैं कर्ता कैसे हो जाऊँ। समय की मांग यह हो सकती है कि तुम गहरे कर्म में उतरो, तो उतरो!
काबू में मझदार उसी के, हाथों में पतवार उसी के,
तेरी हार में भी नहीं है तेरी हार, उदासी मन काहे को करे ।
तुम कहे के लिए बोझ लेकर बैठे हो? खेल वो खेल रहा है। अभी हम शतरंज की बात कर रहे थे, दो खिलाड़ी आमने-सामने बैठकर खेल रहे हों और प्यादे को हार्ट-अटैक आ रहा हो। प्यादा कहे, ‘पता नहीं क्या होगा? मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ, सबसे आगे मैं खड़ा हूँ। अरे इस पूरी सेना का नेतृत्व मैं कर रहा हूँ, देखो सबसे आगे खड़ा हूँ’। और यहाँ तो खेलने वाले भी दो नहीं हैं। एक ही है! एक ही है जो दोनों तरफ से खेल रहा है। वही प्रकट होकर आता है और वही अपने आपको छुपाता है। एक ही है ना? कभी हाज़िर कर देता है अपने आप को और कभी बिलकुल दिखाई नहीं देता।
तुम गायब भी हो हाज़िर भी,
तुम मंज़र भी और नाज़िर भी।
और यहाँ प्यादों को लगता है कि हमारे साथ बहुत गुनाह हो गया। हम इतने सारे काम कर रहे थे और वह सब अधूरे छूट गए। इधर के प्यादे को उधर की प्यादी से इश्क हो गया था। जा ही रहे थे शादी करने कि पिट गए। अभी ये विरह के गीत गा रहे हैं। और कह रहे हैं हमारे साथ बड़ा बुरा हुआ।
कर्ताभाव से मुक्त होना इमानदारी की साधना है। क्यों दावा करते हैं आप? क्यों श्रेय लेना चाहते हैं आप उन बातों का जो पूरे तरीके से परिस्थिति जन्य थीं? एक कहानी है,
एक बार खूब बारिश पड़ रही थी। शुरुआत यहाँ से भी नहीं है। उसके पीछे भी तमाम इतिहास है क्योंकि बारिश यूँ ही नहीं पड़ती। हज़ार तत्व मिलते हैं तब बारिश होती है। तो बारिश खूब पड़ रही है और हम जानते हैं कि जब खूब बारिश पड़ती है तो ट्रेन लेट हो जाती है। तो एक ट्रेन लेट हो गयी। आठ-नौ घंटा लेट हो गयी। जब इतने विलंब से चल रही थी तो बहुत सारे लोग जो उसमें चलने वाले थे उन्होंने क्या किया? उन्होंने अपना जाना ही कैंसिल कर दिया कि हम जाएँगे ही नहीं। एक डब्बा था, वह करीब-करीब पूरा खाली ही हो गया। उसमें बस एक लड़का और एक लड़की बचे। अच्छे से हम जानते हैं कि जो ट्रेन दस घंटा लेट चलेगी वह कम से कम दस घंटा लेट पहुँचेगी ही। उस ट्रेन को पहुँचना था शाम पांच-छः बजे। लड़की की माँ ने उसका टिकेट कराया था कि दिन डूबने से पहले घर पहुँच जाएगी। बड़ा कर्ताभाव था लड़की की माँ में कि मैं टिकेट करा दूंगी तो पहुँच ही जाएगी। अब उसको क्या पता था कि कोई बारिश कराने में भी लगा हुआ है। तो बारिश हो गयी। ट्रेन पहुँच रही है रात के तीन बजे। वह लड़का है, ठण्ड का मौसम है। लड़की के पास सामान बहुत सारा था, जैसा कि अक्सर होता है। तो लड़के ने इंसानियत के नाते कहा, ‘लाओ तुम्हारा सामान उतरवा देते हैं, मदद कर देते हैं’। अब खूब बारिश हुई है, और चार बज रहा है, प्लेटफार्म खाली पड़ा है। स्टेशन ही खाली पड़ा है। कुली ही नहीं मिला। बात यहीं तक सीमित नहीं रह गयी कि ट्रेन से तुम्हारा सामान नीचे उतरवा दें, अब उसको बाहर तक ले जाने में भी मदद करनी है। तो बाहर लेकर गए। अब इतनी ठण्ड है, बारिश हो रही है और रात का चार बज रहा है। कहाँ से मिलेगा ऑटो, टैक्सी या रिक्शा? बड़ी कोशिश करके एक टैक्सी मिली। वो भी कॉमन। यह सुविधा ही नहीं थी कि इंतज़ार करो तो दूसरी आएगी। लड़के ने शिष्टाचार के नाते कहा, ‘आपको घर छोड़ देता हूँ’। उसमें लड़के का अपना स्वार्थ भी था क्योंकि उसे पता था कि दूसरी टैक्सी नहीं है। पहली वो ले नहीं सकता क्योंकि लड़की को पीछे छोड़ नहीं सकता। वह बात आचरण के विरुद्ध हो जाएगी। तो उसने कहा कि आप बैठ रही हैं तो मैं भी बैठ जाऊँ? अब लड़की ने भी सोचा कि इतनी मदद कर रहा है, सामान लेकर आया है तो उसने बैठने के लिए कह दिया । दोनों चल दिए। ठण्ड खूब है, रात का अँधेरा है, टैक्सी भी मिल गयी है और दो लोग हैं जिनमें आपस में अब संपर्क बन गया है, बातचीत हो गयी है। आगे गए, वहां एक अभागा चाय वाला रात में बैठा था। रात क्या, वह तो सुबह का इंतज़ार कर रहा था कि चार तो बज ही गए हैं। साथ-साथ बैठ गए, टैक्सी रुक गयी, चाय पी जा रही है। और चाय वाला भी क्यों सुबह-सुबह उठकर बैठा है? क्योंकि जिस पन्नी के नीचे वह सोया हुआ था वह बारिश में भीग गयी। तो उसे ठण्ड के मारे नींद नहीं आ रही थी, इस कारण वह उठकर बैठ गया। परिस्थितियों का खेल देखिएगा। यह सब परिस्थितियों के खेल चल रहे हैं अभी। तो उठकर बैठ गया है, ठिठुर रहा है, आग जला ली है। जब आग जली ही गयी है तो चाय बन सकती है। तो यह चाय पी रहे हैं, चाय पीते-पीते और बात आगे बढ़ी। वापिस टैक्सी में बैठे, टैक्सी आगे गयी। लड़की ने कहा कि घर आ जाओ। एक बार मेरी माँ से मिल लो। उनको बता दूँ कि तुमने मदद की मेरी वरना बड़ी हालत ख़राब हो जाती। माँ से मिलवाया। माँ भी जगी इसलिए हुई थी क्योंकि लड़की अभी घर नहीं लौटी थी। नहीं तो कोई वजह नहीं थी कि सुबह पांच बजे माँ जग जाए। वह आज तक नहीं जगी। और फिर उसके बाद, पूरा एक खानदान आगे बढ़ा। उस लड़की का यह दावा है कि उन दोनों की शादी गहरे प्रेम के कारण हुई। लड़के का भी यही दावा है। इमानदारी की बात यह है कि दोनों स्वीकार करें कि परिस्थितियों की बात थी। बारिश थोड़ी ज्यादा हो गयी थी। तो नाती-पोते आयें और पूछें, ‘दादी हम कहाँ से आते हैं?’ तो दादी को सिर्फ एक जवाब देना चाहिए, ‘बेटा तुम बारिश से आते हो’। पर वह यह बोलेगी नहीं क्योंकि यह बोलने में बड़ाछोटापन अनुभाव होता है कि हम कुछ हैं ही नहीं। हमारा जो ये परम मिलन है, यह सिर्फ बारिश के कारण था? आसमान चू पड़ा, बस इसी से ही खानदान निकल आया? हाँ! यह उसी से निकला है पूरा। पर हम ईमानदारी से यह स्वीकार करेंगे नहीं ना। जहाँ हमने कुछ किया नहीं हम वहाँ भी श्रेय लेते हैं। हमने तो किया है। हमारा प्यार हुआ। मैं तो इन्हें देखते ही समझ गया था कि यह मेरे लिए हैं, मेरे टाइप की हैं। अभी कुलि मिल गया होता तो सारी समझ फिर कुलि की होती। वो अभागे चाय वाले की पन्नी फटी हुई है, वह ठिठुर रहा है। तुम सीधे-सीधे इन बातों का ज़िक्र ही नहीं करोगे। कितने खानदान सिर्फ इसलिए बन गए हैं क्योंकि पंडित बड़े काबिल थे, कुंडली मिला गए। कोई दूसर पंडित होता तो हो चुका था तुम्हारा महा-मिलन। पर तुम यह मानोगे नहीं। वह जो पंडित था वह घोंचू था एक नंबर का, बस उसी से तुम आये हो। और कहीं से नहीं आये हो।
तो आँख थोड़ी खोलिये, पूरी पिक्चर देखिए और फिर देखिए कि उसमें आपका कितना योगदान था। और जितना आप कैनवास को बड़ा करते जाएँगे, आप अपने को उसमें अणु मात्र पाएँगे। ‘मैं तो कहीं था ही नहीं। परिस्थितियां खेल रही हैं आपस में। मैं क्या दावा कर रहा हूँ?’ वह है ना चुटकुला चलता है कि, एक कंडोम बनाने वाली कंपनी के पास एक पार्सल आया, उसमें तीन बच्चे, नन्हे-नन्हे, और वह हाथ-पांव चला रहे हैं। पार्सल के ऊपर लिखा है, ‘कस्टमर कंप्लेंट, मैन्युफैक्चरिंग डीफेक्ट्स’।
यह बात सीने को बिलकुल छलनी कर जाएगी कि हम भी क्या पता किसी कंडोम का मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट ही हों। सुनने में ही ऐसा लगता है जैसे किसी ने थप्पड़ मार दिया हो। कि यह शरीर जिसको मैं अपनी हस्ती कहता हूँ यह सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि कंडोम लीक कर गया था। ना करता लीक तो कहाँ से आता मैं। यह बात लेकिन ऐसी लगती है जैसे किसी ने मिटा ही दिया हो हमको। कि हम हैं हीं इसलिए। क्योंकि यह भद्दी-सी घटना हो गयी थी। दुनिया के लाखों-करोड़ों लोग सिर्फ इसीलिए हैं। पर वो जो खड़ा होगा, ‘मैं बड़ा कर्ता हूँ’, पीछे से कि कुछ होना चाहिए जो बार-बार याद दिलाए।
देखिये बड़े अच्छे तरीके से कहा गया है,
जब व्यक्ति अपनी आत्मा के अकर्तापन को और अभोक्तापन को जानता है, तो उसकी सम्पूर्ण चित-वृत्तियों का नाश हो जाता है।
यह भूलियेगा नहीं। हमने बात की थी कि जहाँ कर्मफल का कर्ता खड़ा हो जाता है, वहीं उसको कर्मफल ग्रहण भी करना पड़ता है। इसी बात को कहा जा रहा है कि जहाँ कर्ता खड़ा हो गया है, वहाँ भोक्ता को आना पड़ेगा। कर्ता और भोक्ता, दोनों एक साथ आते हैं। करोगे, तो भुगतोगे। इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ करो नहीं। इसका अर्थ है कि होने दो।
जो कर्ता है वही भुगतता है। यदि करने वाला ही शेष नहीं रहा तो भुगतने के लिए कोई बचेगा नहीं। ‘जो आत्मा के अकर्तापन और अभोक्तापन को मानता है उसकी सम्पूर्ण चित-वृत्तियों का नाश हो जाता है’। मज़ेदार बात है ना? जो पूर्ण है, वह कर्ता हो ही नहीं सकता। क्योंकि कर्ता होने में द्वैत आ जाता है। ‘यदि मैं कर्ता हूँ तो फिर कुछ ऐसा भी होगा जिस पर किया जा रहा है’। तो द्वैत आ गया। तो पूर्ण कभी यह कह नहीं सकता कि मैं कर्ता हूँ। वहां पर तो कर्ता, कर्म, कृत्य; सब एक हो जाते हैं।
वह करेगा किस पर? और वह जो छोटा सा है जो दावा कर्ता रहता है कि मैं कर्ता हूँ, वो झूठ बोल रहा है। वो जानता ही नहीं, तो वह कर्ता है ही नहीं। तो वास्तव में कोई कर्ता नहीं है। जो इस बात को जानता है उसकी सम्पुर्ण चित-वृत्तियों का नाश हो जाता है। क्योंकि हर वृत्ति में तुम्हारा छोटापन बैठा है, हर वृत्ति में तुम्हार अतीत बैठा है। हर वृत्ति में कर्ता अपने को समय में खींच रहा है। कर्तत्व गया, वृत्ति भी गयी। तुम्हारे भीतर गहरी आग है बदला लेने की। बदला क्यों लेना चाहते हो? वृत्ति बन गयी है तुम्हारी। लगातार अब गुस्से में ही रहते हो। दुनिया भर से तुम रंजिश रखते हो। बदला! बदला! तुम्हारी पूरी हस्ती यही चिल्ला रही है कि मुझे बदला लेना है। वह बदला तुम इसलिए ले रहे हो क्योंकि तुम अपने आपको वही मानते हो जिसे कभी चोट लगी थी। जब तक वह जिंदा है, जिसे चोट लगी थी, बदला लेने का भाव भी जिंदा रहेगा। तुम अपनी एक पहचान को पकड़ कर बैठ गए हो। ‘मैं वही हूँ जिसने यह माना था कि मुझे चोट लगी थी’। तो तुम कुछ और करते ही नहीं हो। तुम सिर्फ पूरी दुनिया से बदला निकाल रहे हो। ‘मैं आहत हूँ और मैं सबको आहत कर रहा हूँ। मुझे चोट लगी हुई है। मैं कौन हूँ? वो जिसको चोट लगी थी’। अगर तुम वही हो तो तुम्हें बदला लेना पड़ेगा, यह वृत्ति है। बैठेगी गहरी होकर और तुम्हारा जीवन नर्क करके रहेगी।
फिर, इस बदला लेने के भाव में तुम्हारी एक मान्यता और भी है। तुम सोच रहे कि जिसने तुमको कष्ट दिया, वो अपने कर्म का कर्ता था। तुम यह सोच रहे हो कि जो कष्ट देने वाला है, वह खुद तय करके तुम्हें कष्ट दे रहा था। तुम्हें समझ भी नहीं आ रहा कि वह खुद भी तो परिस्थितियों से चल रहा है। वो भी कहाँ कर्ता है? जब वह कर्ता नहीं है तो तुम बदला किससे ले रहे हो? यह वैसा ही है, जैसे उसी शतरंज पर वापिस आते हैं, कि खेल ख़त्म हो चुका है और खेल ख़त्म होने के बाद सफ़ेद प्यादा निकलता है अपने डब्बे से और काले प्यादे से जाकर कहता है, ‘बाहर आ, थोड़ी देर पहले बहुत बलवान हो रहा था। आज तूने ही मारा ना मुझे’। खेल ख़त्म हो चुका है। और उसके बाद सफ़ेद प्यादे और काले प्यादे आपस में हिसाब सुलझा रहे हैं। ‘मार कैसे दिया तूने मुझे?’ अरे उसने नहीं मारा है। उसके पीछे भी कोई और बैठा है। तुम बदला किससे निकाल रहे हो? तुम खुद को भी कर्ता मानते हो और उसको भी कर्ता मानते हो। बस इसी कारण बदला निकाल रहे हो।
श्रोता ३: जो कथित प्रेम होता है उसमें ब्रेकप के बाद नफरत आ जाती है।
वक्ता: आएगी ही। ‘मैंने प्यार किया!’ तो बड़ा कौन हुआ? मैं या प्यार? तो प्यार टूटा। तो टूटा क्या? प्यार या मैं? मैं! तो अब तो बदला आएगा। जिनका प्यार उनका होता है, वह तो बदला लेकर रहेंगे। ऐसे प्यार से बचना! वहाँ बदला बस इंतज़ार कर रहा है कि तुम बस कुछ उल्टा-सीधा करो और देखो हम कैसे तुम्हारा मुँह नोचते हैं।
-क्लैरिटी सेशन पर आधारित।