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कर्म और कर्ता, विचार और विचारक || (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: कृष्णमूर्ति साहब सभी वृत्तियों, विचारों, भावनाओं वगैरह को बिना निर्णय के देखने को कहते हैं। ये मुझे असंभव लगता है। किसी भी विचार या भावना के उठते ही मैं या तो उसके पक्ष में हो जाता हूँ या विपक्ष में। कृपया समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: विचार जिसको उठ रहा है वो ही विचार के या तो पक्ष में होगा या विपक्ष में। विचार और उस विचार के केंद्र पर जो विचारक बैठा है ये दोनों एक ही हैं। ये दोनों ऐसे ही हैं जैसे आग और आग से फैलने वाली गर्मी या रौशनी। दोनों को अलग-अलग मत मानिए। विचारक में कोई क्षमता हो ही नहीं सकती विचार का निष्पक्ष दर्शन करने की, क्योंकि वो उसी का विचार है। विचार को तो हम कह देते हैं कि, "अरे ये बाहरी चीज़ है, प्रभावों से आया है, संस्कारित है, समाज ने मन में डाल दिया है।" विचार को ये सब कहना हमें बहुत कठिन या असुविधाजनक नहीं लगता। दिक्कत हमें तब आती है जब हमें देखना पड़ता है कि विचार तो विचार है विचारक भी नकली है। विचारक को हम नकली नहीं मानते। विचारक को तो हम 'मैं' मानते हैं।

आप कह तो रहे हैं कि "जब भी मुझे कोई विचार उठता है तो मैं तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में हो जाता हूँ।" यहाँ आप क्या बन गए? यहाँ आपने ज़रा भी देर ना लगाई अपने-आपको विचारक घोषित कर देने में। आप ये भूल ही गए कि अगर विचार नकली है तो विचारक असली कैसे हो सकता है। विचार, भावना, वृत्ति जो भी कहिए, मानसिक गतिविधि। वो सब मानसिक गतिविधियाँ अगर नकली हैं तो उन मानसिक गतिविधियों के केंद्र पर जो 'मैं' बैठा है वो तो बराबर का नकली है न, बल्कि वो तो और ज़्यादा नकली है, पहले नकली है। क्योंकि पहले वो केंद्र आया है, वो ‘मैं’ आया है उसके बाद उस ‘मैं’ का विचार आया है, जिसको वो बोलता है मेरा विचार।

तो आप जो चाह रहे हैं, आप कहते हैं वो आपको असंभव लगता है, वो असंभव इसलिए लगता है क्योंकि वो असंभव है। आप चुम्बक बने रह करके लोहे के प्रति निष्पक्ष हो जाना चाहते हैं, कैसे हो जाएँगे? आपमें और लोहे में बड़ा ज़बरदस्त रिश्ता है। और हर चुम्बक है तो कहीं-न-कहीं लोहा ही। वो कहे, "नहीं, मैं लोहे से बिलकुल भिन्न हूँ, लोहे से बिलकुल अलग आयाम में हूँ, मेरा और लोहे का कोई नाता नहीं, मैं तो साक्षी मात्र हूँ लोहे की।" तो ऐसा नहीं हो सकता।

जैसे आप कह देते हो न कि, "ये विचार मेरा नहीं", उससे आगे का अभ्यास करिए, "ये विचारक मैं नहीं।" जैसे ये कहना बड़ा आसान लगता है न कि, "अरे मैं तो कुछ सोच नहीं रहा था, कोई आया और उसने मेरे मन में कुछ बातें ठूस दीं।" हम आम भाषा में भी इस तरह का मुहावरा इस्तेमाल कर लेते हैं कि, "ज़रूर तुम्हारे मन में किसी ने ग़लत बातें डाल दी हैं।" कहते हैं न ऐसे? जब हम किसी को बहुत बहकता देखते हैं किसी के प्रभाव में, तो हम कह देते हैं, "ज़रूर इसके मन में किसी ने ग़लत बातें डाल दी हैं।" ये भी बहुत हम आधा-अधूरा और सुविधाजनक सत्य ही बोलते हैं, पूरी बात नहीं बोलते। पूरी बात ये नहीं होती है कि हमारे मन में किसी ने ग़लत बात डाल दी हैं। पूरी बात ये होती है कि जिसको तुम मेरा मन कह रहे हो वो तुम्हारा है ही नहीं। तुम्हारे मन में ग़लत बातें नहीं डाल दी गई हैं, तुम्हारा मन ही तुममें डाल दिया गया है। वो मन ही झूठा है इसीलिए तो उसके अन्दर की सारी बातें झूठी हैं।

अगर इन दोनों में जाँचना हो कि पहले कौन झूठा है, मन के भीतर की बातें या मन का पूरा आयाम ही, तो तुम्हें क्या कहना चाहिए? "भई पहले तो वो जो पूरा आयाम है वही झूठा है। इसीलिए तो उसमें सब झूठ-मूठ की बातें चलती रहती हैं।" तो आपको अगर ये देखना है कि कैसे आपके विचार नकली हैं तो आप फँस जाएँगे। क्योंकि आप ही के विचार हैं, उन विचारों से आपका बड़ा गहरा सम्बन्ध है, मोह है, ममता है, माया है, कैसे कह दोगे कि ये विचार नकली है?

आपकी पूरी दुनिया विचार के ही रूप में आपके मन में बैठी है। विचारों को नकली बोलना माने अपनी पूरी दुनिया को ही नकली बोल देना, बड़ा कष्ट होगा। आप जो हो आप वही बने रह करके अपने विचारों को मिथ्या नहीं जान सकते। आप जो हो आप वही बने रह करके अपने विचारों के, या भावनाओं के, या वृत्तियों के साक्षी नहीं हो सकते। इतना सस्ता नहीं है साक्षी हो जाना, कि, "मैं तो अहंकार ही हूँ लेकिन अहंकार बने बने मैं निष्पक्ष हो गया, निरपेक्ष हो गया, मैं तो साक्षी हो गया। अब मैं क्या कर रहा हूँ? मैं तो विचारों के आते-जाते बादलों को देख रहा हूँ। और मैं तो आकाश मात्र हूँ जिसको उन बादलों से कोई मतलब नहीं पड़ रहा।" ये तो खुद को धोखा देने वाली कविताएँ हैं बस।

विचारों को देखना तो बाद की बात है, पहले विचारक से पिंड छुड़ाना पड़ता है। ग़लत केंद्र पर बैठ कर कोई भी सही काम नहीं हो सकता, तो ग़लत केंद्र पर बैठ करके जो उच्चतम काम है वो कैसे कर लोगे तुम? साक्षी हो जाना — निष्पक्ष हो जाने का अर्थ होता है साक्षी हो जाना — साक्षी हो जाना ऊँचे-से-ऊँचा काम है, वो तुम कैसे कर लोगे अहं के केंद्र पर बैठ करके? अहं के केन्द्र पर बैठ करके तुम दो-दुनि-चार भी सही नहीं कर सकते, अहं के केंद्र पर बैठ करके तुम यहाँ से वहाँ जाने के लिए एक सही कदम नहीं उठा सकते। तुम दिनचर्या का कोई भी काम ठीक नहीं करते हो जब तुम अहं के केंद्र पर बैठे होते हो, ये बात तुम्हें ज़ाहिर ना होती हो वो दूसरी चीज़ है।

हमें नहीं पता चलती। हमें लगता है हम तो सब सही ही कर रहे हैं। पर जो अहं के बिंदु से क्रियाशील होता है वो सब कुछ ही ग़लत कर रहा होता है। तो छोटे-छोटे काम तो वो ग़लत कर रहा है लेकिन उम्मीद उसकी ये है कि जो ऊँचे-से-ऊँचा काम है उसको वो सही कर ले जाएगा। कैसे सही कर ले जाएगा? तुम साक्षी कैसे हो जाओगे, विचारों के, जीवन के, संसार के, जब तुम बैठे अभी अहं के केंद्र पर हो?

उसी अहं के केंद्र पर बैठने को मैंने कहा कि तुम ही तो वो झूठे विचारक हो जिसको विचार आ रहे हैं। अहं ही तो विचारक है, अहं ही तो कर्ता है। भावनाओं की बात कर रहे हो, भावुक कौन होता है? कौन बोलता है कि, "मैं भावुक हो गया"? अहं। वो झूठा केंद्र है, उस झूठे केंद्र पर बैठ करके कुछ होने नहीं वाला, तो बड़ी बात ये है फिर कि विचारों को छोड़ो, देखो कि ये विचारक कैसे विचारों से रिश्ता रखता है। नज़र ज़रा विचारक पर गढ़ाओ। ये मुश्किल पड़ता है क्योंकि विचारक माने ‘मैं’, अब खुद को देखना पड़ेगा, अब फँसते हैं। अपनी निगरानी करनी पड़ती है न। जैसे सर के ऊपर कोई बैठा दिया गया है तुम्हारी सारी चोरियाँ पकड़ने के लिए।

लेकिन दिक्कत नहीं आएगी बहुत ज़्यादा, क्योंकि चोरी बुरी भी किसकी नज़र में है? विचारक की नज़र में चोरी बुरी है। अगर तुम विचारक से ज़रा हट जाओ तो तुम्हारी नज़र में चोरी ना बुरी है ना अच्छी है, वो विचारक की एक करतूत मात्र है। तुम देखोगे कि कैसे विचारक स्वयं चोर है पर चोरी के विचार को बुरा मानता है। ज़रा सा हटो विचारक से, चोरी की बात मत करो। चोरी क्या है? विचार है, विचारक की बात करो। तुम कहो, "विचारक स्वयं चोर है तभी तो उसे चोरी के विचार आते हैं।" चोर को ही तो चोरी का ख़्याल आएगा और किसको आएगा? लेकिन ये ऐसा चोर है जिसको चोरी के ख़्याल आते हैं और जो चोरी को बुरी बात मानता है।

जब इसे चोरी का ख़्याल आता है तो कहता है, "उफ़, अब मैं इस विचार का साक्षी कैसे हो जाऊँ? ये तो बड़ा गन्दा विचार है मैंने इससे रिश्ता बना लिया।" तुम गंदे हो तो तुम्हारा विचार गन्दा है पर तुर्रा ये कि तुम कह रहे हो, "नहीं, विचार गन्दा है मैं थोड़े ही गन्दा हूँ। मैं तो वो हूँ जो घोषित कर रहा है कि विचार गन्दा है।" नहीं, विचार तुम्हारे ही सन्दर्भ में गन्दा है। समझ में आ रही है बात?

तो विचारक की करतूत को देखो, विचार बेचारा तो खिलौना है, किसका? विचारक का। विचार तो समझ लो कर्म है, किसका? विचारक, जो कर्ता है उसका। कर्म का क्या है, वो तो कर्ता जैसा होता है वैसी उसकी करतूत होती है। तो विचार पर और कर्म पर बहुत ध्यान मत दो। उनके पीछे जो तुम बैठे हुए हो उसपर ध्यान दो। और देखो कि कैसे तुम अपनी ही करतूत के मज़े भी लेते हो और साथ ही ये बोलते हो 'छि-छि’।

तुम्हें वास्तव में कोई चीज़ छि-छि लग रही होती तो तुमने उसे कब का छोड़ न दिया होता। इसीलिए तो ज़्यादातर लोग इस तरह के आन्तरिक पाखण्ड में जीते हैं। बार-बार कहेंगे, "अरे मैं कैसा पाखंडी धूर्त हूँ। मैं ये करता हूँ, मैं वो करता हूँ।" और अगले दिन पलट करके फिर वही काम करेंगे जो उन्होंने पिछले दिन करा है। ये वो इसीलिए कर पाते हैं क्योंकि वो आध्यात्मिक नहीं हैं, क्योंकि विचार और विचारक का, कर्ता और कर्म का मूल सम्बन्ध उन्हें स्पष्ट नहीं है।

थोड़ा सा अंतर्गमन किया होता, थोड़ा अपने जीवन पर, मन पर ध्यान दिया होता, थोड़ा देखा होता कि आतंरिक सब गतिविधियाँ, प्रक्रियाएँ चलती कैसे हैं तो स्पष्ट हो गया होता कि छि-छि कर देने भर से नहीं होता है। तुम आगे और ज़्यादा वही काम करने की अपने-आपको अनुज्ञा दे रहे हो छि-छि करके जो तुमने अभी करा। क्योंकि तुमने क्या कह दिया? तुम जब कहते हो अपने किसी काम को कि, "अरे अरे अरे ये तो गन्दा काम है, घृणास्पद काम है, मुझे लज्जा आती है इस काम पर, छि-छि।" तो तुम कह रहे हो, "काम गन्दा है, मैं नहीं। मैं अच्छा हूँ इसका प्रमाण क्या है? मैंने बोला 'छि-छि'। यही तो प्रमाण है कि मैं अच्छा आदमी हूँ, मैंने उसको बोला छि-छि।"

"और अगर मैं अच्छा आदमी हूँ तो मुझे बदलने की ज़रुरत है क्या? तो मैं बदलूँगा नहीं। अगर मैं बदलूँगा नहीं तो मैं वही करूँगा जो मैंने कल करा था। और कल मैंने क्या करा था? वही काम जिसपर मैंने बोला था छि-छि। तो आज भी मैं क्या करूँगा? वही काम जिसपर कल मैंने बोला था छि-छि। क्योंकि मैं तो अच्छा आदमी हूँ, काम बुरा था, मैं थोड़े ही बुरा था। काम बुरा था तो काम बदले, हम बुरे होते तो हम बदलते। हम बुरे हैं ही नहीं। कल धोखे से, संयोगवश, दुर्घटनावश ये ग़लत काम हो गया था तो उसको हमने बोल दिया छि-छि। हमने पल्ला झाड़ लिया छि-छि बोल कर के।"

तुमने देखा ही नहीं कि विचार और विचारक एक होते हैं। तुमने देखा ही नहीं कि कल तुमसे जो भी हुआ था वो संयोग नहीं था, वो तुम थे। और अगर वो तुम्हें वाकई छि-छि लगा तो विचार के पीछे जो असली बैठा हुआ है, हुनरमंद कर्ता, उससे पीछा छुड़ाओ न। फिर तुम्हें पता चलेगा कि ये विचारक क्या खेल दिखाता है। अब तुम निष्पक्ष हो पाओगे, अब साक्षित्व में प्रवेश होगा।

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