प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं हाल ही में स्नातक हुआ हूँ और मेरा आख़िरी साल में प्लेसमेंट भी हो गया है, लेकिन मैं वह प्रस्ताव नहीं ले सका। मैं वह नौकरी नहीं करना चाहता था जिसमें जीवन को लेकर झूठी उम्मीदें हैं, तो मैं उससे नहीं जुड़ सका। आचार्य जी, मैं अधिक-से-अधिक काम करना चाहता हूँ, लेकिन जीवन को लेकर झूठी उम्मीदों के लिए नहीं। इस समय मैं कौनसा काम चुनूँ और किस आधार पर?
आचार्य प्रशांत: देखिए, सत्य के आयाम में करने के लिए कोई काम होता नहीं है। वर्क का मतलब ही ये होता है कि कोई चीज़ बदलनी है। विस्थापन होना चाहिए काम के होने के लिए। सही है?
सत्य में तो सब अपरिवर्तनीय है, वहाँ विस्थापन जैसी, बदलाव जैसी कोई चीज़ होती नहीं है। तो इसका मतलब जो भी काम आपको करना है, आपके लिए ज़रूरी है, उसका सम्बन्ध सत्य से नहीं हो सकता। उसका सम्बन्ध झूठ से ही होना होगा। सच में तो कुछ न बदल सकता है, न बदला जा सकता है। ठीक? क्योंकि वहाँ सबकुछ आख़िरी है — पहुँच ही गये, मंज़िल है, घर है, विश्राम है। वहाँ बदलाव क्या लाना है! तो बदलाव किस तल पर लाने हैं सारे? जिस तल पर झूठ हैं। झूठ की ही दुनिया में बदलाव लाया जा सकता है और बदलाव ज़रूरी भी है।
तो आप देखिए कि आपके झूठ कहाँ हैं। झूठ माने क्या? वो सबकुछ जो टूटने को तैयार है, वो सबकुछ जो बाहर से आया है, वो सबकुछ जो बदल रहा है। वो सबकुछ जहाँ जीवन में मौजूद है, वहीं पर तुम्हारा काम बैठा हुआ है। वहीं से तुमको इशारा मिलेगा कि ये काम करना चाहिए मुझे। तो ले-देकर बात ये हुई कि ज़िन्दगी में जहाँ आपके झूठ और आपकी कमज़ोरियाँ हैं, उसी जगह पर काम पकड़ लीजिए।
काम और क्या करोगे? घर अगर साफ़ है तो घर में क्या काम करना है? घर में काम कहाँ पर करते हो, जहाँ सफ़ाई है या जहाँ गन्दगी है? जहाँ सफ़ाई है, वहाँ क्या करोगे, वहाँ तो सबकुछ साफ़ ही है। जहाँ गन्दा है मामला, वहीं पर तो कुछ करोगे न। जहाँ सफ़ाई है, वहाँ विश्राम करोगे, काम नहीं। सो जाओगे वहाँ जाकर, वहाँ कुछ करने को बचा ही नहीं।
तो देखो कि ज़िन्दगी में गन्दगी कहाँ पर है, और गन्दगी को हटाना ही काम कहलाता है। गन्दगी को हटाना ही काम कहलाता है। काम की हमारी परिभाषा बिलकुल अलग है। हम कहते हैं, ‘काम वो जिसके बदले पगार मिलती है।’ वो बहुत ही बचकानी और अनुपयोगी परिभाषा है, कि जिस चीज़ के लिए पैसा मिले, उसको काम बोलते हैं।
नहीं, जो करके ज़िन्दगी से कमज़ोरियाँ हटें, उसे काम बोलते हैं, और यही वर्क है। काम की परिभाषा ही यही है। जो कुछ नहीं होना चाहिए, वो न जाने कहाँ से आ गया, अब उसको झाड़ू देना है — ये काम है। जो कुछ नहीं होना चाहिए, वो आ गया है। अजीब जादू हुआ है! अब उसको हटाना है, इसी को काम बोलते हैं। उसी को तो डिस्प्लेस (विस्थापित) करना है न, वो आकर बैठ गया है ज़बरदस्ती!
तो तुम देखो कि तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या ज़बरदस्ती बैठा हुआ है और उसको हटाने के लिए शुरू हो जाओ। और उसको बैठे-बैठे हटा नहीं पाओगे, दुनिया का सहारा लेना पड़ेगा, किसी चीज़ से अपनेआप को जोड़ना पड़ेगा; वो काम हो जाएगा तुम्हारा। और जो तुम कर रहे हो, अगर वो चीज़ असली है, तो उससे दूसरों को भी मदद मिलेगी, लाभ मिलेगा। तो फिर तुम्हारा गुज़र-बसर भी हो जाएगा, क्योंकि दूसरों को अगर लाभ मिल रहा है, तो वो तुम्हारे खाने-पीने, रहने का, पैसों का कुछ प्रबन्ध कर ही देंगे। समझ में आ रही है बात?
जितने भी लोग यहाँ पर हों जो काम को, कैरियर को लेकर जिज्ञासा रखते हों, वो इस चीज़ को समझने की कोशिश करें। खाना जानवर भी खा लेते हैं। तो अगर आप सिर्फ़ खाना खाने के लिए या घर में रहने के लिए काम करते हैं, तो खेद की बात है क्योंकि ये तो पशुओं के तल की बात हुई न। घोंसला और किसी तरह का ठिकाना तो जानवर भी बनाते हैं न? और खाना भी जानवर भी खाते हैं।
तो दिन भर आप काम करते हो, साल भर आप काम करते हो, उससे कुल मिला क्या आपको? ये आपकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हिस्सा खा रहा है जिसे आप काम बोलते हो, है न? जिसे आप काम बोलते हो, वही आप साल भर कर रहे हो, वो आपकी ज़िन्दगी खाये जा रहा है, उससे आपको मिल क्या रहा है — रोटी, कपड़ा, मकान? तो आपने जीवन कर लिया बर्बाद! भले ही आपकी रोटी में घी लगा हो, भले ही आपका मकान दस मंज़िला हो, भले ही आपकी गाड़ी पाँच करोड़ की हो, लेकिन है तो वो रोटी, कपड़ा, मकान ही न!
कोई छोटे मकान में रहता है, कोई होगा दुनिया का बड़ा अमीर आदमी, वो पचास मंज़िल के मकान में रह सकता है। मकान तो मकान है! ले-देकर तुमने जो काम किया, उससे तुम्हें क्या मिला? एक मकान ही तो मिला है! कोई पचास रुपये वाली थाली खा सकता है, कोई पाँच हज़ार की थाली खा सकता है। थाली तो थाली है! ले-देकर जो मिला, उसे मुँह में ही तो डाल लिया। या पाँच हज़ार वाली थाली कहीं और डालते हो?
कपड़ा तो कपड़ा ही है, शरीर पर ही तो पहनते हो। मुझे मालूम है कपड़े और कपड़े में अन्तर। भीतर कुतर्क चलने शुरू हो जाते हैं। नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, कमरा बहुत छोटा हो न तो फिर…। ऐसे नहीं होता! और खाना भी तो साफ़ होना चाहिए न, पचास वाली थाली में पता नहीं कौनसा कीटाणु है!
ये सारे तर्क मैं समझता हूँ, पर मेरी बात आप समझने की कोशिश करें, मैं किधर को इशारा कर रहा हूँ। ये हम बहुत-बहुत बेवकूफ़ी कर देते हैं जो काम का मतलब प्लेसमेंट और सैलरी समझ लेते हैं। पूछते ही नहीं अपनेआप से, ‘क्यों? ये क्यों करूँ? अच्छा, ये न करूँ तो? अच्छा, कुछ भी न करूँ तो? नहीं करना!’
और हमें ये भरोसा भी नहीं है कि कोई ढंग का काम करेंगे तो पेट चल जाएगा। तुरन्त भीतर से तर्क उठता है, ‘भूखा मरेगा!’ तुमने किसको देख लिया भूखा मरते आज के समय में? अतिरिक्त अनाज है, गोदामों में सड़ रहा है, समुद्र में फेंक दिया जाता है। भूखा कौन मर रहा है? पर भीतर से तुरन्त वो आवाज़ उठती है, ‘भूखा मरेगा।’ माने भूखे न मरो, इसके लिए कुछ-न-कुछ जीवन में घटिया करना ज़रूरी हो जैसे!
और ऐसा भी नहीं है कि आप घटिया काम करके अरबपति ही हो जाते हैं। आम आदमी कितना कमाता है, बताओ ज़रा। और ईमानदारी से बताना, क्या उतना किसी और अच्छे, बेहतर, सही तरीक़े से नहीं कमाया जा सकता था? तुम महीने के कितने करोड़ कमा रहे हो यार, जो कहते हो, ‘मजबूरी है न, देखिए!’ आमदनी होती है कुल इतनी सी! चलो इतनी सी यार (बड़े की ओर इंगित करते हुए)! तो क्या हो गयी, इतनी बहुत बड़ी हो गयी आमदनी! और इतनी तो शायद चाहिए भी नहीं हमें।
काम थोड़ा इतने में भी चल सकता है, पर इसके लिए मजबूरी इतनी बड़ी हम बनाते हैं, ऐसे-ऐसे क़िस्से, ये करना है, वो करना है, तो ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। बहुत सारे खर्चे तो आप सिर्फ़ इसलिए करते हैं क्योंकि आपके पास पैसा है। एक खर्चा वो होता है जो करने के लिए पैसा चाहिए, और एक खर्चा वो होता है जो इसलिए हो रहा है क्योंकि पैसा है। पैसा है तो अपनेआप को समझाना भी तो पड़ेगा न कि ज़िन्दगी जलाकर ये पैसा कमाया क्यों।
तो ये कैसे समझायें अपनेआप को? तो आठ लाख वाला लैपटॉप खरीदेंगे फिर! नहीं तो जस्टिफ़ाई (उचित ठहराना) कैसे करोगे कि तुमने जो ये अपनी पूरी ज़िन्दगी जलायी है इतना रुपया कमाने में, ये रुपया किस काम का है तुम्हारे। तब तुम बोलोगे, ‘देखो, ये रुपया नहीं होता तो आठ लाख का लैपटॉप नहीं आता न, इसका मतलब मैंने सही किया। मैंने ज़िन्दगी जो अपनी जलायी है, बिलकुल सही किया है, तभी तो ये आठ लाख का लैपटॉप आया है।’
तुम्हें ज़रूरत है वाक़ई उस आठ लाख के लैपटॉप की?
‘हाँ, इसमें आठ हज़ार जीबी रैम है।’
(ठहाके)
पर तू करेगा क्या इसका?
‘नहीं, पर आठ हज़ार जीबी है न! कैसे आती अगर नहीं होता मेरे पास पैसा तो? नहीं, कैसे आती? आप बताइए न, पैसे से आती है न?’
ये क्या तर्क है! और बगल में उसके आठ जीबी ही थी। उसका हैंग हो गया था एक दिन।
‘आपको पता है, हैंग हो गया था एक दिन!’
अरे! हैंग हो गया था तो रीस्टार्ट कर लो भाई! एक दिन हैंग हो गया, उसके लिए तुम पूरी ज़िन्दगी बर्बाद करोगे? यही तर्क होते हैं हमारे, यही हैं।
और कैम्पस प्लेसमेंट वगैरह हो रहा हो, बीटेक, एमबीए, कोई प्रोफ़ेशनल कोर्स किया हो और उसमें आपको प्लेसमेंट काउंसलिंग मिल गयी हो तो फिर तो सोने पे सुहागा! वो आपको बताएँगे, ‘ फ़ाइंड आउट योर एरियाज़ ऑफ़ स्ट्रेंथ्स।’ और वो है कुछ नहीं, वो तो फिर तुम उनका आविष्कार करते हो बैठकर कि मेरा स्ट्रेंथ एरिया क्या है। वो कहते हैं, ‘जो तुम्हारा स्ट्रेंथ एरिया है, वहाँ पर तुम जॉब लो।’
विज़डम (बुद्धिमानी) बिलकुल दूसरी चीज़ में है। विज़डम है कि जहाँ तुम्हारी वीकनेस है, वो पता करो और काम वो करो जो तुम्हारी वीकनेस को साफ़ कर देगा, स्ट्रेंथ वगैरह नहीं।
‘पर हम अपनी वीकनेस बता देंगे तो जॉब कौन देगा? और वीकनेस मिटाने के लिए कोई पैसा थोड़ी देगा हमको!’
फिर वही बात! इतना बड़ा मुँह लेकर आ गये, खाना चाहिए! कितना खाते हो?
बड़ा मज़ा आता था! आज से पन्द्रह-एक साल पहले पच्चीसों कैम्पसेस में जाता था इंटरव्यूज़ लेने, अपनी ही संस्था में हायरिंग के लिए। एक-से-एक क़िस्से हैं! मैं पूछूँ कि वीकनेस तो बता दो, वो स्ट्रेंथ बताने पर उतारू हैं।
वीकनेस तो बता दो।
‘मेरी वीकनेस ये है कि आइ एम सो लार्ज-हार्टेड दैट पीपल एक्सप्लॉइट मी (मैं इतना बड़ा दिलवाला हूँ कि लोग मेरा फ़ायदा उठाते हैं)।’
(ठहाके)
मारूँ तुझे एक! ’आइ एम सो लार्ज-हार्टेड दैट पीपल एक्सप्लॉइट मी’ , ये वीकनेस है भाई की! और उसके पीछे जो आ रहा है, वो भी यही बता रहा है। मैंने कहा, ‘अब जो पीछे आये उसको बोलना, लार्ज-हार्टेड नहीं बोलना है, काइंड-हार्टेड बोलना है। कुछ तो ओरिजिनल हो!’
तुम्हारी क्या वीकनेस है?
‘ आइ रिमेन सो मेडिटेटिव दैट माइ मेमरी फ़ेल्स मी (मैं इतना ध्यानमग्न रहता हूँ कि मेरी याददाश्त मेरा साथ नहीं देती)!’
अरे!
(सामूहिक हँसी)
YouTube Link: https://youtu.be/XmPZPASB6So?si=xY-OnD1QQkqbeVFS