कमज़ोर आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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कमज़ोर आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: सही काम करने का मतलब बुद्धू बनना नहीं होता। तुम अगर ये मानसिकता लेकर चलोगे या आप में से कोई और लोग भी वो कहते हैं न, “गुड गाइस फिनिश लास्ट”, कि आप अच्छे आदमी हो तो आप ज़िंदगी में सबसे पीछे रहोगे और मार खाओगे और लात खाओगे। ये अगर पहले से सोचकर चलोगे तो फ़िर तो तुम सच्चाई को हराने का काम कर रहे हो। तुमने अगर यह कह दिया कि सच्चा आदमी है जो उसको तो ज़िंदगी में हार ही मिलनी है तो तुमने तो सच को ही हरवा दिया। ऐसे नहीं मानते। सच के साथ भी रहना है और सफल होकर भी दिखाना है। नहीं तो हम क्या कह रहे हैं कि जो सच्चा जीवन जीने लग गया उसकी दुर्दशा ही होगी। हम ऐसा कह रहे हैं क्या?

और अगर सच्चा जीवन जीने वाले की दुर्दशा ही होनी है तो फ़िर सच की ओर कोई क्यों आए? फ़िर तो झूठ और फरेब से ही काम चलने दो न। तुम वैष्णव मोमोज क्यों नहीं बेच सकते? ये जो तुम ढाबे पर आते हो वो इतना बड़ा क्यों प्रचारित करते हैं; शुद्ध शाकाहारी वैष्णव ढाबा। क्यों करते हैं? तुम्हें भी व्यापार ही करना है न? क्या वो व्यापार में होने के बावजूद कोई ऐसी चीज़ लिखेंगे जो व्यापार गिराए? निश्चित रूप से ये बोल कर के कि उनका ढाबा शुद्ध शाकाहारी है उनको व्यापार में भी लाभ ही हो रहा है। क्योंकि बहुत लोग ऐसे होते हैं जो ऐसी जगह पर नहीं खाना चाहेंगे जहाँ बगल में हड्डियाँ तोड़ी जा रही हो। आप इस मेज़ पर बैठ कर खा रहे हो और बगल की मेज़ पर चिकन चल रहा है, बहुत लोग हैं जो नहीं खाना चाहेंगे। तो इस बात को तुम अपना एक विक्रय केन्द्र क्यों नहीं बना सकते?

फ़िर बोल रहा हूँ ऐसे हम कैसे करेंगे जहाँ जो अधर्मी हैं वो तो पूरे शातिर हैं और जिन्हें धर्म पर चलना है वो भोंदू हैं। ऐसे कैसे चलेगा? कृष्ण जैसा होना पड़ेगा न। कि धर्म भी समझ में आता है, धर्म परायण भी हैं, गीता भी है और युद्ध नीति भी जानते हैं। अर्जुन का अहंकार तोड़ना भी जानते हैं और दुर्योधन की जांघ तोड़ना भी। और अर्जुन का अहंकार तोड़ने के लिए गीता है तो गीता सही। और दुर्योधन की जांघ तोड़ने के लिए अगर अनीति करनी पड़ी तो अनीति भी सही। नहीं तो युधिष्ठिर ने तो सब मामला तबाह कर ही दिया था। जीता-जिताया युद्ध दुर्योधन के हाथ पर रख दिया था। पता है न क्या बोल दिया था दुर्योधन से? वो छुपा हुआ था तालाब में तो उस से बोलते हैं कि, "अच्छा ठीक है तुम चुन लो हम पाँचों में से तुम्हें किस से युद्ध करना है। और अगर हम पाँचों में से तुमने किसी एक को भी हरा दिया तो सिंहासन तुम्हारा है।" कृष्ण ने माथा पीट लिया। बोले, "सोच समझकर तो बोला करिए। क्या वचन दे दिया आपने?" युधिष्ठिर बोले, "वो तो हमारी आदत ही ऐसी है। अब ये दुर्योधन की खुद्दारी थी कि वह बोला कि तुम पाँचों इस लायक ही नहीं हो कि तुम से युद्ध करूँ। करूँगा तो मैं उससे जो मेरी ही टक्कर का है। मैं भीम से करूँगा।"

वो ये भी बोल सकता था कि मैं युधिष्ठिर से करूँगा या सहदेव से करूँगा, वहीं पर खेल खत्म हो गया होता। लेकिन उसके बाद भी भीम पर भारी पड़ रहा था। तो फ़िर कृष्ण ने ये नहीं सोचा कि नीति क्या कहती है और गदा युद्ध के नियम क्या हैं। उन्होंने कहा कि अगर सब कुछ नियमानुसार ही हुआ तो आज ये भीम को तोड़ देगा। तो उसको इशारा करा कि, "मारो नीचे मारो कोई बात नहीं मार दो!" ऐसा धार्मिक आदमी चाहिए आज। होता उल्टा है, मैं जितने भी कपटी लोगों से मिलता हूँ उनकी धूर्तता की कोई सीमा नहीं। उनका दिमाग चल रहा है। वो महत्वकांक्षी हैं, वो कुछ भी करने को तैयार हैं। उनमें ऊर्जा पूरी है। वो दुनिया पर छा जाने के लिए हौसला रख रहे है। उनका आत्मविश्वास देखो। और मैं जितने भी तथाकथित सच्चे लोगों से मिल रहा हूँ वह ऐसे हैं; "हम तो जी राम जी के भक्त हैं, हम तो कुछ नहीं करते, हम तो भजन करते हैं। हम डर जाते हैं। आचार्य जी, क्या करें? आचार्य जी, गोद में बैठा लो।" ये क्या चल रहा है? ऐसे काम चलेगा?

तुम ऐसे समय पर पैदा हुए हो जो इतिहास का सबसे भयानक संक्रमण काल है। संक्रमण से मेरा मतलब कोरोना नहीं है। संक्रमण काल मतलब इस समय आदर्शों का, धर्म का जो संकुचन है जो त्रासदी है वैसी कभी नहीं देखी गई। और आज के समय में अगर तुम गोलू बनकर बैठ जाओगे, भोंदू बनकर बैठ जाओगे तो फ़िर तो अधर्म ने मैदान मार ही रखा है। वो लोग तो जीते ही हुए हैं। नहीं जीते हुए हैं? सारी सत्ता उनके पास, ताकत उनके पास, पैसा उनके पास वो तो छाए ही हुए हैं। संगठित वो हैं, उनको कैसे हरा पाएँगे फ़िर हम? बुद्धि कहाँ है, हौसला कहाँ है? या सारा बुद्धि और हौसला हमने पापियों के ही हिस्से छोड़ दिया है? पापा ने कह दिया चिकन सूप बेचो, तुम शुरू कर दो मुर्गे मारना।

प्र: मैंने तो मना ही कर रखा है कि मैं नहीं रखूँगा।

आचार्य: अरे मना ही कर रखा है तो ये मुद्दा ही क्यों है आज की चर्चा में?

प्र: यही कि वो प्रेशर दे रहे है।

आचार्य: वो प्रेशर कैसे दे रहे हैं तुम्हें; तुम गद्दे हो?

प्र: नहीं, वो भी आ जाते हैं उधर काउंटर पर सामान वगैरह देखने के लिए, इस तरीके से...

आचार्य: क्यों आ जाते हैं? तुम्हारी दुकान है।

प्र: सर पापा को तो मना नहीं कर सकते।

आचार्य: क्यों नहीं मना कर सकते? दुर्योधन तो भाई था भीम का। वो जांघ तोड़ सकता है, तुम पापा को नहीं मना कर सकते? ये क्या है? माया माँ की शक्ल लेकर आ सकती और पाप पापा की शक्ल लेकर आ सकता है। तो उन से लड़ेंगे नहीं हम? बोलो। मैं नहीं कह रहा हूँ सब माएँ माया होती हैं और सब पापा पापी होते हैं। लेकिन अगर माँ माया बन गई हो और पापा पाप सिखा रहे हो तो उनसे लड़ेंगे कि नहीं लड़ेंगे?

प्र: लड़ेंगे।

आचार्य: फ़िर जवानी कहाँ है तुम्हारी?

प्र: सर, तभी तो साहस दिखाया है मैंने।

आचार्य: ये क्या साहस है? तुम तो ऐसा लग रहा है साहस माँग रहे हो।

अध्यात्म में कमज़ोरी के लिए कोई जगह नहीं होती है। ज़िंदगी में ही कमज़ोरी के लिए कोई जगह नहीं होती है। गुनाह है कमज़ोरी। ये लुचूर-पुचूर, ऐसे कैसे जीयोगे?

प्र: और सर जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ ये सब सारे सैंडविच परोसे जाते हैं तो फ़िर ये नॉन वेज (माँसाहार) भी सर्व होता है, वेज (शाकाहार) भी सर्व होता है।

आचार्य: तो इसी बात को प्रेरणा बना कर के कुछ और शुरू करो न। देखो खुद को अभिव्यक्ति देने का एक अच्छा तरीका होता है स्व-रोजगार। स्वरोजगार में रोटी भर ही नहीं कमाते हो अपने भीतर की सृजनात्मकता को एक आकार भी देते हो। उम्र तुम्हारे साथ है, ज़िम्मेदारीयाँ तुम पर नहीं हैं, कोई क़र्ज़ तुम पर नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि अभी तुम नौकरी कर रहे हो वह बहुत तुम्हारे लिए बड़ी है या ऊँची है या बहुत कमा रहे हो। तो फ़िर तुम्हारे सामने कोई बाधा ही नहीं न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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