आचार्य प्रशांत: ज़रा भीतर जाकर के देखा करो, थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखो, ज़रा खोजी का चित्त रखो। नहीं हैं चीज़ें वैसी जैसी दिखाई पड़ती हैं। नहीं है दुनिया वैसी जैसी तुम्हें प्रकट होती है। और चीज़ें तो वैसी दिखाई भी नहीं पड़ती जैसी कि वो चीज़ भी है, ख़ासतौर पर इंसान तो दिखाई भी तुम्हें वैसे पड़ते हैं जैसे वो चाहते हैं तुम उन्हें देखो।
कहते हो कि कोई देवी जी हैं जो तुमको बहुत भा गई हैं। ये तुम्हें तब ही दिखाई पड़ती होंगी न जब ये पूरा साज-श्रृंगार करके तुम्हारे सामने पड़ती होंगी? तो व्यक्तियों का भी कभी हमने प्राकृतिक रूप कहाँ देखा? उनका भी हम वही रूप देखते हैं जो वो हमें दिखाना चाहते हैं। ठीक?
ख़ासतौर पर अगर व्यक्ति युवा हो तो उसमें बड़ी ही वृत्ति रहती है अपना एक बहुत विज्ञापित, बड़ा आकर्षक, बड़ा मनभावन रूप ही दूसरों को दिखाने की। दुनिया की कुल कॉस्मेटिक इंडस्ट्री का आकार जानते हो? हैरान रह जाओगे! कॉस्मेटिक इंडस्ट्री कितनी बड़ी है ये जानकर पागल हो जाओगे। उस इंडस्ट्री का कुल इस्तेमाल क्या है? यही तो।
पहली बात तो प्रकृति में भी सत्य होता नहीं और दूसरी बात जहाँ तक ये नर-नारी के खेल का सवाल है, तुम्हें लोग अपने प्राकृतिक रूप में भी कभी दिखाई देते नहीं, वो जब तुम्हें दिखाई देते हैं तब तक बहुत देर हो जाती है। जो लोग तुमको बहुत आकर्षक लगते हैं, एक बार कल्पना करना वो तुम्हारे सामने बिना ग्रूमिंग (सँवारना) के आ जाएँ तो तुम्हारे आकर्षण का क्या होगा?
जब इन सब चीज़ों से थोड़ी दूरी बना पाओगे, जब अभी दिमाग पर जो मायाजाल छाया हुआ है उससे थोड़ा हटकर देख पाओगे, तो तुम्हें साफ़ दिखाई देगा कि कोई भी इंसान इन सब बातों में कैसे फँसता है। पूरी प्रक्रिया साफ़-साफ़ दिखाई देगी। साफ़ दिखाई देगा —अच्छा! इस कदम पर ऐसे होता है, फिर ऐसे होता है, फिर ऐसे होता है, फिर ऐसे… जैसे पूरा एक एल्गोरिदम हो।
इससे आशय मेरा ये नहीं है कि तुम फँस रहे हो तो आवश्यक है किसी ने फँसाया है। मैं नहीं कह रहा हूँ किसी और ने साज़िश करके फँसाया है तुमको। हम फँसने के लिए इतने बेताब रहते हैं कि जहाँ जाल ना हो, वहाँ हम खुद ही जाल बुन लेते हैं। कि जैसे कोई चूहा फँसने के लिए इतना बावला हो कि वो अपने लिए खुद ही चूहे-दानी का निर्माण भी कर ले।
कामवासना से ज़्यादा सुख की आशा कोई नहीं देता। नहीं देता न? लेकिन इस बात पर कम लोग गौर करते हैं कि जहाँ तुमको कामवासना के पूरे होने की उम्मीद हो और वहाँ वो पूरी ना हो रही हो तो फिर जो फ्रस्ट्रेशन (कुंठा) और हताशा उठती है, वो बहुत-बहुत तीव्र होती है। वो इतनी तीव्र होती है कि उसकी लहर में लोग हत्या तक कर जाते हैं। जिसको एक बार ये इच्छा और आशा पैदा हो गई कि उसकी वासना को पूर्ति मिलने जा रही है और फिर ना पूरी हो, तो वो व्यक्ति खुद भी अवसाद में जा सकता है, खुद को भी नुकसान पहुँचा सकता है और दूसरे पर भी हमला करके उसको नुकसान पहुँचा सकता है। अब वो पागल हो जाता है, बिलकुल अंधा। जैसे कुत्ते को हड्डी दिखा दी गई हो। या तो उसको हड्डी दिखाई ना जाती, पर अब उसको हड्डी दिखा दी, उसके नथुनों में माँस की और खून की गंध पहुँच गई है, अब वो बौरा जाएगा, पागल हो जाएगा। कुत्ते को हड्डी सुंघा कर फिर तुमने उससे हड्डी छीनी तो बहुत काटेगा।
ये जो सारा डिसअपॉइंटमेंट है, फ्रस्ट्रेशन है, हताशा है, मायूसी है, ये उठती ही एक झूठी आशा की बुनियाद पर है। झूठी आशा बहुत तीव्र होती है, उसके आगे ज्ञान, ध्यान सब विफल हो जाते हैं। उसके आगे सिर्फ़ उनकी चलती है जिन्होंने बहुत अनुशासन के साथ, बहुत संकल्प के साथ, अपने आप को तैयार किया होता है ज़िंदगी की लड़ाई जीतने के लिए। सिर्फ़ वो जीतते हैं, बाकी सब को तो धोबीपाट!
देह की यही बात है,
जीवन भर जलती है,
दूसरों को जलाती है,
अंत में जल जाती है।