आचार्य प्रशांत: तो अपना झूठ स्वीकार करना, अपनी चोरी भी स्वीकार करना, अपनी कमज़ोरी भी स्वीकार करना उसी के लिए सम्भव हो पाता है, जिसने जीवन में कुछ ऊँचा अर्जित भी किया हो। इसीलिए आप पाएँगे, जिन लोगों ने जीवन में वाकई ऊँचाईयाँ छुई, वो बड़ी आसानी से अपनी कमज़ोरियाँ भी स्वीकार कर लेते हैं। सन्त लोग गाते हैं, "मो सम कौन कुटिल खल कामी।" अजीब बात है! सन्त कह रहा है, "मेरे जैसा कुटिल कौन, मेरे जैसा खल, धूर्त कौन, मेरे जैसा कामी कौन।" ये सन्त गा रहा है। सन्त को ये स्वीकार करने में कोई दिक्क़त नहीं है कि वो कुटिल है, खल है और धूर्त है, कामी है।
आम आदमी कहता है, 'अरे साहब! हमसे ज़्यादा पाक-साफ़ कौन होगा? हमसे ज़्यादा सच्चा और निष्काम कौन होगा?' आम आदमी की मजबूरी है, उसके पास सिर्फ़ घाटा-ही-घाटा है। उसका दिल टूटता है ये स्वीकार करने में कि उसकी पूरी ज़िन्दगी घाटे का सौदा रही है। वो कैसे स्वीकार कर ले सबके सामने? वो कैसे बर्दाश्त कर ले? तो फिर उसे झूठ बोलना पड़ता है, कि नहीं-नहीं हम तो बड़े अच्छे आदमी हैं।
सन्त कहता है, 'मैं तो अपनी एक-एक कमज़ोरी गिन-गिनकर बताऊँगा। मैं तो अपना एक-एक नुक़्स खोल-खोलकर, उघाड़-उघाड़कर दिखाऊँगा। क्यों? क्योंकि जब मैं बता लूँगा कि मेरा यहाँ भी घाटा है, मेरा यहाँ भी घाटा है, मैं यहाँ भी कमज़ोर हूँ, मेरी ये भी ग़लती है, मेरी वो भी ग़लती है, ये सब बताने के बाद मैं कहूँगा, इन सब ग़लतियों के बाद भी, इन सब ग़लतियों के बावजूद और इन सब ग़लतियों से बड़ा कुछ है मेरे पास।' और वो जो बहुत कुछ उसके पास बड़ा है, उसके आगे वो सारी ग़लतियाँ फिर बहुत छोटी हो जाती हैं।
याद रखिएगा वो जो ग़लतियाँ हैं, वो जो घाटा है, वो जो कमज़ोरियाँ हैं, वो सबके पास होती हैं। छोटे आदमी, बड़े आदमी में अन्तर ये नहीं होता कि बड़े आदमी में कमज़ोरियाँ नहीं हैं। भारत इस मामले में कितना अनूठा रहा है। हमने तो अपने अवतारों में भी सब मानवीय कमज़ोरियाँ दिखायीं। दिखायीं कि नहीं दिखायीं? हमारे अवतार लोग भी मानवीय कमज़ोरियों से परिपूर्ण थे। तो फिर उनमें और साधारण आदमी में अन्तर क्या है?
राम हैं, कृष्ण हैं और एक साधारण आदमी है, उनमें क्या अन्तर है? अन्तर ये नहीं है कि साधारण आदमी की कमज़ोरियाँ राम और कृष्ण में नहीं थीं। भई! जब वो मानव देह लेकर अवतरित हुए हैं, तो फिर जो साधारण मानव वृत्तियाँ हैं, उनका प्रदर्शन भी उन्हें करना ही पड़ेगा न? तो वो करते हैं। लेकिन उनके पास सिर्फ़ वो कमज़ोरियाँ मात्र नहीं थीं। उनके पास उन कमज़ोरियों के आगे भी कुछ था। उनके पास बस वो दस लाख का घाटा ही नहीं था, उनके पास पचास लाख का मुनाफ़ा भी था। ये अंतर होता है।
तो कभी भी किसी सन्त आदमी को या किसी ऊँचें या किसी ज्ञानी को, इस आधार पर मत आँक लीजिएगा कि, अरे! इसमें भी देखो तृष्णा है या कामना है या क्रोध है। साहब निश्चित रूप से उसमें भी तृष्णा है, कामना है, क्रोध है लेकिन उसके पास और भी कुछ है, जो शायद आपने नहीं कमाया। और तृष्णा, कामना, क्रोध तो उसमें होगी ही, क्योंकि ये बात देखो शरीर की है, पैदा होने की है। हमने कहा न हर बच्चा पैदा होता है अपने माथे पर खुदवाकर के घाटा, तो जो भी कोई व्यक्ति आपके सामने है, देह रूप में उसमें ये सब चीज़ें रहेंगी। आप ये बताइए, आपने असली चीज़ क्यों नहीं कमायी? और जब असली चीज़ कमा लोगे, तो फिर ये सब जो वृत्तियाँ-विकार हैं, इनको देख लेने का, इनकी अभिस्वीकृति करने का और फिर इनका उल्लंघन कर जाने का साहस आपमें अपनेआप आ जाएगा। आप कहोगे, 'चीज़ ही छोटी हो गयी, कहाँ दस का आँकड़ा कहाँ पचास का आँकड़ा।' फिर आप इस दस के आगे चौंक जाओगे, कूद जाओगे। फिर आपको शर्म नहीं आएगी इस दस की बात करने में, फिर आप खुले आम बात करोगे।
और ये जो सवाल है आपका, इससे मुझे थोड़ा आश्वासन मिल रहा है, कि आप अपनी वृत्तियों का उल्लंघन करने को तैयार हो। क्योंकि इन वृत्तियों की खुलेआम चर्चा कर रहे हो। झूठे-बेईमान आदमी की निशानी यही होती है कि वो अपनी कमज़ोरियों की चर्चा ही नहीं करना चाहता। वो ऐसा नाटक करता है जैसे कि उसमें कमज़ोरियाँ हों ही नहीं।
जो असली आदमी है, वो सबसे पहले अपनी कमज़ोरियों को पकड़ेगा, स्वीकारेगा, प्रदर्शित करेगा ताकि उनके आगे जा सके। शब्दों पर ध्यान दीजिएगा। मैंने ये नहीं कहा, वो अपनी कमज़ोरियों को मिटा सके; अपनी कमज़ोरियों के आगे जा सके। देखिए, किसी चीज़ के अतीत चले जाना एक बात होती है, किसी चीज़ के बियॉन्ड चले जाना एक बात है, अतिक्रमण कर जाना एक बात है। और किसी चीज़ की सफ़ाई करना, किसी चीज़ पर विजय पाना बिल्कुल दूसरी बात है। हम अक्सर ये गलती कर जाते हैं कि हमारी जो सब क्षुद्रताएँ हैं, कमज़ोरियाँ हैं, विकार वगैरह जो भी चीज़ें हैं, जो हमें पता है भीतर अच्छी नहीं लगती, हम उनसे लड़ने बैठ जाते हैं।
नहीं, उनसे लड़ना नहीं होता भाई। वो तो चाहती हैं कि आप उनसे लड़ो, उन्हीं में उलझे रहो, जूझ जाओ। आपको उनके होते हुए भी उनकी उपेक्षा करनी है। वो तो आपको आकर्षित करती हैं। कभी आपको लुभाकर, कभी आपको चुनौती देकर। आपको क्या करना है? आपको कहना है, 'तुम अपना खेल अपने पास रखो; न हम तुमसे गले मिलना चाहते हैं, न लड़ना चाहते हैं। हमारे पास और बहुत कुछ है करने को भाई, ऊँचा काम है, सही चीज़ है, वो करेंगे। तुमसे थोड़े ही आकर के लिपट जाएँगे।'
लिपटना भी दो तरीके का है, समझ ही गए होंगे न? एक तो ये है कि जाकर के मोह में लिपट गये और दूसरा ये है कि पहलवान की तरह लिपट गये। पहलवान भी तो एक-दूसरे से लिपटते रहते हैं। काहे को लिपटते हैं? वो एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए लिपटते हैं, एक-दूसरे को हराने के लिए लिपटते हैं। पर जो भी किया, चाहे प्रेम में लिपटे — प्रेम माने तथाकथित प्रेम — चाहे अपने साधारण प्रेम में लिपटे और चाहे पहलवानी में, कुश्ती में, बैर में लिपटे, लिपट तो गये न? लिपटना नहीं है, आगे बढ़ जाना है।
इस मान्यता से तो आप बिल्कुल ही बाहर आ जाइए कि जब तक आप जी रहे हैं, तब तक आप अपनी वृत्तियों को जीत सकते हैं। नहीं भाई, नहीं होना ऐसा! इसीलिए जो उचित शब्द दिया गया मुक्ति को भारत में, वो जीवन-मुक्ति था, वृत्ति-विजय नहीं कहा गया। जीवन मुक्ति! जीवन चलता रहेगा, आप जीवन से मुक्त रहेंगे। और जीवन माने जीव की कहानी।
जी-व-न — जीव की कहानी। और जीव की कहानी और क्या होती है? जीव की कहानी, तो यही होती है — खाया-पिया, डकार मारी, इससे लड़े, उससे उलझे, उससे तार जोड़ दिये, उससे बैर लगा लिया। यही तो है। तो ये सब कहानियाँ चलती रहेंगी। ये शरीर का धन्धा है, भाई ये लगा रहेगा। आप इसके अतीत होएँ, आप इसके आगे बढ़ जाएँ; उलझना नहीं है।
लेकिन इसके आगे जाने की आपमें हिम्मत तब आये न, जब इसके आगे का आपने कुछ अर्जित किया हो। इसके आगे जाना उन्हीं के लिए सम्भव है, जब शरीर से आगे की कोई चीज़ आपको उपलब्ध हुई हो। वो उपलब्ध तब होती है, जब आप क़ीमत चुकाते हो। उपलब्ध ही नहीं हुई है तो फिर तो यही जो शारीरिक चीज़ें हैं, इन्हीं में अटककर रह जाओगे। क्योंकि यही हैं आपके पास; और तो आपने कुछ कमाया ही नहीं।
शरीर से आगे का कुछ कमाइए, वो इतना प्यारा होगा, इतना मूल्यवान होगा कि फिर ये जो रोज़मर्रा का लफड़ा-तफड़ा लगा रहता है, देह का, मन का, आपको फुर्सत ही नहीं रह जाएगी इसमें उलझने की। आकर्षक ही नहीं लगेगा। कहेंगे, 'क्या इनका तो रोज़ का यही चलता रहता है, कौन उलझे। और चीज़ हैं।'