प्रश्नकर्ता: कला क्या है? सिर्फ़ म्यूज़िक (संगीत), पोएट्री (कविता) या पेंटिंग (चित्रकारी) ही कला है? और, यू नो , इतनी प्रैक्टिकल (व्यावहारिक), प्रैग्मैटिक (व्यवहारमूलक) दुनिया के लिए, प्रैक्टिकली (व्यवहार में) कला का क्या कुछ यूज़ (उपयोग) है? डज़ इट लीड टू समथिंग (क्या कला से कुछ मिलता है)?
आचार्य प्रशांत: देखिए, नाट्य-शास्त्र में भी कला और रस बिलकुल साथ-साथ चलते हैं। और रस क्या है? सत्य को ही रस भी बोलते हैं । उपनिषद् कहते हैं न - “रसो वै सः।” और कला बिना रस के हो नहीं सकती, ऐसी कौनसी कला जिसमें रस नहीं है? रसास्वादन के लिए ही तो आदमी कला की ओर जाता है।
तो इससे हमें पता चलता है कि कला की क्या परिभाषा हो सकती है। और कला की बहुत सीधी सटीक परिभाषा है, अगर आप वेदान्त से पूछें तो। जब मन सत्य की ओर बढ़ता है,, टटोलते-टटोलते, गिरते-पड़ते, कोहरे में किसी तरह देखते, उसे बहुत स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ रहा है, लेकिन फिर भी उसे कुछ अनुमान हो रहा है,कुछ धुंधलके में दूर रौशनी सी प्रतीत हो रही है तो उधर को बढ़ रहा है, तो मन सत्य को तलाश रहा है, कुछ उसे थोड़ी झलक मिल रही है, कुछ उसको कहीं से जैसे सन्देश सा मिल रहा है, मद्धम सा,और उस स्थिति में उसकी जो अभिव्यक्ति होती है—सत्य की तरफ़ बढ़ते हुए यात्रा के दौरान वो जिस भी तरह की अभिव्यक्ति करता है—उसे कला कहते हैं। तो कला एक तरह से मन और सत्य के बीच का सेतु हुई।
आप सत्य के विपरीत जा रहे हो, तब आपके अभिव्यक्ति को कला नहीं कह सकते। इसीलिए आजकल बहुत कुछ जो कला के नाम पर प्रचारित हो रहा है, मैं उसको कला मानता ही नहीं। ये जो साधारण अपसंस्कृति फैली हुई है, आप उसी को देख लीजिए - बच्चे बेहूदे गानों पर नाच रहे हैं और इसको कहा जाता है कि ये तो कला है। नहीं ये कला नहीं है।
कला वही है जो सत्य की ओर आप को ले जाए। या आप जब सत्य की ओर बढ़ने का इरादा रखते हों, तब आप अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति जिस भी रूप में करें वो कला होगी। आप बोलें तो उसमें कला होगी, आप गायें, आप नाचें, लिखें, कुछ भी कर सकते हैं आप। इतना कुछ संभव है प्रकृति में मनुष्य के द्वारा किया जाना। जब भी वो सत्य की ओर दृष्टि रख कर किया जाता है उसे कला कहा जा सकता है। लेकिन अगर आपकी गतिविधि ऐसी है कि वो आपको और ज़्यादा झूठ और भ्रम की ओर ले जा रही है, तो फिर आपकी अभिव्यक्ति कितनी भी उत्तेजक या चकाचौंध से भरी हुई क्यों न हो, उसे कला नहीं कहा जा सकता।
इसी से जुड़ा हुआ शब्द है फिर प्रतिभा, कि प्रतिभा क्या है, टैलेंट क्या है। वो भी वही बात है। कोई बिना सीढ़ी की सहायता के ये सामने वाली इमारत की छत पर चढ़ सकता हो, इसे प्रतिभा नहीं कहते, ये प्रतिभा नहीं है। हम मनुष्य हैं, भूलिए मत। और मनुष्य की पहचान उसकी चेतना है तो प्रतिभा का भी सम्बन्ध चेतना से होना चाहिए। वास्तव में सिर्फ़ चेतना की ही प्रतिभा हो सकती है। सिर्फ़ कॉन्शियसनेस (चेतना) में ही टैलेंट (प्रतिभा) हो सकता है । और क्या परिभाषा हुई फिर प्रतिभा की?
प्रश्नकर्ता: हाई कॉन्शियसनेस (ऊँची चेतना) ।
आचार्य प्रशांत: हाँ। वो चेतना जो आतुर है भांति-भांति से ऊँचाई पर बढ़ने को, उस चेतना को प्रतिभाशाली चेतना कह सकते हैं। तो प्रतिभा हमारे भीतर की आतुरता है सच्चाई को पाने की। हम बहुत ज़ोर से दौड़ लेतें हों, क्षमा कीजिएगा, इसको प्रतिभा नहीं कहा जा सकता। ये काम तो जानवर भी कर लेते हैं। और बहुत जानवर जितनी तेज़ी से दौड़ लेते हैं, इंसान उतनी तेज़ी से कभी नहीं दौड़ सकता। तो जब भी हम प्रतिभा की बात करें, हमें पूछना पड़ेगा कि ये सारे काम क्या जानवर कर सकते हैं या फिर मशीनें कर सकती हैं। अगर वो काम एक जानवर कर सकता है या एक प्रोग्राम्ड (कार्यक्रमबद्ध) मशीन कर सकती है तो उसमें प्रतिभा जैसी कोई बात नहीं। समझ रहें हैं?
रोबो को बहुत ज़बरदस्त तरीक़ेसे नचाया जा सकता है और वो बिना थके ऐसे नाच सकता है जैसे कोई इंसान नहीं नाच सकता। इसी तरह गाना गाने की जो बात है, हम भली-भांति जानते हैं कि मशीनें बहुत ख़ूबसूरती से गा सकती हैं। और इंसानों की तो वोकल रेंज (ध्वनि के क्षेत्र) पर फिर भी कुछ सीमा होती है, मशीनों की बहुत बढ़ाई जा सकती है। और आनेवाले समय में, दस साल बाद, बीस साल बाद मशीनें और बढ़िया गा रही होंगी। गा ही नहीं रही होंगी, जो साधारण किस्म के बोल होते हैं, गीत होते हैं, मशीनें उसको लिख भी सकती हैं; तो ये सब प्रतिभा नहीं हैं।
प्रतिभा है कुछ ऐसा कर जाने में जो न तो जानवर कर सकता हो और न मशीन कर सकती हो और न सुपरकंप्यूटर (महासंगणक) कर सकता हो। और वो चीज़ तो देखिए, भीतर की एक ललक में ही होती है, प्यार में ही होती है। वो चीज़ मशीनों की बस की बात नहीं, और जानवर भी प्रेम नहीं जानते। जानवर मोह इत्यादि जानते हैं लेकिन प्रेम नहीं जानते। तो प्रतिभा यही है कि न जाने किसकी पुकार थी, और उस पुकार के जवाब में दीवार पर कुछ उकेर दिया मैंने - ये प्रतिभा है।
एक बच्चा बैठा हुआ है और वो हाथ में रंगीन कलम लेकर के दीवार गोद रहा है, इसको प्रतिभा नहीं कह सकते न। तो निन्यानवे प्रतिशत जो कुछ हमारे सामने परोसा जाता है प्रतिभा और टैलेंट के नाम पर वो प्रतिभा नहीं होता और निन्यानवे प्रतिशत हमें जो दिखाया जाता है कला के नाम पर वो कला, आर्ट नहीं होता। ये सारी भूलें सिर्फ़ इसलिए होती हैं क्योंकि हम अपनी मूलभूत पहचान को याद ही नहीं रखते।
हमेशा पूछना चाहिए कि कोई बोले ‘दिस इज़ अ पीस ऑफ आर्ट (यह कला का एक नमूना है)', आप पूछिए 'फॉर हूम (किसके लिए)?' ये कला है, परन्तु किसके लिए? अगर मेरे लिए कला है, अगर तुम चाहते हो कि मैं घोषित करूँ कि ये कला है तो याद रखो कि मैं कौन हूँ — मैं एक आह हूँ, मैं एक सिसक हूँ, मैं एक आँसू हूँ। मेरे लिए ये कला कैसे हो सकती है कि कोई दौड़ कर पहाड़ पर चढ़ गया या पेड़ पर चढ़ गया, इसमें कौनसी कला है? या कोई अपना हाथ झमा-झमा कर नाच रहा है, इसमें कौनसी कला है? इसीलिए भारत में नृत्यों की भी जितनी शैलियाँ हुईं वो सब मूलतः आध्यात्मिक थीं।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि भरतनाट्यम में भी तो मुद्रा है, और मुद्रा योग से आया है और योग आध्यात्म का पार्ट (भाग) है।
आचार्य प्रशांत: बिलकुल। कथक में भी वही बात है, कथाएँ क्या हैं? तो बात सारी वही है। तो यूँही उल्टा-पुल्टा नाच देने में, भले ही वो नाच बड़ा सम्मोहक लग रहा हो कि वाह ! कितनी इसकी हड्डियाँ एक साथ उछल रही हैं, कूद रही हैं - वो कला नहीं है, वो पशुवत काम है। और आप कहेंगे ‘नहीं साहब, बंदर नहीं नाच सकता ऐसे,' तो मशीन नाचेगी कल को ऐसे, मशीन इससे बेहतर नाचकर दिखाएगी। ये नहीं है।
लेकिन परमशक्ति को नमन करते हुए, या परमशक्ति के प्रेम में कोई मशीन कभी नाचने नहीं वाली। कोई पशु कभी ब्रह्म जिज्ञासा नहीं करनेवाला। परम के प्रेम में जो नृत्य हो वो कला है। हर साधारण नृत्य कला नहीं बोला जा सकता। अहंकार अपनी बेबसी और अपनी तड़प को अभिव्यक्त करते हुए जब गाये तो वो गीत कला हुआ। हर साधारण गीत कला नहीं हो जाता, वो यूँही है बस बकवास। हम इतना कुछ बोलते रहते हैं, प्रलाप, वो ऐसेही प्रलाप कर दिया है इधर-उधर; तो उसे कला नहीं कह सकते।
तो कलाकार शब्द हल्का नहीं होता कि आप बंदर नचाने वाले को कलाकार बोल दें या रियलिटी शो वालों को कलाकार बोल दें(हँसते हुए), ये कलाकार नहीं हैं; न ये कलाकार हैं, न इनमें कोई प्रतिभा है। प्रतिभा और कला शब्द बहुत ऊँचे शब्द हैं।
एक छोटा बच्चा है वो एक बेढंगा गीत गा रहा है अपनी तोतली आवाज़ में, और वो जो गीत है वो बिलकुल बेहूदा है, और वो अपनी तोतली आवाज़ में गा दे रहा है, लोग कह रहे हैं, ‘देखो बच्चे में बड़ा टैलेंट है।’ आप चूँकि इस तरह की बकवास करते हैं, इस तरह की हरकत को आप टैलेंट बोल रहे हैं, इसीलिए तो फिर दुनिया की ये दुर्दशा है।
प्रश्नकर्ता: तो कला और सौंदर्य के बीच में एक पैरेलल (समानांतर) है क्या? क्योंकि हम इतना एनचैंटेड (मंत्रमुग्ध) रहते हैं, बाय ब्यूटीफुल फॉर्म्स (सुंदर रूपों द्वारा) - नदी, पहाड़, पंछी, ये...
आचार्य प्रशांत: देखिए सौंदर्य की भी वही बात है। आप जैसे हैं...
प्रश्नकर्ता: माय क्वेस्चन वॉज़ हाउ टू गो बियॉन्ड दी एक्सप्रेशन ऑफ आर्ट*, सुंदरता या ब्यूटी जैसे बोलते हैं, और इज़ इट पॉसिबल टु मेक योअर लाइफ इंटु अ मास्टरपीस ऑफ आर्ट एंड ब्यूटी ? (मेरा प्रश्न यह था कि कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति से परे कैसे जाया जाए, और क्या अपने जीवन को कला और सौंदर्य की उत्कृष्ट कृति बनाना संभव है?)
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो अपनेआप बन जाएगी। आपको लाइफ (ज़िंदगी) नहीं सुधारनी है, आपको स्वयं को सुधारना है। जीवन जीनेवाला जीव है न। जीवन के केंद्र में जीव है, और जीव माने अहंकार, उसी को जीवात्मा भी बोलते हैं। जीवन को ठीक करने के लिए जीव को ठीक किया जाएगा न। वो फिर जीवन अपनेआप...आप ठीक हैं, आप जो कुछ भी करेंगे वो कलात्मक ही होगा। तो स्वयं को ठीक करना होता है।
आप ठीक नहीं हैं तो भी आपके जीवन में ये सब शब्द होंगे - कला, प्रतिभा, अभी आपने सौंदर्य कहा, ये सब शब्द होंगे, पर आपकी जो उनकी परिभाषा होगी वो बड़ी विद्रूप होगी, टूटी-फूटी, उल्टी-पुल्टी।
कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो न कहता हो कि उसे कुछ सुंदर लगता है, सभी को कुछ-न-कुछ सुंदर ज़रूर लगता है। कोई बोलता है ‘आई फाइंड दैट ब्यूटीफुल (मुझे वह सुंदर लगता है)', कोई बोलता है ‘मुझे ये पसंद है', कोई किसी तरह से हर व्यक्ति को किसी-न-किसी चीज़ से प्रेम भी होता है। कोई बोलता है ‘आय लव गॉड (मैं भगवान से प्यार करता हूं)', कोई बोलता है ‘आय लव चिकन (मुझे मुर्गे के मांस से प्यार है)'। तो लेकिन... समझ रहे हैं?
तो ये लव और ब्यूटी , सौंदर्य, प्रेम इत्यादि शब्दों का प्रयोग तो सभी करते हैं, लेकिन उन शब्दों का स्तर और उन शब्दों में निहित अर्थ उतने ही ऊँचे होते हैं जितने ऊँचे आप हैं। तो जीव को ऊँचा उठना होगा, जीव ऊँचा है तो उसका प्रेम भी ऊँचा होगा, नहीं तो प्रेम के नाम पे धांदली, जैसी होती है चारों तरफ़। नहीं तो सौंदर्य के नाम पर खाल की पूजा जो होती है चारों तरफ़।
आप ख़ुद अगर एक सतही जीवन जी रहे हैं तो आप सामने वाले व्यक्ति की बस सतह ही देखेंगे, सतह माने खाल। और जहाँ आपको ज़्यादा आकर्षक खाल मिल गयी, वहाँ आप कह देंगे, ‘मुझे प्रेम हो गया,’ क्योंकि वहाँ सौंदर्य है। न वहाँ सौंदर्य है, न आपको प्रेम हुआ है।
तो वास्तविक सौंदर्य वही जान सकता है जो अपने जीवन को एक वास्तविक ऊँचाई पर ले जा रहा है। फिर वैसों के लिए और सिर्फ़ वैसों के लिए कहा है, “सत्यं शिवं सुंदरम्” फिर उसको इधर-उधर व्यर्थ चीज़ों में सौंदर्य दिखना बंद हो जाता है। वो कहता है ‘शिव में ही सौंदर्य है, सत्य मात्र में सौंदर्य है।’ पर अगर हमारा जीवन ऐसे ही है, निचला सा, तो हमको असत्य में ही ज़्यादा सौंदर्य दिखता है।
आप अगर अधिकाँश लोगों का जीवन देखेंगे तो आप पाएँगे कि उनको जिन-जिन चीज़ों में सुंदरता दिखती है वो शतप्रतिशत झूठी हैं। उनको कुछ सुंदर लगे, इसकी शर्त ही यही है कि वो चीज़ झूठी होनी चाहिए, झूठी होगी तो ही सुंदर लगेगी। सच्ची हो गयी तो उनको बड़ा झंझट हो जाता है, बड़ी तकलीफ़ हो जाती है कि ये क्या मेरे सामने आ गया, हटाओ-हटाओ, एकदम मुँह पिदक जाता है उनका।
याद रखिये, न तो संसार अपनेआप में कोई विशिष्ट अर्थ रखता है, न किसी शब्द का कोई विशिष्ट, पर्टिक्युलर , स्पेसिफिक कोई अर्थ है। संसार आपके लिए है तो आप अपने संसार में अर्थ भरते हैं। ये सामने एक पौधा है, आपके लिए इसका जो अर्थ है. मेरे लिए हो सकता है इसका अर्थ उससे बहुत भिन्न हो, क्योंकि हम दोनों भिन्न हैं। ये दीवार हम दोनों के लिए एक नहीं है, और अभी यहाँ जितने लोग आएँगे, दीवार को देखेंगे, सब के लिए दीवार अलग है। आपको आश्चर्य होगा, आप कहेंगे ‘अरे, दीवार तो सबके लिए एक होती है।’ नहीं होती है।
दुनिया की हर चीज़, हर विषय, हर ऑब्जेक्ट , हर देखने वाले व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है। इसी तरह से हर शब्द भी कहने वाले व्यक्ति के लिए और सुनने वाले व्यक्ति के लिए, हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है। आप ‘सौंदर्य’ कहें, आपका जो अर्थ है सौंदर्य से वो मेरा नहीं होगा। इसीलिए बड़ी गड़बड़ हो जाती है।
हम सौंदर्य के साथ अभी प्रेम की बात कर रहे थे - आप कहें किसी से कि मुझे प्रेम है, मान लीजिये आप कह दें मुझे प्रेम है तुमसे, वो व्यक्ति इस वाक्य का जो अर्थ कर रहा है वो आपका अर्थ नहीं है। और हो सकता है वो भी कह दे ‘हाँ, मुझे भी प्रेम है तुमसे।’ लेकिन उसने प्रेम का जो अर्थ करा है वो आपका अर्थ कभी नहीं था। लेकिन आपको लग रहा है कि उसने वही कहा है जो आपने सोचा है, उसको लग रहा है आपने वही कहा है जो उसने सोचा है। कहा दोनों ने ही ऐसा कुछ नहीं है। और फिर इस तरह का भ्रम हो जाता है और उसकी वजह से बाद में बहुत कष्ट खड़े होते हैं, क्योंकि हम सब अपने-अपने व्यक्तिगत केंद्रों से संचालित होते हैं, सत्य से नहीं । ऊँचे जाइए और अपने शब्दों को, अपने जीवन को, अपने संसार को ऊँचे-से-ऊँचा अर्थ दीजिए।