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काल और कालातीत || (2013)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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काल और कालातीत || (2013)

नाहं कालस्य, अहमेव कालम्। ~ नारायण उपनिषत

आचार्य प्रशांत: तथ्य तो ये है कि स्थान और समय सिर्फ़ दिमाग की उपज हैं। जगह और समय यहीं पर हैं, कहीं और नहीं। हमको ये लगता है कि समय बह रहा है, एक नदी की तरह और हम उसमें हैं। तुम्हें लगता है कि "अभी मैं यहाँ पर हूँ" और फिर कहते हो कि, "चार बजे मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा", जैसे कि तुम समय में हो। उपनिषदिक् दृष्टा यहाँ पहली पंक्ति में बोल रहे हैं कि "नहीं, मैं समय में नहीं हूँ, समय मुझमें है।"

मैं जगह में नहीं बैठा हूँ, जगह मुझमें है।

अब ये सुनने में बहुत अजीब सा लगेगा, तुम कहते हो कि, "मैं इस कमरे में बैठा हुआ हूँ।" नहीं, तुम इस कमरे में नहीं बैठे हो, ये कमरा तुममें बैठा है। पर तुम अगर इस बात को सोचना चाहोगे तो ये दिमाग घूम जाएगा। तुम कहोगे, "ये कमरा मुझमें बैठा है तो मैं कहाँ बैठा हूँ? मुझे भी तो कहीं-न-कहीं होना चाहिए।" और जब तुम कहते हो कि, "मुझे कहीं होना चाहिए" तो तुम फिर कह रहे हो कि मुझे ‘जगह’ में ही होना चाहिए। तो घूम-फिर कर ये ख्याल पीछा ही नहीं छोड़ रहा है कि "मैं जगह में ही हूँ, मैं समय में ही हूँ।" ये ख्याल हमारे मन में गहराई से डाल देने में विज्ञान का बहुत बड़ा योगदान है; हमारी इंद्रियों का बहुत बड़ा योगदान है और शरीर का बहुत बड़ा योगदान है।

तुम शरीर से पैदा होते हो। तुम हर चीज़ शरीर से ही पहचानते हो। ये जो पहली पंक्ति है, नारायण उपनिषद से है – नाहं कालस्य, अहमेव कालम्। इस देश में बहुत पहले ये जान लिया गया कि ‘समय’ को और ‘मृत्यु’ को एक ही शब्द देना बहुत ज़रूरी है। इसलिए समय और मृत्यु के लिए ‘काल’ शब्द का प्रयोग किया गया। इस ‘काल’ शब्द को तुम दो तरीकों से पढ़ सकते हो।

मैं समय का नहीं हूँ, मैं मृत्यु का नहीं हूँ।

मैं ही मृत्यु हूँ, मैं ही जन्म हूँ।

जहाँ काल की बात हो रही हो, वहाँ जन्म की ही बात है। तुम देखो, जन्म को हम क्या मानते हैं। हम मानते हैं कि समय बह रहा है और समय के एक बिंदु पर हम पैदा हुए। फिर जीवन शुरु और फिर समय के एक दूसरे बिंदु पर हम मर गए और फिर उसके बाद ‘हम’ नहीं रहे। ये बड़ी पागलपन की बात है। इसमें तुमने ऐसा माना कि समय तुमसे बाहर है।

तुम नहीं आते-जाते, समय आता-जाता है, तुम अपनी जगह पर हो। तुम समय के बाप हो।

जिसको तुम जन्म बोलते हो, वो तुम्हारा जन्म नहीं है; वो समय का जन्म है। और क्योंकि स्मृति सिर्फ़ समय में रहती है, तो जैसे समय के आरंभ के साथ, स्मृति भी शुरु हो जाती है और क्योंकि हम स्मृतियों से बहुत जुड़े हुए हैं इसलिए हम सोचते हैं कि हम शुरु हुए हैं। नहीं, हमारी कोई शुरुआत नहीं है। तुम हमेशा यहीं हो। ‘हमेशा’ से अर्थ है कि तुम समय से बाहर हो। बस समय आता है और जाता है, तुम हमेशा यहीं रहते हो। और भ्रमवश समय के उस आने और जाने को तुम जीवन और मृत्यु बोल देते हो।

एक बिंदु लो और मान लो कि तुम ये बिंदु हो। अब इस बिंदु से समय बढ़ा और वापस बिंदु पर आ गया। तुम बिंदु हो, पर तुम अपने-आप को समझते क्या हो? तुम अपने-आप को समय समझते हो, वो जो बढ़ा और वापस आ गया। क्योंकि तुम अपने-आप को समय समझते हो, इसलिए तुम कहते हो कि, "इस बिंदु से मेरा जन्म हुआ और ये समयकाल में मैं जिया और फिर मेरी मृत्यु हो गई।" हमें ये सब बड़े अच्छे से सिखा दिया गया है और हम इस शरीर से बहुत ज़्यादा जुड़े हुए हैं। इसलिए हमारा मौत पर बड़ा गहरा विश्वास हो गया है। यही कारण है कि हम बड़े डरे-डरे रहते हैं।

हमारे मन के जितने डर हैं, मृत्यु के डर हैं।

काल = समय

काल = मृत्यु

तो मृत्यु माने समय। अगर हम गहराई से देखें तो सिर्फ़ एक चीज़ है जो हमें डराती है – समय। हमारे सारे डर, समय के डर हैं।

"मैं समय के बाहर हूँ, मैं मर नहीं सकता" – इसका मतलब ये नहीं है कि, "मैं हमेशा ज़िंदा रहूँगा", इसका मतलब ये है कि, "मैं कभी पैदा ही नहीं हुआ था। मैं मर नहीं सकता क्योंकि मैं कभी पैदा ही नहीं हुआ था।" क्या तुम इसे समझोगे? अगर तुमको अपने पैदा होने से दो साल पहले की घटना याद हो – तुम किस सन् मैं पैदा हुई हो?

प्रश्नकर्ता: सन् १९९२।

आचार्य: अगर तुम्हें १९८८ का कुछ याद आने लग जाए, तो क्या तुम ये कहोगी कि "मैं १९९२ में पैदा हुई"? अब १९८८ में तुम घूम रही हो इधर-उधर, इसी शरीर में, तो क्या तुम कहोगी कि, "मैं १९९२ में पैदा हुई"? तुम्हें १९८८ की भी स्मृति आ गई। किसी को अपने पैदा होने से पहले की स्मृति है? नहीं है न? अगर तुममें पैदा होने से पहले की भी स्मृति आ जाए, तो क्या तुम कहोगी कि, "मैं १९९२ में पैदा हुई"?

प्र: नहीं।

आचार्य: मतलब तुम जिसको पैदा होना कहते हो, जिसको तुम कहते हो जीवन की शुरुआत, वो वास्तव में किसकी शुरुआत है?

प्र: स्मृति की।

आचार्य: तुमने धोखे से स्मृति को जीवन समझ लिया है। क्योंकि तुम्हें एक तारीख से पहले का कुछ याद नहीं है, इसलिए तुम बोलते हो, "मैं उस तारीख से पहले था ही नहीं।" इस बात को समझ पा रहे हो?

प्र: सर, मेरी चेतना कहीं-न-कहीं मेरे शरीर से जुड़ी हुई है। जैसे, वही भागवत वाली बात है; घोड़ा है, घोड़ा आएगा तभी तो उसके ऊपर बैठने वाला सवार आएगा।

आचार्य: वो सिर्फ़ अर्जुन को समझाने के लिए बोली गई थी, अर्जुन बहुत होशियार नहीं है, इसलिए कुछ ऐसे उदाहरण का प्रयोग करना पड़ा। इसके लिए एक ज़्यादा अच्छा उदाहरण है, पेड़ का। एक पेड़ जिसकी एक छोटी-सी, बिंदु बराबर जड़ है और उस जड़ से एक बहुत बड़ा पेड़ निकल आया है या फिर यह कह लो कि एक छोटा सा बीज है जो मिट्टी में पड़ा हुआ है और उससे बहुत बड़ा पेड़ निकल आया है। वो जो पेड़ है वो समय और जगह है, और जो बिंदु है, बीज है वो ना समय है और ना जगह है। ये बात इतनी आसानी से समझ नहीं आती।

वो जो बिंदु है वो कालातीत है, और मज़ेदार चीज़ ये है कि उसमें से ही समय और जगह निकलता है।

प्र: सर, जो पेड़ है वो समय और जगह इसलिए है क्योंकि वो थोड़े समय के लिए है।

आचार्य: हाँ, वो थोड़े समय के लिए है, वो दिखाई पड़ता है, वो बदलता है। जो कुछ भी बदलता है वो समय में है।

प्र: जो बीज है वो समय और जगह क्यों नहीं है?

आचार्य: क्योंकि वो अगर समय हो गया तो उसका बीज क्या होगा फिर?

वो, वो है, जो ‘पहला’ है, जो अकारण है।

समय पूरे तरीके से मानसिक होता है। जब तुम किसी का इंतज़ार कर रहे होते हो तो समय धीरे हो जाता है, जब तुम बहुत खुश होते हो तो समय तेजी से चलने लगता है। तुम्हारा मन अगर रुक जाए तो तुम समय के बारे में कुछ नहीं कह पाओगे।

चलो एक सवाल पूछता हूँ। मज़ेदार सवाल:

“दुनिया में जितने लोग हैं, सब सो जाएँ, और कोई घड़ी ना हो, फिर सब उठें और ये पता नहीं हो कि कब उठे; क्या कोई तरीका है पता करने का कि कितनी देर तक सोते रहे?”

प्र: सूर्योदय और सूर्यास्त देखकर कि रात को सो गए और सुबह उठे।

आचार्य: तीस साल के बाद उठे। कोई तरीका है पता करने का कि तीस साल सोये या बीस साल या दो ही दिन? कोई भी तरीका है? मैं कह रहा हूँ कि कुछ बदला नहीं। ऐसा नहीं है कि वो उठे और बुड्ढे हो गए। मान लो ये सब कुछ बदला नहीं।

कोई तरीका नहीं है न? समय मानसिक है। मन सो जाए तो समय ख़त्म हो जाता है; क्योंकि मन की दुनिया में सब बदलता रहता है, इसलिए तुम्हें लगता है कि समय चल रहा है।

समय नहीं चल रहा, मन चल रहा है।

प्र: हम डरे हुए भी इसलिए रहते हैं क्योंकि हमें समय पता रहता है कि अब हम तीस साल के हो गए, अब चालीस साल के हो गए।

आचार्य: तुम कोमा में चले जाओ और तीन साल बाद उठो, क्या तुम्हें पता होगा कि तुम तीन साल बाद उठे हो? तुम तो उठोगे और कहोगे कि ‘चाय देना’। फिर तुम्हें अगर कोई बताएगा कि तुम तीन साल से बेहोश थे, तब तुम ज़रूर पागल हो जाओगे। समझ में आ रही है बात?

समय तुमसे अलग नहीं है। ये बहुत बड़ी गलतफहमी है कि समय चलता ही रहेगा हम होंगे या नहीं होंगे। इसलिए लोग ऐसे सवाल भी कर लेते हैं कि ‘मरने के बाद क्या होता है?’ अगर समय तुम्हारे भीतर है, समय इस दिमाग में चल रहा है तो जब ये दिमाग ही नहीं होगा तो समय कहाँ से होगा?

मरने के बाद कुछ नहीं होता क्योंकि समय ही नहीं होता।

प्र: तो सर, ये सब बस मान्यता है? जब हम कहते हैं कि चेतना हमेशा रहती है, कभी मरती नहीं है, इसका मतलब क्या है?

आचार्य: चेतना कभी पैदा ही नहीं हुई है। चेतना समय के ऊपर निर्भर नहीं है। समय चेतना से निकलता है और उसी में मिल जाता है।

प्र: समय स्मृति से नहीं आता?

आचार्य: क्या बिना समय के स्मृति हो सकती है? जब तुम कहते हो कि, "मैं याद कर रहा हूँ", तो तुम हमेशा किसी ख़ास समय को याद कर रहे होते हो, है न?

समय पहले आता है।

ये बात कुछ समझ में आ रही है?

ये बहुत क्रांतिकारी बात है। इसीलिए ध्यान की इतनी कीमत है, क्योंकि जब तुम ध्यान में होते हो, तो उस समय तुम समय की धारा से बाहर हो जाते हो।

प्र: जब कोई किताब पढ़ते हैं तब भी?

आचार्य: हर समय तुम क्या हो? हर समय तुम समय हो। जब मन में कुछ चल रहा है, जब भी कुछ बदल रहा है–और बदलना माने समय–इस दुनिया में अगर कुछ भी ना बदले, तो तुम समय नहीं बता सकते। समय तब तक है जब तक बदलाव है।

जैसे अभी है, सब कुछ वैसा ही रहे, कुछ भी ना बदले, तुम भी ना बदलो, तुम्हारी कोशिकाएँ ना बदलें, तो समय भी नहीं बदलेगा, समय रुक जाएगा।

समय बदलाव है। आमतौर पर हम बदलाव में जीते हैं।

प्र: फिर तो जो घड़ी है वो तो कुछ नहीं है?

आचार्य: घड़ी तो कुछ नहीं है। कोई भी यंत्र लो और वो घूमता रहे, तो उससे क्या हो जाएगा?

अगर कुछ भी ना बदले तो समय रुक जाता है। पर हम हमेशा बदलाव में जीते हैं। हमारे मन में क्या-क्या बदल रहा होता है? विचार बदल रहे होते हैं, दृश्य बदल रहे होते हैं, हम क्या सुन रहे हैं वो बदल रहा होता है, इसलिए हम हमेशा एक ऐसी दुनिया में जी रहे होते हैं, जो किसकी दुनिया है?

प्र: समय की।

आचार्य: और जो समय की दुनिया है, वो मृत्यु की दुनिया है। इसलिए हम हमेशा डरे-डरे जीते हैं, क्योंकि सब कुछ बदल रहा है। ध्यान में तुम वहाँ पर होते हो, जहाँ कुछ बदल नहीं रहा है, जो सारे बदलाव को ‘जान’ रहा है, ध्यान में तुम वहाँ पर होते हो।

उस समय तुम जीवन और मृत्यु के पार हो जाते हो। ये भी कह सकता हूँ मैं कि तब हम अमर हो जाते हैं। ध्यान ही अमरता है क्योंकि तब तुम समय के बाहर होते हो। और जब तुम समय के बाहर हो तो कैसे मर सकते हो? तब तुम मृत्यु को भी जान जाओगे। समय का कोई सवाल ही नहीं रह जाता।

प्र: अगर कोई तारीख ना हो, कोई समय ना हो, तो मुझे ये नहीं रहेगा कि मुझे परसों पेपर देना है, उसके अगले दिन ये करना है, मैं सिर्फ़ आज का देखूँगी कि आज मेरे पास है। आज भी नहीं, बस अभी, बस ‘अभी’ मेरे पास है।

आचार्य: तुम ध्यान में डूब कर कुछ भी करो, ध्यान देना तुम्हें समय का पता भी नहीं चलेगा, और तुम ध्यान में जितना डूबोगे, समय से उतने बे-ख़बर हो जाओगे।

जब तुम ध्यान में होते हो, उस समय तुम समय से बाहर हो जाते हो, तुम काल से कालातीत में आ जाते हो और इसलिए तुम अमर हो। बल्कि तुम एक इंसान भी नहीं रहते क्योंकि इंसान नश्वर होते हैं, तुम भगवान बन जाते हो। ध्यान में तुम भगवान होते हो।

प्र: ध्यान कहाँ पर होता है? बुद्धि में?

आचार्य: ध्यान बुद्धि ‘में’ नहीं है। वो बिंदु है जहाँ से सब निकलता है, समयातीत, जहाँ से समय प्रस्फुटित होता है, जहाँ से मन निकलता है।

अब ये मन उस बिंदु से या तो बाहर रह सकता है, या फिर वो उस बिंदु में रह सकता है। वो बिंदु जहाँ से सब कुछ निकलता है, उसको समुद्र भी कहा जाता है। कहा जाता है कि जैसे सारी लहरें समुद्र से निकलती हैं, उसी प्रकार वो बिंदु समुद्र है जहाँ से सब कुछ निकलता है। मन उस बिंदु से बाहर-बाहर रह सकता है, जैसा हमारा मन आमतौर पर रहता है, या मन उस समुद्र में डूब कर भी रह सकता है। जब मन उस समुद्र में डूबा होता है, उसको ध्यान कहते हैं। जब मन अपने स्रोत में डूबकर मौजूद होता है, मन की उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। तब मन भटका-सा नहीं रहता। जो भी वो कर रहा होता है, अपने स्रोत से जुड़े होकर करता है। सारी मानवता एक भ्रम में जीती है, जिसे समय कहते हैं। हमारी पूरी ज़िंदगी समय के इर्द-गिर्द बनी होती है। देखो न, तुम जो कुछ भी करते हो, वो समय पर निर्भर करता है।

प्र: सोना, उठना, खाना।

आचार्य: सब कुछ।

प्र: जब रात को पढ़ना होता है तो हम घड़ी छुपा देते हैं कि हमें समय पता ना चले क्योंकि समय देखूँगा तो नींद आ जाएगी।

आचार्य: हम जो भी करते हैं वो समय पर निर्भर करता है और मज़े की बात है कि समय असली है नहीं, तो हम जो कुछ कर रहे हैं, पूरी दुनिया जो कुछ कर रही है, बड़े-से-बड़े ज्ञानी लोग जो कुछ कर रहे हैं वो क्या हो गया?

प्र: नकली।

आचार्य: जब समय है ही नहीं और पूरी दुनिया समय पर चल रही है तो पूरी दुनिया कैसी है ये? पागल! इसीलिए जिनको भी समझ में आया है, उन्होंनें यही कहा है कि दुनिया बड़ी पागल है।

प्र: तो ये जो घड़ी बनाई है, ये भी हमारी सीमा के अंदर है?

आचार्य: घड़ी तो सिर्फ़ समय को मान्यता देने का एक तरीका है। तुम चाहो तो ये भी बोल सकते हो आज कि एक मिनट में चालीस सेकंड होंगे या एक-हज़ार सेकंड होंगे। कुछ भी कर सकते हो। वो तो हमने सिर्फ़ एक मापकरण कर दिया है न। जब तुमने मान ही लिया है कि समय है तो तुम उसको मापोगे भी। तो माँपने के लिए एक उपकरण रख दिया है और उसको तुम घड़ी बोलते हो। तुमने घड़ी बनाई, ये बहुत बाद की बात है; ज़्यादा ज़रूरी बात है कि हमने समय को बहुत महत्व दे रखा है। हम इसे असली मान कर चलते हैं। इसीलिए, अगर समय असली है तो बदलाव भी असली है। इसलिए हम हमेशा बदलाव चाहते हैं। इसीलिए हम महत्वाकांक्षी हैं कि कुछ बदल जाए, कुछ मिल जाए, इसीलिए हमारे इतने सपने होते हैं। ये सब समय से निकल रहा है और कालातीत की अवस्था में हम होते नहीं, जो कि ध्यान है, डूबना है।

प्र: पर सर बदलाव तो होते हैं, चाहे वस्तुनिष्ठ हों।

आचार्य: हाँ, बदलाव होते हैं। जैसे ये पेड़ है, इसकी पत्तियाँ गिरेंगी, पर ये समझना ज़रूरी है कि सारे परिवर्तन अपरिवर्तनीय से आ रहे हैं। तो आँखें तो बदलाव दिखाएँगी पर ये पता हो कि ये सारे बदलाव स्थिरता से निकल रहे हैं। ये बदलाव इतने असली नहीं हैं जितना वो अपरिवर्तनीय असली है। जैसे कालातीत से काल निकल रहा है तो काल की भी अपनी एक कीमत है क्योंकि निकल तो वो असली से ही रहा है न! काल का जो ‘पापा’ है, वो तो असली ही है। पर दिक्कत तब हो जाती है जब हम काल को ही ‘पापा’ मान लेते हैं। हम समय के ‘पापा’ को भूल जाते हैं और समय को ही ‘पापा’ मान लेते हैं।

प्र: तो सर हम अपना सारा काम समय के अनुसार करते हैं?

आचार्य: हम अपना सारा काम समय के अनुसार करते हैं और असली को भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि समय ही सबसे महत्वपूर्ण है। हम भूल जाते हैं कि समय से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ और है।

प्र: अच्छा, जैसे बूढ़े लोग होते हैं वो कहते हैं कि, "हम तुमसे बड़े हैं क्योंकि हमें ज़्यादा अनुभव है, हमने ज़्यादा समय बिताया है।" कोई बूढ़ा है या बच्चा है, चेतना तो कालातीत है वो किसी से भी निकल सकती है।

आचार्य: सौ-प्रतिशत तुमने सही बात पकड़ ली है। उम्र और अनुभव से कुछ नहीं होता, ये फालतू की बातें हैं। पर हमारी दुनिया ऐसी है जिसमें सब कुछ समय पर निर्भर करता है। जो बूढ़े लोग अपने-आप को बड़ी कीमत देते हैं, वो सिर्फ़ इसीलिए है क्योंकि वो फँसे हुए हैं, समय में।

प्र: तो उन्हें लगता है कि हम इतना कर चुके हैं, तो अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए ऐसा कहते हैं।

आचार्य: इसी तरीके से जो जवान लोग अपने-आप को जवान बोलते हैं, वो भी समय में फँसे हैं। वो सोचते हैं कि हमारी एक ख़ास उम्र हो गई है इसीलिए हम जवान हैं। उम्र से जवान नहीं होते। उम्र तो समय है और समय थोड़े ही तुम्हें जवान कर देगा!

प्र१: पर हम इतने ज़्यादा फँसे हुए हैं समय में कि अपने-आप ही जब जवान होते हैं तो दूसरे विचार हो जाते हैं। जब थोड़ा समय होता है तो दूसरे विचार हो जाते हैं।

प्र२: तो सर ये दूसरे विचार जो आते हैं इसे कैसे हटाएँ?

आचार्य: हटाना है, ये भी तो एक विचार है। यहाँ हटाने की बात नहीं हो रही। हटाने का मतलब ही यही है कि तुमने एक और विचार खड़ा कर दिया। हटाना नहीं है, बस समझना है कि ये सब क्या है।

प्र: जानना ज़रूरी है।

आचार्य: एक्शन (कर्म) बहुत बाद की बात है। एक्शन छोड़ो, वो अपने-आप हो जाएगा; जानना ज़रूरी है।

प्र: दिमाग कभी बूढ़ा नहीं होगा, चेतना कभी बूढ़ी नहीं होगी?

आचार्य: वो ना बूढ़ी है, ना बच्ची, वो बस ‘है’। उसके साथ समय से संबंधित कोई विशेषता जोड़ ही नहीं सकते।

प्र१: सर, उसकी उम्र एक जैसी रहती है?

प्र२: उसकी कोई उम्र ही नहीं है।

प्र३: वो कालातीत है।

आचार्य: तुम एक जैसे भी तभी कहते हो, जब वो एक जैसे हैं, समय टी=0 और समय टी=१० पर, तो एक जैसे कहना भी कोई अक्ल की बात नहीं है। वो बस समय के बाहर है। उसके लिए लोगों ने शब्द बोले हैं–अनंत, कालातीत।

प्र: ये जो शरीर है, वो बूढ़ा होकर मर जाएगा। वो समय के अंदर है, पर जो कृष्ण ने भागवत में बातें कहीं, जिद्दु कृष्णमूर्ति ने कहीं, ओशो ने कहीं, वो कालातीत हैं। वो आज भी हैं, तब भी थीं। वो कालातीत हैं।

आचार्य: जो कुछ भी असली है, वो कालातीत ही होगा और जो कुछ भी टाइम (समय) ख़त्म कर देता है, उसकी वैसे भी कोई कीमत नहीं है। जो कुछ भी कीमती है, समय उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता और जो कुछ भी समय के साथ ख़त्म होता है, उसे ख़त्म होने दो। कोई समय के साथ आया है तो समय के साथ जाएगा। उसकी कोई कीमत नहीं है, उसको जाने दो। सिर्फ़ वही कीमती है, जो असली है, कालातीत है। जो भी तुम्हें समय ने दिया है वो ठीक है, पर उसकी कोई बहुत ज़्यादा कीमत नहीं है।

हम जिसको पता होना कहते हैं न कि "मुझे कुछ पता है"–और इसको ध्यान से समझना–जब तुम कहते हो कि, "मुझे पता है", कुल मिला कर तब तुम बस इतना ही कह रहे होते हो कि "मैं किसी चीज़ के बारे में ‘सोच’ रहा हूँ।" तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, बस तुम उसके बारे में सोच रहे हो और सोचना ‘जानना’ नहीं है। जब मैं तुमसे कहूँ कि तुम्हें जयपुर के बारे में कुछ पता है? तुम कहोगे कि "पता है", जिसका मतलब बस इतना है कि तुम जयपुर के बारे में सोच सकते हो। तो तुम जिसको बोलते हो कि तुम्हें पता है या "मैं समझ गया", उसका अर्थ केवल इतना है कि, "मैंने उसके बारे में सोचना शुरू कर दिया है" और ये इस बात की गारंटी होता है कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं है।

प्र: सर, इसका मतलब समझ नहीं आया कि पता भी है फिर भी पता नहीं है।

आचार्य: आपको नहीं पता है। विचार आपको भ्रम देता है कि आपको पता है।

प्र: तो जो आज तक पढ़ा या पता है वो सारा बेकार है?

आचार्य: वो बेकार नहीं है, वो वही है जो वो है। उसको कुछ और मत समझो। तुम वीडियो गेम खेल रहे हो, उसको बस वीडियो गेम समझो; तुम उसको असली नहीं समझ सकते। जो तुमने आज तक अनुभव किया है, वो बस एक प्रक्षेपण है। ना उसको असली बोलने की ज़रूरत है, ना नकली और ना कुछ और। बस समझो कि ये क्या है। तो कुछ भी मत बोला करो कि तुम्हें पता है क्योंकि तुम्हें जो वास्तव में पता होगा उसके बारे में बोल नहीं पाओगे। जब तुम्हें वास्तव में कुछ पता चलेग न, तो तुम्हें कुछ पता ही नहीं चलेगा।

प्र: शब्दों में नहीं बता पाएँगे।

आचार्य: ऐसा समझ लो कि एक सीडी है। उसमें कोई जानकारी है, पर वो पढ़ी नहीं जा सकती। वैसे ही वो ऐसे पता चलेगा कि तुममें है वो इकट्ठा, पर उसे पढ़ा नहीं जा सकता। जो तुम्हें वाकई पता है, उसका तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा और जो कुछ तुम्हें पता है वो वही है जो सीडी में बाहर से लोड कर दिया गया है तो उस पता होने की कोई कीमत है ही नहीं। जो कुछ तुम कहते हो न कि, "मुझे पता है", वो सब अर्थहीन है, तुम्हें बस बाहरी जानकारी का पता है जो तुम्हारे दिमाग में ज़बरदस्ती डाल दिया गया है।

प्र: तो वो कब हमारे अंदर से आएगा?

आचार्य: वो तुम्हारे अंदर से कब आएगा? जब तुम उसके सामने आत्म-समर्पण कर दोगे। जब तुम आत्म-समर्पण कर दोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हें पता है।

प्र: सर, हम जो भी करते हैं या सोचते हैं, वो बाहर से आ रहा है तो इसका ये मतलब है कि ये समय की बर्बादी है?

आचार्य: इसका मतलब है कि वो सिर्फ़ समय है, समय की बर्बादी नहीं।

प्र: सर, जब किताब पढ़ते हुए ध्यान में होते हैं, वो कालातीत है?

आचार्य: हाँ, पर जब तुम किताब पढ़ रहे हो और ध्यान से पढ़ रहे हो तो तब तुम्हें किताब के शब्दों से थोड़े ही कोई लेना-देना है, अभी अगर तुम मुझे ध्यान से सुन रहे हो तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं क्या कह रहा हूँ। अगर तुम मुझे वाकई ध्यान से सुनोगे न और मैं अचानक फ्रेंच में बोलना शुरू कर दूँ, तो भी तुम्हें कोई अंतर नहीं पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें शब्दों से कोई लेना-देना ही नहीं होगा। मैं जो कह रहा हूँ ये जो शब्द हैं न, ये बहुत काम के नहीं हैं। असली चीज़ ये है कि तुम सुन रहे हो। इसको समझने पर ध्यान दो। तुम मेरे शब्दों को नहीं सुन रहे हो, तुम बस सुन रहे हो। सुनने का कोई विषय नहीं होता। सुनने का कभी कोई सेंटर (केंद्र) नहीं होता कि, "मैं तुम्हें सुन रहा हूँ"–नहीं। तुम सुनने की ‘स्थिति’ में हो। अगर तुम सही में सुन रहे हो तो फ़र्क नहीं पड़ेगा यदि मैं अचानक से रशियन बोलने लग जाऊँ, तुम सुनते रहोगे और सब कुछ समझोगे भी।

प्र: पर सर हम कैसे समझेंगे कि आप क्या कह रहे हो?

आचार्य: सिर्फ़ शब्द समझे जाते हैं और शब्द वैसे भी तुम्हें कुछ देंगे नहीं। शब्द तुम्हें बस वो चीज़ देंगे जो समय और जगह में सीमित है। सिर्फ़ वो जानकारी जो समय और स्थान में है। जो यहाँ हो रहा है, वो शब्दों में नहीं हो सकता।

प्र: सर, समझ नहीं आ रहा।

आचार्य: तुम अगर ध्यान से सुनो तो मैं बोल रहा हूँ, या ये कुर्सी खाली है–एक ही बात है। और अगर तुम ध्यान से सुनो तो यहाँ मैं बोल रहा हूँ, या एक बच्चा बैठा दिया जाए और वो बैठ कर हाथ-पैर इधर-उधर मार रहा हो तब भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता, एक ही बात है, तुम अगर ध्यान से सुनो।

प्र: कोई अगर बोलेगा नहीं तो हम कैसे सुनेंगे?

आचार्य: शब्द नहीं सुने जाते, शांति सुनी जाती है।

प्र: जैसे आप बोल रहे हो तो हम एक भाषा के द्वारा समझ रहे हैं।

आचार्य: तुम शब्दों का प्रयोग कर रहे हो। कान शब्दों को दिमाग तक ला रहे हैं पर वो सिर्फ़ सुनना है, जानना नहीं है। जानना सुनने के पीछे की शांति है।

अगर शांति ना हो सुनने के पीछे तो वो सुनना बेकार है और अगर शांति है ही तो सुनने की वैसे भी कोई ज़रूरत नहीं है। तो सुनना बस इतना ही अच्छा है कि वो तुम्हें शांति के करीब ला सके। सबसे अच्छे शब्द वो हैं जो तुम्हें शांति के करीब ले आएँ।

प्र: शायद हमने सुनने को बस ये देखा है कि कोई बोलता है और हम सुनते हैं।

आचार्य: वो सुनना नहीं है। वो काम तो कोई मशीन भी कर सकती है।

प्र: तो सर फिर सुनना क्या होता है?

आचार्य: तुम ध्यान दो तभी समझ आएगा। समझना सुनने के पीछे की शांति है।

प्र: सर, मुझे किताब वाला समझ नहीं आया। जैसे कोई किताब पढ़ रहा है तो उस समय में…

आचार्य: जिसको तुम कहते हो 'पढ़ना' वो सिर्फ़ जानकारी इकट्ठा करना है।

प्र: नहीं, जैसे फाउंटेन-हेड (आयन रैंड का उपन्यास) पढ़ रहे हैं और ध्यान आ गया, तो तब ऐसा लगता है कि हम ही हॉवर्ड रॉर्क हैं, तो कालातीत हो गई? पर उसको पढ़ कर हमने कुछ पाया नहीं...

आचार्य: कौन पाएगा?

प्र: मन।

आचार्य: इकट्ठा करोगे कुछ? सारा इकट्ठा करना बदलाव है। जब तुम कहते हो पाना या कुछ करना, इन सबका अर्थ है–कुछ बदल रहा है। जो भी कुछ बदल रहा है, वो नियमबद्ध रूप से समय के अंदर है और वो ज़्यादा कीमत का है नहीं। तो कुछ पाया नहीं जाता है।

कुछ भी पढ़कर एकमात्र फायदा ये हो सकता है कि तुम चुप हो जाओ। समयातीत हो जाओ। जो पढ़कर तुमने कुछ पा लिया, लगे कि, "वाह, ये मिल गया, वो मिल गया", तब तो फिर तुमने अपने-आप को और धोखा दे दिया। तुमने जानकारी इकट्ठी कर ली है, तुम विश्वकोश बनते जा रहे हो।

प्र: तो सारी जानकारी इकट्ठा करना बंद कर दें?

आचार्य: क्यों बंद कर दोगे? तुम्हारे बस की है बंद करना? आँखें खुलेंगी, जानकारी आ जाएगी; कान खुलेंगे, जानकारी आ जाएगी, जानकारी इकट्ठा होना तो चलता रहेगा, गंध आएगी, स्पर्श आएगा। जानकारी तुम्हारे अंदर हमेशा ही भरी जाती है, हर समय।

प्र१: सर, हम असलियत में देख क्या रहे हैं?

प्र२: कालातीत को देख रहे हैं।

आचार्य: हम कह रहे हैं कि तुम भगवान हो।

प्र१: हर चीज़ भगवान है। तुम्हें उसके बारे में पता है और तुम्हें पता नहीं भी है। तुम उसके बारे में जान भी नहीं सकते।

प्र२: तुम उसका वर्णन नहीं कर सकते।

आचार्य: तुम ‘वो’ ही हो और तुम उसे जानते भी नहीं हो और कोई साधन भी नहीं है उसे जानने का। जो भी तुम जानते हो वो अर्थहीन है। जितना तुम ‘जानते’ हो कि तुम उसे जानते हो, उतना ही तुम सिर्फ़ जानकारियों में भटक रहे हो।

प्र: सबका बाप।

आचार्य: तुम अपने ही बाप हो। तुम अपने बाप से दूर भाग रहे हो।

ईश्वर कौन है? ईश्वर की एक नई परिभाषा–वो जो अपना बाप है, वो जो अपने-आप को जन्म देता है।

प्र१: मौत भी?

प्र२: भगवान ही सब कुछ है।

आचार्य: और कुछ भी नहीं है!

प्र: सर, हम भगवान कैसे हैं?

आचार्य: ये थोड़े ही भगवान है जो लाल शर्ट पहन कर बैठा है। तुम्हारा एसेंस (मूलतत्व) भगवान है।

प्र: सब कुछ भगवान है, ये पेड़ भगवान है, सब कुछ?

आचार्य: आमतौर पर तुमसे कोई कहे कि तुम भगवान हो, तो तुम्हें कितना मज़ा आएगा। अब यहाँ कहा जा रहा है कि, "भगवान हो!" तो मज़ा ख़ाक आ रहा है।

ये दुनिया समय है। किसी भी प्रकार ये दुनिया बदलाव से भाग नहीं सकती। ये बात फिर जो दूसरा दोहा है इसमें कही गई है:-

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। जगत चबैना काल का, कुछ मुख मा कुछ गोद।।

कुछ ऐसी सी छवि बनाई गई है कि समय बैठा हुआ है और उसके गोद में पॉपकॉर्न की तरह ये दुनिया रखी हुई है। जैसे आप मूवी देख रहे हो और एक बड़ा पॉपकॉर्न का डब्बा आपकी गोद में रखा हुआ है। कुछ आपने खा लिया है और कुछ आपकी गोद में रखा है और आप खाए जाओगे। तो कबीर कह रहे हैं कि ये जो दुनिया तुमने बसा रखी है, ये समय की गोद में पॉपकॉर्न की तरह है। कुछ उसने चबा दी है और कुछ वो चबाने को तैयार है, पर फिर भी तुम फालतू की खुशी मानते रहते हो कि ‘झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद’। मोद माने आनंद, और मन में बड़ी प्रसन्नता मनाते रहते हो।

प्र: जैसे मैंने ये चीज़ पा ली है।

आचार्य: तुम समझ भी नहीं रहे हो कि तुम मौत की गोद में पॉपकॉर्न की तरह बैठे हुए हो और थोड़ी देर में वो तुमको चबा जाएगा। जगत चबैना, चबैना मतलब जिसको चबाया जाए।

प्र: वो दूसरा वाला भी तो दोहा है, कली और माली वाला।

आचार्य:

मालिन आवत देख के, कलियन करे पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल हमारी बार।।

तो, जो कुछ भी तुम कोशिश कर रहे हो पाने की, जानने की–ये तो सब ख़त्म होना है और ये पक्का है कि इससे तुम्हें कुछ मिल नहीं सकता। बिलकुल भिखारी मरने वाले काम हैं ये सब। और इस बात को पक्का समझ लो कि इस दुनिया में सब भिखारी मरते हैं। एक-से-एक खुद्दार आदमी, अमीर-से-अमीर आदमी, सब भिखारी मरते हैं क्योंकि जो चीज़ सबसे कीमती है–उनका ‘होना'–वो ही नहीं बचता। जिसके पास सबसे कीमती चीज़ ही ना रह जाए वो तो बड़ा भिखारी मरा! मरते-मरते भी सब में लालच रह जाता है, इसीलिए सब मरते-मरते भी डरे रहते हैं।

सिर्फ़ वही वास्तव में जीता है, जो कालातीत को जान ले।

समय में जो भी करोगे वो काम-चलाऊ है। समय की इतनी ही कीमत है कि अभी कोई आ जाए गेट बंद करने कि "निकलो, समय हो गया है।" समय की इतनी कीमत है। पर इससे ज़्यादा नहीं होना चाहिए।

एक दिन खड़े हो जाओ और देखो नीचे से गाड़ियाँ निकल रही हैं, लोग निकल रहे हैं और तुम कहो कि, "ये सब कहाँ जा रहे हैं?"

ज़वाब आएगा, "मरने!"

किसी को रोको और कहो कि, "तुझे पता है, तू कहाँ जा रहा है?" वो बोले, तो कहो कि "मरने जा रहा है।" देख लो, शरीर का मरना तो पक्का है। कालातीत को उससे पहले जान सकते हो तो जान लो। समय तो आ रहा है, खाने के लिए। कई बार संवाद में प्रश्न आता है कि, "ज़िंदगी का क्या उद्देश्य है?" अब तुम समझ गए हो कि ज़िंदगी का क्या उद्देश्य है। ज़िंदगी का एक ही उद्देश्य है–मौत!

प्र: पर मौत तो सिर्फ़ इस शरीर की होती है।

आचार्य: तो वो जो सवाल पूछ रहा है, वो तो उसी शरीर को ही जीवन बोल रहा है! उसका तो एक ही उद्देश्य है–मृत्यु।

YouTube Link: https://youtu.be/Dz57SbBCBCI

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