प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम बहुत कुछ पढ़ते रहते हैं। तो कोई छवि दिमाग में आ जाती है, उसको सच मान बैठते हैं। क्या ये जो जिज्ञासा है, इन प्रश्नों को पूछना व्यर्थ है? या ये सवाल मूलभूत तत्त्व की तरफ ले जाना चाहते हैं? क्या इन सवालों का कोई मोल है असली अर्थों में, या ये सिर्फ़ अहम का छलावा हैं?
आचार्य प्रशांत: तुम बताओ न। तुम बताओ!
तुम प्यासे घूम रहे हो, और जो मिले उससे पूछो, “आज कल प्रॉपर्टी के रेट क्या चल रहे हैं?” तो ये जिज्ञासा क्या है? इसे जो नाम देना हो, अब दे लो। तुम्हारे सिर में चोट लगी है, खून बह रहा है, और तुम जिज्ञासा करो कि – “सूरज की रौशनी को पृथ्वी तक पहुँचने में कितना समय लगता है?”- इस जिज्ञासा को जो नाम देना है दे लो। तुम्हारी जिज्ञासा का तुम्हारे यथार्थ से कोई सम्बन्ध होगा, या नहीं होगा? या जिज्ञासा कोई अंधा तीर है जो किसी भी दिशा में चल देता है?
नौकरी के लिए भी जब साक्षात्कार देने जाते हो, और ख़त्म हुआ इंटरव्यू , और वो कहते हैं, “आपको कुछ पूछना है?” और तुम उनसे पूछ रहे हो – “राजा अशोक के जूते का नाप क्या था?” पर ऐसा तुम करोगे नहीं, क्योंकि तब तुम्हें ये बात साफ़ समझ में आ जाती है कि जिज्ञासा भी सोद्देश्य होनी चाहिए। जिज्ञासा भी प्रासंगिक होनी चाहिए। जिज्ञासा में भी एक सार्थकता होनी चाहिए। अन्यथा जिज्ञासा सिर्फ़ असली मुद्दे से बचने का बहाना है। व्यर्थ जिज्ञासा जीवन के मूलभूत प्रश्नों से कन्नी काटने का बहाना है।
जो बात तुम्हें पूछनी चाहिए, वो पूछने की तुममें हिम्मत नहीं है, इसीलिए अक्सर तुम व्यर्थ की बातों की जिज्ञासा करते हो।
जो असली सवाल है वो पूछा ही नहीं जा रहा, साहस ही नहीं है, तो इसीलिए इधर-उधर के सवाल पूछ रहे हो। “इसकी दाढ़ी में बाल कितने हैं?” ये सारी जिज्ञासाएँ घूम फिरकर किसलिए हैं? ताकि असली जिज्ञासा तुम्हें करनी ना पड़े, असली सवाल से किसी तरह तुम बच जाओ, उसका सामना ना करना पड़े। तो इसीलिए व्यर्थ की, इधर-उधर की बातें। और यही इंसान की गतिविधियों में दिखाई देता है।
हम जितने भी व्यर्थ के काम करते हैं, अपना समय खराब करते हैं, वो इसीलिए करते हैं न, कि अगर वो व्यर्थ के काम नहीं करें, तो कोई सार्थक काम करना पड़ेगा। सार्थक काम करते रूह काँपती है। तो कुछ भी फ़िर।
सोशल मीडिया पर समय ख़राब कर लो, बाज़ार घूम आओ, यूँही इधर-उधर की कोई गॉसिप (व्यर्थ चर्चा) कर लो। टी.वी. पर समाचार देखने बैठ जाओ। उसमें जो भी कचरा आ रहा हो, उसको देखे जाओ, देखे जाओ। ताकि जो प्रश्न असली हैं, जीवंत हैं, उनसे रूबरू होना ही ना पड़े।
फोन उठा लो, एक-एक घण्टे किसी से बात करते रहो। क्या बात करते हो एक घण्टे तक? कि – “तुझे कैसे मिलेगी मुक्ति, और मुझे कैसे मिलेगी”? “हम तो मुक्ति-मुक्ति खेलेंगे, आसमान में मुक्त महल बसाएँगे”- ये बातें करते हैं घण्टों-घण्टों फोन पर?
हमारा जीवन पूरा, हमारा आचरण, हमारे निर्णय अधिकांशतः हमारे ही विरुद्ध एक साज़िश होते हैं। हम अपने की खिलाफ षड़यंत्र रच रहे होते हैं। और हमारा मूलभूत षड़यंत्र है – समय बर्बाद करना। किसी तरीके से जन्म कट जाए, ताकि मुक्ति का जो अवसर था वो बीत जाए ,मुक्ति का ख़तरा ना उठाना पड़े। “समय काटो, समय काटो।”
हम इतनी दूर आ गए हैं सच्चाई से। तो अभी मैं कह रहा हूँ न – “मुक्ति, सत्य” – तो जो युवा लड़के देख रहे होंगे, अभी यूट्यूब लाइव पर, वो कमेंट लिख रहे होंगे – *एम. यू. के. टी. आई., के. एच.*। समझ रहे हो ये क्या लिखा है? “मुक्ति, क्या है?” उन बेचारों को ये अचरज हो जाता है कि – “ये मुक्ति है क्या? ये किस मुक्ति की बात करते रहते हैं?”
दिन में रोज़ वीडिओज़ पर इसी तरह के कमेंट आते रहते हैं – *एस. टी. वाई. के. एच. टी. आई., के. एच.*। “ये चीज़ क्या है? आप बात किसकी कर रहे हैं?” आ गया होगा अब तक कोई कमेंट। और वो बेचारे बड़े ताज्जुब में रहते हैं। “गोल-गप्पा पता है, डिज्नीलैंड पता है, रुपया पता है, पकौड़ा पता है। लड़का पता है, लड़की पता है। ये ‘मुक्ति’ क्या चीज़ है भाई?”
क्योंकि हमारी रोज़मर्रा की बातचीत में, हमारे आचरण में, हमारी नीयत में, मुक्ति कभी रहती ही नहीं है, शामिल ही नहीं है। तो जब कोई बात करता है, तो बड़ा अचम्भा लगता है।
“ये क्या बात कर दी?”