अच्छी नौकरी कैसे मिले?

Acharya Prashant

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अच्छी नौकरी कैसे मिले?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। एकलव्य की कहानी है सुनकर बड़ा दुख होता है कि द्रोणाचार्य जैसा स्वाभिमानी और श्रेष्ठ गुरु भी अपने स्वार्थ और पक्षपात के चलते श्रद्धावान एकलव्य से अन्याय करता है।

एकलव्य इस अन्याय के प्रति आदर प्रकट करते हुए अपना अँगूठा देकर भी गुरु के प्रतिष्ठा से प्रेरित हुए। मेरी दृष्टि में एकलव्य का आदर ज़्यादा है। मैं भी इसी तरह की घटनाएँ कॉरपोरेट (निगमित) जगत में रोज़ देखता हूँ। जहाँ पक्षपात की वजह से प्रतिभाशाली एम्प्लॉइ (कर्मचारी) के विरुद्ध साज़िशे होती हैं। जो प्रतिभाशाली एम्प्लॉइ है वो अपने काम को प्राथमिकता देता है, न कि अपने बॉस (मालिक) इत्यादि की चापलूसी को। फिर वो धीरे-धीरे पिछड़ जाता है और उत्साहीन हो जाता है।

ऐसा कईयों के लिए तो मैं मैनेजमेंट से लड़ता भी हूँ और सच्ची बात भी बताता हूँ तो फिर ये मिलता है काम को मैनेज (प्रतिबन्धित) करो। मैं कई अच्छे एम्प्लॉइज़ को कम्पनी से बाहर निकाले जाते देखा है और बड़ा दुख हुआ है। मैंने ये एक नहीं, कई कम्पनीज़ (संगठन) में होते देखा है।

इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? इस कॉरपोरेट युद्ध में एम्प्लॉइज़ के लिए युद्ध करते रहना चाहिए या तो छोड़ कर भाग जाना चाहिए? ये अन्याय देखकर आँखें बन्द नहीं कर सकता और बर्दाश्त भी नहीं होता। कृपया मार्गदर्शन करिए।

आचार्य प्रशांत: कोई एक उत्तर नहीं होता है। कृष्ण के जीवन को आप देखें, कभी वो युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और कभी वो स्वयं ही युद्ध से पीछे हट जाते हैं। कभी वो शान्तिदूत होते हैं और कभी वो अर्जुन पर क्रोधित होते हैं, ‘तू भीष्म के विरुद्ध खुलकर क्यों नहीं लड़ रहा?’

कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता। बहुत सारे ऐसे कार्यकर्ता भी होते हैं उनके लिए यही उचित है कि वो उस जगह पर न रहें जहाँ पर वो फिलहाल हैं। वो अगर निकाले जाते हैं या वो स्वेच्छा से ही अपने ऑर्गेनाइज़ेशन (संस्था) का, कम्पनी का, संगठन का त्याग कर देते हैं तो इसमें उनके साथ अन्याय नहीं हो रहा, भलाई हो रही है।

आदमी जहाँ पर है वहाँ रहने की आदत भी पाल लेता है। स्थितियाँ बुरी भी हो तो भी उस जगह से स्वेच्छा से नहीं हट पाता। ऐसे में कई बार पुराने जमे हुए पत्थरों को हटाने के लिए भूचाल चाहिए होते हैं। क्योंकि वो पत्थर तो जड़ हो गया है, वो पत्थर तो अपनी जगह बना चुका है। अब कोई बड़ी घटना नहीं घटती। धरती कँपे ये ज़रूरी है, वैसे ही वो वहाँ से हट गया। और ये भी नहीं कहा जा सकता है बात-बात में, ‘काम छोड़ दो, किसी नयी जगह चले जाओ।’ क्योंकि भली-भाँति जानते हो कि आदमी का मन एक ही है, पर इस नाते दुनिया में जगत की सारे संगठन तकरीबन एक ही हैं। तुम अगर अपने लिए कोई आदर्श जगह नहीं तलाश कर रहे हो तो वो मिलेगी नहीं।

तो ये बात विवेक की हो जाती है। सर्वप्रथम तो कोशिश करते रहते हैं, करते रहते हैं की स्थितियाँ बदलें, बेहतर हों। पर आप जहाँ पर हैं वहाँ पर रहने की प्रतिज्ञा नहीं कर सकते। एक बिन्दु आता है जब आप कहते हैं कि अब यही उचित है कि अब सन्नाटा को तोड़ा जाए, किसी नयी जगह को आज़माया जाए।

ये आपकी ईमानदारी के ऊपर है कि नाता तोड़ने से पहले आप जी-भरकर जी-जान लगाकर जहाँ हैं वही पर स्थितियाँ ठीक करने की कोशिश करें। ये बात कोई और नहीं बता सकता क्योंकि कोई फॉर्मूला (सूत्र) नहीं है। आपको ही घोषित करना होता है कि बस बहुत हो गया।

अब आप आप कहेंगे कि बस बहुत हो गया, ये कोई और कैसे बताए? ध्यान रखिए ये बात सहनशक्ति से ज़्यादा विवेक की है। कम देर रहेगी तवे पर तो कच्ची रह जाएगी, ज़्यादा देर रह गयी तो जल जाएगी। विवेक की बात ये है कि बिलकुल ठीक शर्त पर उसको तवे से उठा दिया जाए। चाहे रोटी की बात हो या रोज़ी की बात हो, विवेक से ही उस क्षण का पता चलता है।

एक छोटा सा सूत्र है। ये ठीक-ठीक निर्णय नहीं ले सकता आपके लिए। जैसा मैंने कहा, ये कोई फॉर्मूला नहीं हो सकता। फिर भी ये सूत्र उपयोगी होगा। अपने आप से पूछिएगा कि कम ऊर्जा और कम समय कहाँ लगाएँ। जहाँ हैं, जिन परिस्थितियों में हैं उन्हीं परिस्थितियों को ठीक करने में या कि कोई नयी जगह तलाशने में, और फिर उस नयी जगह की चुनौतियों से निपटने में।

समझना। जो भी तुम्हारी हालत है — घर में चाहे दफ़्तर में, उस हालत को ठीक करने के लिए समय लगता है और ऊर्जा लगती है। है न? एक तरफ़ तो समय और ऊर्जा का ये निवेश है कि मैं जहाँ हूँ अगर मुझे उसी जगह को ठीक करना है तो मुझे कितना समय लगाना पड़ेगा, कितनी ऊर्जा लगानी पड़ेगी, एक तरफ़ तो ये बात है। और अगर तुम किसी दूसरी तरफ़ जाना चाहो तो दूसरी तरफ़ जाने में भी ऊर्जा लगती है, ढूँढने में लगती है। दूसरी जगह जाकर के रमने में, बसने में भी समय लगता है। और फिर जब रम जाओ, बस जाओ तो पता चलता है उस दूसरी जगह की अपनी दूसरी चुनौतियाँ हैं जो पिछली जगह जगह पर नहीं थी। उसमें भी ऊर्जा लगती है। तो ये दो रास्तें हैं, दोनों रास्तों में कोई भी रास्ता आसान नहीं है। दोनों ही रास्तों में समय भी लग रहा है और ऊर्जा भी लग रही है।

तो दो पलड़ों पर दो तरफ़ के आँकड़ों को रखकर आँक लेना। वृत्ति पर मत जाना। अधिकांशतः हमारी वृत्ति होती है चिपके रहने की। कुछ लोगों की उल्टी वृत्ति भी होती है, वो पलायनवादी होते हैं, वो उड़ ही जाते हैं जल्दी से। वो बात-बात पर कहते हैं, ‘मैं तो चला।’

आप जिस कॉरपोरेट जगत को बात कर रहे हो वहाँ भी दोनों तरह के लोग देखने को मिलते हैं। कई हैं जो तीस-तीस साल एक ही नौकरी में गुज़ार देते हैं। कई हैं जो सरकारी नौकरियों के पीछे जाते ही इसलिए हैं कि एक लेलो और जीवन भर काम चल जाएगा। और फिर दूसरी तरफ़ जो जॉब ऑफ़र्स (नौकरी के प्रस्ताव) देने आते हैं, उनको हर चौथे महीने कोई दूसरी नौकरी चाहिए।

न इधर की बात करी जा सकती है, न उधर की बात करी जा सकती है। मैं कह रहा हूँ, जो भी तुम्हारी वृत्ति है उस वृत्ति पर मत जाना, विवेक से निर्णय लेना। वृत्ति तो कुछ भी जतला सकती है, वृत्ति तो झूठ को भी सच बता सकती है और विवेक का अर्थ होता है सच और झूठ में अन्तर कर पाना।

तुम हो कहीं पर, वहाँ थोड़ी सी तुम्हें तकलीफ़ आ जाए और अगर कूद-फाँदने की, पलायन की तुम्हारी वृत्ति है तो वृत्ति तुमसे कहेगी, ‘ये जगह बहुत ही घटिया है, चलो भाग चलो।’ तुम वृत्ति की मत सुन लेना। तुम कहना, ‘थमो। इस जगह को ठीक करने में समय लगेगा, ऊर्जा लगेगी। ज़रा मैं देखूँ उस जगह को ठीक करने में तकरीबन कितना समय, कितनी ऊर्जा है। और अगर भागता हूँ, जहाँ भी जाता हूँ तो भागने में भी ऊर्जा और समय लगनी है और फिर उस जगह को भी ठीक करने में समय, ऊर्जा लगनी है; वो भी मैं देखूँ कितना समय, कितनी ऊर्जा।’

और जब दिखाई दे कि पलड़ा एक तरफ़ को झुक गया है तो जिधर को झुका हुआ है उधर को तुम भी झुक जाना। वृत्ति पर मत चलना बस। चिपकने की आदत लग गयी हो तो चिपककर मत बैठ जाना और उड़ भागने की आदत हो तुम्हारी तो जल्दी-जल्दी उड़ने मत लग जाना। दोनों ही बातें ठीक नहीं हैं।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=XkD2TA-i3Fw

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