प्रश्नकर्ता: सर, मैं अपने जीवन में बड़ा द्वंद में रहता हूँ कि मैं जो कर रहा हूँ वो सही है या ग़लत। कैसे पता चले कि क्या सही है और क्या ग़लत? यही एक सवाल हमेशा सिर पर घूमता रहता है।
आचार्य प्रशांत: तो उसके साथ जियो। जब ना पता हो कि जो चल रहा है वो क्या है, तो बस इतना कर लेना कि अपने आपको झूठा आश्वासन मत देना कि, "मुझे पता है!" इतना कर लेना। तुम तो अभी बहुत जगे हुए हो, ज़रा-सा फ़ासला है। होश है तुम्हें कि नहीं पता। बेहोशी तो ऐसी छाती है कि फिर कहते हो कि—“मुझे पता है।” तुम्हारी स्थिति तो बहुत अच्छी है। ऐसी ही रखो। नहीं पता है तो नहीं पता है। जब जो है, उसे वैसा ही रखो। उसे भ्रमित करने वाला, झूठी आश्वस्ति देने वाला नाम मत दो, भले ही उसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े।
बैठे होओगे किसी के सामने, और वो पूछे, “तो पक्का है तुम्हें कि तुम्हें ये नौकरी चाहिए?” तो ऐसे ही रहना। यदि पक्का न हो, तो कहना, “पक्का तो नहीं है।” कीमत चुकानी पड़ती है। तुम ये भी नहीं कह रह हो कि नहीं चाहिए, तुम ये भी नहीं कह रहे हो कि चाहिए। तुमसे पूछा, “पक्का है?” तो तुमने कहा, “नहीं, पक्का तो नहीं है।”
किसी के प्रति आकर्षित थे, वो पूछती है तुमसे, “पक्का है कि प्रेम है?” उसका दिल रखने के लिए कह मत देना कि “हाँ, हाँ, प्रेम है।” जानते हो नहीं पक्का है, तो यही कहो कि, "कह नहीं सकता।" अब भले ही उसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े।
ऐसे ही रहो। जिन्हें नहीं पता होता बड़ी मज़ेदार बात है कि उनको कुछ पता है जिसके कारण उन्हें नहीं पता। (हँसते हुए) तुम्हें कुछ पता है, जो तुम्हें ये भ्रम नहीं होने दे रहा कि तुम्हें कुछ पता है। जब अपनी स्थिति को देख पाओगे कि कितना ज़्यादा होता है ये, कि नहीं पता होता, तब ये भी देख पाओगे कि दुनिया कैसे चल रही है—जहाँ किसी को कुछ नहीं पता, पर सब यूँ चल रहे हैं जैसे उन्हें पूरा पता हो। ये देख पाना दुनिया से मुक्ति देगा।
“मूर्खों की दुनिया है ये। इसका भरोसा कैसे कर लूँ? यहाँ किसी को कुछ नहीं पता पर बन सब ऐसे रहे हैं कि सब पता है। पता मुझे भी नहीं,पर मुझे इतना पता है…?”
श्रोतागण : कि मुझे नहीं पता।
आचार्य: कि नहीं पता।
प्र: सर, जिन्हें लगता है कि उन्हें पता है, उनका भ्रम कैसे टूटे?
आचार्य: उनको तो ज़िन्दगी तोड़ रही है, अच्छे से। तुम्हें लगता है कि तुम्हें पता है कि सामने गड्ढा नहीं है, तो अब उसके बाद क्या होगा?
प्र: गिरेंगे।
आचार्य: टूटेगी, क्या? हड्डी। पर ऐसे हैं हम जड़, कि हड्डियाँ टूटती रहीं, पर भ्रम नहीं टूटे। अपने शरीर के और मन के घावों को देखो, वो घाव कहाँ से आ रहे हैं? ये जो दिन-प्रतिदिन तुम्हारी ज़िन्दगी हादसा है, ये क्यों ऐसा है? जीवन क्या है? दुर्घटनाओं की कतार। आज क्या दुर्घटना घटी? ये कहाँ से घट रही हैं दुर्घटनाएँ? ये कदम-कदम पर ठोकर क्यों खाते हो? जो सोचते हो वही उल्टा। चलते बाएँ हो, पहुँच दाएँ जाते हो। सारे अनुमान गलत, सारे चुनाव गलत।
अब यदि अपने से ज़रा भी प्यार होगा, अपने प्रति थोड़े भी संवेदनशील होओगे, तो खुद ही स्वीकार कर लोगे न कि—“भ्रमों में जी रहा हूँ, इसी कारण तो इतने कष्ट मिलते हैं।”
तुम्हारे कष्ट ही प्रमाण हैं तुम्हारे भ्रमित होने का।
जीवन ने कोई ठान नहीं रखी है कि तुम्हें दुःख देगा। अस्तित्व इसलिए नहीं है कि तुम्हें परेशान रखे। तुम यातना भोगने के लिए थोड़े ही पैदा हुए हो, पर फिर भी तुम पाते हो कि जीवन बिलकुल बोझ जैसा है। है कि नहीं? रोज़ दो आँसू रो लेते हो। तो इससे यही सिद्ध होता है कि भ्रमित हो। कुछ तो तुमने मन में ऐसा बैठा रखा है जो अवास्तविक है। नकली में जी रहे हो, इसीलिए कष्ट पा रहे हो, अन्यथा किसी का कोई इरादा नहीं है तुम्हें कष्ट देने का। तुम्हारे दुखों का कारण तुम्हारे अपने भ्रमों के अलावा और कुछ हो सकता है क्या?
प्र२: लेकिन सर, जीवन इतना जटिल क्यों है? जो भी दिखाई दे रहा है वो सब भ्रम है, और जो वास्तविक है, वो दिखाई नहीं देता। ऐसा क्यों?
आचार्य: जीवन जटिल है, या तुमने पी रखी है? अब ये दीवार है, सफ़ेद बिलकुल (सामने दीवार की ओर इशारा करते हुए) और तुम्हें चढ़ी हुई है, और तुम कह रहे हो, “अरे! वो देखो, वो दीवार पर टेढ़े-मेढ़े रास्ते बने हुए हैं। और वो राक्षस हैं, उनके पीछे परियाँ दौड़ रही हैं। और वो दीवार के बीच में नाला खुदा हुआ है। दीवार से एक स्पेसशिप जा रही है ऊपर।” और फिर तुम कह रहे हो कि—“बड़ी जटिल कलाकारी है, बड़ी कॉम्प्लेक्स कहानी है।”
जटिलता वहाँ है दीवार में, या यहाँ है (मस्तिष्क की और इशारा करते हुए)?
कहाँ है? (हाथ तेज़ी से हिलाते हुए) इस हाथ को देखकर कोई पूछे कि कितनी उंगलियाँ हैं, और कोई उत्तर दे, “अट्ठारह”, तो तुम क्या बोलोगे? “बड़ा कॉम्प्लेक्स हाथ है। कितना जटिल हाथ है। अट्ठारह उंगलियाँ!”
हाथ जटिल है, या तुम्हारा मन जटिल है?