कहाँ है तुम्हारा बल? पराक्रमी बनो ! || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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कहाँ है तुम्हारा बल? पराक्रमी बनो ! || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

आचार्य प्रशांत: गिरीश मोहन हैं, कह रहे हैं उपनिषद् में बहुत पहले पढ़ा था, “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो”। आपकी बातें सुनता हूँ तो वो श्लोक याद आ गया, मुझे समझाइए कि आप ताकत पर, बल पर इतना ज़ोर क्यों देते हैं ?

गिरीश मोहन! बल तो चाहिए न, नहीं तो बह जाओगे, नहीं तो उड़ जाओगे।; प्रकृति आँधी की तरह है और अगर बल नहीं तुममें तो तुम तिनके जैसे। क्या अंजाम होगा?उड़ते फिरोगे इसलिए बल चाहिए। ‘कौनसी प्रकृति कह रहा हूँ?’ जो तुम्हारे भीतर प्रकृति बैठी हुई है, तुम्हारी अपनी माया।

उसमें बड़ी जान है, वो तुमको उड़ाये लिए जा रही है, समय के आरम्भ आरंभ से इस पल तक वो तुमको उड़ाते-उड़ाते ले आयी आई है और अगर जान नहीं दिखाओगे तो वो तुमको उड़ाती उड़ती ही रहेगी। उसके लिए तुम सागर की एक बूँद जैसे हो, प्रकृति महासागर, तुम उसकी एक छोटी सी बूँद सागर छोटी-छोटी बूँदों की व्यक्तिगत इच्छाओं का कुछ खयाल, कुछ सम्मान करता है क्या? पूछता ही नहीं, वैसे ही प्रकृति तुमसे पूछेगी भी नहीं।

पैदा हो गये हो, मनुष्य का शरीर लेकर पैदा हुए हो तो तुममें तमाम तरीकें के मानवीय गुण मौजूद हैं , उन्ही गुणों के अनुसार जीवन अपना बिताओगे, तमाम तरीकें के चक्करों में फँसे हुए रहोगे और फिर तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।

फिर कोई लहर कहीं और उठेगी उसमें कुछ गुण तुम्हारे जैसे और कुछ गुण तुमसे भिन्न होंगे। वो लहर भी लगभग वैसा ही जीवन बिताएगी जैसा तुमने बिताया, क्योंकि तुमने भी वैसा ही जीवन बिताया है जैसा तुमसे पहले करोड़ों-अरबों अन्य लोग बिता चुके हैं और वो लहर भी वैसा ही जीवन बिता करके नष्ट हो जाएगी। और फिर सैकड़ों, लाखों, करोड़ों इतनी बूँदें हैं ये सब लहरों में परिवर्तित होती रहेंगी, बनती रहेंगी, बिगड़ती रहेंगी। समझ रहे हो बात को?

और ये जो चल रहा है चक्र, ये जो बह रही है धारा, तुम देख लो कि इसमें कितनी ज़बरदस्त ताकत है कि ये समय के आरम्भ से अनवरत बह रही है। जिनमें बल नहीं है उनके लिए प्राकृतिक अस्तित्व है और प्राकृतिक अस्तित्व को ही पाशविक अस्तित्व कहते हैं। और उपनिषद् यहाँ कह रहा है, ”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।” जिसके पास बल नहीं है उसके लिए आत्मा भी नहीं है। जिसके लिए, जिसके पास बल नहीं उसके लिए आत्मा नहीं।

तो अगर आत्मा नहीं तो उसके लिए फिर क्या है? प्रकृति। ठीक है? जो समीकरण है इसमें वो एकदम स्पष्ट है — बल नहीं तो आत्मा नहीं। , तो फिर क्या है उसके पास?उसके पास शरीर है और शरीर से सम्बन्धित जितनी वृत्तियाँ हैं, वो हैं।

जिसके पास ताकत नहीं, जिसके पास भीतर लोहा नहीं, फ़ौलाद नहीं, उसके पास क्या है? उसके पास सिर्फ़ शरीर है, उसके पास एक अंदरूनी जंगल है और उस जंगल में तमाम तरीके के जानवर मौजूद हैं, वो सब तुम्हारे भीतर ही हैं वही सब तुम करते रहोगे जो तमाम जानवरों ने आज तक करा जंगलों में।

बल नहीं, तो आत्मा नहीं, आत्मा तो उन्हीं के लिए हैं। आत्मा माने गरिमा, आत्मा माने जीने का रस, आत्मा माने ऊँचाई, आत्मा माने सच्चाई। आत्मा सिर्फ़ उनके लिए जो ये ताकत दिखा पाएँ कि नदी उन्हें बहाये लिए जा रही है और वो प्रवाह के विरुद्ध तैर कर तट पर आ जाएँ।

तट पर आत्मा है, इसलिए जो आत्मस्थ होता है उसे तटस्थ भी कहते हैं। साक्षित्व का ही दूसरा नाम है — तटस्थता, निरपेक्षता का ही दूसरा नाम है — तटस्थता। तट का मतलब समझ रहे हो न? प्रवाह से अलग हो जाना, बहे जा रहे थे, बहे जा रहे थे अब किनारे आ गये, तट पर आ गये, छोर पर आ गये। कैसे आ पाओगे? इतनी तेज़ धारा है, गहरी नदी है, तुम तट पर आ कैसे पाओगे? जान होनी चाहिए न, बाज़ुओं में भी और मन में भी।

न हाथ में जान है, न पाँवों में जान है, न सीने में फ़ौलाद है, तुम कैसे धारा को काटकर किनारे आ पाओगे, बताओ? इसलिए बल चाहिए; किनारे नहीं आ पाओगे तो आत्मा को कभी पाओगे नहीं। आत्मा को कभी पाओगे नहीं तो मनुष्यत्व तुम्हारे लिए बस एक सम्भावना ही रहेगा। जीवन जानवर का जिओगे , जिओगे मर जाओगे।

सम्भावना थी कि मानव हो पाते, जानवर पैदा हुए जानवर ही मर गये ; ये करवाता है तुमसे प्रकृति का तेज़ प्रवाह। उसी में बने रहना है? उससे बाहर आना है न? उससे बाहर आना है तो दम दिखाना पड़ेगा। जिस बात को मैं पूछता हूँ, ‘है दम?’ उसी बात को उपनिषद् कहते हैं —नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।”

अरे! छोड़ो कमज़ोरों के लिए नहीं है आत्मा और कमज़ोर माने वो नहीं जो प्राकृतिक रूप से कमज़ोर है। बात समझना, एक कमज़ोरी होती है जो प्राकृतिक रूप से कमज़ोरीहोती है, जैसे, ‘अरे! मेरे कन्धों में जान नहीं है, अरे! मुझे खाना ठीक से नहीं पचता।’ ये प्राकृतिक हो सकती है। कोई पैदा ही ऐसा हुआ हो कि उसका पेट कमज़ोर हो, कन्धा हो सकता है।

यहाँ पर किसी और बल की बात हो रही है, यहाँ पर आत्मबल कि बात हो रही है। आत्मबल जानते हो क्या होता है? आत्मबल मन का वो बल होता है जो उसे आत्मा कि ओर ले जाता है और आत्मा से ही मिलता है। अजीब बात है! आत्मबल मन का वो बल होता है जो उसे आत्मा की ओर ले जाता है और मिलता भी किससे है? क्योंकि आत्मा के अलावा कुछ नहीं है जो तुम्हें आत्मा की ओर खींच सके।

तो यहाँ पर तुम्हारे प्राकृतिक बल की बात नहीं हो रही कि तुम बोलो कि मेरे बाज़ू फ़लाने इतने इंच के हैं तो मैं देखो बहुत बली हूँ, उस बल की बात नहीं हो रही। यहाँ पर तुम्हारी बुद्धि वगैरह भी बात नहीं हो रही कि तुम कहो, ‘मेरा आईक्यू इतना है तो मैं बहुत बली हूँ, बुद्धिबल है मेरे पास।’ न उसकी भी बात नहीं हो रही है, यहाँ आत्मबल की बात हो रही है।

आत्मबल बिलकुल अलग चीज़ है, आत्मबल तब उठता है जब तुम कहते हो, ‘धारा मेरा जीवन नहीं है, धारा मेरी नियति नहीं हो सकती ऐसे बहने में मानव की कोई गरिमा नहीं। मुझे मेरी गरिमा चाहिए, मुझे मेरा गौरव चाहिए, मुझे किनारा चाहिए।’ इस उद्घोषणा में आत्मबल है। तुम किनारे की ओर बढ़ते हो, किनारा तुम्हें खींचता है, ये आत्मबल है।

समझ में आ रही है बात?

और वो आत्मबल सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मा के सन्दर्भ में ही आएगा, तुम ये नहीं कह सकते कि मैं आत्मबल इकट्ठा कर रहा हूँ मिठाई जुगाड़ने के लिए। तुम्हें मिठाई चाहिए तो उसके लिए तुम्हें आत्मबल की कोई ज़रूरत नहीं और आत्मबल उपलब्ध भी नहीं होगा। हाँ, विलपॉवर , संकल्प शक्ति, इच्छाशक्ति वगैरह काम आ सकते हैं, वो सब धारा के भीतर की बातें हैं।

संकल्प शक्ति, इच्छाशक्ति और आत्मबल इनमें में बहुत फ़र्क है। इच्छाशक्ति प्रकृति की धारा के भीतर-भीतर होने वाला काम है। कि जैसे तुम कहो कि धारा में बहा ही जा रहा हूँ पर उधर कुछ तैरता हुआ दिख रहा है, ज़रा उसको उठा करके खा लूँ। इच्छाशक्ति काम आ जाएगी क्योंकि इसमें जो काम हुआ है सब प्रवाह के अन्दर-अन्दर ही हुआ है । तुम भी प्रवाह के अन्दर और जिस चीज़ को तुम उठा करके खाना चाहते हो, वो चीज़ भी प्रवाह के अन्दर और उसको खाने के बाद भी रह जाओगे तुम प्रवाह के अन्दर-ही-अन्दर तो यहाँ इच्छाशक्ति का खेल है।

आत्मबल दूसरी चीज़ है, आत्मबल वो चीज़ है जो तुम्हें प्रकृति के प्रवाह से बाहर निकल देती है। ऐसे समझो कि तुम्हें कोई इच्छा उठी है, उस इच्छा की पूर्ति के लिए जो तुम्हें बल चाहिए उसे कहते हैं इच्छाशक्ति, विलपॉवर या संकल्प शक्ति। ठीक है?और तुम्हें जो इच्छा उठी है उसकी व्यर्थता देखने के लिए और उस इच्छा को छोड़कर किसी ऊँची चीज़ की बढ़ने के लिए जो बल चाहिए उसे कहते हैं — आत्मबल।

तमाम छोटी-छोटी इच्छाएँ पूरी करने के लिए , इच्छाएँ सब छोटी ही होती हैं, तमाम छोटी-छोटी इच्छाएँ पूरी करने के लिए जो मानसिक शक्ति लगती है, वो है इच्छाशक्ति और छोटी इच्छाओं को छोटा जानकर के बड़प्पन की ओर बढ़ने के लिए जो लगता है, उसे बोलते हैं —आत्मबल। उपनिषद् उस बल की बात कर रहे हैं यहाँ पर, ”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।”जिसमें आत्मबल नहीं है, वो छोटी-छोटी इच्छाओं में ही अपना जीवन बिता देगा, व्यर्थ ही जन्मा व्यर्थ ही मरा।

समझ में आ रही है बात?

अध्यात्म का इसीलिए ज़रा भी सम्बन्ध होने, हल्के होने, दब्बू होने से नहीं है। आध्यात्मिक आदमी को महापराक्रमी होना होगा, उसे ऐसा होना होगा कि उसके ज़ोर से उसकी ही सब कमज़ोरियाँ थर-थर काँपे। तुम्हारा ज़ोर ऐसा होना चाहिए कि थर-थर काँपे तुम्हारे ज़ोर से वो सबकुछ जो कमज़ोर है, इसे पराक्रम कहते हैं। तुम्हारी कमज़ोरियों की हिम्मत न पड़े तुम्हारे सामने आ करके सर उठाने की और दलील देने की। हिम्मत न पड़े नींद की तुम्हारे सामने आकर कहने की कि सो जाओ; नींद को पता होना चाहिए अभी हम काम कर रहे हैं; नींद थर-थर काँपे, ये पराक्रम है।

पराक्रमी उसे ही बोलते थे न जिससे उसके दुश्मन थर्राते थे? तुम्हारे दुश्मन कौन हैं? वो सब तुम्हारे भीतर बैठे हैं, तुम्हारे दुश्मन थर्राएँ तुमसे, ये पराक्रम है। लालच सर उठाना चाहता है और तुमने एक निगाह लालच पर डाली और वो काँपने लग गया, ये पराक्रम है।

वासना, विकार ये सब सर उठा रहे हैं, कुछ बोल रहे हैं थोड़ा बहुत इन्होंने चूँ-चा किया और फिर तुमने दृष्टिपात किया, बस उन्हें देखभर लिया और तुमने देखा नहीं उन्हें कि वो बिलकुल मूक पड़ गये अब उनकी आवाज़ नहीं निकल रही, ये पराक्रम है, आध्यात्मिक आदमी को पराक्रमी होना चाहिए ।

पराक्रमी अगर नहीं हो; लुचुर-पुचुर हो, दब्बू हो, डरपोक हो, कायर हो तो आत्मा तुम्हारे लिए नहीं है। क्या आशय है कायर से?कायर वो जो खुद से हार गया, जो खुद से हार गया वो तो अधिक-से-अधिक विजित हुआ, हार गया। कायर वो जो खुद का मुकाबला करने के लिए ही नहीं उतरा।

जो खुद से हार गया उसको अधिक-से-अधिकपराजित बोल सकते हो, हार गया। ठीक है न? तुम प्रकृति से परे हो तो तुम अगर अपनी प्रकृति से हार गये तो तुम कहलाओगे —पराजित। जो दूसरे से हार गया वो कहलाता है पराजित। पर माने दूसरा और सबसे बड़ा जो दूसरा है, जो पराया है तुम्हारे भीतर,वो तुम्हारी प्रकृति है क्योंकि तुम हो आत्मा प्रकृति परायी चीज़ है।

जो प्रकृति से हार गया उसको ही कहते हैपराजित, दूसरे से हार गये और जो प्रकृति का मुकाबला करने ही नहीं उतरा उसे कहते है कायर। और जिसने जीत लिया प्रकृति को उसको फिर क्या कहते हैं?उसको कहते हैं इन्द्रजीत । समझ में आ रही है बात? उसने मन को जीता, उसने इन्द्रियों को जीता, उसने स्वयं को जीता — वही बली है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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