प्रश्नकर्ता: सत श्री अकाल आचार्य जी। आज सुबह से टीवी (दूरदर्शन) पर देख रहा हूंँ कि हमारे सिख भाई अफ़गानिस्तान से जान बचाकर भागने पर मजबूर किये जा रहे हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब जी को सिर पर धारण करके बुरी हालत में उन्हें देखकर मुझे दुख भी है और गुस्सा भी। एक समय पर हमारे महाराजा रंजीत सिंह अफ़गानिस्तान पर राज़ करते थे। उसी अफ़गानिस्तान में इतने गुरुद्वारे और मन्दिर तोड़ दिये तालिबान ने और सिखों व हिन्दुओं को भागने पर मजबूर कर दिया।
आचार्य प्रशांत: ताकत की बात है। धर्म, असली धर्म हमेशा एक नाज़ुक चीज़ होता है और उसको बचाने के लिए उसे संरक्षण देने के लिए हमेशा शक्ति की ज़रूरत होती है। असली धर्म, कोई भी चीज़ जो असली हो, कोई भी चीज़ जो सुन्दर हो, निर्दोष हो वो हमेशा कोमल होती है, सूक्ष्म होती है। तो उसको सुरक्षा देनी पड़ती है।
आपके पास अगर उसे सुरक्षा देने की ताकत नहीं है तो न आप सच्ची धार्मिकता को बचा पाएंँगे, न सच्ची संस्कृति को, न सच्ची ज़िन्दगी को। ये सब तोड़ दिये जाएँगे, नष्ट कर दिये जाएँगे।
तो ये मुद्दा बहुत सीधा है। जितने भी पूर्वी धर्म रहे हैं, भारत भूमि से उठी जितनी धाराएंँ रही हैं, वो आक्रामक नहीं रही हैं। वो बहुत बहिर्गामी भी नहीं रही हैं कि दुनिया की ओर देखें, दुनिया फ़तह करने पर ध्यान दें। अन्तर्मुखी रही हैं। उनका उद्देश्य रहा है खुद को देखना, अहंकार को पहचानना, अहंकार को समर्पित करना।
तो सारी ऊर्जा भीतर की ओर बहती रही है। जब ऊर्जा भीतर की ओर बहती रहती है तो बाहर की दुनिया में शक्ति अर्जित करना इंसान भूल सा जाता है, समाज भूल जाता है। देश भी इस बात को भूल जाता है। भीतर बहुत बड़ा काम है और उसमें बड़ी ऊर्जा लगती है। और भीतर जाने में बड़ा रस भी है, बड़ा आनन्द भी है।
जब वो सब होने लगता है तो इंसान इस बात की ओर से ज़रा अन्यमनस्क हो जाता है इंडिफरेंट (उदासीन) हो जाता है कि बाहर क्या चल रहा है। और जब आप ऐसे हो जाओगे तो बाहर जो आक्रमणकारी है जो सत्ता का, पैसे का, प्रभुत्व का, ताकत का भूखा है; वो जब आप पर हमला करेगा तब आप उसे पछाड़ नहीं पाओगे, मुकाबला कर नहीं पाओगे। ये बार-बार हुआ है।
आज से पैंसठ साल पहले तिब्बत में ऐसा हुआ। तब वो काम चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी ने करा था और अफ़गानिस्तान में तो फिर भी लड़ाई झगड़ा हुआ है संघर्ष के बाद तालिबान को जीत भी लिए। तिब्बत पर जब चीन ने आक्रमण करा था तब तो कोई संघर्ष भी नहीं हुआ था क्योंकि तिब्बत तो लगभग पूरी ही तरीके से धार्मिकता को ही समर्पित एक क्षेत्र था। उनके पास फ़ौज जैसी चीज़ ही नाम-मात्र को थी।
उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि कोई हम पर आक्रमण करेगा क्योंकि वो लोग अपना एक बहुत सीधा, सरल जीवन जीते थे। दुनिया का बड़ा ऊंँचा सा पठार है वहांँ अपना रहते थे और धार्मिकता उनके जीवन के केन्द्र में होती थी। तो उन्होंने कभी सोचा नहीं कि उन पर कभी आक्रमण होगा और उन्हें लड़ना पड़ेगा। वो बड़ी आसानी से हार गये।
तब भी यही हुआ था कि भारत बस बेबसी के साथ हाथ बाँधे देखता रहा था। चीन आया था तिब्बत पर कब्ज़ा करके चला गया था। और चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया उसका परिणाम भारत के लिए भी अच्छा नहीं हुआ, हम अच्छे से जानते हैं। आज जो भारत को लद्दाख में चीन के साथ कठिनाइयांँ झेलनी पड़ रही हैं वो नहीं झेलनी पड़तीं अगर चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा नहीं कर रखा होता।
इसी तरीके से आज तालिबान काबुल पर चढ़ आया। तालिबान क्या चढ़ आया? वो जैसे वहाँ पर काम सीसीपी (चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी) और पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) का था वैसे ही अफ़गानिस्तान में आप जो देख रहे हैं वो काम तालिबान का कम आइएसआइ (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) का ज़्यादा है। एक तरह से काबुल को पाकिस्तान ने फ़तह करा है।
तो तिब्बत पर चीन चढ़ आया था और अफ़गानिस्तान पर पाकिस्तान चढ़ आया है। तालिबान तो एक तरह का फ्रंट है, मुखौटा है। और भारत कुछ नहीं कर पाया। जैसे पैंसठ साल पहले हम तिब्बत में कुछ नहीं कर पाये थे वैसे ही आज हम यहाँ पर कुछ नहीं कर पाये। आपने कहा कि वहाँ से सिख भगा दिये गए, हिंदू भगा दिये गए, गुरुद्वारे तोड़े गये, मन्दिर तोड़े गये।
कुछ कर पाने के लिए ताकत चाहिए न। ताकत है कहाँ? और ताकत को लेकर के बड़ी भ्रान्तियाँ रही हैं। ऐसा माना गया है कि सांसारिक ताकत अर्जित करना अध्यात्म के खिलाफ़ जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि अगर आप वाकई धार्मिक आदमी हैं और धर्म से आपको प्यार है तो आप उसकी रक्षा के सारे प्रबंध करेंगे। जिस चीज़ से आपको प्यार होगा आप उसको बचाने का इंतज़ाम नहीं करेंगे क्या?
तो ये सब चल रहा है। आपने कहा आज आपने टीवी (दूरदर्शन) पर ये चीज़ देखी, ये चीज़ आज नहीं हो रही है। ये चीज़ लगातार हो रही है। और ऐसा नहीं है कि सिखों, हिन्दुओं के साथ ही हो रही है। २००१ में बामियान घाटी है अफ़गानिस्तान में आपने सुना ही होगा वहांँ पर बुद्ध की दो बड़ी अच्छी सुन्दर, बड़ी मूर्तियांँ थीं, उनको डायनामाइट लगाकर तालिबान ने उड़ा दिया। और बकायदा घोषणा कर के उड़ाया था। और दुनिया के सब देश आग्रह करते रहे, गुहार करते रहे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बड़ी चिरौरी की कि नहीं-नहीं, इनको मत उड़ाओ ये विश्व धरोहर हैं। और लगभग पांँचवी सताब्दी की वो मूर्तियांँ थी तो आज से डेढ़ हज़ार साल पहले की। उन्होंने उड़ा दी। क्योंकि जो भी चीज़ सच्चाई की ओर इशारा करेगी उसको वो लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे जिनका काम ही है झूठ में जीना, जिनका काम ही है सत्ता के लिए जीना।
आपको क्या लग रहा है कि तालिबान वास्तव में तालिब हैं? वास्तव में इनका ताल्लुक धर्म से है? इस्लाम से है? नहीं इनका जो ताल्लुक है वो सत्ता से है। ये सब सत्ता के भूखे लोग हैं। तालिबान एक पॉलिटिकल प्रोजेक्ट (राजनीतिक परियोजना) है। तो जितने भी वो पाते हैं कि ऊंँचे लेकिन कमज़ोर; धर्म के, आस्था के बिन्दु हैं वो उन पर प्रहार करते चलते हैं, उन्हें खत्म करते चलते हैं।
उनको बचाना भारत की ज़िम्मेदारी है। पर भारत के पास शक्ति नहीं। भारत के पास शक्ति इसलिए नहीं क्योंकि भारतीयों के पास शक्ति नहीं। भारतीयों के पास शक्ति इसलिए नहीं क्योंकि शक्ति आती है सच्चाई से। और सच्चाई आती है वास्तविक अध्यात्म से। ऊपर-ऊपर की धार्मिकता आप पकड़े रहेंगे तो उससे आपमें कोई ताकत नहीं आ जाएगी।
जिस चीज़ को आप बचाना चाहते है उसको बचाने के लिए मैं धर्म की बात कर रहा हूंँ, धर्म को अगर आप बचाना चाहते हैं तो उसको बचाने के लिए पहले आपको सच्चे तौर पर धार्मिक होना पड़ेगा। अगर आपकी अपनी धार्मिकता उथली सी है, तो आप धर्म को क्या बचाएंँगे? आपके चारों ओर यहाँ तक कि आपके बिलकुल नाक के नीचे धर्म की हानि होती रहेगी, आप कुछ कर पाएंँगे नहीं। बस ऐसे ही मजबूर से देखते रहेंगे।
अमेरिका आधी दुनिया पार से आ गया। बीस साल तक कम-से-कम तालिबान को रोककर रखा। यूरोप के भी देश हैं जो आकार में भारत से बहुत छोटे हैं वो भी मौजूद थे, वो भी वहाँ कुछ कर पा रहे थे। भारत पड़ोस में ही है, भारत का पड़ोसी है अफ़गानिस्तान। भारत कुछ नहीं कर पाया।
तो कुछ कर पाना हो उसके लिए, मैं फिर कह रहा हूंँ, ताकतवर होना बहुत ज़रूरी है, शक्तिशाली होना बहुत ज़रूरी है। और कोई ये न समझे कि शक्ति का सम्बन्ध भौतिकता से है मटेरियलिज़्म (भौतिकवाद) से है। शक्ति लगती होगी, ताकत लगती होगी कुछ संसाधन जुटाने में अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए लेकिन अगर आपको धर्म की रक्षा के लिए संसाधन जुटाने हैं तो आपको और बड़ी शक्ति लगती है। बात समझ रहे हैं न आप?
तो जो लोग सच्चाई को, धर्म को, आध्यात्मिकता को बचाने में उत्सुक हों उनके लिए और ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है कि वो ज़्यादा-से-ज़्यादा ताकत इकट्ठी करें। ताकत इकट्ठी करें इसलिए नहीं कि वो उस ताकत का इस्तेमाल करके वो अपना सिक्का चलाएँगे और अपना दबदबा बढ़ाएंँगे। ताकत इसलिए क्योंकि जैसा मैंने कहा कि एक सूक्ष्म चीज़ को, एक कोमल चीज़ को बचाने के लिए ताकत चाहिए होती है। एक सुन्दर सी बेल होती है फुलों वाली आपको उसको एक कांँटो भरी बाड़ देनी पड़ती है नहीं तो जानवर आकर के चर जाएँगे उसको।
ये दोनों चीजें चाहिए हमें। वो सुकोमल बेल भी चाहिए पुष्पों से लदी हुई और हमें कांँटो भरी बाड़ भी चाहिए। अगर सिर्फ़ कांँटो भरी बाड़ है और उसके अन्दर बेल ही नही तो बात बहुत अजीब हो जाती है। जैसा कि आमतौर पर होता है कि बहुत बड़ी फ़ौज इकट्ठा कर ली लेकिन वो फ़ौज रक्षा किस चीज़ की कर रही है? वो रक्षा कर रही है घास-फूस की। तब तो कोई बात नहीं बनी। इसी तरीके से अगर आपकी बेल बहुत सुन्दर है लेकिन बाड़ नहीं है तो भी बड़ी गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि वो बेल जैसा कि हमने कहा कि वो चलनी नहीं है। कोई-न-कोई आकर के उसको चर जाएगा।
तो ये दोनों चीज़ें जीवन में होनी चाहिए। जैसे मैंने कभी पहले कहा था न कि हृदय में शिव और भुजाओं में शक्ति। हृदय में शिव हैं और भुजाओं में शक्ति हैं तभी आप संसार में एक शान्त, सुन्दर और न्याय संगत जीवन व्यतीत कर पाएंँगे।
प्र २: आचार्य जी, आपने दो उदाहरण दिये एक चीन का उदाहरण था एक तालिबान का उदाहरण था। चीन ने जो कुछ किया तिब्बत में वो एक तरह से नास्तिकता के नाम पर किया और जो अभी तालिबान कर रहा है अफ़गानिस्तान में वो इस्लाम के नाम पर कर रहा है। तो आप इन दोनों को बराबर कैसे रख रहे हैं?
आचार्य: देखो, ऊपर-ऊपर से तुम्हारी बात बिलकुल सही ही है कि चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी धर्म को मानती नहीं है, धर्म को बल्कि दबाती है। दूसरी ओर तालिबान जो कुछ कर रहा है वो धर्म के नाम पर, इस्लाम के नाम पर कर रहा है। लेकिन तालीबान का जो इस्लाम है वो सिर्फ़ एक मुखौटा है। तालीबान का तो इस्तेमाल किया जा रहा है राजनैतिक और सामरिक उद्देश्यों के लिए। ठीक है?
तुम्हें क्या लग रहा है तालिबान एक पचास हज़ार से एक लाख लड़ाकों की फ़ौज है। उनको खाना-पीना कहाँ से आ रहा है? अफ़गानिस्तान इतना कोई अमीर मुल्क तो है नहीं कि वहांँ बहुत आसानी से भोजन सामग्री उपलब्ध हो जाए। चलो, खाना-पीना भी छोड़ो। तुम टीवी पर देखते हो कि ये बड़ी-बड़ी गाड़ियों में अब तालिबानी लड़ाके घूम रहे होते हैं। ये बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ! ये बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ कहांँ से आ रही हैं? गाड़ियाँ भी छोड़ो, उन गाड़ियों में फ्यूल (ईंधन) कहांँ से आ रहा है?
अफ़गानिस्तान कोई इतना विकसित मुल्क, डेवलप्ड कन्ट्री तो है नहीं कि वहांँ हाइवे (राजमार्ग) के किनारे जगह-जगह पर पेट्रोल पम्प बने हुए हैं और तालीबान जाते हैं और कहते हैं, ‘साहब, ज़रा बीस लीटर तेल डाल दीजिएगा और हम आपको पैसे देंगे।’ ये सब उनको मिल कहांँ से रही हैं चीज़ें?
किसी भी एक फाइटिंग फ़ोर्स (लड़ाकू सेना) को लड़ने के लिए टेलीकम्युनिकेशन (दूरसंचार) की ज़रूरत पड़ती है अब अफ़गानिस्तान का जो टेलीकॉम नेटवर्क है वो तो जर्जर है। तो ये तालिबानी एक दूसरे से कोऑर्डिनेट (समन्वय) कैसे करते हैं? कभी सोच नहीं रहे हो ये तुम? क्योंकि उनके पीछे पाकिस्तान की आइएसआइ (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) और फ़ौज लगी हुई है।
तो ठीक वैसे जैसे चीन राजनैतिक उद्देश्यों के लिए तिब्बत पर कब्ज़ा कर रहा था उसी तरीके से पाकिस्तान; अफ़गानिस्तान को चाहता है स्ट्रेटेजिक डेप्थ के लिए। स्ट्रेटेजिक डेप्थ का क्या मतलब होता है? ये मतलब होता है कि भई! हमारे जो प्रमुख शहर हैं वो तो भारत की सीमा से बिलकुल सटे हुए हैं, कहीं भारतीय फ़ौज घुस न आयें यहाँ पर। और अगर घुस आयी भारतीय फ़ौज तो हम अपने जो स्ट्रेटेजिक एसेट्स (रणनीतिक संपत्ति) हैं वो कहाँ रखेंगे?
तो हुआ ये कि अगर अफ़गानिस्तान हमारे कब्ज़े वाला मुल्क है तो वो सारी चीज़ें हम अफ़गानिस्तान में रख सकते हैं। तो उससे वो कहते हैं कि उन्हें स्ट्रेटेजिक डेप्थ मिलती है। तो इसलिए पाकिस्तान इतना आतुर है अफ़गानिस्तान में अपनी कठपुतली सरकार रखने के लिए।
तो इस्लाम तो बहाना है इन्हें तो ताकत पाना है। ये खेल तो सारा ताकत का है। अब खुलेआम कहा तो जा नहीं सकता कि ये सबकुछ हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमें हिन्दुस्तान से दुश्मनी निकालनी है। कुछ-न-कुछ तो बहाना बनाना पड़ेगा, तो इस्लाम वो बहाना है। समझ रहे हो?
हाँ, ये सबकुछ कर ये भले ही हिन्दुस्तान से दुश्मनी निकालने के लिए रहे हों लेकिन इसमें पिस रहे हैं अफ़गानिस्तान के लोग। तो पता नहीं इसमें भारत का कितना नुकसान होगा लेकिन ये लोग अफ़गानिस्तान की जनता को कहीं का नहीं छोड़ेंगे।
प्र ३: आचार्य जी, आपने अभी अभी कहा कि जिनको जितना चाहिए उनकी रक्षा हो और उनके हाथ में सत्ता आये। वो कोशिश तो अमेरिका ने भी करी पूरे बीस साल।
आचार्य: अमेरिका वहाँ पर सच्चाई को जिताने नहीं गया हुआ था। अमेरिका वहाँ पर अपने सीमित स्वार्थों की रक्षा के लिए गया हुआ था और जब अमेरिका को लगा कि उसके सीमित उद्देश्यों की पूर्ति हो गयी है तो वो अफ़गानिस्तान को जैसा-का-तैसा छोड़कर के वहाँ से निकल भी लिया। ये बात न जाने कैसे तुम्हारे मन में आ गयी कि अमेरिका का उद्देश्य धर्म की संस्थापना था।
अमेरिका वहाँ गया था ये बस किसी तरीके से निश्चित करने कि अफ़गानिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका पर दोबारा नौ-ग्यारह तरीके के हमलों के लिए न हो। नौ-ग्यारह याद है न? ट्विन टावर्स पर जो आक्रमण हुआ था। तो उसके बाद ही तो आना पड़ा था। २०१६ में मैं समझता हूंँ ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान से अमेरिका ने उठा लिया और खत्म कर दिया और जो वहाँ की आतंकी संगठनों की ताकत थी विदेशी भूमि पर जाकर के आक्रमण करने की उस ताकत को नष्ट कर दिया।
उसके बाद अमेरिका के पास कोई कारण ही नहीं था अफ़गानिस्तान में बैठे रहने का। उनका पैसा और खर्च हो रहा था उन्होंने कहा, ‘हम अपना पैसा यहाँ क्यों पड़े हुए हैं, खर्च कर रहे हैं? वो उठकर के वापस चले गये।
प्र ३: तो जो सुविधाएंँ उन्होंने बीस साल तक जैसे इतने बिलियनों डॉलर दिये कि जो उनकी गवर्नमेंट है वो खड़ी हो पाये, अपनी रक्षा खुद कर पाए। लेकिन जैसे ही वो गये तो एक हफ़्ते के अन्दर-अन्दर पूरी सत्ता पलट गयी। तो इस हालत में जिसके पास ताकत है फिर उनको क्या करना चाहिए क्योंकि उन्होंने तो अपनी तरफ़ से उनको तो ट्रेनिंग भी देने की कोशिश करी, उनको तरीके-तरीके के अस्त्र-शस्त्र भी दिये कि भईया, आप अपनी रक्षा कर सको।
आचार्य: देखो इन्होंने (अमेरिका ने) वहाँ से जो एग्ज़िट (प्रस्थान) करी वो एकदम ऐसी थी कि तुम्हारी तुम जानो, हमको यहाँ से निकलना है। तो आनन-फानन में बिलकुल वहाँ से निकलकर भागे हैं। जितनी इन्होंने ज़ल्दबाज़ी में वहाँ से विदाई ली वो एक बड़ा कारण था अफ़गानिस्तान की फ़तह का तालीबान के द्वारा।
सवाल ये भी उठता है न कि क्या आप वाकई ये चाहते थे कि अफ़गानिस्तान में जनतन्त्र की स्थापना हो एक सही सरकार बने जो ऊँचे मानवीय मूल्यों पर चलती हो। आप ये चाहते भी थे? आप बस ये चाहते थे कि अमेरिका के हितों की रक्षा हो जाए। वो अमेरिका के हितों की रक्षा चाहते थे उससे आगे जाकर के अफ़गानिस्तान के हित से उनको कोई बहुत ज़्यादा मतलब था भी नहीं।
आज उनके राष्ट्रपति बाइडन साहब बोल रहे हैं कि भाई, अपनी लड़ाई अफ़गानियों को खुद लड़नी होगी। हम आपकी लड़ाई नहीं लड़ सकते अगर आपको जनतन्त्र चाहिए, अगर आपको नागरिक अधिकार चाहिए तो आप सड़कों पर आइए और तालिबान के खिलाफ़ विद्रोह करिए। वो आम अफ़गानियों से कह रहे हैं कि आप आइए और अपनी लड़ाई खुद लड़िए।
तो ये सोचना कि अमेरिका कोई बहुत गम्भीर प्रयास कर रहा था अफ़गानिस्तान में जनतन्त्र या मानवीयता के समर्थन में भूल होगी। अमेरिका ने ऐसा कोई बहुत गम्भीर प्रयास अफ़गानिस्तान की मदद के लिए नहीं करा, उन्होंने जो भी प्रयास करे थोड़े-बहुत, वो करे भी तो बस अपने हित के लिए करे।
प्र ४: आचार्य जी, आपने अभी कहा तालीबान आक्रमण के पिछे राजनैतिक उद्देश्य है लेकिन जो उसका आम फ़ाइटर (लड़ाकू) है जिनकी हम वीडियोज़ इन दिनों देख रहे हैं वो तो धार्मिक उद्देश्यों की वजह से या आइडियोलॉजिकल मोटीव्स (वैचारिक उद्देश्य) की वजह से कर रहा है न जो कर रहा है कि अगर मैं जिहाद करुंँगा तो मुझे ये मिलेगा वो मिलेगा या फिर मेरी एक विचारधारा है उसको आगे बढ़ाना है।
आचार्य: देखो चीज़ को बिलकुल जमीनी तौर पर समझना चाहिए। जीने के लिए दो तरीके होते हैं किसी भी इंसान के पास। एक तो ये कि वो कुछ ऐसा क्रिएट करे, निर्माण करे जिससे उसको आमदनी हो जाए, जिसके दम पर वो जी सके। और दूसरा तरीका ये होता है कि दूसरों ने जो क्रिएट (निर्माण) कर रखा है; उसका विध्वंश करो, उसको डिस्ट्रॉय करो, उसे लूट लो और धमकी दो कि अगर और तुमने मुझे पैसे नहीं दिये तो मैं और लूट लूंँगा। और इस तरीके से अपनी आमदनी करो।
ये आमदनी के दो तरीके समझ में आ रहे हैं न। पहला तरीका है आमदनी करने का वैल्यू क्रिएशन (मूल्य सृजन) कुछ निर्माण करो इससे आमदनी होगी और जो दूसरा तरीका है वो है वैल्यू डिस्ट्रक्शन (मूल्य विनाश) जो पहले से ही चीज़ें बनी-बनायी हैं उनको तोड़ दो और आगे और ज़्यादा तोड़ने की धमकी दो और लूटो, उगाहो ये दूसरा तरीका है।
जब आपकी शिक्षा हुई नहीं है, आपके पास न कोई ज्ञान है न कोई हुनर है। शिक्षा हुई भी है तो आपकी मदरसों में हुई है जहाँ आपको कोई ऐसी चीज़ बतायी नहीं गयी है जिसके आधार पर आप एक सम्मान की ज़िन्दगी जी सको और रुपया-पैसा कमा सको और आप जवान आदमी हो तो आप क्या करोगे? फ़ाइटर (लड़ाकू) बनना आइडियोलॉजी (विचारधारा) की बात नहीं है एम्प्लॉयमेंट (रोज़गार) की बात है।
वो जिसको तुम टीवी पर देखते हो न कहते हैं कि तालिबानी लड़ाका, वो लड़ेगा नहीं तो जिएगा कैसे, उसे और कुछ आता ही नहीं है। और उसको एक बहुत आसान चीज़ पता चल गयी है एके फोर्टी सेवन ! वो वहाँ बड़े आसानी से मिल जाती है। भई! मैं क्यों मेहनत करके कमाऊंँ अगर कमाया जा सकता है उनसे लूटकर के जिन्होंने मेहनत करी हुई है। और ये काम आज का नहीं है ये काम हज़ारों सालों से होता रहा है।
हम क्यों मेहनत करें कोई निर्माण करें ज़ब विध्वंश करके भी अमीर बना जा सकता है? कोई किसी चीज़ को बनाए, आप एक घर बनाओ, आप एक फैक्ट्री बनाओ या आप एक मन्दिर बनाओ, उसमें दसों साल लगते हैं। और उसको गिरा देने में कितना समय लगता है? गिरा देने में हफ़्ता न लगे। तो कौन दस साल वाली मेहनत करे अगर हफ़्ते भर में पुरानी किसी की की हुई मेहनत को लूटकर के अमीर हुआ जा सकता है तो? ये है कुल मिलाकर के सारा मनोविज्ञान। इस मनोविज्ञान में तुम ये मत सोचना कि केन्द्रीय चीज़ इस्लाम है। इसमें केन्द्रीय चीज़ है अशिक्षा, अज्ञान, सत्ता की भूख और आदमी के मन में जितने तरीके के विकार होते हैं वो सारे-के-सारे।
अगर ऐसा ही होता कि तालिबानी इस्लाम के लिए लड़ रहे हैं तो मुझे ये बताओ कि १९८० से लेकर के आज तक, चालीस साल बीत चुके हैं तालीबान को अफ़गानिस्तान के अन्दर ही इतना विरोध क्यों मिला होता? अगर तालीबान वास्तव में इस्लाम का ही प्रतिनिधि होता तो अफ़गानियों ने ही तालिबानियों का इतना विरोध क्यों किया होता? और विरोध ही नहीं किया था तालीबान को कई बार अफ़गानिस्तान के भीतर हार भी झेलनी पड़ी है। क्यों झेलनी पड़ी है? क्योंकि बात ये नहीं है कि तालिबान इस्लाम की ओर से लड़ रहा है और जो उनके विरोधी हैं वो इस्लाम के विरोध में हैं। खेल सत्ता का है, ताकत का है, खेल पैसे की भूख का है, खेल पावर की हवस का है।
समझ रहे हो?
अभी विज़ुअल्स (दृश्य) नहीं देख रहे थे टीवी (दूरदर्शन) पर कि अब ये लोग काबुल पहुँच गये हैं तो वहाँ पर जितनी भी थोड़ी महंगी चीज़ें हैं जो अमरीकी लोग छोड़कर गये हैं, मैं वेपन्स (हथियारों) की बात नहीं कर रहा हूंँ, मैं बात कर रहा हूंँ कि वहाँ बाथ टब (स्नान टब) हैं, चाहे वहाँ जिम्नेशियम (व्यायामशाला) है, चाहे वहाँ पर अच्छे तरीके के बिस्तर हैं इन सबके विज़ुअल्स आ तो रहे हैं। अब देखो न वो लोग जाकर के कैसे उन चीज़ों पर मज़े मारने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि वही सारा उद्देश्य है। धर्म तो बहाना है, लूट मचाना है।
पहले भी इतने मन्दिर तोड़े गये। तुम्हें क्या लग रहा है वास्तव में जो लोग मन्दिर तोड़ रहे थे वो इसलिए तोड़ रहे थे क्योंकि उन्हें इस्लाम ये बहुत प्यार था? नहीं लूट है। लूट। और इसीलिए मैं बिलकुल ज़ोर देकर के कह रहा हूंँ कि इस तरीके की ताकतों का अगर मुकाबला करना है तो एक ही ज़रिया है, शक्ति।
भारत के पास इतनी शक्ति होनी चाहिए थी कि न वो अमेरिका का मुंँह ताकता, न पाकिस्तान का खयाल करता। जब आपके पड़ोस में, आपके पिछवाड़े में इस तरह की एक बड़ी गलत घटना हो रही है तो भारत में ये ताकत होनी चाहिए थी कि अपनी सेना के दम पर उस घटना को रुकवा देता।
आगे भी इस तरह की चीज़ें होती रहेंगी और अगर भारत वास्तव में अध्यात्म का केन्द्र रहा है, धर्म का पालना रहा है, सच्चाई का पुजारी रहा है तो ये भारत की ज़िम्मेदारी है कि इतनी ताकत रखे, हर तरीके की सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामरिक। कि जब भी इस तरह की कोई घटना, कोई लूट, कोई विभीषिका होते देखे तो वहाँ पर हस्तक्षेप करके सच्चाई के समर्थन में खड़ा हो सके, वो लोग जिन्हें जीतना चाहिए पर कमज़ोर पड़ रहे हैं उनको रक्षा दे सके, उनके हवाले सत्ता कर सके।