प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं, “जब सोचने वाला ही गन्दा है, तो सोच साफ़ कैसे रहेगी!” कृपया इसका अर्थ समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: इसका अर्थ ये हुआ कि जब तक तुम अपनी सोच से जुड़े हुए हो, पहली बात तुम भूल कर रहे हो, दूसरी बात सोच गड़बड़ रहेगी।सोच के साथ अपने-आप को जोड़कर के तुम सोच को भारी और भ्रष्ट कर देते हो। इसीलिए हम विचार नहीं कर पाते अन्यथा, विचार ही मुक्ति है।
रमणमहर्षि से पूछो तो वो कहते थे “ध्यान, योग ये सब तो अनाड़ियों के लिए हैं विचार ही मुक्ति है।” पर हमारे विचार में तो कोई मुक्ति नहीं होती, हमारा विचार तो हमें और फँसाता है।
आदमी जितना सोचता है, उतना परेशान होता है। क्यों? क्योंकि तुम सोच के ऊपर लद करके सोचते हो इसलिए मैंने कहा, ‘भारी और भ्रष्ट’। तुम हट जाओ और सोच की प्रक्रिया को मात्र प्रक्रिया की तरह चलने दो। फिर आता है विचार में पैनापन, फिर विचार अन्तर्दृष्टि बन जाता है। समझ में आ रही है बात ?
प्र: तो आप कह रहे हैं कि तुम हट जाओ तो ये तुम भी तो चेतना, मतलब, मैं अगर अभी यहाँ बैठा हूँ और मैं कुछ भी बोल रहा हूँ, कुछ भी कर रहा हूँ, छोटी- से- छोटी चीज़, वो तो आपने जो समझाया वो तो फिर प्राकृतिक हो गया न, तो फिर?
आचार्य: प्राकृतिक तब हो गया, जब तुम विचार को आत्मरक्षा का साधन बनाओ, जब तुम विचार में अपने लिए कोई लाभ देखो, तब।
जब तुम सोच इसलिए रहे हो, ताकि तुम्हें उसमें से कुछ मिल जाए। अब तुम सोचने की प्रक्रिया में भागीदार हो गए हो, अब तुम्हारा उसमें कुछ लाभ है। तुम स्टेकहोल्डर (साझेदार) बन गए हो।
विचार तुम्हें घटाने या बढ़ाने का साधन नहीं होना चाहिए नहीं तो विचार से तुम्हारे और दुनिया के बीच में एक गलत रिश्ता ही पनपता है। तुम्हें स्थिति पर विचार करना है, आत्मरक्षा पर नहीं।
स्थिति पर विचार करने का अर्थ होता है, विचार में एक निरपेक्षता है। लेकिन हममें से ज़्यादातर लोग स्थिति के बारे में विचार नहीं करते। हम विचार करते हैं, स्वार्थ पर, स्थित पर नहीं।
अन्तर समझना इन दोनों बातों बात का। तुमसे पूछा जाए, यहाँ क्या हो रहा है? तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगा, उस पर विचार कर पाना। लेकिन तुमसे कहा जाए, यहाँ जो हो रहा है, उसमें तुम्हें क्या तकलीफ़ है? तुम्हें क्या फ़ायदा है?, तुम इसे कैसे बदलना चाहते हो? तुम झटपट कई बातें बता दोगे। इसी को फिर कह सकते हो मुक्त विचार, फ्री थॉट।
थॉट फ्री ऑफ द ऑब्लिगेशन टु सर्व द सेल्फ़ ((स्वयं की सेवा करने के दायित्व से मुक्त सोचो) वो हुआ मुक्त विचार।
अब विचार हो रहा है। अब विचार पर तुम चढ़कर नहीं बैठे हो कि विचार इसलिए चल रहा है ताकि तुम्हें बचा दे। विचार चल रहा है। क्यों चल रहा है? बस चल रहा है। तुम्हें बचाने के लिए नहीं चल रहा है। तुम इसलिए नहीं सोच रहे हो ताकि तुम्हें कुछ मिल जाए, तुम्हारी रक्षा हो सके, तुम्हारी जान बच सके। ज़्यादातर लोग तो इसीलिए सोचते हैं, सिर्फ़ इसीलिए सोचते हैं।
अगर अपना कोई लाभ सम्मिलित न हो स्थिति में, तो लोग उस स्थिति के बारे में विचार ही नहीं करेंगे और अगर विचार कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि वहाँ उनके लिए कुछ है।
जब भी तुम किसी स्थिति के बारे में इसलिए विचार करोगे कि उसमें से तुम्हें कुछ मिल जाए या कुछ और इस तरह का, तुम्हारे लिए, तो विचार गड़बड़ होगा।
अन्यथा, विचार में ही ये यह शक्ति है कि वो तुम्हें सत्य तक पहुँचा सकता है। विचार ही निर्विचार है, जब विचारक निरंहकार है। निर्विचार का मतलब ये यह नहीं होता कि तुम्हें विचार नहीं करना है। निर्विचार का मतलब होता है कि विचारक निरहंकार रहे।
विचार कब है? जब विचारक अहंतायुक्त है तो वो विचारक है और जब विचार निरहंकार है तो वो निर्विचार है। अहंकार है तो विचार है और निरंहकार है तो निर्विचार है।
तो निर्विचार माने ये नहीं है कि जो मानसिक क्रिया है, वो होगी ही नहीं। बहुत लोगों को ऐसा ही लगता है कि निर्विचार माने तुम कुछ सोच नहीं रहे हो और बताया भी ऐसा ही गया है न।
निर्विचार का अर्थ है, तुम अपने लिए नहीं सोच रहे। निर्विचार का ये यह अर्थ नहीं है कि तुम सोच नहीं रहे, निर्विचार का अर्थ है, तुम अपने लिए नहीं सोच रहे। जो अपने लिए नहीं सोच रहा वो निर्विचारी है। हम सोचते हैं, किसके लिए? अपने लिए। सोच सारी भारी और भ्रष्ट, बेकार। कुछ नहीं निकलता ऐसे विचार से।
प्र: अब आप जो हमें बता रहे हैं, वो भी तो मैं इसलिए सुन रहा हूँ क्योंकि इसमें मुझे अपना लाभ दिख रहा है। और मैंने सुन लिया और अब मैं अगर इसको मैं अगर चाहूँगा कि ये मेरे यह जीवन में उतरे तो वो भी लाभ देखते हुए तो फिर मेरा ये यह जो चाहना है तो ये तो फिर हानि हो गया?!
आचार्य: दो तरह के लाभ होते हैं उन दोनों में अन्तर कर लिया करो। ठीक है?। एकदम जंगल के बीच में खरगोश को पिंजरे में बन्द कर दिया है। एक लाभ है, पिंजरे में गाजर डाल दी। दूसरा लाभ है, पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया। देख लिया करो, कौनसा लाभ है। ठीक है?