प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, अभी क्षमा की बात चल रही है तो मेरे पास एक कॉन्फेशन (पाप स्वीकरण) है करने के लिए। आचार्य जी, दिसम्बर दो-हजार-इक्कीस के सत्र में आया था मैं ऋषिकेश में, तो तब मैंने एक जिज्ञासा की थी सेक्स सम्बन्धित। तब मेरा अनुभव नहीं था उसका, तो आपने समझाया था कि जैसे खाने से तुम मुक्त नहीं हो सकते तो उससे भी तुम मुक्त नहीं हो सकते।
तो तब मेरा समाधान हो गया था। पर अगले दो-तीन महीनों में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हुईं कि मैं एक लड़की से मिला और उसके बहुत क़रीब आ गया और हमारे बीच सेक्स सम्बन्ध भी बने। पर उसके बाद मुझे बहुत बुरा लगा, बहुत ग्लानि का अनुभव हुआ कि सब सही-सही आपने बताया था फिर भी मैं फिसल गया।
और फिर उसी वक़्त आपने यह भी बोला था कि जो आप होकर करते हो, वही आप और हो जाते हो। तो मुझे यह लगा कि मैंने तो कितना बड़ा इसके साथ ग़लत किया। मैं एक अच्छे तल से, एक अच्छे तरीक़े से रिश्ते की शुरुआत कर सकता था लेकिन काफ़ी निचले तल पर शुरू किया।
पर मैंने सम्बन्ध स्थापित करने से पहले और बाद में भी उसे बता दिया था कि मैं इस वजह से क्लोज़ (करीब) आ रहा हूँ लेकिन फिर मैंने देखा कि वह इतनी भोली है कि उसको कुछ एहसास नहीं हो रहा है। और वो उल्टा मुझे ही समझा रही है कि सब ठीक है।
तो बात सेक्स की नहीं है बात यह है कि आपने मुझे समझाया था उसके बाद भी मैंने उसका उल्लंघन किया। मैं ख़राब शिष्य रहा।
आचार्य: यू हैव बीन अ बैड स्टूडेंट नॉट बिकॉज़ यू वॉयलेटेड बट बिकॉज़ यू नेवर अंडरस्टुड इन द फर्स्ट प्लेस (तुम ख़राब शिष्य इसलिए नहीं हो कि तुमने कुछ उल्लंघन किया, पर इसलिए क्योंकि सबसे पहले तो तुमने समझा ही नहीं बात को)। बैठो भाई!
प्रश्नकर्ता: और सर, उससे सम्बन्धित फिर एक सवाल यह है कि उसको मैंने बताया कि मैं यह आचार्य जी को बताऊँगा। आचार्य जी, उसके साथ मैंने आपका काफ़ी ज़िक्र किया है।
आचार्य: ऐसे किसी तरीक़े से मेरी मौत होनी है किसी दिन। जो करना चाहते हो करते हो और फिर बता देते हो कि आचार्य जी ने करवाया है (श्रोतागण हँसते हैं)।
बैठो बेटा, बैठो! देखो, इंसान को इंसान से रिश्ता तो रखना ही है। है न? रखना ही है। जानने वालों ने सीधे कहा है कि शारीरिक तल पर जो भी रिश्ते रखे जाते हैं, उनको सेक्सुअल (लैंगिक) ही माना जाना चाहिए।
तो सेक्स कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो एक जवान लड़का एक जवान लड़की के साथ कर लेता है। यह बात सुनने में हमारी सामान्य संस्कारी मानसिकता को थोड़ी विचित्र लगेगी, भद्दी लगेगी, आहत भी कर सकती है। लेकिन ज्ञानियों के अनुसार और वर्तमान में मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आप जितने भी सामाजिक रिश्ते रख रहे हो और पारिवारिक रिश्ते रख रहे हो, उन्हें सेक्सुअल ही माना जाना चाहिए; भले ही उनमें काम-क्रीड़ा शामिल हो, चाहे न हो।
देखिए, आम दृष्टि सेक्स को एक कृत्य समझती है। जैसे अभी आप बोल के चले गये कि 'मैंने सेक्स किया'। कि सेक्स क्या है? एक कर्म है, एक एक्शन है, एक इवेंट (आयोजन) है। ज्ञान की दृष्टि सेक्स को चेतना का एक स्तर समझती है। कर्म नहीं; स्तर।
जो व्यक्ति देह के स्तर पर जी रहा है, वो लगातार एक सेक्सुअल जीवन ही जी रहा है; भले ही वो सेक्स करता हो, चाहे न करता हो।
हो सकता है वह अस्सी साल का हो लेकिन तब भी वो एक सेक्सुअल व्यक्ति ही है। हो सकता है वो एक अस्सी वर्षीय पुरुष हो जिसने कभी किसी महिला को पिछले तीस साल से छुआ ही न हो, तो भी वो व्यक्ति प्रतिक्षण सेक्सुअल है। इसलिए नहीं कि उसके मन में काम के विचार हैं, इसलिए कि उसके सारे विचार भले ही वो धार्मिक विचार क्यों न हों, उसके सारे विचारों के केंद्र में शरीर बैठा हुआ है। शरीर का ही दूसरा नाम सेक्स है।
बात समझ रहे हो?
तो इंसान को इंसान से सम्बन्ध तो बनाना ही है। अब जो आप अपनेआप को समझते हैं, जिस तल पर आपने अपनेआप को परिभाषित किया है, उसी तल पर तो आप दूसरे से सम्बन्ध बनाओगे न? कि नहीं बनाओगे?
आप अगर अपनेआप को देह ही माने हुए हो तो दूसरे से आपका सेक्सुअल रिश्ता ही बनेगा; और कुछ बन सकता ही नहीं है। उसमें आपने कोई ग़लती कर नहीं दी, ग़लती चेतना में है; करने में नहीं है। कर्म नहीं ग़लत हो गया, होना ही ग़लत हो गया, बीइंग ही ग़लत हो गयी। तो उसके लिए इतना पछता क्या रहे हो कि मैंने एक काम कर दिया, एक फ़लाना दिन था—‘आठ अप्रैल की रात को फ़लानी जगह पर ऐसा कुछ हो गया। अरे! बड़ा अपराध कर दिया!’
यह क्या पछतावा है? ये झूठा पछतावा है। इसमें ऐसी कोई…। सुधार निश्चित रूप से होना चाहिए पर किसी एक दिन या किसी एक रात या किसी एक घटना को लेकर नहीं; उस तल को ही लेकर जिस पर आपका जीवन चल रहा है।
अब इससे आगे की बात सुनिए। पैदा तो हम सब शरीर के तल पर होते हैं। पैदा तो जो जीव होता है वो सेक्सुअल ही होता है। जिन लोगों को सुनने में बुरा लगे उनसे कहता हूँ — थोड़ा सा विवेक से सुनिएगा। पर जानने वाले कहते हैं कि माँ-बच्चे का भी जो रिश्ता है वह मूलतः सेक्सुअल ही होता है। माँ और बच्चे का भी जो रिश्ता है वह सेक्सुअल रिश्ता ही है। तो जो पैदा ही हो रहा है वो एक सेक्सुअल जीव है, वो और क्या करेगा! एक-एक कोशिका हमारी सेक्स से ही तो भरी हुई है। वहीं से आ रही है, वहीं को जाना चाहती है। ये पूरा शरीर ही सेक्सुअल है।
तो शुरुआत तो सेक्स से ही होनी है क्योंकि वहीं पर पैदा हुए हो, बाबा! क्या आप यह नहीं देख रहे हो — तुम पुरुष हो — कि जिन स्त्री अंगों के प्रति तुम्हारा सर्वाधिक आकर्षण रहता है, उनमें से एक से तुम्हारा जन्म हुआ है और दूसरे से तुमको पोषण मिलता है? क्या यह दिख नहीं रहा है?
जन्म ही एक सेक्सुअल घटना है पूरे तरीक़े से। और इस अर्थ में नहीं कि पुरुष और स्त्री मिले थे इसलिए बालक का जन्म हुआ। वो जो बालक पैदा होने के बाद भी जैसे जी रहा है, चूँकि शारीरिक तल पर ही जी रहा है इसीलिए जो बच्चे का पूरा जीवन है, वो सेक्सुअल ही है। और बच्चे का माँ से भी जो रिश्ता है वो सेक्सुअल ही है। ये बुरी लग रही होगी बात क्योंकि हमने उस रिश्ते को एक दूसरे तल पर देखा है। पर अध्यात्म में शब्दों का प्रयोग अलग परिभाषा के साथ होता है इसीलिए बहुत जल्दी आप आहत मत हो जाइएगा।
आप जिस अर्थ में सेक्स का प्रयोग करते हो — अंतर मैंने कर दिया है — वो एक कर्म है। और मनोविज्ञान उसको जहाँ से देखता है, वहाँ वो एक चेतना का स्तर है। बॉडी आईडेन्टिफाइड कॉन्शियसनेस कैन बी कॉल्ड एज़ सेक्सुअल; फुल स्टॉप (देह-केंद्रित चेतना को ही कामुक कहते हैं; बस)।
तो बच्चा तो होता ही है। क्या?
सेक्सुअल
तो वो यही करता है, जहाँ भी जाता है वो शरीर का ही रिश्ता बनाता है। उसे चीज़ें बहुत प्यारी होती हैं — ये बता दो, वो बता दो, फ़लानी चीज़ें हाथ में उठाकर ले लेगा। देखा है, बच्चा हर समय हाथ से कुछ भी दिखाओ, पकड़ने की कोशिश करता रहता है?
तो जिसको आप कहते हैं सेक्स करना, वो भी बच्चों का ही काम है। क्योंकि उसका पूरा जीवन ही सेक्स से ही लथपथ है बिलकुल। वो उसी कीचड़ से पैदा हुआ है। एक कीचड़ होती है जो शरीर के ऊपर होती है, उसको आप धो देते हैं। एक कीचड़ होती है जो शरीर ही बन जाती है।
'शिव गीता' है, उसको आप पढ़ेंगे तो वह ऐसे ही कहती है। कहती है, ‘माँ के गर्भ की कीचड़ शिशु का शरीर बन जाती है’। और जीवन का फिर उद्देश्य क्या है? उस कीचड़ को धोना। आप धो सकें इसके लिए आपको अस्सी-सौ साल दिये जाते हैं कि उस कीचड़ को धो लो जो कीचड़ तुम गर्भ से लेकर पैदा हुए हो। और जो धो लेते हैं फिर वो कहते हैं – "ज्यों की त्यों धर दीनी, चदरीया झीनी रे झीनी"। वही बात है — साफ़ कर लो।
और जो नहीं धो पाते वो क्या कहते हैं फिर? "लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे"। वो गंदी ही रह गयी, दाग़ मिटा नहीं पाये।
समझ में आ रही बात?
तो अब इसमें इतना एक घटना को लेकर के क्या सोचना है, पूरा जीवन ही सेक्सुअल होगा। यहाँ तक कि ये जो प्रश्न कर रहे हो ये भी सेक्सुअल होगा। और शुरुआत ऐसे ही होती है क्योंकि बच्चा होता ही सेक्सुअल है।
तो फिर प्रगति का, विकास का, वयस्कता का, मैच्योरिटी का अर्थ क्या हुआ? चेतना को ऐसे उंँचाई देते रहना कि वो शरीर को पीछे छोड़ती रहे। और जब तक तुम चेतना को ये ऊँचाई नहीं दोगे, तब तक तुम सौ तरीक़ों से दुनिया के जितने भी विषय हैं, उनकी ओर आकर्षित होते ही रहोगे।
अभी कोई लड़की है, मान लो उससे तुम्हारा ब्रेकअप हो गया। तो फिर तुम कहोगे, ‘मुझे वो फ़लानी गाड़ी आयी है उसका मॉडल बहुत अच्छा लग रहा है’। गाड़ियों का भी तो शेप (आकार) ही ऐसा रखा जाता है न कि बिलकुल अट्रैक्ट (आकर्षित) हो जाओ।? तुम्हारे ख़याल में भी नहीं आएगा कि किसी गाड़ी के शेप , उसके आकार के प्रति आकर्षित होना भी एक सेक्सुअल घटना है। पर वो है।
समझ रहे हो बात को?
एक घटना को लेकर के पछताने की कोई ज़रूरत नहीं है। और ऐसी घटनाएँ अभी तुम्हारे जीवन में और होती ही रहेंगी; भले ही कोई आचार्य, कोई शिक्षक, कोई ज्ञानी तुम्हें कितनी भी बात बताता रहे। स्थूल रूप से नहीं होंगी तो सूक्ष्म रूप से होंगी। ‘स्थूल’ ये होता है कि तुमने किसी लड़की के शरीर पर हाथ ही रख दिया। सूक्ष्म ये होता है कि तुम उसका विचार करते रहे। पर जो सेक्सुअल क्रियाकलाप हैं, वो पूरी एक्टिविटी , वो चलती ही रहेगी जब तक चेतना देह को पकड़कर बैठी हुई है।
हम फिर इसको दोहरा रहे हैं। देहाभिमान ही कामवासना है। चूँकि तुम अपनेआप को शरीर समझते हो इसीलिए किसी और शरीर को ही बड़ी भारी बात समझने लग जाते हो। वो एक स्त्री का या एक पुरुष का शरीर भी हो सकता है। वो एक मकान का शरीर भी हो सकता है। वो एक कार का शरीर भी हो सकता है। वो एक शहर का शरीर भी हो सकता है।
शरीर समझते हो न? जिसका रूप, रंग, आकार और नाम हो, उसको शरीर कहते हैं। जिसके साथ कुछ भौतिक गुणधर्म जोड़े जा सकें, उसको शरीर कहते हैं। इंद्रियाँ जिसका अनुभव ले सकें या मन जिसका चिंतन कर सके, उसको शरीर कहते हैं।
तो हो सकता है वो किसी जीवित प्राणी का शरीर नहीं हो, वो कोई इमारत हो सकती है। ऐसी इमारत जिसको तुम क़ब्ज़े में लेना चाहते हो, कोई घर जो तुम बनाना चाहते हो और तुम दिन-रात उसका चिंतन कर रहे हो। ये भी सेक्सुअल एक्टिविटी है।
'हा…! ये तो कितनी बुरी बात हो गयी।’
अब पापा जी हैं घर में। वो दिन-रात यही सोच रहे हैं, नयी फैक्ट्री लगानी है। और वो फैक्ट्री का डिज़ाइन (ढाँचा) और मशीनें कहाँ से लानी हैं, उनके दिमाग में यही चलता रहता है। बेटा जी अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर घूमता रहता है और पापा जी बेटा जी पर बहुत नाराज़ होते हैं, बरसते रहते हैं। कहते हैं, सेक्स सेक्स सेक्स! तेरी ज़िन्दगी में और कुछ है ही नहीं’।
पापा जी को पता ही नहीं है कि वो ख़ुद भी उतने ही बड़े सेक्सुअल जंतु हैं; बस विषय का अंतर है। बेटा जी के दिमाग़ में जो विषय घूम रहा है वो एक व्यक्ति का है, किसी लड़की का है। पापा जी के दिमाग़ में जो विषय घूम रहा है वो दूसरा है। पर विषय तो दोनों के पास है न? और जो विषय है वो भौतिक ही है।
जिसके भी दिमाग़ में कोई भौतिक विषय घूम रहा है वो अभी एक ही तल पर है। उससे ऊपर जाना पड़ेगा। तो यह तो फँस गये, अब क्या करें? तल इतनी जल्दी तो बदल नहीं सकते। तो अब इसके लिए जानने वालों ने क्या तरीक़ा सुझाया है? उन्होंने कहा, ‘देखो, जिस तल पर तुम हो, तुम्हें दैहिक आकर्षण तो होगा ही। उसको लेकर के छाती पीटने की कोई बात नहीं'।
तुम अभी जवान हो कुछ उम्र होगी तुम्हारी पच्चीस-अट्ठाइस साल, तुम्हें शारीरिक आकर्षण होगा-ही-होगा। प्रकृति ने तुम्हें ऐसा बनाया है। तो फिर क्या करें क्योंकि जाना तो ऊपर है और आपने तो बता दिया कि आकर्षण देह के तल पर है, जहाँ बँधे रहना जंगल की बात हो गयी, पशु वाली बात हो गयी। वहाँ बँधे तो नहीं रहना है, ऊपर कैसे जाएँ?
तो फिर उसका तरीक़ा यह कहा गया है कि व्यक्ति ऐसा खोजो या विषय ऐसा खोजो — शारीरिक आकर्षण तो हो ही रहा है, दुनिया में किसी-न-किसी की ओर तो खिंचना ही है तुम्हें — पर किसी ऐसे को खोजो खिंचने के लिए जो तुम्हें ऊपर उठा सके। तो जीवन में अगर तुम लड़के हो, कोई लड़की भी लेकर आनी है तो ऐसी लेकर के आओ जो तुम्हारी सोच को, तुम्हारे विचार को थोड़ी सही दिशा और ऊँचाई दे सके।
सेक्सुअल एक्टिविटी भाँति-भाँति की होती है (श्रोतागण हँसते हैं)। पता ही नहीं लगेगा कि ये भी सेक्स है, पर है। नहीं, आपको पता नहीं है पर है। एक मीम चलती है न, आजकल!
तो समझ में आ रही है बात?
तो वो चीज़ तो जीवन में रहनी ही है। बस एक जगह तुम्हारा विवेक चल सकता है, सावधानी बरत सकते हो कि कौन है जिसको जीवन में ला रहे हो सेक्स के लिए भी। उससे पता चल जाएगा कि तुम्हारे इरादे क्या हैं आगे के लिए।
तुम ये भी कर सकते हो कि तुम बिलकुल किसी गिरे हुए जंतु को जीवन में ले आओ। क्यों? क्योंकि वो शारीरिक रूप से आकर्षक है। और अक्सर जो गिरे हुए होते हैं, वो पूरी अपनी ऊर्जा इसी में लगा देते हैं कि शारीरिक तल पर आकर्षक रहें; नहीं तो गिरे हुए क्यों होते? उन्होंने अपनी ऊर्जा स्वयं को उठाने में लगायी होती तो गिरे हुए क्यों होते?
उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा, सारा समय, सारा ध्यान किसमें लगा दिया? कि शरीर हमारा आकर्षक और भड़काऊ रहे। तो एक विकल्प ये है कि ऐसे किसी की ओर आकर्षित हो जाओ। पर ऐसे की ओर जाओगे तो वो तुमको और गिराएगा ही। वो व्यक्ति तुम्हारे जीवन में आएगा तो तुम्हारे पतन का कारण बनेगा।
एक, दूसरा हो सकता है, उसकी ओर भी तुम्हारा आरम्भिक आकर्षण शारीरिक ही होगा लेकिन अगर तुमने सोच-समझकर, देखकर व्यक्ति का चयन करा है तो वो तुम्हारे और अपने रिश्ते को शारीरिक रहने नहीं देगा। ये सही सम्बन्ध की पहचान होती है।
शुरू तो सारे सम्बन्ध देखो, तुम्हारे शरीर से ही होने हैं। और कोई फ़ायदा नहीं है किसी और तरह की उम्मीद करने का क्योंकि हम लोग ही क्या हैं? हम तो गर्भ से ही पशुवत पैदा होते हैं। शारीरिक और सेक्सुअल पैदा होते हैं।
तो तुम्हारा रिश्ता भी जो बनेगा — वो देखोगे न किसी को, ऐसा थोड़े ही है कि तुम कहोगे, ‘मुझे निराकार से प्रेम हो गया है’! तुम लिंग देखते हो, तुम चेहरा देखते हो, तुम शरीर देखते हो, तुम आवाज़ सुनते हो, तुम ये सब करते हो उसके बाद ही तो कहते हो, ‘प्यार हो गया’। यही सब तो होता है न जवानी में? — होगा ऐसे ही लेकिन उसमें थोड़ा विवेक लगा देना कि ये कौन है? इसको जीवन में ला रहा हूँ, ये मेरे जीवन का हाल क्या करेगा? ये पूछ लेना।
सही रिश्ता भले ही शरीर से शुरू हो पर ख़त्म चेतना पर होगा। और ग़लत रिश्ता शरीर से शुरू होगा और शरीर की ही दलदल में और धँसता चला जाएगा।
बात समझ में आ रही है?
और यह पहले ही बताए देता हूँ — बहुत ग्लानि अनुभव करने की, पछताने वग़ैरा की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी उम्र में जो भी रिश्ता होगा विपरीत लिंगी के साथ, किसी लड़की के साथ, ये प्राकृतिक बात है कि उसका एक सेक्सुअल आयाम, एक सेक्सुअल कॉम्पोनेन्ट होगा। उसको तुम रोक नहीं पाओगे। जैसे तुम हो, जैसी किसी भी सामान्य व्यक्ति की स्थिति होती है, तुम यह नहीं कर पाओगे कि 'अरे-अरे! मैंने बड़ा ग़लत काम कर दिया। मैंने गर्लफ्रेंड को छू दिया'!
छूओगे ही। आदर्शों में मत जियो, छुओगे ही। चार दिन नहीं छुओगे तो पाँचवें दिन और ज़ोर से छुओगे। तो उस पर बहुत ग्लानि करने की, पछतावे की आवश्यकता नहीं है।
सही चुनाव किया करो। देखो कि किसको जीवन में ला रहे हो और पूछा करो अपनेआप से— रिश्ते का तल क्या आज भी वही है जो पाँच साल पहले था या दो साल पहले था, या ऊपर बढ़ा है? आज भी सामने वाले को बस एक जिस्म की तरह ही देखता हूँ क्या?
सही जो रिश्ता होता है वो शारीरिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है। एक बिंदु आता है जहाँ तुम पाते हो कि 'अरे! अब शारीरिक संतुष्टि की उतनी अहमियत रही नहीं। ये इंसान मुझे अब कुछ और देने लगा है। शरीर नहीं भी मिल रहा तो कोई बात नहीं'। और जो युवा लोग हैं, जो सम्बन्ध स्थापित करते हैं, उनके लिए यह एक सलाह है — जिसके साथ भी होने जा रहे हो, पूछ लेना कि 'अगर कोई बात ऐसी हो जाए कि इससे शारीरिक तृप्ति मिलनी बंद हो जाए, मैं क्या तब भी इस व्यक्ति के साथ रहना पसंद करूँगा?'
अगर जवाब आए, ‘ना, इसके साथ तो मैं सिर्फ़ तब तक रह सकता हूँ जब तक सेक्स है'। तो यह व्यक्ति तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। और अगर व्यक्ति ऐसा है कि सेक्स हो न हो, तो भी उसके साथ रहा जा सकता है, बल्कि रहना अच्छा लगेगा, रहना आनंद देगा तो वह व्यक्ति ठीक है तुम्हारे लिए। और यह बहुत आसान सवाल है और जवाब भी इसका खट से मिल जाता है।
जिसको तुम हॉट बोलते हो, कोई बहुत हॉट है और उसकी ओर खिंच रहे हो; बस यह पूछ लो अपनेआप से कि 'हॉट तो बहुत है पर अगर इससे सेक्स नहीं मिला, मैं तो भी क्या इसके साथ आधा घंटा बिताना पसंद करूँगा'?
और जवाब आएगा — ‘नहीं’। आधा घंटा तो मैं इसको झेलता हूँ ताकि आधे घंटे के बाद काम शुरू हो सके'। अगर ऐसा जवाब आ रहा है तो समझ लो, वो व्यक्ति ठीक नहीं है तुम्हारे लिए।
बात आ रही है समझ में?
इस बार समझ लो ठीक से (श्रोतागण हँसते हैं)। तुम लोग समझते हो नहीं कि क्या बोलते हैं, क्या नहीं। इतनी गालियाँ आती हैं जिनका कोई अंत नहीं। ‘आचार्य जी, आपके कारण मेरा पति मुझसे बेगाना हो गया है।’
मैंने क्या किया? यहाँ भी हैं क्या कुछ ऐसे (श्रोतागण हँसते हैं और एक-दो ने हाथ भी उठाए)?
अरे! बाप रे!
कुछ और कहना चाहते हो? इधर आकर कहो, बेटा।
प्र: आचार्य जी, सबसे पहले तो मुझे बुरा लग रहा है कि मैं ढंग से नहीं समझ पा रहा हूँ। शायद मैं फिसल रहा हूँ या मेरा प्रेम कम हो रहा है सही चीज़ के प्रति?
आचार्य: फिसलना माने क्या होता है? ये दूसरी-तीसरी बार शब्द कह रहे हो— फिसलना। फिसलना माने क्या?
प्र: जो बात मुक्ति की तरफ जाने के लिए उपयोगी हो..।
आचार्य मुक्ति ऐसे हवा-हवाई थोड़े ही होती है। अभी हमने क्या बात करी थी कि संसार में अगर रह रहे हो तो मुक्ति भी किसके माध्यम से मिलेगी? संसार के ही माध्यम से मिलेगी।
अब तुम एक जवान आदमी हो, तुम्हें सम्बन्धों में ही जीना है तो मुक्ति के लिए ही सम्बन्धों का उपयोग क्यों नहीं कर लेते? क्योंकि सम्बन्ध तो अनिवार्यत: बनेंगे-ही-बनेंगे। ऐसा नहीं हो पाएगा, तुम्हारे बस की नहीं है कि तुम सम्बन्ध न बनाओ। ऐसे अभी नहीं हो पाओगे कि कह दो कि मैं कोई सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा जीवन में; सम्बन्ध तो बनाओगे ही बनाओगे। और मुक्ति अगर चाहिए तो सम्बन्ध ही ऐसे बनाओ कि उनके माध्यम से मुक्ति मिल जाए। सम्बन्धों को त्यागकर मुक्ति नहीं मिलेगी; सही सम्बन्ध से मुक्ति मिलेगी।
प्र: पर आचार्य जी, मैं आपको ब्लेमे (आरोपित) बिलकुल नहीं कर रहा हूँ (श्रोतागण हँसते हैं)।
आचार्य: तुम नहीं कर रहे, और भी तो लोग हैं (आचार्य जी, मुस्कुराते हुए)।
प्र: बहुत-बहुत धन्यवाद!