आचार्य प्रशांत: अब, क्या कहते हैं कृष्ण?
श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।3.३७।।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं - जो तुमको तरह-तरह के पापों में ढकेलता है, उसका नाम है 'काम' ('काम' माने पाने की इच्छा)। जो तुम्हारी रजोगुणी वृत्ति है, वही तुमको हर जगह आफ़त में डालती है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३७)
रजोगुण ही क्यों बोला? तमोगुण क्यों नहीं बोला? क्योंकि बात अर्जुन से कर रहे हैं, अर्जुन तमोगुणी हैं ही नहीं।
तमोगुणी माने कौन? जो मद में पड़ा रहकर के शिथिल रहता है, सोया पड़ा रहता है नशे में। जिसे हिलना-ही-डुलना नहीं, जो कीचड़ में लोटा हुआ है और कोई शिकायत नहीं उसे, वो तामसिक है; उसके मन में अँधेरा छाया हुआ है, उसे कुछ दिख ही नहीं रहा; उसे किसी बात से कोई आपत्ति नहीं है, वो सुधरना ही नहीं चाहता, उसे बेहतर होना ही नहीं है; उसे बस नशा चाहिए, कीचड़ चाहिए और लोट जाना है – ये तमसा है। उसे कुछ नहीं पाना, उसे बस नशा चाहिए, किसी भी तरह का मद और अँधेरा, तमसा।
अर्जुन ऐसे नहीं हैं, अर्जुन राजसिक हैं। राजसिक व्यक्ति कौन होता है? राजसिक व्यक्ति वो होता है जो कुछ करके इस संसार में कुछ अर्जित करना चाहता है; वो कहता है, 'मेरे भीतर जो अतृप्ति है, उसका समाधान इस संसार से हो जाएगा।' दो तरह की राजसिकता होती है – एक सांसारिक और एक धार्मिक। दोनों को समझेंगे।
सांसारिक राजसिकता से हम ज़्यादा परिचित हैं। सांसारिक राजसिकता होती है कि मैं बेहतर नौकरी पा लूँ, या व्यापार में ज़्यादा पैसा मिलने लग जाए, कुछ बाहरी उपलब्धियाँ हो जाएँ, तो मैं बढ़िया आदमी हो जाऊँगा। ‘मैं कुछ पा लूँ, मेरे सब दुखों का इलाज संसार में है’ – ये है सांसारिक राजसिकता। धार्मिक राजसिकता क्या होती है? उसका नाम होता है कर्मकाण्ड, कि मैं दुनिया में कोई कर्म कर दूँगा, इससे मुझे मेरी इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाएगी, मैं देवताओं की पूजा करूँगा तो वो मेरी मनोकामना पूरी कर देंगे। चाहे आप दुनिया में पैसे के पीछे भागें, चाहे आप देवता के पास जाएँ, अगर आपका उद्देश्य मनोकामना की पूर्ति है तो आप राजसिक व्यक्ति हैं, क्योंकि राजसिक व्यक्ति की लगातार यही इच्छा रहती है कि मनोकामना पूरी हो।
आप अगर मंदिर जा रहे हैं कोई इच्छा लेकर के, तो आप कैसे व्यक्ति हैं? राजसिक; ये राजसिकता है। अपनी इच्छा पूरी करने के लिए तरह-तरह के यत्न करना राजसिकता है। एक तरह का यत्न ये होता है कि व्यापार बढ़ा लो, और एक यत्न ये होता है कि फ़लाना हवन-पूजन कर लो, अनुष्ठान कर लो, इससे तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाएगी – ये भी राजसिकता है। अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं कि ये राजसिकता ही सारे पापों का कारण है।
सात्विकता क्या होती है फिर? जहाँ आप जान जाते हो कि आपका दुख कुछ माँगकर के, कुछ पाकर के नहीं मिटेगा, ज्ञान से मिटेगा, वो सात्विकता होती है। इसीलिए वेदों में जो कर्मकाण्ड है, ज्ञानकाण्ड उससे कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ है; कर्मकाण्ड राजसिक है, ज्ञानकाण्ड सात्विक है। कर्मकाण्ड राजसिक क्यों है? क्योंकि उसमें मनोकामना है – ‘कुछ मिल जाए'। हमेशा मन्त्रों में आप देवी-देवताओं से कुछ-न-कुछ माँग रहे होते हो, यही राजसिकता है। और आप जो माँग रहे होते हो उसका नाम मुक्ति नहीं है। आप मुक्ति माँगो, इसको राजसिकता नहीं कह सकते; लेकिन आप हमेशा क्या माँग रहे होते हो? आप धन-धान्य माँग रहे होते हो। मंत्र कहते हैं कभी कि पशु हमारे बढ़ जाएँ, हमें पुत्र की प्राप्ति हो जाए – ये सब मनोकामनाएँ हैं। ‘हमारे शत्रुओं का नाश हो जाए, बारिश अच्छी हो जाए, फसलें अच्छी हो जाएँ' – ये मनोकामनाएँ हैं सब, ये राजसिकता है।
समझ में आ रही है बात?
तो कृष्ण कह रहे हैं, 'ये जो रजस है, जो तुम्हारे भीतर तुम्हारी तमाम इच्छाएँ बनकर बैठी हुई है, यही सारे पाप करवाती है तुमसे।‘ इच्छाएँ पाप क्यों हैं? इच्छाएँ अपनेआप में कोई पाप नहीं हैं, क्योंकि हमारी इच्छाएँ तो होती ही बड़ी छोटी-छोटी और विचित्र हैं, वो क्या पाप होंगी! इच्छा पाप इसलिए है क्योंकि इच्छा से आपको ये भ्रम हो जाता है कि अब बस दुख दूर होने ही वाले हैं, और दुख उससे दूर होते नहीं; चाहे वो पूरी हो इच्छा, चाहे न पूरी हो, उससे दुख नहीं दूर होता। इसलिए इच्छा को पाप माना गया है।
तो फिर पाप है क्या? दुख में रहना ही पाप है। पापी कौन? जो दुख में है और दुख में रहे ही जा रहा है, अपने दुख को ही समुचित इलाज नहीं दे पा रहा, वो दुख में रहे ही जा रहा है, वही पापी है। अब ये बात हमारी आम दृष्टि और साधारण नैतिकता के कितने ख़िलाफ़ जाती है, देख रहे हैं? हम आमतौर पर दुखी व्यक्ति को संवेदना, सहानुभूति देते हैं। और अध्यात्म कहता है, 'दुख ही तो पाप है! तुम पापी नहीं होते तो दुखी क्यों होते?'
तो क्या सुख पुण्य है? नहीं बाबा! तुम जिस सुख की बात करते हो वो तो पाप ही जैसा है, क्योंकि उसमें दुख छुपा हुआ है। तुम्हारे सुख-दुख दोनों पाप हैं क्योंकि दोनों तुम्हें भ्रम में रख रहे हैं, असली बात दोनों में छुपी हुई है। आप जब भी इच्छा करते हो तो आप इच्छा का विषय नहीं पाना चाहते, आप उस विषय से कुछ पाना चाहते हो। आपको कोई चीज़ चाहिए, आपको वास्तव में वो चीज़ नहीं चाहिए, आपको उस चीज़ से कुछ और चाहिए। चीज़ तो मिल जाती है, लेकिन चीज़ से जो चीज़ चाहिए वो चीज़ नहीं मिलती है; कई बार तो वो चीज़ भी नहीं मिलती।
मान लो आपको पर्सनल जेट चाहिए, कोई ज़रूरी नहीं है वो चीज़ आपको मिल ही जाए, पर हो सकता है दो-चार को मिल भी जाए। जिनको मिल भी जाएगा वो प्राइवेट जेट , उन्हें भी प्राइवेट जेट से वो नहीं मिलता जो उन्हें उससे चाहिए, तो इसलिए इच्छा पाप है; कोई नैतिकता की बात नहीं है, बात उपयोगिता की है। इच्छा आपके उपयोग में आ नहीं पाती, पूरी हो या अधूरी हो।
फिर, “ये तृप्त नहीं होता है। रजोगुण से उठता है, तृप्त नहीं होता है, महापाप है यह ‘काम’, और यही क्रोध को जन्म देता है, इसी को संसार मे बैरी जानो।“
क्रोध और काम का क्या रिश्ता है? जब कामना पूरी नहीं होती तो क्रोध उठता है। क्रोध में क्या बुराई हो गई भाई? क्रोध में बुराई ये हो गई है कि क्रोध हमेशा बहिर्मुखी होता है। क्रोध माने ऊर्जा; भीतर से भक-भकाकर आग उठी है, ऊर्जा उठी है। क्यों ऊर्जा उठी है? क्योंकि कामना पूरी नहीं हुई, तो ऊर्जा उठी है कि कामना के रास्ते में जो बाधा है उसको हटा दें। ऊर्जा उठती है कि कामना पूरी नहीं हो रही है, बीच में कोई बाधा है, तो उस ऊर्जा के माध्यम से आप उस बाधा को हटा दें, इसलिए ऊर्जा उठती है – ये क्रोध है।
तो क्रोध में बुराई क्या है, पाप क्या हो गया? वो बाधा ही तो हटा रहा है, अच्छी चीज़ होगा! नहीं, अच्छी चीज़ नहीं है, उसमें कुछ बुराई है। क्या बुराई है? वो बाहर को देखता है, वो बाहरी बाधा हटाना चाहता है, वो भीतर को नहीं देखता। जो असली ग़लती हुई है, क्रोध उसको नहीं पहचान पाता, क्रोध के साथ बुराई ये है कि वो नकली दुश्मन पर वार करता है। और युद्ध अगर हारना हो, तो ग़लत दिशा में तोपें दागना शुरू कर दो – पहली बात तो दुश्मन नहीं मरेगा, दूसरी बात, तुम्हारे गोले चुक जाएँगे, हारोगे। क्रोध यही करता है, आप ऐसी दीवार को पीटना शुरू कर देते हो जिसको पीटकर कुछ मिलेगा नहीं। पहली बात तो जो असली दुश्मन था वो मज़े में बचा रह गया, और दूसरी बात, दीवार को पीट-पीटकर आपने अपनी मुठ्ठियाँ तोड़ लीं, अपनी ऊर्जा ख़त्म कर ली; क्रोध का ये नुकसान है, वो असली काम होने नहीं देता।
अध्यात्म में पुण्य बस वो जो असली काम की ओर ले जाए, पाप बस वो जो असली काम से आपको वंचित रख दे। असली काम क्या है? मन को शांति की ओर ले जाना। पाप क्या है? कोई भी ऐसा चुनाव करना जो आपको शान्ति से दूर कर दे, शुद्धता से दूर कर दे – ये पाप है। पुण्य क्या है? कोई भी ऐसा चुनाव करना जो आपको शुद्धता की तरफ़ ले जाए। क्रोध फिर पाप क्यों हुआ? क्योंकि वो शुद्धता की ओर आपको नहीं ले जाता; जो अशुद्धि है उसको तो वो छुपा देता है, वो किसी और पर ही भौंकना शुरू कर देता है।
क्रोध का अर्थ है ये मान लेना कि आपकी समस्या इसलिए है क्योंकि आपकी कामना पूरी नहीं हुई। क्रोध कामना के अपूर्ण रहने पर उठता है, फ्रस्ट्रेटेड डिज़ायर (विफल कामनाएँ), वही क्रोध है। तो क्रोध में मान्यता क्या छुपी हुई है, क्रोध क्या मान रहा है? कि मैं इसलिए परेशान हूँ क्योंकि कामना पूरी नहीं हुई, और अगर कामना पूरी हो जाएगी तो मैं ठीक हो जाऊँगा। क्या कामना पूरी होने से आप ठीक हो जाओगे? नहीं होओगे; इसलिए क्रोध गड़बड़ चीज़ है, वो कामना को समर्थन दे रहा है।
समझ में आ रही है बात?
अर्जुन को बड़ी ज़बरदस्त बात बोल गए कृष्ण। पहले बता रहे थे कि निष्काम हो जाओ। वैसे लगता है कि पता नहीं क्या है निष्काम होना। उसी बात को यहाँ बोल गए कामना को पाप बताकर। चाहे ये बोलो कि निष्काम हो जाओ, चाहे ये बोलो कि ‘काम’ ही पाप है; क्या अलग-अलग बातें बोलीं? वही एक बात है जिसको बार-बार, बार-बार इस तीसरे अध्याय में दोहरा रहे हैं कृष्ण; वास्तव में एक ही बात है जिसको पूरी गीता में दोहरा रहे हैं कृष्ण, अठारहों अध्यायों में। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, ‘निष्काम’-भर बोलने से काम नहीं चलता, आगे बताना पड़ता है कि काम पाप है।
‘तृप्त नहीं होता ये', और तृप्ति ही तो हमको चाहिए। जो कभी तृप्त न होता हो वो तो ख़तरनाक हो गया न हमारे लिए? तृप्ति का अभाव ही तो हमारी समस्या है। देखो, संतुष्ट हो जाना और तृप्त हो जाना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। हमारी संस्कृति ने हमें संतोष सिखा दिया है, लेकिन संतोष का अर्थ तृप्ति नहीं होता; तृप्ति का सम्बन्ध पूर्णता से है, संतोष का सम्बन्ध संयम से है। वो (संतोष) अच्छी बात है लेकिन नीचे की बात है, पूर्णता से नीचे का मूल्य है संतोष।
और संतोष कई बार घातक भी हो सकता है क्योंकि वो पूर्णता जैसा लगने लग जाता है। एक संतुष्ट व्यक्ति को ये भ्रम हो सकता है कि वो पूर्ण है; नहीं, तुम पूर्ण नहीं हो, तुम सिर्फ़ संतुष्ट हो; और संतुष्ट तुम इसलिए भी हो गए हो क्योंकि पूर्ण होने में बड़ी मेहनत लगती है, तो तुम हल्के में ही संतुष्ट होकर बैठ गए हो। संतोष कई बार तामसिक बन सकता है, उससे बचकर रहिएगा! तामसिक व्यक्ति भी तो बहुत संतुष्ट होता है, उसे कुछ नहीं चाहिए।
एक शराबी बोतल लेकर पड़ा हुआ है गटर में, आप उसको धन-दौलत, रूप – कुछ भी दीजिए, उसको चाहिए ही नहीं; उसको जो चाहिए वो उसको मिल गया है। बोल रहा है, 'अपने खज़ाने के बीचोंबीच हूँ मैं, गटर (मेरा खज़ाना है), और मेरी परी (बोतल) मेरे हाथ में है, मैं और कुछ लेकर करूँगा क्या?' संतोषी है।
संतोष सिर्फ़ उच्चतम जगह पर मिलना चाहिए, उससे पहले आप असंतुष्ट ही रहें; संतोष बस तब करिएगा जब मंज़िल मिल जाए। और मंज़िल मंज़िल में भेद होता है, राजसिक आदमी की समस्या ये है कि वो संसार में ही कोई मंज़िल बना लेता है। आपको संसार को नहीं, आत्मा को मंज़िल बनाना है, जब आत्मा मिल जाए तब संतुष्ट हो जाइएगा; अन्दर की बात ये है कि तब संतुष्ट होने के लिए कोई रहेगा नहीं! आप ही नहीं बचेंगे तो असंतोष कहाँ से बचेगा? और आप बचे हुए हैं तो असंतोष कैसे नहीं रहेगा?
तो फिर ये भी बात निकली कि कामना अपनेआप में फिर बुरी नहीं हुई, ग़लत विषय की कामना बुरी हो गई; ऐसे विषय की कामना बुरी हो गई जो आपको अपूर्ण-का-अपूर्ण ही छोड़ देगा, मिल भी गया तो भी। अगर एकमात्र पाप अपूर्णता है, तो वो कामना बुरी है जो आपको अपूर्ण ही छोड़ देगी। पूर्ण की कामना बुरी नहीं हो सकती। पूर्ण की कामना को फिर एक विशेष नाम दे देते हैं, क्या नाम? मुमुक्षा; वो भी कामना ही है, पर विशेष कामना है, वो पा लेने की नहीं, मिट जाने की कामना है; वो कामना करिए – ‘तू रहे, मैं न रहूँ।‘
अपनेआप को जितना पीछे छोड़ोगे, अपनी उतनी भलाई करोगे, डरने की कोई बात नहीं। अपना भला ही चाहते हो न? हाँ तो आपकी भलाई इसी में है – पीछे छोड़ दें। कई बार जिसका भला चाहो, उसे छोड़ना ही बेहतर है, है न?
हाँ, तो सबसे पहले अपनेआप को छोड़ दो, अगर अपना भला चाहते हो तो। घर का माहौल बहुत ख़राब है, इस बच्चे को हॉस्टल छोड़कर आओ। कौनसा घर? कौनसा घर? ये (सिर की ओर इशारा करते हुए) जो घर है, इसका माहौल अच्छा नहीं है। इस घर में जो बच्चा है, उसका क्या नाम है? अहम्, अहम् बेबी। इस घर में उसको अच्छी परवरिश नहीं मिल सकती, उसको छोड़ आओ, उसी के लिए अच्छा होगा। देह में रहेगा अहम्, देहभाव से ग्रस्त रहेगा। मन में रहेगा अहम्, मनभाव से ग्रस्त रहेगा। अहम् को उसको समर्पित कर दो जो अहम् की देखभाल करने में सक्षम है, उसके हवाले कर दो – ‘तुम ही इसके असली बाप हो, तुम ही इसकी माँ हो, तुम ही इसको सँभालो, हमें निवृत्त करो।‘ यही कामना करिए, यही मुमुक्षा है।
क्रोध का क्या करना है? काम के बाद क्रोध की बात हुई है, उसका क्या करना है? उसको भीतर को मोड़ लेना है। जब वो बाहर की ओर होता है तो आक्रामक हो जाता है, क्रोध जब भीतर को मुड़ता है तो अंतर्दृष्टि बन जाता है। स्वयं पर क्रोध करना सीखिए! विनाश तो करना ही है; बिलकुल तोड़ना है, फोड़ना है, जला देना है, गिरा देना है, राख कर देना है – सब कर देना है; पर दीवार तोड़कर क्या मिलेगा, सड़कें फोड़कर क्या मिलेगा, किसी का मुँह तोड़कर क्या मिलेगा? जो असली दुश्मन है, चलो उसको राख करते हैं – क्रोध को ये दिशा दे दीजिए, क्रोध को भीतर की तरफ़ मोड़ दीजिए। दुनिया में सबको माफ़ करिए, अपनेआप को छोड़कर; अपनी कोई माफ़ी नहीं होनी चाहिए। दुनिया को अभी, तत्काल माफ़ कर दीजिए – ‘सबको अभय दान दिया, सबको क्षमा, सबको माफ़ कर दिया।‘
इसीलिए क्षमा को इतना ऊँचा गुण माना गया है, क्योंकि जब तुम दूसरों को क्षमा नहीं कर पाते न तो तुमने अपनेआप को बड़ा साफ़-सुथरा घोषित कर रखा होता है। दूसरों को छोड़ो – ‘जाओ माफ़ किया। हमें याद भी नहीं कि तुमने हमारा क्या बिगाड़ा था, जाओ माफ़ किया। जीना अपने साथ है, हम बात ज़रा अपनेआप से करना चाहते हैं। जो आईने में दिख रहा है उसको कटघरे में खड़ा करना है, अदालत वहाँ लगेगी, क्योंकि अगर वो गुनहगार नहीं होता तो दुनिया में कोई हमारा क्या बिगाड़ सकता था? सबको माफ़ किया।‘ इसी क्षण भीतर के सारे घाव, सारी चोटें, सब गिरा दीजिए, कुछ नहीं (बचना चाहिए)। ‘हम किसी को अपराधी नहीं मानते अपने जीवन का। जिनको लेकर के बड़े गिले-शिकवे रहे हैं, उनको सबको कहा – जाओ, क्षमा। अब बात करनी है असली मुजरिम से।'
'अहंकार हाज़िर हो! आप पर इल्ज़ाम है कि आपने अपनी पूरी ज़िन्दगी ही बर्बाद कर ली। चलिए ज़रा, जो भी बोलना है गीता पर हाथ रखकर बोलिए।'
'नहीं, नहीं, नहीं, वो तो हम नहीं कर सकते। इस पर हाथ रख ही दिया होता तो ज़िन्दगी बर्बाद ही क्यों हुई होती? गीता पर हाथ नहीं रखेंगे।'
हम उल्टा चलते हैं – हम ख़ुद को बरी किए रहते हैं, वो भी बाइज़्ज़त। और दुनियाभर को बोलते रहते हैं, 'इसने ये बुरा कर दिया, उसने मेरा अपमान कर दिया, उसने चोट पहुँचा दी, वो है मेरी ज़िन्दगी का खलनायक। अरे हम तो न जाने क्या हो गए होते, तुम हमें ले डूबे' – ये सब हमारी कहानियाँ हैं। ‘दूसरे बुरे हैं, हम दूध के धुले हैं।‘
“जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोए।“
समझ में आ रही है बात?
क्रोध किसको बुरा बना देता है? दूसरों को। और अपना मन खोजोगे तो पाओगे कि सौ विकार यहाँ पर हैं। क्रोध को भीतर की ओर मोड़ दो, क्रोध आत्मशुद्धि का साधन बन जाएगा, क्रोध ही अनुशासन बन जाएगा। जो इंसान दूसरों को जिन बातों में जितना ज़्यादा दोषी बताता रहेगा, वो ख़ुद उतना कम सुधरेगा।
मुझे कई बार संस्था के लोगों पर बड़ा गुस्सा आता है, और क्रोध मैं करता आ रहा हूँ सालों से, और फिर देख रहा हूँ उससे कुछ अंतर तो पड़ नहीं रहा, चीज़ें जस-की-तस हैं, चिकने घड़े हैं। मैंने कहा, 'काम तो मेरा बिगड़ रहा है न? नुकसान अगर मेरा हो रहा है तो दोष भी कहीं-न-कहीं मेरा ही होगा, इनको दोष देने से कोई लाभ नहीं है। लेकिन काम तो बिगड़ ही रहा है, तो किसी ने तो गड़बड़ करी है, तो फिर किसने करी है? मैंने करी है। तो अब से सज़ा भी मैं अपनेआप को ही दूँगा। यहाँ कोई ग़लती करे, कोई गड़बड़ करे, सज़ा मैं अपनेआप को दूँगा।‘ तो अभी ये मैंने निश्चय करा है, देखते हैं इसका होता क्या है।
गुप्त सज़ाएँ मैंने अपनेआप को देनीं शुरू कर दीं हैं। तुम्हें मुझे रात को रिपोर्ट भेजनी है, तुम रिपोर्ट नहीं भेज रहे, सोए पड़े हो, मैं खाना ही नहीं खाऊँगा; तुम मत भेजो रिपोर्ट, मैं खाना नहीं खाऊँगा। तुमको बताऊँगा भी नहीं, पर सज़ा तो मिलनी ही चाहिए; तुम्हें दूँगा नहीं, तुम पर कोई असर पड़ना नहीं, तो मैं अपनेआप को सज़ा दूँगा, और बताऊँगा भी नहीं। मैं कोई ब्लैकमेल वगैरह नहीं कर रहा, बस ग़लती तो हुई ही है, तो कोई-न-कोई तो अपराधी है, कोई अपराधी है तो उसे सज़ा भी मिलेगी। अपराधी मैं ही हूँ, तो मुझे ही मिलनी चाहिए सज़ा, ठीक है! तुम्हारे गुनाहों का मैं भुगतूँगा।
देखो फिर गड़बड़ कर दी। क्या गड़बड़ करी अभी-अभी? बोल दिया, ‘गुनाह उधर हैं। गुनाह उसके हैं तो हम क्यों भुगतें?’ हमारे ही गुनाह हैं! तुम जो भी कुछ कर रहे हो, कहीं-न-कहीं मैं ही उत्तरदायी हूँ। हो सकता है यही गुनाह हो कि मैं तुमको लेकर आया, पर जो भी है, मैंने किया; किया मैंने है तो भुगतूँगा भी मैं ही।
ये अच्छा लग रहा है अभी तक, इससे मैं आग में जलने से बच जाता हूँ, नहीं तो उसका जो आवेग होता है वो बड़ा प्रबल होता है। मैं बोलता हूँ, ‘ठीक है। क्षमा।‘
तो आप भी अपनेआप को गुप्त सज़ाएँ देनीं शुरू कर दीजिए, मज़ा आएगा! नए-नए तरीके खोजिए अपनेआप को सज़ा देने के; अब क्रोध सृजनात्मक हो जाता है। सज़ा का मतलब ये नहीं कि थप्पड़-वप्पड़ मारने लग गए, ये सब मत करने लग जाइएगा! और वीडियो बनाकर भेज रहे हैं – ‘आचार्य जी, आज पाँच कोड़े मारे अपनेआप को।‘
(श्रोतागण हँसते हैं)
ये नहीं सुझा रहा हूँ। जिसको सज़ा देनी है वो सूक्ष्म है, तो उसे स्थूल सज़ाएँ मत देने लग जाइएगा! अहंकार को देनी है सज़ा, तो कोड़े काहे को मार रहे हो? उसको थोड़े ही लग रहे हैं! उसका लालच, उसका डर, उसका मोह, उसका मद – ये सब उसकी कमज़ोरियाँ हैं, उसको सज़ा देनी है तो इन पर चोट करिए।