त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
काम, क्रोध और लोभ – ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक २१
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने सुना है कि आत्मा तो अजर-अमर होती है। उसका नाश कैसे हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: जब श्रीकृष्ण काम, क्रोध और लोभ के संदर्भ में ‘आत्मा’ की बात कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से वे जीवात्मा की बात कर रहे हैं न। और जीवात्मा माने अहंकार। तो काम, क्रोध, लोभ, इन तीनों की चर्चा अहम् के संदर्भ में की गयी है कि ये अहम् को और गिरा देते हैं। कामवश होकर अहम् संयुक्त हो जाएगा ऐसे विषयों से जो उसकी अहंता को, जो उसकी अपूर्णता को, जो उसकी झूठी मान्यता को और बढ़ा देंगे।
क्रोध करके अंधा अहम् और ज़्यादा बेहोश हो जाएगा। अंधा पहले ही था, बेहोश भी हो गया। लोभ का तो अर्थ ही है किसी ऐसे की ओर आकर्षित होना जो इस लायक ही नहीं है कि उसकी ओर आकर्षित हुआ जाए। ये आकर्षण अहम् को और ज़्यादा रोक देगा उधर को बढ़ने से जिधर उसे बढ़ना ही चाहिए।
तो कह रहे हैं श्रीकृण कि ये काम, क्रोध, लोभ जीवात्मा को और ज़्यादा पतन में, अधोगति में ढकेल देते हैं।