जो तुम्हें अशांत करे, सो गलत || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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जो तुम्हें अशांत करे, सो गलत || आचार्य प्रशांत (2016)

श्रोता: आपने बोला कि गलत या बुरे को गलत बोलना सही होता है, लेकिन जब भी मैं ये करती हूँ, तो मैं ज़्यादा अशांत करती हूँ, जितनी किताबें मैंने अभी पढ़ी हैं या फिर पेरेंट्स ने जो सिखाया अगर आप कुछ गलत में भी अच्छाई ढूंढ सकते, तो वो ज़्यादा शान्तिदायक लगता है|

वक्ता: वो समायोजित होने की, एडजस्टेड होने की एक विधि है।गलत का अर्थ समझना, तुमने पूछा कि “एक ओर तो बात ये है कि गलत को गलत बोलो और दूसरी ओर ये कि नहीं, गलत में भी कुछ भला ढूंढो, कुछ सही ढूंढो|” दो तरह के अनुभव होते हैं जिन्हें आप गलत का नाम दे सकते हैं, एक तो आप उस सब को गलत मानें, जिसको गलत मानने की आपको शिक्षा दी गयी है। आपको बता दिया गया है कि किसी दिशा में पाओं करके नहीं सोना ये गलत है, आपको बता दिया गया है कि उक्त प्रकार का खाना नहीं खाना है ये गलत है, आपको बता दिया गया है कि विपरीत लिंग से इस तरह की अंक प्रकार की बात नहीं करनी है ये गलत है, या कि यदि आपके पास इस तरह की दैनिक जीवनचर्या नहीं है या इतने पैसे नहीं है, तो ये गलत है|

तो एक तो ये सब धारणाएं आती हैं जिनमें से कुछ को सही कहा जाता है, कुछ को गलत कहा जाता है।एक तो सही गलत का निर्धारण ऐसे होता है, ये सांसारिक तरीका है।जब मैं कह रहा हूँ कि, ‘गलत को गलत बोलो’ तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि उसको गलत बोलो, जिसको गलत बोलना तुम्हें संसार ने सिखाया है। फिर तो तुम बुद्ध को गलत ही बोल रहे होगे क्योंकि संसार ने तुमको सिखाया है कि इस तरीके से जिम्मेदारियाँ छोड़ के नहीं चले जाते।तो एक सही गलत वो होता है, जो तुम्हें संसार सिखाता है और एक दूसरा गलत होता है।वो गलत होता है कि जो एक मात्र चीज़ है, जिसे सही कहा जा सकता है, तुम उससे दूर हो गए|

वो है तुम्हारी मूल शान्ति, वो है तुम्हारी मूल निष्क्रियता, सत्व, बोध।मैं उसको कह रहा हूँ कि जब वो घटना घटे, तो जानो कि वो गलत है और मात्र वही गलत होता है।वो सब गलत नहीं है, जिसे तुम गलत बोलते हो, तुम गलत बोल देते हो अगर तुम्हारी टीम क्रिकेट मैच हार गयी, तुम गलत बोल देते हो अगर तुम्हारे जितने चाहते थे परीक्षा में उतने नंबर नहीं आए।ठीक है न? तुम उन सब बातों को गलत बोल देते हो, तुम हल्की बातों को सही या गलत बोल देते हो।

वास्तव में गलत सिर्फ एक को बोलो, किसको? कि तुम वो नहीं रह पाए जो तुम हो, जो तुम्हें होना था।सिर्फ़ वो गलत है, बाकि सब जो हम सही-गलत बोलते रहते हैं, वो कूड़ा बराबर है; न वो सही है न वो गलत है।वो सब काम चलाऊ बातें हैं।बात समझ रहे हो कि नहीं? तुम चाहते थे कि बिजली आ जाए, बिजली आ गई; तुम क्या बोल देते हो? “सही|” तुम चाहते थे कि तुम बीमार न हो, तुम बीमार पड़ गए; तुम क्या बोल देते हो? गलत।ये सब व्यवहारिक बातें हैं, काम चलाऊ बातें हैं।मैं इनकी चर्चा ही नहीं कर रहा, इसमें तुम्हें जैसा लगता हो करो।

मेरा आशय कुछ और है, मैं कह रहा हूँ कि तुम्हारी शान्ति नहीं खोनी चाहिए। और वही गलत है, उससे अधिक गलत कुछ हो नहीं सकता।उसको गलत मानो, और जब वो घटना घट रही हो तो स्वीकार करो कि वो घटना घट रही है।शान्ति के गंवाने को कभी भला मत मान लेना; उसे सुंदर नाम मत देना।ये मत कह देना कि, “न, ये तो प्रिय के मिलन की उतेजना है”; अशांति, अशांति होती है।अगर वो प्रिय के मिलन की भी उतेजना है, तो है अशांति ही।गड़बड़ है।

समझ में आ रही है बात? तो सही-गलत का निर्धारण संस्कारों के पैमानों पर मत कर लेना, सही-गलत का निर्धारण सिर्फ़ सत्य के तराजू पर करना, वहीं से तोलना कि सत्य जितना गुरुत्व उसमें है या नहीं है? उतना भारी हो तो कहना सत्य है और अगर उतना भार नहीं है उसमें, बात हल्की है तो कहना गलत। बात समझ में आ रही है? सिर्फ एक चीज़ गलत है, क्या?

श्रोता१: अशांति|

वक्ता: तुम अशांत हो गए, तुम्हें हिला दिया गया, तुम्हारे ऊपर धूल डाल दी गयी, तुम्हें गंदा कर दिया गया।तुम्हारा जो मौन स्वभाव है, उसमें कंपन पैदा कर दिया गया।सिर्फ ये गलत है, बाकि कुछ गलत नहीं है।पूरी दुनिया तबाह हो जाए, तब भी वो आध्यात्मिक दृष्टि से सही-गलत कुछ नहीं है।प्रलय आ जाए, भूचाल आ जाए, पृथ्वी का नामोंनिशान मिट जाए, वो गलत नहीं है।होता रहता है, कितनी पृथ्वीयाँ बनी बिगड़ी, क्या है पृथ्वी? रेत का एक कंड है।ब्रह्मांड में पृथ्वी की इससे ज़्यादा हस्ती नहीं है।उसमें कुछ गलत नहीं।आज कोई खगोलिक घटना हो और तुम्हारा ये गृह विलुप्त ही हो जाए, क्या गलत हो गया? कुछ नहीं।कुछ गलत नहीं हो गया|

ये आठ अरब मनुष्य, तमाम तरीके की वन वन्यराशियाँ, जीव जंतु, मछली, समस्त सृष्टि सब मिट जाए, कुछ गलत नहीं हो गया।पूर्ण प्रलय, कुछ गलत नहीं हो गया।पर अगर तुम हिल गए, तो सब गलत हो गया।सब गलत हो गया, सब गंवा दिया।दुनिया अस्त-व्यस्त हो जाए, कुछ नहीं बिगड़ा, तुम अपने आसन से ज़रा डोले कि सब बिगड़ गया; सिर्फ वही गलत है।तो जब मैं कहता हूँ कि गलत को प्रश्रय मत दो, मेरा आशय तुम्हारे आसन पर तुम्हारे आसीत रहने से है।वहाँ से हट मत जाना।अपनेआप से जुदा मत हो जाना, और जब हो रहे हो, क्योंकि बहुत कुछ है जो तुमसे ऐसा करवाता है।जब हो रहे हो तो झूठ मत बोलना, मान लेना कि गड़बड़ हो रही है।ढोंग क्यों करना कि स्वास्थय है? बीमारी जब तुम पर कब्ज़ा कर रही है तो दायित्व है तुम्हारा कि मानो कि बीमार हो गये हो, अन्यथा चिकित्सक के पास जाओगे क्यों?

तो जब लगे कि हिल-डुल रहे हो, संसार कब्ज़ा किए ले रहा है, दुनिया ज़हन पर छा रही है, कुछ है जो बड़ा महत्वपूर्ण हुआ जाता है, अनेक-अनेक तरीकों से कोई विचार, कोई व्यक्ति, कोई डर आ के गिरफ्त में ले रहा है तुम्हें, तो छुप मत जाना, दमन मत कर देना, सप्रेशन मत कर देना।मानना कि हो रहा हैं, “हाँ, हो रहा है।हो रहा है|” भले ही ये न बोलो कि गलत हो रहा है, गलत शब्द का प्रयोग भी कोई बहुत ज़रूरी नहीं है, तुम छोड़ सकते हो, पर मानना कि हो रहा है|

श्रोता२: ये जो कूड़ा है, वही हमें सारे टाइम हिलाता-डुलाता रहता है|

वक्ता: हाँ, वही है|

श्रोता२: क्या करें?

वक्ता: उसे कूड़ा मानिए न।वो हिला डुला लेता क्या यदि वो कूड़ा होता? कूड़ा यदि कूड़ा जैसा दिखता, तो क्या आप उसको अपने घर के पहले कमरे में आदर का स्थान देते? हमारे घर कूड़ा से ही भरे हुए हैं और हमने उनको सजा भी खूब रखा है।यहाँ बैठे हो मेरे सामने तब न उस सब को कूड़ा बोल रहे हो।अन्यथा क्या बोलते हो उसको? तुम उसको बोलते हो, वो तुम्हारी धन राशि है।उसको क्यों कहते हो कि वो तुम्हारी संपत्ति है? जान देकर भी उसकी रक्षा करते हो।तब कहाँ कहते हो कि कूड़ा है?

तो छोटी सी ईमानदारी कि जो कूड़ा है, उसको बोलो कूड़ा यहाँ बैठ के नहीं, कूड़े के सामने बैठकर के बोलो कि ये कूड़ा है।अब तो फैकना पड़ेगा, उठा के फैकना पड़ेगा, सत्य के हाथों विवश हो कर फैकना पड़ेगा।

श्रोता: इसीलिए नहीं बोलते|

वक्ता: बोलते नहीं।बोल दिया तो फैकना पड़ेगा।बोलो न, कूड़ा है तो है।कूड़े की परिभाषा क्या दी हमने?

श्रोता: अशांत होते हैं तो|

वक्ता: जो भी तुम्हें उतेजना में ले जाए, तुम्हारे भीतर विचार पैदा करे, तुम्हें आगे-पिछले का सोचने के लिए विवश कर दे, तुम्हारे भीतर स्मृतियों का बवंडर उठाए, भविष्य की आशा उठाए, संसार का डर उठाए – यही सब कूड़ा है|

श्रोता: ऐसे साथ में हम लोग भी कूड़ा बन जाते हैं।जैसे राजनीति चल रही है, कुछ लेना देना है, न वहाँ जाना है, न राजनीति करनी है, न कुछ और करना है लेकिन कोई स्टेटमेंट आएगा, तुरंत दो चार गालियाँ मुँह से निकलती ही हैं।तो क्या करें?

वक्ता: शास्त्र एक ख़ास कीड़े की बात करते हैं, जो बिल्कुल वैसा ही हो जाता है, जिसको देख रहा होता है।होता नहीं है, ऐसा कोई कीड़ा, मिथक है।कबीर ने भी उसका नाम लिया है कि कीड़ा ऐसा होता है, वो जिस चीज़ को देख रहा होता है, वो वैसा ही हो जाता है।कहते हैं मन वही कीड़ा है, वो जिसके संपर्क में रहता है, वैसे ही हो जाता है।तुम कचरे के संपर्क में रहोगे, तुम कचरा हो जाओगे क्योंकि मन है, ‘आई एम’ ‘मैं हूँ’ और मैं हूँ के लिए उसे किसी विषय की तलाश रहती है।अब मन यदि निरंतर कचरे के संपर्क में है, तो वो विषय क्या बन गया? कचरा।अब वो बोलेगा, ‘’मैं हूँ?’’

श्रोतागण: कचरा|

वक्ता: मन एक अपूर्णता है।मन है मैं हूँ और आगे खाली स्थान।खाली स्थान पूर्ति माँगता है, पूर्ति उस विषय से हो जाती है, जिससे मन सम्प्रक्त है।तो ध्यान से देखो कि तुम किस से सम्प्रक्त हो, ध्यान से देखो कि कहाँ समय बिता रहे हो क्योंकि मन के पास समय है।मन की पूंजी क्या है? मन की पूंजी है विचार, समय, स्थान, स्मृतियाँ – ये सब मन है।देखो कि मन समय कहाँ बिता रहा है? शारीरिक रूप से भी बिता सकता है या मानसिक रूप से।किसको सोचता रहता है? किसके सपने लेता रहता है? या किसके डर में जीता है? इस पर ध्यान दो|

श्रोता: ‘मैं हूँ’ का जो रिक्त स्थान है, उसकी पूर्ति करनी है या ‘मैं हूँ’ को विलीन करना है?

वक्ता: ‘मैं हूँ’ की पूर्ति के लिए मन संसार में भागता है।‘मैं हूँ’ की पूर्ति बाहर से नहीं होती है, भीतर से होती है।जब भीतर से पूर्ति होती है, तो हो जाता है “मैं हूँ ब्रह्म, सत्य” और जब बाहर से होती है तो क्या हो जाता है?

श्रोता: मैं ईर्ष्या, कामना|

श्रोता2: सर, बाहर से पूर्ति कैसे होती है, ये तो समझ में आता है लेकिन भीतर से कैसे होती है?

वक्ता: जो बाहर से नहीं होती है।जो बहिर्गामी मन है, वो तो बाहर ही जाएगा इसीलिए मैं किसी से कहता ही नहीं हूँ कि मन को अंतरगामी बनाओ क्योंकि अंदर कुछ पाएगा ही नहीं। उसकी सारी शिक्षा ही बाहर देखने की है, उसके पास वो आँखें ही नहीं है, जो भीतर देख पाएं।तो ये फ़िज़ूल की बात है कि भीतर जाओ, भीतर देखो, अन्दर की दुनिया; अंदर की दुनिया कौन सी दुनिया? अंदर की दुनिया भी बाहर की दुनिया है। तो मेरी तो पूरी शिक्षा यही है कि मन जो बाहर को देख रहा है, देखे बाहर को ही पर फिर गौर से देखे|

श्रोता: ये इतना जो जिम्मेदारी का ढोंग हमारी नसों में घुसा हुआ है, उसका क्या करें? मतलब वो गलत है, क्या? मतलब बार-बार बात आती है, तो कहते हैं कि हमारी क्या ज़िम्मेदारी है इस विषय में, तो वो जो कचरे के साथ कनेक्शन ज़िम्मेदारी के नाम पर होता है या मोह के नाम पर होता है, ये सब कैसे डिसकनेक्ट करें?

वक्ता: आप जब देखेंगी कि कनेक्ट कैसे हुए, तब डिसकनेक्शन की बात आएगी।अभी तो हमे ये ही नहीं पता कि हम क्यों किसी चीज़ को अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं।आप बस जुड़े हुए हैं कि ‘मैं हूँ ___?” “ज़िम्मेदार|” पर ज़िम्मेदार आप पैदा तो नहीं हुए थे।क्योंकि प्रक्रिया ने आपके भीतर ये बात बिठाई कि ज़िम्मेदार होना चाहिए।आप जानें कि वो क्या प्रक्रिया है क्योंकि वो प्रक्रिया मात्र आपके साथ नहीं घटित हुई, वो लगातार चारों ओर हो ही रही है।दूसरे का जीवन भी यदि पढ़ पाए, तो अपना ही जीवन पढ़ लिया।देखिए न कि कैसे होता है कि, “मैं ज़िम्मेदार हूँ कि सामने वाले का कुछ अशुभ न हो जाए” ये बात आपके भीतर आई कहाँ से? और जैसे ही दिखाई पड़ेगा बिल्कुल साफ़-साफ़ कि ऐसे आई, तत्काल वो भाव टूटता है।‘मैं हूँ’ अलग हो जाता है, और ज़िम्मेदार अलग हो जाता है, बिल्कुल अलग|

वास्तव में ‘मैं हूँ ब्रह्म’ जैसी कोई चीज़ होती नहीं है।हम कहते हैं मैं हूँ ­­­­­_____, और उस खाली स्थान को भरे जाते हैं।ये कहना कि “मैं हूँ ब्रह्म” वो भी खाली स्थान भरने वाली बात हुई।अभी हमारी स्थिति है, ”मैं हूँ खाली स्थान, ब्लैंक”। वो योगी होता है, वो जो जान गया, उसका वो खाली स्थान हट जाता है, वो मात्र इतना कहता है “मैं हूँ|” हम, ‘मैं हूँ’ के साथ पिछला जोड़ के चलते हैं, “मैं हूँ एक अपूर्णता और अपूर्णता को भरा जाना है|” वो बस इतना कहता है कि, “मैं हूँ” और अपूर्णता को उसने मिटा दिया।वो जो ब्लैंक था, जिसकी पूर्ति होनी थी, वो उसने मिटा ही दिया। वो कह रहा है, “मैं हूँ|”

और जब आप मात्र इतना कहते हो कि, “मैं हूँ,” वही है ‘अहम ब्रह्मास्मि,’ वही है, ‘अहमेव केवलम्’, ‘मैं ही हूँ, मैं हूँ|’ वो खाली स्थान मिट गया, अब कोई इच्छा नहीं है कि बाहर का कुछ लाकर के उसके साथ जोड़ा जाए, मैं हूँ अकेला, कैवल्य|

श्रोता: सर, जब बाहर से पूर्ति नहीं होती है तो आपने कहा भीतर से हो जाती है।लेकिन बीच में एक लोनलीनेस, डिप्रेसन, एक वैक्यूम आ जाता है, उनसे होकर गुजरना पड़ता है|

वक्ता: अभी मैंने कहा न भीतर से नहीं हो जाती। जिसको आम तौर पर इस रूप में कहा जाता है कि भीतर से हो गयी, वो बस इतनी है कि बाहर से पूरी होने की जो आशा थी, वो मिट गई।

जब बाहर से पूरी होने की आशा मिट जाती है, उसी को कहा जाता हैं कि भीतर से आपूर्ति हो गयी|

तो वो जो खाली स्थान था, जिसे तुम लेकर घूम रहे थे भिखारी की तरह कि “कोई उसे भर दो, कटोरा खाली, कटोरा खाली,” तुमने वो कटोरा फ़ेंक दिया। भिखारी तुम कब तक? जब तक हाथ में कटोरा लेकर घूम रहे थे।ऐसा नहीं कि कटोरा भर गया क्योंकि संसार उस कटोरे को कभी भर नहीं सकता।तुम्हारा जो कटोरा है, वो बेपैंदी का कटोरा है, वो कभी भरेगा नहीं|

भिखारी राजा ऐसे नहीं बनता कि उसको बहुत प्राप्ति हो गयी, आज कटोरा ऊपर तक भर गया। भिखारी का कटोरा खूब भी भर गया, तो वो रहा क्या? भिखारी ही रहा।भिखारी उस दिन भिखारी नहीं रहता, जिस दिन?

श्रोता: कटोरा हाथ से छुटेगा|

श्रोता२: कैसे छूटेगा?

वक्ता: जब दिखता है कि उसके भरने से भी कुछ नहीं होता। खाली हाथ में ऐसे लेकर घूम रहे हो, बेकार की बात है, उलझे हुए हो।जब उसकी मूर्खता दिख जाती है तो छूट जाता है|

श्रोता: उसके लिए अनुभव ज़रूरी है|

वक्ता: हो रहे हैं, लगातार हो रहे हैं।नये नहीं चाहिए, और ज़्यादा नहीं चाहिए|

श्रोता: वो अनुभव नहीं हो रहे, जो चाहिए, जिसकी उम्मीद है|

वक्ता: वो कभी नहीं होगा।इन्हीं अनुभवों में सत्य है, नए अनुभव नहीं मिलेंगे।ये मत सोचना कि सत्य का कोई विशेष अनुभव होगा।इन्हीं साधारण अनुभवों में सत्य है, जो लगातार हो ही रहे हैं|

श्रोता: ऐसा लगता है कि अभी कम भरा है, जब इतना भर जाएगा तब शायद दिख जाएगा कि अब नहीं होगा|

वक्ता: तुम्हारे कटोरे अनंत बार भरे हैं, और खाली भी हुए हैं लेकिन उनसे तुम्हें कुछ मिला नहीं है। हज़ार तरीके के कटोरे हैं तुम्हारे पास और ऐसा नहीं है कि कभी तुम्हारा कोई कटोरा भरा नहीं गया।तुम्हारी इच्छाएं पूरी भी हुई हैं।अधूरी इच्छाएं तो ठीक है, क्या कभी हमारी कोई इच्छा नहीं पूरी हुई? पूरी इच्छा क्या वास्तव में पूरी होती है, या वो और बड़ी होकर वापिस आती है?

श्रोता: उसके पूरा होने के बाद एक और इच्छा आती है|

वक्ता: और उससे बड़ा होता है क्योंकि पिछला तो छोटा है। तुम कहते हो, “अब इतना दोबारा माँगे। जब इतना मिल गया तो और माँगेंगे” तो और बड़ा कटोरा। तो अनुभव तुम्हें हैं, पहले ही हैं, ज़रा उन्हें याद करो, ज़रा उन पर ध्यान दो।बुध्द-बुध्द कहते हैं “वही, जिसको अपने सारे पूर्वजन्म याद आ गए|” इसका अर्थ समझते हो? उसको वो सब याद आ गया, जो उसने गलत करा था।पूर्वजन्म का अर्थ यही है: समय की धारा, अनुभवों की पूरी श्रंखला। उसको सब याद आ गया, हम भुलाए बैठे हैं।हम वही भूल जाते हैं, जो आज सुबह किया।हम एक ही गड्ढे में बार-बार गिरते हैं, बुध्द को वो सारे गड्ढे याद आ गए, जिसमें गिरा जा सकता है।अब वो हर गड्ढे से मुक्त हो गए|

श्रोता: सर, ये जो अपूर्णता है ये कई बार इसको देख पाना या समझ पाना कि अपूर्ण है, इसमें भी कहीं न कहीं बहुत जगह डर बैठा रहता है क्योंकि इतना गहरा डर होता है कि अगर उस डर को पार करो, तब तो सब कूल है, लेकिन डर को एक्सेप्ट कर लेना और उसके ऊपर कुछ कर पाना इतना कठिन होता है कि क्या करें?

वक्ता: जितना कर सकते हो, उतना करो। इतनी बड़ी बात करोगे, तो कुछ भी नहीं करोगे।

जो जितने ज़्यादा बड़े दुश्मन की कल्पना करेगा, उसे उतना बड़ा कारण मिल जाएगा ,न लड़ने का|

श्रोता: हम तादात्म्य भी तो बिठा लेते हैं, डर के साथ|

वक्ता: तुम अपनेआप को छोटा मानते हो, तभी डर रहे हो न? छोटा मानते हो, तो छोटी चीज़ से शुरू करो। तुम बड़ी बात करनी शुरू ही नहीं करते न, तुम बात करते हो कि, “देखिए साहब, अगर विदेह मुक्ति मिल गयी, तो हमारा क्या होगा? क्योंकि दूध वाले के पैसे अभी दिए नहीं|” अब विदेह, अब तुम्हारी चुनौती क्या है? कि, “यदि विदेह मुक्ति मिल गई?” भाई तुम क्यों इतनी बड़ी बात कर रहे हो, तुम सीधे मन की छोटी सी बात करो न, कि मच्छर काट रहा है, तो मच्छर की बात करो।

श्रोता: सर, कुछ समय पहले शायद गौतम, आपसे इस बारे में पूछ रहे थे कि, “मैं खाली बैठा रहता हूँ, क्या करूँ?” तो सर मेरे साथ ऐसा होता है कि जैसे कुछ नहीं अगर करने का मन कर रहा है या मन कर रहा है कि बस ऐसे ही बैठे रहो, तो वो एक बहकाव बन जाता है।ये सोच के कि अगर, ‘’मैं ऐसा नहीं करती हूँ, कला छोड़ देती हूँ या मैं उनकी सुन लेती हूँ तो शायद मैं फिर आगे कुछ..’’

वक्ता: संगती गड़बड़ है आपकी। जिन लोगों के साथ उठती-बैठती हैं, जिन के साथ आपने दोस्ती यारी या रिश्तेदारी कर रखी है वहाँ देखिए, कुछ आपको मिलेगा।आप जिन लोगों के साथ घूम फिर रही हैं, जिन के साथ आपकी बातचीत है, जो आपके मन में तमाम तरीके के प्रभाव और विचार डालते हैं, वो लोग गड़बड़ हैं।वो आपके पास आई शांति भी आपसे छिंग लेंगे|

श्रोता: उनमें से कुछ लोग ऐसे भी तो हो सकते हैं, जिनसे हम निजाद नहीं पा सकते, फिर क्या करें?

वक्ता: उससे निजाद पा लो जो ये बात बोल रहा है, जो कहता हो। होता है, पूरी सेना सामने बैठी हो, कोई खड़ा हो जाए उसमें से सैनिक और बोले कि जीत नहीं सकते, तो सबसे पहले उसे गोली मारी जाती है।क्यों गोली मारी जा रही है?

श्रोता: क्योंकि वो सबको हारना सिखाएगा|

वक्ता: वो सब को हारना सिखाएगा।अब वो कह ये रहा है कि “हम जीत इसलिए नहीं सकते, क्योंकि हम सिर्फ दस हैं|” गोली मारने से कितने हो गये?

श्रोतागण: नौ|

वक्ता: नौ हो गये, और कम हो गये।लेकिन फिर भी आवश्यक है कि उसे तो गोली मार ही दी जाए।नौ बेहतर हैं दस ऐसों से जो पहले ही माने बैठे हैं कि “हम कुछ लोगों से तो निजाद पा ही नहीं सकते|” क्यों नहीं पा सकते भाई? इससे निजाद पाओ न, ये जो, ये बात कह रहा है, ये दसवां सैनिक है, जो इस बात को बार-बार बोल रहा है कि, “नहीं, इसको तो छोड़ ही नहीं सकते” तुम उसी को छोड़ दो।जो ये तुमसे कहने आ रहा है कि इसको नहीं छोड़ सकते, तुम उसी को छोड़ दो|

श्रोता: अगर ये कहने वाला इंसान खुद की प्रवृति हो तो?

वक्ता: छोड़ दो।आप देख रही हैं बार-बार आपकी वृति क्या है? आपकी वृति है बड़ी बात करना।“अगर अपनी मूल वृति ही हो, अपनी प्रवृति ही हो” आप अंततः अपने आपको ये सिद्ध करना चाहती हैं कि समस्या इतनी बड़ी है कि, ‘’मैं कुछ कर नहीं सकती,’’ इसीलिए जो चल रहा है, वो चलने दो।समस्या इतनी बड़ी है कि, ‘’मैं कुछ कर नहीं सकती, इसीलिए जो चल रहा है, वो चलने दो|”

अरे! भाई जितना कर सकते हो, उतना तो करो।जब तुम उतना करते हो, जितना तुम कर सकते हो तो बाकि का ऊपर वाला करता है।पर तुम अपनी ओर से तो एक कदम भी नहीं उठाना चाहते|

श्रोता: सर, अगर मुझे ऐसे लोग न मिलें, जो मतलब जितने मिल रहे हैं, सब वो ऐसे हैं जो मुझे शांति से हटाने वाले हैं, तो क्या अकेला रहने लगूं?

वक्ता: ये तुमने सवाल पूछा है या दुःख गाया है? “कि अकेले नहीं रहना चाहता, अकेले रहने से बेहतर है कि ऐसों के साथ ही रह लूँ|” सवाल पूछा हो, तो एक जवाब दूँ, दुःख गाया हो, तो कोई जवाब न दूँ।तुम्हारे कमरे में मच्छर भनभना रहे हैं, तुम्हें मच्छर का उदाहरण इसलिए दे रहा हूँ क्योंकी उससे तुम्हारा कुछ.., तुम्हारे कमरे में मच्छर भिनभिना रहे हैं खूब और उनकी बड़ी संगत है तुमसे, अब मच्छर तुमने सारे भगा दिए तो क्या ये बोलते हो कि, “अरे अकेला रह गया तनहाई काट रही है|” अरे! मच्छर कांटे उससे बेहतर है कि तनहाई काटे।पर ऐसे तो तुम्हारे सवाल होते हैं कि, “सारे मच्छर अगर निकल गए, तो तनहा रह जाएंगे|” तो लिए रहो मच्छर|

श्रोता: सर, माइंड एक इन्हेरेंट एबिलिटी रखता है, जितने गड्ढे में गिरता है, वो उसका कारण निकालता है कि ये कारण था गड्ढे में गिरने का, अगली बार इसका ध्यान रखूँगा|

वक्ता: तो रखता है न ध्यान इस बार नया कारण होता है।गड्ढा वही, कारण दूसरा, पिछली बार गांजा था, इस बार अफ़ीम है।नशे कोई एक तरह के होते हैं? गड्ढा वही है|

श्रोता: हर बार यही होता है, जब-जब मैं मज़े में रहता हूँ, कोई न कोई होता है और वो ख़त्म।बहुत दिनों से हो रहा है|

वक्ता: ये दुःख है तुम्हारा।देखिए आप सब ऐसे बैठते हैं, मेरे लिए बहुत आसान होता है कि मैं बोल देता कि मुझे अच्छा लग रहा है, पर सही बताऊँ तो मेरे लिए बड़ी मार्मिक घटना है।आप बैठे हो, आप कोई सवाल भी नहीं कर रहे हो, मुझे मालूम है कि आपको तलाश है, और अगर मेरे बस में होता तो मैं आपको अभी दे देता, पर बस में है नहीं मेरे। तो आपसे इतना ही कह सकता हूँ कि आप थोड़ी हिम्मत रखो। काम होते हैं, अपनेआप हो जाते हैं, वैसे नहीं होंगे जो आपको चाहिए, वो नहीं होंगे जो आप सोच रहे हो, पर वो शुभ है, वो होने को तत्पर है।आप थोड़ा सा भरोसा रखो, और शर्तें मत रखो।ये मत कहो कि, “शुभ इस-इस प्रकार से होना चाहिए, ऐसा रूप रंग हो उसका|” हो सकता है आपको ज़रा देर बाद समझ में आए कि शुभ था|

अब बिल्कुल कोई, कोई विडंबना नहीं है, कोई घबराने की बात नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है कि बड़ी आफ़त है।आफ़तों का यहाँ कोई स्थान ही नहीं है, कुछ आफ़त जैसा नहीं है। मुँह लटकाने की और उदास होने की कोई ज़रूरत है ही नहीं|

श्रोता: सर, कुछ करने की जो प्रवृत्ति है, वो बहुत है|

वक्ता: तो कर लो, जब प्रवृत्ति बहुत लगे तो कर दो, “लो कर दिया|”

श्रोता: सर, करते हैं आपने कहा चलो ठीक है हो गया फिर अगली चीज़ को पकड़ लेते हैं।मतलब सच में बोल रहा हूँ, ‘’मुझे ख़ुशी, शान्ति का कुछ नहीं है,’’’ ठीक है मतलब इतना भी नहीं है, नॉर्मल है|

वक्ता: ऋषिकेश में बंदर बहुत हैं।तो सड़क में निकलते थे, तो हाथ में कुछ भी हो तो क्या करते थे?

श्रोता: छीन लेते थे|

वक्ता: नहीं छीन नहीं लेते थे, आते थे पीछे, लग गये, ये कर रहा है, वो कर रहा है। वहाँ गए थे थिरुवानामालाई, वहाँ पर बन्दर आकर सीधे जेब में हाथ डालते हैं।बड़ी चट्टान पर बैठे हैं (हाथों को अपनी जेब के ऊपर रखते हुए) वहाँ जेब को ऐसे हाथ से दबा रखा है।वो सीधे बगल में बैठ गया, और कोशिश कर रहा हैं जेब में हाथ डालने की।तो बन्दर आपका पीछा कर रहा है, तो हम लोगों के हाथ में जो भी होता था बिस्कुट है, जो भी है उसको डाला एक; एक डालते ही क्या होता था?

श्रोता: दूसरे और आ गये|

वक्ता: आ गए, आ गए। अंततः मुक्ति कब मिलती थी?

श्रोता: जब सारा डाल दिया।

श्रोता: सर, बिस्कुट खत्म करने पर|

वक्ता: बिस्कुट ख़त्म कर दो न, दे दो।“जा दिया” क्योंकि नहीं भगा पाओगे, तुम्हारे डंडे कम पड़ेंगे, तुम्हारी पूरी ताकत कम पड़ेगी।तुम उसे दे ही दो, जो उसे चाहिए।“जा लेजा, और मुझे छोड़”

श्रोता: सर, कुछ काम करते वक्त ये निर्णय कैसे करें कि जो कर रहे हैं, वो इम्पोर्टेन्ट है भी या नहीं है? इसका कुछ उद्देश्य है भी या नहीं|

वक्ता: कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता। महत्वपूर्णबस ये होता है कि जो कर रहे हो, वो तुम्हारा चैन न छीन ले। कोई भी काम महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण नहीं होता। हमने कहा था न कि कुछ भी और गलत मानो ही मत, चाहे पूरी दुनिया में आग लग जाए, उसको गलत मत मानना। गलत बस एक बात; क्या?

श्रोता: अशांति|

वक्ता: तुम्हारी अशांति। इसी तरीके से गलत बस एक काम, कौनसा?

श्रोता: जो तुम्हें अशांत करे|

वक्ता: जो तुम्हें अशांत करे, सो गलत बाकि कोई काम न छोटा है न बड़ा है, न सही है न गलत है, जैसा है, है, किए जाओ। तात्विक दृष्टि से तो हर काम गैर ज़रूरी है। किसी काम की कोई हैसियत नहीं, तुम्हारा ज़रूरी से ज़रूरी काम कोई मायने नहीं रखता, तो क्या करोगे नहीं? तात्विक दृष्टि से तो हम जो ये बातचीत कर रहे हैं, बड़ी व्यर्थ है।क्या है? कुछ नहीं।आ रही है बात समझ में? तो काम को छोटा-बड़ा मत ठहराना, सब काम एक बराबर होते हैं।बस ये देख लेना कि वो काम कहीं तुम्हें नकली तो नहीं बनाए दे रहा? वो काम करने के लिए कर्ता किसको बनना पड़ रहा है? कहीं कोई नकली कर्ता तो उदय नहीं हो रहा तुम्हारे भीतर?

श्रोता: सर, लाइफ को कैसे जिया जाए?

वक्ता: ऐसे ही। ऐसे ही जैसे अभी हो, ऐसे ही।जब सब ठीक हो, तो सवाल करके उसको भ्रष्ट नहीं करते।सुन्दर मौन में खड़े हो, सुन्दर मौन में खड़े हो तो बोलने नहीं लग जाते कि, “आहा! कितना सुन्दर मौन है|” क्या कर दिया तुमने?

श्रोता: मौन को तोड़ दिया|

वक्ता: सब ठीक है, और तुम पूछते हो ठीक करें कैसे? ये पूछा कि ठीक करें कैसे, तो जो ठीक था, उसे क्या बना दिया?

श्रोता: गलत|

वक्ता: सब ठीक है। ज़िन्दगी कैसे जीएं? जैसे अभी सवाल पूछा। जैसे अभी बैठे हो। यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, कोई भी तुम्हारे चेहरे को देख के कह सकते हैं कि नकली नहीं हो अभी।ज़िन्दगी ऐसे ही जियो, जैसे तत्परता से बैठे हो, सुन रहे हो, देख रहे हो, कोई कपट नहीं है मन में, ऐसे जियो|

श्रोता: सर, वो तो सब चल ही रहा है, जब मैं यहाँ पर आता हूँ, जैसे मैं यहाँ हूँ तो इस वातावरण में, तो मैं यहाँ ऐसे ही..

वक्ता: तो मैं ये आज पाँचवी, छठी, सातवीं बार पूछ रहा हूँ चले क्यों जाते हो? छोड़ क्यों देते हो?

श्रोता: सर, इसको मैनटेन कैसे करें?

वक्ता: तुम बताओ न, मैं थोड़ी छोड़ता हूँ|

श्रोता: सर, जैसे यहाँ से जाते हैं तो बाकी लोगों का…

वक्ता: न, बात भौतिक रूप से छोड़ने की नहीं है क्योंकि भौतिक रूप से तो यहाँ होकर भी तुम हो सकता है, यहाँ न हो।बात भौतिक उपस्थिति की है ही नहीं।मैं किस छोड़ने की बात कर रहा हूँ?

श्रोता: शान्ति|

वक्ता: मानसिक रूप से अनुपस्थित क्यों हो जाते हो? याद क्यों नहीं रखते? ये कोई जगह थोड़ी है, यहाँ दो व्यक्ति बैठ के थोड़ी बात कर रहे हैं आपस में। यहाँ अभी जो घट रहा है वो कुछ है, उसको भूल क्यों जाते हो? उसको लगातार याद रखो न और नहीं याद रख पा र,हे तो अपने लिए कोई छोटा मोटा तरीका इख्तियार कर लो।हज़ार तरीके हो सकते हैं, तुम जानो।कोई पर्चा बना लो, कोई किताब उठा लो, कुछ कर लो।फिर कह रहा हूँ, जब मिला न हो तो स्वीकार करो कि मिला नहीं है, झूठ मत बोलना।और जब मिल जाए, तो दोनों हाथों सहेज लो, तब छोड़ मत देना।जब मिला न हो, तो चिल्ला-चिल्ला के माँगना और जब मिल जाए, तो छोड़ मत देना, बस यही है|

जब न मिला हो, तो खूब पाओं पटको, कूदो, चिल्लाओ, शिकायत करो, अचानक किसी रूप में मिल जाता है।अगर मिल जाए, तो मूर्खतावश छोड़ मत देना।ज़्यादा बड़ी त्रासदी तब होती है, जब मिला हुआ छोड़ते हो|

श्रोता: सर, जैसे आपने अभी कहा कि पूरा दे दो, पर मैं, मैं को नहीं हरा सकता|

वक्ता: तुम उतना दे दो, जो उन्हें चाहिए। कोई भी तुम्हारे पीछे तभी तक आता है, जब तक तुम उपयोगी हो। तुम देखो कि तुम्हारे रिश्ते में उपयोगिता कितनी है? तुम अनुपयोगी बन जाओ न। बन्दर को अब कुछ उपयोग ही नहीं तुमसे, तुम व्यर्थ हुए उसके लिए, अब वो नहीं आएगा तुम्हारे पीछे।इसी तरीके से संसार में जो कुछ तुम्हें परेशान करता है, वो इसलिए करता है क्योंकि तुम उसके काम के हो, तुम उसके काम के रहो ही मत।तुम बेकाम हो जाओ, वो खुद ही तुम्हें भगा देगा।

आज तुम बोलते हो, “ये है, वो है, बीवी बहुत परेशान करती है” तुम कमाना बंद कर दो। बीवी बोलेगी, “ये परेशान बहुत करता है, भागता नहीं है|” तुम्हें परेशान करती ही इसलिए है क्योंकि उससे तुम्हें कुछ हासिल हो रहा है, उसे तुमसे कुछ हासिल हो रहा है, जिस दिन उसे तुमसे वो हासिल होना बंद हो गया, जो तुम उसे दिए जा रहे हो, भगा देगी तुमको|

श्रोता: जो भिखारी लोग होते हैं, वो बाइक वालों को परेशान नहीं करते अधिकतर|

वक्ता: और अजगर गीता पढ़ो|

श्रोता: सर, ये काम इतना बढ़ कैसे गया? इतनी टेक्नोलॉजी के बाद भी हम दस घंटे काम करना नार्मल हो गया|

वक्ता: 1920-30 में जब ये सब मशीनीकरण एक दम गति पकड़ रहा था, तब ये कहा जाता था कि इस सब का नतीजा ये निकलेगा कि आदमी के पास विश्राम के लिए बड़ा समय निकलेगा, लेज़र टाइम बढ़ जाएगा।तो ये कहा गया था तब कि बस जो अलगी पीढ़ी आ रही है, उसको दिन में दो ही तीन घंटे काम करना होगा क्योंकि इतनी टेक्नोलॉजी आ गयी है मशीन में, तुम्हारी पूरी प्रोडक्टिविटी इतनी बढ़ा दी है कि जो उत्पादन तुम 16 घंटे खट-खट के करते थे, उतना तुम तीन घंटे में कर लोगे, ऐसी उत्पादकता।वो हुआ नहीं, उल्टा हुआ।जितनी मशीनें आईं, काम उतना बढ़ा।इससे तुम्हें क्या पता चलता है? मन के चले पर चल के, मन के चले को अनचला नहीं कर सकते।लेज़र टाइम बढ़ा नहीं है, बिल्कुल नहीं बढ़ा।

श्रोता: जितना मिलता जा रहा है, उतना असंतोष भी बढ़ता जा रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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