जो बचपन से देखा सुना, उससे अचानक कैसे हटें? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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जो बचपन से देखा सुना, उससे अचानक कैसे हटें? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्नकर्ता: सर, जो हम बचपन से करते आ रहे हैं, उससे कैसे हटें?

आचार्य प्रशांत: इस कमरे में तुम्हारे बचपन से अँधेरा है। यहाँ पर एक बल्ब जला दूँ, तो रौशनी होने में क्या दो-चार साल लगेंगे? कितना समय लगेगा?

अगर तुम अपने आप को वहाँ पर ले आओ, जहाँ पर इंसान कहता है कि, "एक ही ज़िन्दगी है मेरे पास, और मैं जवान हूँ। मेरे पास बहुत कुछ है अभी देखने के लिए, जानने के लिए, पूरा जीवन ही शेष है, मुझे इसे जीना है। पूरे तरीके से जीना है, सच्चाई के साथ, उत्कृष्टता के साथ जीना है।" तो तुमको एक क्षण नहीं लगेगा।

फिर ये सब बहाने नहीं चलेंगे, कि हमें थोड़ा वक़्त दीजिए न।

प्र१: सर, बल्ब जलाने में तो टाइम (समय) नहीं लगेगा, पर एक्सेप्ट (स्वीकृत) करने में तो लगेगा?

आचार्य: एक्सेप्ट करने को कौन कह रहा है, बेटा? क्यों एक्सेप्ट करना चाहते हो? मैं तुमसे समझने को कह रहा हूँ, और तुम एक्सेप्ट करने में लगे हुए हो।

प्र१: सर, अगर हम अँधेरे में जा रहे हैं और सामने एक गाड़ी आ गई, तो हम कहेंगे, "अरे लाइट बंद करो, बहुत तेज़ है।"

आचार्य: मैं उतनी तेज़ नहीं जला रहा। सर्च लाईट नहीं मार रहा तुम्हारी आँखों में।

अपने प्रति ईमानदार रहो। ये वक़्त लगना और बाकी सबकुछ, मन के बड़े प्यारे बहाने हैं कि बात तो ठीक लग रही है, पर धीरे-धीरे करेंगे। ये सब धीरे-धीरे की चीज़ें नहीं होती हैं। जो समझ में आया है, वो अभी आ जाता है।

ध्यान में रहना है, स्वयं देखना है, ये आदमी लगातार खुद करता है।

प्र२: सर, आपने कहा कि लाइट जला दो तो कमरे में रौशनी हो जाएगी। लेकिन अगर पौधा सूखा हुआ हो, तो चाहे कितना भी पानी डालो, क्या फ़र्क़ पड़ेगा?

आचार्य: तुम ज़िंदा हो जब तक, तब तक तुम्हारा पौधा सूख नहीं सकता। जिस दिन तक ज़िंदा हो। तुम ज़िंदा हो, साँस ले रहे हो, ये इस बात का सबूत है कि पौधा अभी सूखा नहीं है – चेतना है, इंटेलिजेंस है। तुम्हारे रहते वो जाएगी नहीं।

अगर मुझे ये दिख ही जाएगा कि पौधे सूखे हैं, तो मैं अपना समय बर्बाद करने यहाँ आऊँगा नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम सूखे पौधे नहीं हो। बहुत कुछ है जो शेष है। जो असली चीज़ है वो तुमसे कभी छिन सकती नहीं, बस उस पर धूल पड़ गई है, गंदगी जमा हो गई है। तुम सब पूरे तरीके से ठीक हो, तुममें कोई कमी नहीं है। बिलकुल साफ़।

एक बात बताओ कि सोने पर अगर मिट्टी भी चढ़ जाए, तो क़ीमत कम हो जाएगी क्या? शीशा है, उस पर बहुत सारी धूल जम जाए, तो शीशा व्यर्थ हो गया? हटाई जा सकती है धूल। कुछ करा जा सकता है| धूल बाहर से आई थी और बाहर की ही कृतियों से हट भी सकती है।

प्र३: सर, कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि समस्या बन जाती हैं, तो ऐसे समय में क्या किया जा सकता है? समस्याओं को हल करें या परिस्थितियों को हल करें?

आचार्य: “परि” माने बाहर, “स्थिति” माने *सिचुएशन*। जो बाहर है, तुम उसको बदल कैसे लोगे, बेटा? अब मैं आया हूँ, बदल कर दिखाओ मुझे।

(अट्टाहस)

नहीं कर पाओगे न? जो भी तुमसे बाहर है, वही परिस्थिति कहलाता है। और मज़े की बात ये है, कि जो शब्द है ‘परिस्थिति’, ये शब्द ही बड़ा गड़बड़ है। क्यों? क्योंकि हर स्थिति बाहरी स्थिति ही है। हर स्थिति परिस्थिति ही है। चाहे वो मनोस्थिति हो या कोई और स्थिति हो। हर स्थिति बाहरी ही है। प्रत्येक स्थिति परिस्थिति ही है। और अपने आप को उससे प्रभावित ना होने देना, इसी का नाम है मुक्त होना, इंडिपेंडेंट होना।

परिस्थितियाँ तो अपना काम करती रहेंगी, उनको तुम नहीं रोक सकते। तुम्हारे पेट में खाना पच रहा है, वो परिस्थिति है, पचने दो। थोड़ी देर में पेट सिग्नल देगा, भूख, भूख, भूख। उन्हें सिग्नल देने दो। निर्धारित तुम करो अपनी चेतना से, पेट तुम्हारा मालिक ना बन जाए।

हर स्थिति परिस्थिति है। अंतःस्थिति कुछ नहीं होती, मनोस्थिति कुछ नहीं होती, ये सब परिस्थितियाँ ही हैं; पर तब, जब तुम मन को अपने से अलग जानो। जब मन को अपने से अलग जानते हो, तब मनोस्थिति भी परिस्थिति बन जाती है। तब अंतःस्थिति जिसको तुम बोलते हो, वो भी परिस्थिति हो जाती है।

अभी तो बस कोई लहर आती है, और तुम्हें बहा कर ले जाती है। अभी बाहर से कोई अंदर आ जाए, तो बिलकुल तुम्हारा ध्यान ख़त्म हो जाना है। बिलकुल भूल जाओगे, क्या था, क्या नहीं था; जिस स्थिति में हो उसे बिलकुल खो दोगे।

ऐसे मत बनो कि बस हवाए आएँ और तुम बस बह रहे हो इधर से उधर। जैसे गर्मी के दिनों में होता है न, हवा चल रही होती है और एक छोटा सा कागज़ का, किसी बड़े मैदान में एक टुकड़ा छोड़ दो, तो देखा है उसके साथ कैसा होता है?

ये हवा बही तो, उधर को बह लिए। कौन सी हवा है? ये इंजीनियरिंग की हवा है, तो साथ चल दिए। फिर उधर को हवा चली, कौन सी हवा है? ये आई.टी इंडस्ट्री की हवा, अब बीस-बाईस साल हो गए, तो उधर को चल दिए। अब उधर क्या है? उधर गर्ल्स हॉस्टल है, तो अब शादी की हवा है।

(अट्टाहस)

और बहे जा रहे हैं, सब बाहरी परिस्थितियाँ आ रही हैं, और बहाए जा रही हैं। अपना कुछ नहीं है। एक उम्र हुई, बता दिया गया कि पढ़ाई करो, एक उम्र हुई, बता दिया गया नौकरी कर लो, एक उम्र हुई तो बता दिया गया, शादी कर लो, एक उम्र हुई तो बता दिया गया कि बच्चे कर लो। एक उम्र हुई तो बता दिया गया कि कुछ प्रॉपर्टी बना लो, घर वर होना चाहिए। उसके बाद एक उम्र हुई तो अब मर जाओ।

(अट्टाहस)

तो अब मर भी गए।

ऐसे मत बनो। हवाएँ तो बहती ही रहेंगी, तुम मत बदलो उनके साथ। अभी तुम बाहर निकलोगे, तो दिखेगा कैसे बहते हो हवाओं के साथ। ये फ़ालतू मेरी रिकॉर्डिंग हो रही है, रिकॉर्डिंग तो होनी चाहिए तुम्हारी, कि कैसे बदलते हो बाहर निकल कर।

(छात्र हँसते हैं)

और फिर वही तुमको प्ले कर के दिखाना चाहिए, कि देखो, कैसे बहते हो। अभी ऐसे जो मुझे आँख फाड़ कर देख रहे हो, बाहर निकलते ही फिर कैसे हो जाओगे? जैसे कि नाव हो कोई समुन्द्र में, खुले हुए हैं उसके पाल, और चलाने वाला उसको कोई नहीं, नाविक कोई नहीं। तो कभी इधर को बह जाती है, कभी उधर को।

है, अंदर बैठा हुआ है, पर अपने साथ शराब का बड़ा सा क्रेट ले करके। सोया हुआ है और बोतल पिए जा रहा है। एक पर लिखा है 'धन', एक पर लिखा हुआ है 'समाज', एक बोतल पर लिखा है 'माता-पिता', एक पर लिखा हुआ है 'करियर', एक पर लिखा हुआ है 'एजुकेशन ', और दनादन चढ़ाए जा रहा है और सोया पड़ा है। अब हवाएँ आ रही हैं, और उसको इधर उधर ले कर के जा रही हैं।

जब तुम उठे हुए ही नहीं हो, तो तुम्हारी नाव को तो जो परिस्थिति आएगी उधर को ही ले करके जाएगी। तुम मालिक बनो, इसके लिए तुम्हें उठना तो पड़ेगा न, सजग तो होना ही पड़ेगा न।

“स जग”, जगना। उसी जगने का नाम होश है, उसी जगने से मदद होती है, उसी होश का नाम धर्म है, उसी होश का नाम है अपना मालिक होना। ये सारी चीज़ें एक दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं। दिख रहा है? बस उसी होश का ही सारा खेल है। जगो। क्या-क्या नशे करते हो, ध्यान से देखो। सब नशे में हो। बहुत तरह के नशे होते हैं।

प्र४: जैसे?

(सब हँसते हैं)

आचार्य: जैसे पूछ रहे हो, ऐसे।

(अट्टाहस)

कोई सूखा पौधा नहीं है, बस नशे में ऐसा लग रहा है। बहुत जान है पौधे में, इतनी जल्दी नहीं जाएगा। कितनी कंडीशनिंग कर लो, कुछ भी कर लो, उसका जो ‘सत्व’ है, वो उसमें शेष रहेगा-ही-रहेगा। तुम छीन नहीं पाओगे। कुछ भी कर लो।

प्र२: सर, जग कर भी क्या कर सकते हैं?

आचार्य: जो जग जाता है, वो किसी और से पूछता है कि क्या कर सकते हैं?

(छात्र हँसते हैं)

ये देखो, ये हँसने का नशा है; ये सब नशे ही हैं| किसी को रोने का नशा होता है। देखा होगा ऐसे लोगों को, स्त्रियाँ बहुत करती हैं ये। उन्हें रोने का नशा होता है कि, "हम बहुत बड़े शोषित हैं।" और ये बहुत बड़ा अहंकार होता हैं – ‘आई ऍम अ विक्टिम ’ (मैं शोषित हूँ)। अगले जन्म मोहे बिटिया ना कीजो।

(हँसते हैं)

और ये जो हँसने का नशा होता है, “आई ऍम अ फुल स्पिरिटेड मैन (मैं एक उत्साह से भरा आदमी हूँ)”। ये सब सच को ढकने वाले वक्तव्य हैं, जिनके पीछे आदमी सच को छुपा देता है।

जग गए हो, ये कहना बड़ी भ्रान्ति है। कोई जग जाता नहीं है। जगने की प्रक्रिया, सतत चेतना की है; कंटीन्यूअस अवेकनिंग । ‘जग गए हो’, जैसे स्टेटमेंट (वक्तव्य) का कोई अर्थ नहीं होता। लगातार जगते रहना होता है। क्योंकि सुलाने वाली ताक़तें बहुत हैं और लगातार काम कर रही हैं। तो जगना भी लगातार होता है। लगातार। ‘जग गए हो’ जैसा कुछ नहीं है। फिर सो जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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