जो सही हो वो करो, चाहे पसंद हो या नापसंद

Acharya Prashant

56 min
714 reads
जो सही हो वो करो, चाहे पसंद हो या नापसंद
यमराज तो यमराज ठहरे। हमारे स्वार्थों और हमारी भावनाओं से क्या लेना देना? तो वह पहली बात यह स्पष्ट कर देते हैं कि श्रेय और प्रेय आपस में अलग-अलग हैं। या तो यह पकड़ लो या यह पकड़ लो। यह दो नावों पर तुम एक साथ सवारी नहीं कर पाओगे। अपनी चालाकियां अपनी जेब में रखो। दुनिया भी ना छूटे और दिलदार भी मिल जाए, ऐसा नहीं होगा। जो दिलदार दुनिया छोड़े बिना मिल जाए वो दुनिया की ही धूल होता है। वहां फिर दिल जैसा कुछ होता भी नहीं। यह किसी की फिजूल जिद नहीं है कि दो में से एक ही मिल सकता है। यह अस्तित्व का एक साधारण नियम है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: मुझे यह थोड़ा विचित्र सा लगता है कि मैं सैकड़ों श्लोकों पर आपसे एक ही बात कह चुका हूं, ‘इस श्लोक जैसा दूसरा कोई नहीं।’ लेकिन मैं झूठ नहीं बोलता। जब वो श्लोक मेरे समक्ष होता है तो मुझे सचमुच ऐसा ही दिखता है कि सारी बात तो यही कह दी गई। अगर एक यही बात किसी को समझ में आ जाए तो और कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

तो आज कठोपनिषद का ऐसा ही एक श्लोक हमारे सामने है। इसको अगर हमें उपयोगी तौर पर समझना है तो जो हमारा पुराना मॉडल है उसका आज पुनः प्रयोग करना पड़ेगा। ठीक।

( तीन उँगलियों के माध्यम से समझाते हुए)

मैं कौन हूं इसमें? यह बड़ी उंगली। ठीक है ना?

यह क्या है? आत्मा। आत्मा माने मेरा वो हो जाना। जिसमें मुझे सचमुच चैन मिल जाए। मेरी स्थिति लगातार अशांति की है।

यह मैं हूं। अहम्, यह बीच में अहम् है। मेरी स्थिति लगातार अशांति की है। अशांति मेरी स्थिति नहीं है। अशांति मैं हूं। अगर आप कहेंगे कि अशांति मेरी स्थिति है तो ऐसा लगेगा कि मेरे रहते, मेरी स्थिति बदली जा सकती है। उदाहरण के लिए इस वक्त यह आपकी स्थिति है कि आप यहां बैठे हुए हैं इन कुर्सियों पर। आप कुर्सी बदल सकते हैं बिना अपने आप को बदले। तो अशांत होना हमारी कोई दशा नहीं होती। हम अक्सर ऐसे ही बोलते हैं। अभी मेरी स्थिति अशांति की है या आज मैं अशांत हूं।

उससे ऐसा लगता है जैसे कि अशांति आने जाने वाली चीज है। मैं हूं, मेरी हस्ती है। उसकी कई स्थितियां हैं। जिनमें से एक स्थिति का नाम है अशांति। ऐसा है नहीं। अशांति मेरी आने जाने वाली स्थिति नहीं है। वह मेरी पारिभाषिक पहचान है। मैं ही अशांति हूं। अशांति को केंद्र में रखकर के मेरी अन्य स्थितियां आती जाती रहती हैं। उदाहरण के लिए अभी मैं कहना चाहता हूं मैं सुखी हूं। तो मुझे ऐसा कहना चाहिए कि अभी मैं सुखी अशांत हूं। अशांत तो मैं सदा हूं क्योंकि यह जो अहंकार है इसका पर्याय है अशांति। अहंकार की स्थिति नहीं है। अहंकार की पहचान है अशांति। तो अगर कोई कहे कि मैं सुखी हूं तो ज्यादा ईमानदारी से ऐसे कहना चाहिए कि अभी मैं सुखी अशांत हूं। कोई कहे कि मैं दुखी हूं तो ज्यादा ईमानदारी से कहना चाहिए मैं अभी दुखी अशांत हूं। और अगर कोई कहे कि मैं अभी शांत हूं। तो ज्यादा ईमानदारी से कहना चाहिए कि मैं अभी शांत अशांत हूं। मैं अभी शांत अशांत हूं। समझ रहे हैं बात?

तो ये इसकी स्थिति है। अब अगर आत्मा का नाम शांति है और अगर यह अहंकार आत्मा की ओर झुक गया तो क्या होगा? इसे मिटना पड़ेगा ना, क्योंकि अशांति इसकी स्थिति नहीं थी। अशांति इसकी हस्ती थी और आत्मा का नाम क्या है? शांति। तो इसलिए यह रिश्ता जरा टेढ़ा पड़ता है। कठिन पड़ता है। हालांकि यहां वो है जो अहंकार को सचमुच चाहिए। जिसके लिए वह हमेशा से तड़प रहा है। लेकिन वह चाहने के लिए इसे मिटना पड़ता है। इसे शांति चाहिए और अशांति यह खुद है। तो आत्मा को पाना माने अहंकार का जाना। एक यह रिश्ता है।

और दूसरा रिश्ता हमने कहा होता है अहंकार में और संसार में। अहंकार में और संसार में। उसको प्रकृति भी हम कह देते हैं। संसार से रिश्ता बनाने के लिए आपको मिटना नहीं पड़ता। है ना? आपने शर्ट पहन रखी है। आप किसी दुकान में जाते हो। आप मान लीजिए 40 नाप की शर्ट पहनते हो। आपको वहां 40 की नहीं मिलती। तो संसार आपको किसी दूसरी दुकान में 40 की उपलब्ध करा देता है। आपको नहीं बदलना पड़ता। शर्ट को बदलना पड़ता है। आप जैसे भी हो आपके अनुसार संसार में आपको कोई रिश्ता मिल जाता है। 40 वाले को 40 मिल जाएगा। 38 वाले को 38 मिल जाएगा। संसार कभी भी आप पर यह शर्त नहीं रखता है कि तुम बदलो और संसार अगर आपसे बदलाव मांगता भी है तो ऊपरी। संसार के साथ सुविधा रहती है। आप जैसे भी हो संसार में आपके लिए सुख का कोई ना कोई साधन उपलब्ध जरूर है। बिना बदले संसार आपको खुशी दे सकता है। भले ही क्षणिक तो आप अशांत रहे आओ। अशांत रहे रहे आपको सुख मिल सकता। संसार से आत्मा वाला महा सुख नहीं मिल सकता। ऐसे अंतर समझ में आ रहा है?

आत्मा से जो सुख है वह पाने के लिए अहंकार को पूरा मिटना पड़ता है और संसार से जो सुख मिलता है वो आपको आप बने बने उपलब्ध हो जाता है इसलिए बहुत बहुत ज्यादा संभावना होती है कि हम सच की अपेक्षा संसार की ओर भागेंगे। सच से बहुत बड़ा सुख मिलेगा पर बहुत बड़ी कीमत भी देनी पड़ेगी ना। सच से अनंत सुख मिलेगा। अद्वैत सुख मिलेगा। नित्य सुख मिलेगा। ऐसा जिसमें कोई खतरा नहीं, डर नहीं। सुख के हट जाने, मिट जाने की संभावना नहीं। इतनी बड़ी चीज लेकिन इतनी बड़ी चीज तो फिर उतना ही बड़ा दाम।

यह अलग बात है कि जब आप वह दाम चुका देते हो जिसको हम कह रहे हैं बहुत बड़ा दाम। जब वो दाम चुका देते हो तो आपको पता चलता है आपने कुछ नहीं चुकाया। अहंकार घबराता है कि अरे सच की ओर जाऊंगा तो मिट ही जाऊंगा। बाप रे बाप, इतनी बड़ी कीमत। पर वो कीमत देने के बाद पता चलता है कोई कीमत नहीं दी। आप जिस चीज को बहुत कीमती समझ रहे थे, वो मिथ्या था, शून्य था। उसकी कोई हैसियत नहीं थी तो उसको अगर आपने दे भी दिया, उसको अगर आपने छोड़ भी दिया तो कौन सा आप लुट गए?

अहंकार को छोड़ना लगभग वैसा ही है जैसे धूल झाड़ देना। आप अपने ऊपर से धूल झाड़ दो तो क्या यह कहते हो लुट गया? बर्बाद हो गया? बड़ी भारी चोरी हो गई? और अगर धूल झाड़ने के एवज में हीरे मोती मिलते हो फिर भी आप धूल ना झाड़ रहे हो तो क्या बोलेंगे आपको? मैं कुछ नहीं बोलूंगा, जो बोलेंगे यमराज बोलेंगे,अभी बोलने वाले हैं। संसार में चीज छोटी मिलती है तो सस्ती मिलती है। दो पल की सस्ती खुशी, डरी हुई खुशी, सहमी हुई हंसी कि पहले इधर-उधर देखा, कोई देख तो नहीं रहा है। कोई बुरा तो नहीं मान जाएगा। फिर थोड़ा सा सुख ले लिया। हम सुख लेते भी कहां, हम चाट लेते हैं बस। जैसे कोई बच्चा हो, घर में लड्डू रखे हो उसको लड्डू खाना मना है। और लड्डू गिनती करके रखे गए हैं तो लड्डू खा तो सकता नहीं वो। तो लड्डू खा तो सकते नहीं तो फिर क्या करते हैं? चाट के छोड़ दिए। ऐसे तो संसारी संसार में सुख लेता है। सुख भी नहीं लेता। चाटता भर। समझ रहे हो बात?

तो आज ये जो अहंकार के पास दो विपरीत दिशाओं बल्कि आयामों के आकर्षण होते हैं। ये जो दो विकल्प उपलब्ध होते हैं। सुख के जो दो तल होते हैं आज इनकी बात हो रही है। श्रेय और प्रेय, श्रेयता और प्रेयता। कुछ है जिसमें ‘श्री’ है। ‘श्री’ माने ‘शुभ, शुभता’। और कुछ है जो प्रिय है।

(उँगलियों को दिखाते हुए, और पूछते हुए) इन दोनों में से श्रेय किधर है और प्रेय किधर है?

लेकिन आकर्षित दोनों ही करते हैं अहंकार को। सारी समस्या मनुष्य के लिए और संसार के लिए यह है कि दोनों प्रकार के आकर्षणों में 1000 में से 999 बार जो हल्का वाला है, सस्ता वाला है और इसीलिए व्यर्थ का है वो ही चुना जाता है। संसार ही चुना जाता है।

हम श्लोक पढ़ देते हैं। श्रेय और प्रेय दोनों अलग-अलग हैं। क्या आशय है इससे? आपकी आशाएं तोड़ने का आशय है। आशाएं कैसे टूट रही हैं? अब आ गए हैं गीता सत्रों में। तो अब यह बात निर्विवाद हो गई है कि श्रेय का रास्ता तो ऊंचा है। गीता और उपनिषद और सच का जो मार्ग है वो व्यर्थ का नहीं है। उधर दम बहुत है। इस बात को अब झुठलाया नहीं जा सकता। जब तक बाहर कहीं बैठे थे तब तक तो यह भी कह देते थे। अरे क्या रखा है? पुराने ग्रंथ हैं। इनमें क्या है? आज के जमाने की बात करो। आज की दुनिया में कृष्णों, कबीरों का क्या महत्व है।

बाहर बैठे-बैठे तो आप ये सब भी बोल देते थे। अभी भी लोग हैं, यही तो बोलते हैं ना कि इन सब चीजों का आज क्या? पर अब यहां आ गए हैं। तो अब यह तो नहीं कह पाएंगे कि श्रेय का रास्ता व्यर्थ है। ठीक? श्रेय का रास्ता व्यर्थ नहीं है। श्रेय का रास्ता उच्चतम है। यह तो दिखने लगा है। तो फिर हम एक चालाकी करते हैं। हम कहते है श्रेय का रास्ता तो ले लूंगा। बोलो तो बोलो प्रेय को बिना छोड़े क्योंकि प्रिय की तो गंदी लत लगी ही हुई है। पुराना नशा वो नहीं छोडूंगा और साथ ही साथ गीता भी रख लूंगा। तो ऐसे के लिए कबीर साहब ने क्या बोला था, ‘हाथ सुमरनी पेट कतरनी पढ़त भागवत गीता।’ ये गीता पढ़ेंगे। हाथ में सुमरनी है। सुमिरन की माला और पेट में, पेट माने भीतर दिल में कतरनी- माने कैंची चला रखी है। कैंची माने जो काट दे, जो द्वैत स्थापित कर दे। गीता माने अद्वैत, कैंची माने फाड़ने वाली। द्वैत करने वाली। कह रहे भीतर तो तुम्हारे द्वैत बैठा है। द्वैत माने मैं हूं और संसार है और संसार मेरे भोगने के लिए दो हैं। ये द्वैत तो हम चालाकी करते हैं। हम कहते हैं मरना भी ना पड़े स्वर्ग भी मिल जाए। हम कहते हैं जैसे ही मेरी सुविधा की व्यवस्था चली आ रही थी, अभी तक वो भी चलती रहे और साथ ही साथ आध्यात्मिक लाभ भी हो जाए।

तो यमराज तो यमराज ठहरे। हमारे स्वार्थों और हमारी भावनाओं से क्या लेना देना? तो वह पहली बात यह स्पष्ट कर देते हैं कि श्रेय और प्रेय आपस में अलग-अलग हैं। या तो यह पकड़ लो या यह पकड़ लो। यह दो नावों पर तुम एक साथ सवारी नहीं कर पाओगे। अपनी चालाकियां अपनी जेब में रखो। दुनिया भी ना छूटे और दिलदार भी मिल जाए, ऐसा नहीं होगा। जो दिलदार दुनिया छोड़े बिना मिल जाए वो दुनिया की ही धूल होता है। वहां फिर दिल जैसा कुछ होता भी नहीं। यह किसी की फिजूल जिद नहीं है कि दो में से एक ही मिल सकता है। यह अस्तित्व का एक साधारण नियम है। बहुत मूलभूत सिद्धांत है।

संसार माने बंधन और दुख। बंधन और दुख छोड़े बिना आनंद और मुक्ति कहां से मिल जाएंगे भाई? पर हमारी आशा यह रहती है कि किसी कदर असंभव घटित हो जाए। हम हम ही रहे आए। और तो ऐसों को, मैं कहा करता हूं, ‘अच्छा तुम्हें शांति मिल गई?’ लोग आते हैं, कहते हैं, ‘मैं फलाना करने गया, बड़ी शांति मिली तो तुम क्या हो गए? ‘शांत अशांत’।

अशांत तो तुम पहले भी थे अभी भी हो। अब शांत अशांत कह लूंगा तुम्हें। मैं मानता हूं तुम्हारी बात, तुम्हें बड़ी शांति मिल गई। कहते एक हफ्ता फलानी जगह रह के आए 10 दिन का वहां कुछ कर लिया, दो हफ्ते फलाने पहाड़ पर टंगे थे, बड़ी शांति मिली। बड़ी शांति मिली। हां मिली होगी शांति क्योंकि भाई तुम्हें अनुभव हो रहा है तो तुम्हारे अनुभव का सम्मान करते हैं। मिली होगी शांति। उस शांति के साथ तुम क्या हो गए अब? ‘शांत अशांत’। ऐसे ही क्योंकि अहंकार बहुत डरा हुआ रहता है असुरक्षित, तो बकबक बहुत करता है। मन को कभी चुप देखा? मन को कभी चुप देखा? कुछ ना कुछ…

ऐसे ही लोग आते हैं कहते, ‘हम फलानी विधि अब पकड़ लिए हैं और सुबह सुबह बैठा करते हैं। एकदम मौन होकर, आधे घंटे के लिए।’ तो ऐसा को मैं कहता हूं, ‘तुम मौन वाचाल हो।’ तुम्हारी वाचालता तो कहीं नहीं गई। हां मौन तुम हो गए हो, मैं मानता हूं। भाई तुम कह रहे हो तुम्हारी बात मान ली। यहां अधरों से तो तुम मौन हो ही गए हो। मुंह से तो तुम मौन हो ही गए हो। भीतर से लेकिन तुम्हारी खटपट लगी हुई है। समझ में आ रही है बात? तो आप जो चाह रहे हैं वो असंभव है। और आप जो चाह रहे हैं वो संभव फिर इसी पाखंडी तरीके से है कि ‘शांत अशांत’ हो जाइए। कुछ ऐसा हो जाइए जिसका होना संभव ही नहीं है। जैसे कि कोई कहे कि मैं मर गया। तो ये क्या है? यह मृत जीव है। कह रहे हैं मैं मर गया। तुम मर गए होते तो कौन कहता कि मर गए। जैसे बच्चे होते हैं छोटे। होमवर्क करे बिना सो रहे हैं। उनको आवाज दी गई। हां बिन्नी वो 5 साल की है। अपनी नजर है बहुत धुरंधर। मैं तो सो रही हूं। तू सो रही होती तो जवाब कौन देता? तो 5 साल के बच्चों ऐसी हमारी स्थिति हो जाती है। जब हम कहते हैं कि दुनिया भी नहीं छोड़नी है और दिलदार भी पाना है।

अजूबा बताऊं। बहुतों का बड़े लंबे-लंबे सालों तक यह दावा बना रहता है कि उन्हें दिलदार मिल भी गया। भगवत प्राप्ति हो गई है। तुम अपनी हस्ती देखो, अपना मुंह देखो। अपनी आंखें देखो, अपने डर और वहम देखो। तुम्हें काहे की प्राप्ति हो गई? तुम्हें जिसकी प्राप्ति हुई है, वह तुम्हारे जैसा कुछ नमूना होगा। ना जाने क्या प्राप्त करके इतने उमंगित हो रहे हो? जैसे किसी ने कभी तरबूज देखा ही ना हो और वो बाजार गया है और नींबू और बेर उठा लाया है। और खुश हो रहा है कि तरबूज है। ऐसा नहीं कि तरबूज अनुपलब्ध है, बस इतना बड़ा है कि उसको थामने के लिए हाथों में पहले से जो कुछ है छोड़ना पड़ता है।

यमराज कह रहे हैं, ‘श्रेय और प्रेय साथ-साथ नहीं चलते।’ जो पहले से पकड़ रखा हो छोड़ोगे तभी वह इतना भारी तरबूज हाथ में आएगा। नींबू बेर का तो यह है कि कुछ पकड़ भी रखा हो तो साइड में फिट कर दे साइड में। जैसे हम में से कई लोगों ने गीता अपनी जिंदगी में साइड में फिट कर रखी है।

परीक्षा क्यों नहीं दी? अरे वो बिना दूध पिए सोते नहीं है ना, तो उनके लिए दूध उबाल रही थी। दूध ज्यादा उबल गया, गिर गया तो दोबारा उबाला और उतनी देर में तो 11:00 बज गए। परीक्षा समाप्त हो गई। यह साइड में फिट करने वाला कार्यक्रम कितनी दूर तक जाएगा भाई? अगर वो दूध पीते पिए बिना नहीं सोते तो अगर आपने नहीं दिया तो माने नहीं सोएंगे ना। तो समस्या क्या है? जब नहीं ही सोए तो 11:00 बजे दे देना। दूसरी बात यह हो सकती है कि दूध पीए बिना सो गए तो भला हुआ मोरी मटकी फूटी। अब कभी दूध मत दो। क्योंकि एक दिन प्रमाणित हो गया है कि ये आदमी बिना दूध पिए भी सो सकता है। एक दिन सो सकता है तो रोज सो सकता है। और नहीं सोएगा तो जगा रहेगा। अच्छी बात है।

11:00 बजे दे देंगे। 11:00 तक जगा हुआ है। आजा परीक्षा में बैठ जाओ साथ में। पर हमें ऐसा ही करना है। हमें सत्य को जीवन के हाशिए पर रखना है। हासिया समझते हैं किनारा, कोना मार्जिन। केंद्र पर नहीं, परिधि पर। अ वीकेंड जॉइंट। अ फोर्टनाइटली अफेयर। हम फलाने मंदिर जाते हैं हर पूर्णिमा की रात को। अब पूर्णिमा तो महीने में रोज आएगी नहीं। बड़ी सुविधा है। बाकी दिनों मंदिर से कुछ लेना ही देना नहीं। 10,000 स्क्वायर फीट का घर बनवाया है साहब। मस्त, ऐसे नहीं होता है। छोटा सा मंदिर घर में कोने में बना दिया और कह दिया हम तो धार्मिक हो गए। सबके कमरे होते हैं ना घरों में। यह दादा जी का कमरा, यह इसका कमरा, यह उसका कमरा, सब ऐसा सबका। एक भगवान जी का भी कमरा होता है। और अनुभव मेरा यह रहा है कि भगवान जी का कमरा तो आपके नहाने धोने के कमरे से भी छोटा होता है। और भाषा की गरिमा रखने की खातिर मैंने नहाना ही धोना बोला। और प्राणी तो मैं हूं गरिमाहीन। तो अब बात जबान तक आ गई है तो बोले ही देता हूं। हगने मूतने के लिए भी हम जितनी जगह छोड़ते हैं, उससे भी कम जगह में हम कहते हैं, ‘यह देखो हमने घर में मंदिर बनाया है।’ सब कुछ हमें साइड में फिट कर देना है। साइड में फिट करने का भाई, साइड में फिट करने का। इतना बड़ा लिविंग रूम इतना बड़ा गेस्ट रूम भी। अतिथि आए तो उनको प्रभावित करना भी तो जरूरी है ना। इंप्रेस करने का और मंदिर बोलते हैं वहां पर हम आमतौर पर मूर्तियों की स्थापना, प्रतिष्ठा वगैरह, कुछ कर देते हैं। कई लोग वहां पर चित्र वगैरह लगा देते हैं। जिनके चित्र नहीं होते वो कैलेंडर ही टांग देते हैं। होता है, यही होता है भाई। कैलेंडर आते हैं वो हर महीने पलटते जाते हैं और हर महीने के साथ एक नए देवी देवता उभरते आते हैं। ऐसे ही चलता है। इतना तो फिर भी कर लेते हो।

पर गीता का तो कोई कमरा हमने कहीं देखा नहीं कि यह वाचनालय है। कृष्ण की प्रतिमा मूर्ति तो फिर भी शायद हम स्थापित कर ले छोटी सी जगह दे कर के, गीता को तो हम छोटी सी जगह भी नहीं देते और आमतौर पर जो बड़ा सा आप बनवाते हो गेस्ट रूम वो खाली ही पड़ा रहता है क्योंकि हमारे यहां आएगा कौन? हम जैसे हैं, महीने में कोई एक आध दिन आ जाए तो बड़ी बात है। ये हम देख पा रहे हैं कि नहीं देख पा रहे हैं। सूक्ष्म जगत में भीतर क्या चलता है? यह जानने का स्थूल कर्म ही तो तरीका है ना। घर हमने बनाया है। तो घर में हमने किस जगह को कितनी वरीयता दी है? कितना क्षेत्र दिया है? उससे हमारे अंतर जगत के बारे में पता चलता है। आपके घर में किताबों की क्या जगह है? बताइए।

होना तो यह चाहिए कि केंद्रीय कक्ष हो वो। घर की परिभाषा क्या है? एक पुस्तकालय है जिसके इर्दगिर्द हम रहते भी हैं। यह होना चाहिए घर। घर क्या है? एक पुस्तकालय है। वहां हम रहते भी हैं। अपने जीवन के जिन सात आठ सालों में मैंने दीवाने की तरह अपनी तपस्या करी थी। उस समय मैं जहां बैठकर के काम करता था वहीं पे चारों तरफ मेरे किताबें ही किताबें थी। दीवार कम दिखाई देती थी। किताबें ज्यादा दिखाई देती थी। और ऐसे, ऐसे बैठ के काम कर रहा होता था। इतनी ही बड़ी मेज थी। इससे थोड़ी ज्यादा बड़ी। यहां मेरा खरगोश बैठता था। ऐसे ही उसका तौलिया रखा रहता था। यहां बैठा रहता था और यहां मैं सोया करता था। यह मेरा घर था कुल इतना बड़ा। 50% जगह उसमें किताबों ने घेर रखी थी।

मार्जिनस पर रखने से जिंदगी नहीं बदलती। केंद्र पर अब सब कुछ वैसा ही चलाओगे और कहोगे कि जो हमारा लोक धर्म है उसने वास्तव में धार्मिकता को परिधि पर स्थापित कर रखा है। एट द सरकम्फ्रेंस। कोई काम शुरू करो तो भगवान का नाम ले लो। और काम करने के दौरान? ऐसी कोई शर्त नहीं है। शुरू करो तो कर दो। छात्र होते हैं, जाते हैं जब परीक्षा देने तो उत्तर पुस्तिका में ऊपर ओम बनाते हैं। तो शुरुआत में ओम बना दिए और उसके बाद लगे नकल करने। ये हमारे जीवन में धर्म की जगह है। शुरुआत में क्या लिख दो? ओम। और उसके बाद धड़ल्ले से इधर-उधर नकल कर रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, तुक्का मार रहे हैं। पहले यूपी बोर्ड में ऐसा होता था। फिल्मों की कहानियां लिखाते थे इतिहास के पर्चे में और पास भी हो जाते थे। चेले को देख के गुरु का भी तो पता चलता है। जैसा उन्होंने करा वैसे ही उनके शिक्षक हैं। उन्होंने पास भी कर दिया। बोले और कुछ हुआ नहीं हुआ। मनोरंजन तो हुआ। इसी बात पर पास करते हैं इसको।

शुरू करो अंताक्षरी लेके हरि का नाम। अंताक्षरी का हरि के नाम से क्या लेना देना है? फिर आगे क्या बोल रहा है? समय बिताने के लिए। सोचिए समझिए। यह बात हंसी की है। उससे आगे की भी है। हरि के नाम का हमारे लिए इतना ही महत्व है। और हमारी जिंदगी में वो यहीं पर फिट होता है। क्या? शुरू करो अंताक्षरी। अब अंताक्षरी को आप कुछ और भी कर सकते हो। शुरू करो बर्बादी लेके हरि का नाम। इतनी नालायकी के काम करते हैं। शुरुआत तो सबका हरि का नाम लेके ही करते हैं। जैसे हरि का नाम खिलौना हो गया। कुछ भी करने जा रहे हो, अपनी साधारण औसत दूषित जिंदगी में, उसके पहले हरी का नाम ले लो। घूस के पैसे से काली कमाई से बड़ी गाड़ी खरीद के ले आए और उसके बोनट पे बड़ा-बड़ा स्वास्तिक बनवाया है। गजब बात है। वो भी पहले ही दिन बनवाया है। और जब पंडित वो बना रहे होते हैं बोलते हैं इतना बड़ा मत बनाओ। और छुड़ाना भी पड़ेगा। अभी बोनट खराब कर रहे हो तुम। एक करोड़ की गाड़ी है हमारी। उसमें तुम् यह क्या लगा रहे हो? पर शुरू में ये कर देना चाहिए ना। लोकधर्म माने वो धर्म जो जिंदगी में साइड में फिट है। आजकल पंडितों को भी समझ में आ गया है। वो जब महंगी गाड़ी देखते हैं तो उसमें बस ऐसे थोड़ा सा ऐसे लगा देते हैं। बहुत महंगी है। इसका पेंट खराब हो जाएगा। जरा सा लगा दो बस। और एक वह लाल कपड़े जैसा दे देते हैं उसको और बहुत महंगी गाड़ी हो तो पूरा लाल कपड़ा भी नहीं देते। लाल धागा देते हैं बस। कहते हैं इसको ले जाकर के रियर व्यू मिरर में ऐसे…(हाथ से धागा बाँधने का इशारा करते हुए)। अगले दिन वो उतार दिया जाता है। अगले दिन नहीं तो अगले महीने। ये हमारी धार्मिकता है। थोड़ी सी, जरा सी। धर्म स्वादानुसार।

जो हमारी जिंदगी की रेसिपी होती है उसमें होता है एक धनिया, दो झुनू, पांच नुन्नू, 50 चीजें ऐसी ऐसी। पूरी रेसिपी लिख दी जाती है। फलाने तरीके का मद, फलाने तरीके की ईर्ष्या, 100 प्रकार के लालच, चार बकरे ताजे कटे हुए। ये सब पूरा लिख दिया जाता है और फिर उसमें अंत में लिखा जाता है धर्म स्वादानुसार। अब इसमें थोड़ा धर्म भी डाल लो ताकि लगे कि आदमी अच्छे हो।

वो पता नहीं कौन सी फिल्म थी वो देखा था। तो उसमें वो यानी फ्लाई ओवर था या पुल था। तो उसका जो पैसा आया वह सब खा गए अधिकारी और नेता और ठेकेदार मिलके। उसके बाद उसका उद्घाटन करने आ गए पुल का। अब उद्घाटन तो धार्मिक आधार से ही होगा। नारियल लिया इतना बड़ा और नारियल पटक के मारा पुल पे और पुल ही गिर गया। ये हमारी जिंदगी में धर्म है। सारा पैसा खा जाओ और उसके बाद कहो कि अब इस पुल का उद्घाटन धार्मिक तरीके से होगा। कौन सा धर्म? कौन सा धर्म? भैया जी ने भाभी जी को बिल्कुल उनकी मोहकता, मादकता, रूप, रंग, लावण्य; सीधे कहें तो कामुकता, सेक्सीीनेस देखकर पसंद करा है। और उसके बाद कह रहे अब अग्नि देव की उपस्थिति में हम एक पवित्र पावन बंधन में बंधने जा रहे हैं। अब अग्निदेव इसमें क्या कर सकते हैं? अग्नि तो तुम्हारे पहले से लगी हुई थी। अग्निदेव अब क्या कर रहे हैं? वो बेचारे भी कह रहे हैं ऐसे फालतू, जहां देखो लकड़ी जला देते हैं। ये धार्मिकता है हमारी। समझ में आ रही है ना बात? और फिर हम अपने आप को धार्मिक भी बोलते हैं। हमारे महान संस्कार। वो रिश्ता कैसे पवित्र पावन हो गया मुझे समझाओ। उसके आधार में, तुम्हारे अज्ञान, तुम्हारे लालच, तुम्हारे डर और तुम्हारी वासना के अलावा कुछ नहीं है। तुम अच्छे से जानते हो कुछ नहीं है और फिर तुम बड़े महंत बन के बैठ गए हो वहां पे और वो साध्वी बन के बैठ गई। आधे समय तक घड़ी देख देख के मचल रहे ए पंडित जल्दी निपटाना और फिर तुम्हें लग रहा है कि यह जो हो रहा है यहां पे उसमें किसी तरह की पवित्रता है। कैसे पवित्रता आ जाएगी? नहीं कुछ।

पवित्रता हमारे लिए इस पॉकेट स्क्वायर की तरह है। सब कुछ पहनने के बाद जेब में खोस लिया तो खोस लिया। नहीं भी डाला तो कोई बात नहीं। कई बार मन करता है तो आदमी लगा लेता है। नहीं करता तो नहीं करता। आपकी पूरी पोशाक में सबसे कम महत्व की यही चीज होती है। रुमाल से भी कम इसका महत्व है। रुमाल ले आना मैं कभी नहीं भूलता। पर यह तो अगर कभी पहना तो पहना कभी किसी ने याद दिला दिया डला, नहीं डाला। कल नहीं था शायद।

ये धर्म हमारे लिए ऐसा है। आखिरी चीज और वो भी सिर्फ…

जल्दी बोलिए। दिखावे की मैचिंग होना चाहिए। अब मैं यहां पर नीला खोस दूं, सफेद खोस दूं, एकदम काला डाल दूं। धर्म भी मैचिंग मैचिंग होना चाहिए।

अभी जब अयोध्या में राम मंदिर का हुआ था जनवरी में। तो ठीक उन्हीं दिनों में भी लखनऊ में था। तो लखनऊ में भारी भीड़ लगी हुई थी। संतों महंतों की, आज तक वालों ने मुझे बुलाया था उसी चीज पर। आप जानते हैं आपने देखा है वो सब। तो वो सब चर्चा-वर्चा हो गई। वहां से जब मैं वापस लौट रहा था तो फ्लाइट में सब के सब वही थे। सब वही थे। और उनमें से कुछ ऐसे थे जिनके पास जो बैग्स थे या बाकी तरह की एक्सेसरीज वो उनके भगवा रंग से मैच करती थी। धर्म हमारे लिए एक एक्सेसरी है। जो पहन रखा था। एक तो जो पहन रखा था वो बस रंग से सफेद भगवा या जो भी उनका पसंदीदा रंग हो लेकिन कपड़े की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं थी। होनी भी नहीं चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं।

लेकिन धर्म भी मैच करा के चला था। बाकी सब रहेगा पहले से। धर्म आएगा अंत में। और धर्म का काम है कि जो कुछ पहले से है उससे मैच कर जाए। धर्म का काम यह नहीं है कि जो कुछ पहले से है उसको गिरा दो। हमारे जीवन में धर्म सफाई के लिए नहीं है। हमारे जीवन में धर्म हमारी पहले से चली आ रही जिंदगी की शान बढ़ाने के लिए है। तो इसीलिए जो पहली ही बात है वो यह है कि श्रेय और प्रेय साथ-साथ नहीं चल सकते। झूठी आशा त्याग दो। यह उम्मीद ठीक नहीं है। आ रही है बात समझ में?

आज दिन क्या है?

श्रोतागण: रविवार।

आचार्य प्रशांत: कल दिन क्या था?

श्रोतागण: शनिवार।

आचार्य प्रशांत: 30 तारीख को दिन क्या है?

श्रोतागण: बुधवार।

आचार्य प्रशांत: दिन क्या है? दिवाली किस दिन की है?

श्रोतागण: बुधवार।

आचार्य प्रशांत: तो अगर आपसे मिलन का कार्यक्रम, मैंने 26, 27 और 30 को रखा और कथित रूप से यह दिवाली मिलन है तो सबसे ज्यादा भीड़ किस दिन होनी चाहिए थी?

श्रोतागण: 30 तारीख को।

आचार्य प्रशांत: नहीं। क्योंकि 30 तारीख तो दिवाली के सबसे पास है। दिवाली धर्म का मौका है और यहां धर्म की चर्चा है। 30 तारीख को सबसे ज्यादा आपको आना चाहिए था मेरे पास, ऐसा नहीं हुआ है। हमें भी पता था ऐसा नहीं होगा। तो 26, 27 चुने गए क्योंकि ये साप्ताहंत है। इन दिनों आप अपनी दुनिया से मुक्त रहते हो तो आओगे। हमें पता था और आए हो। 30 को थोड़े ही आओगे। 30 को तो क्या है? बर्फी है, मिठाई है, रामपुर वाली फूफी के पटाखे हैं। धनिया की चोली है। यही अब क्या धनतेरस किस दिन है? 30 को थोड़ी आओगे। 30 को तो हम आपके पीछे पड़ेंगे। रजिस्ट्रेशन करा लो। रजिस्ट्रेशन करा लो। आप बोले अभी अभी तो ज्वेलरी की शॉप में है। अभी परचेसिंग कर रहे हैं। पैसे नहीं बचे रजिस्ट्रेशन कराने के। अभी धनतेरस चल रहा है। ये हमारी जिंदगी में धर्म है। वीकेंड एक्टिविटी।

जैसे आज वीकेंड है। हमें भी मजबूर हो के आपको सैटरडे, संडे ही बुलाना पड़ता है। सैटरडे संडे को ना बुलाएं, ईमानदारी से बोल दो तो आप ना आए। और आमतौर पे जो सैटरडे, संडे के अलावा भी आ जाए संभावना यही है कि वो बेरोजगार होंगे। यह मैं उनकी शान में कह रहा हूं। भाई इतना बड़ा काम कर रहे हो, धर्म को जीवन के केंद्र में रख रहे हो तो एक बात पक्की है कि दुनिया में बेरोजगार हो। ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है जो दुनिया में भी झंडे गाड़ता हो और धर्म को भी जीवन के केंद्र में रखता हो। तो जब मैं किसी को देखता हूं कि सप्ताह के बीचोंबीच बुधवार को, बृहस्पति वार को दिन के समय में मेरे पास आ गया है तो मुझे खुशी से ज्यादा शंका होती है। ये अनपढ़ होगा। ऐसे फालतू। दुनिया ने घास नहीं डाली तो हमारे पास आ गया क्योंकि ऐसा जीव विरल होता है। लाखों में एक होता है जो दुनिया में भी सिकंदर हो और धर्म को भी जिंदगी के केंद्र पर रखता हो। नहीं आएगा।

आम आदमी वीक डे पर, वह भी दिन के समय नहीं आएगा। हमारी मजबूरी तो समझते नहीं। खुद तो ऐसे ही हैं। इन्हें क्या पता हमारा वो… ऐसे ही का मतलब समझते हो ना? महिलाओं ने पहले किलकारी मारी थी। वो ज्यादा समझती हैं ये कैसे ही हैं। इन्हें क्या पता संसारी की मजबूरियां। मजबूरियां नहीं है। बोलो झूठे नकली डर और स्वार्थ हैं। जिनसे चिपके हुए व्यर्थ हूं। अच्छा मैं तो रातों का खिलाड़ी हूं, निशाचर तो ये दिन में काहे को बुलाया मैंने आपको? मेरे लिए तो ये झंझट की बात होगी। मेरे साइकिल से तो यह मैच ही नहीं कर रहा होगा। तो ये मैंने आपको दिन में क्यों बुलाया है? एक तो सैटरडे संडे बुलाया। वह भी सत्रों का समय बदल करके दिन में बुलाया। बताओ दिन में क्यों बुलाया? बोलो बोलो। आओगे रात में? मेरे लिए तो रात होती शुरू है आधी रात को। आओगे? नहीं आ पाओगे? क्योंकि दुनिया बहुत बड़ी चीज है आपके लिए। दुनियादार हो। दुनिया रुष्ट हो जाएगी अगर आधी रात को बाहर निकलोगे। यह समझा रहे हैं यमराज। लोक धर्म में तो मंदिरों के कपाट भी बंद कर दिए जाते हैं। कहते भगवान सोने जा रहे हैं। एक बात बताओ जब कपाट बंद होते हैं तो भगवान सोने हैं या तुम सोने जाते हो? दिल से बताना। कौन सोने जाता है?

श्रोतागण: हम।

आचार्य प्रशांत: यह लोक धर्म है। हमें सोना है तो हम बोल देंगे भगवान को सोना है ताकि हम चैन से सो पाए और सुबह जब तुम उठते हो तो कहते हो भगवान भी उठे हैं। ये सब भगवान ने बताया था? वो कब सोते हैं, कब उठते हैं? या तुमने अपनी दिनचर्या के अनुसार भगवान का भी सेट कर दिया है? लोक धर्म यही है। अपने हिसाब से धर्म को सेट कर देना, फिट कर देना। मैं जैसा हूं, मैं धर्म उस हिसाब से चलाऊंगा ताकि मेरे स्वार्थों पर, सुविधाओं पर कोई आंच ना आए। कोई देखा मंदिर जिसके कपाट खुलते ही हो रात में 12:00 बजे और सुबह 4:00 बजे बंद हो जाते हो? वो मंदिर चलेगा ही नहीं। ये तो हम है जो रात में सत्र करके किसी तरह चला रहे हैं। अरे तो बात अलग है।

(सभी तालियाँ बजाते हैं।)

धन्यवाद। इतना ही नहीं है। मैं कहूं भी कि जो नियमित समय है उस पर ही सत्र करेंगे। तो इस हॉल की उपलब्धता एक विषय बन जाएगी। पुलिस का इंतजाम एक विषय बन जाएगा। दिन के समय होता है तो बाहर कुछ पुलिस बल आकर आराम से खड़ा हो जाता है। जो व्यवस्था वगैरह है सब। तो चारों तरीके से रहे, आप लोगों की सुरक्षा का इंतजाम। सब ठीक चलता है। हम उनको कहेंगे रात में 12:00 बजे भेजो पुलिस फ़ोर्स। उनको भी सोना है। कहीं धर्म गया। ये कोई तरीका है? कह रहे रात में 2:00 बजे तक हमारे यहां पे लोग खड़े रहेंगे। उनका भी…. बोलो बोलो।

केंद्र में क्या है? कौन सी चीज है जो नहीं हिल सकती, नहीं हट सकती? हमारी दिनचर्या, हमारे तौर तरीके, हमारी पुरानी आदतें। वो सब केंद्र में रखकर के हम चाहते हैं कि थोड़ा बहुत धर्म भी आ जाए ताकि हमें महानता का किसी प्रकार का प्रमाण पत्र मिल जाए। ताकि हम पर थोड़ी बहुत धार्मिकता का भी ठप्पा लग जाए। ऐसे कैसे चलेगा? तो बहुत ऊर्जा व्यर्थ ना करनी पड़े इसीलिए पहली ही बात यहां पर कह दी यमराज ने। यह दो मार्ग एक साथ नहीं चल सकते। हम भी जब आपको ऐसे समझा रहे थे तो इसमें किसी कदर यह संभव नहीं है कि यह इसको और इसको इधर भी पाए, इधर भी पाए।

(आचार्य जी तीन उँगलियों के माध्यम से ऊपर के कथन को समझा रहे हैं।)

कि झूठ और सच एक साथ चल जाए। नहीं होता है। दोनों मार्गों के चिन्हों और परिणाम के बारे में क्या कहते हैं? कहते हैं ये दोनों ही बांधते हैं मार्ग। दोनों में ही अपना-अपना आकर्षण है। लेकिन जो श्रेय को चुनता है उसका कल्याण होता है और जो प्रेय को चुनता है वो अपने मूल लक्ष्य से भटक जाता है। वो अपने अर्थ से जहां वास्तव में उसके लिए लाभ है उससे भटक जाता है। आकर्षण दोनों में है पर कल्याण एक में ही है। और यह हमारी विडंबना है कि जहां हमारा कल्याण नहीं है वहां हमें ज्यादा आकर्षण होता है।

वो पोस्टर याद है ना? जो कुछ तुमने आकर्षक पाया है उसी का नाम तो माया है। 1000 में से 999 मौकों पर आपको जो कुछ भी आकर्षक लग रहा होगा वही आपके लिए माया होगा। और मैं यह भी जानता हूं कि वो जो 1000 में से एक चीज मैंने छोड़ दी, वो तुरंत आपने लपक ली होगी। कह रहे, नहीं। 1/ 1000 तो ये संभावना है ना कि हमें जो आकर्षक लगता है वो माया नहीं है। तो वो मेरा मामला है। ये बाकी जो 999 है ये माया में फंसे हुए हैं। वो जो आपने एक की गुंजाइश छोड़ दी मुझ पर लागू होती है। ऐसे ही चलता है ना। मैं कह दूं यहां जितने लोग बैठे हुए हैं सब नालायक है एक को छोड़कर। सबकी उम्मीद बढ़ जाएगी। कोई ऐसा नहीं होगा जिसकी उम्मीद ना बने। कहे मैं ही तो हूं। और आप सब में जो एक दिव्य विभूति है, देवात्मा है। अब मैं उसका नाम बोलने जा रहा हूं। सबके कान ऐसे खरगोश की तरह खड़े हो जाएंगे। अरे मेरा ही नाम। आया, आया, आया। अब मैं बोल रहा हूं कि पूरे हॉल में एक है।

पर हम कभी भी अपने आप को नियमबद्ध नहीं मानते। हम सदा अपने आप को अपवाद मानते हैं। यह बड़ी समस्या है। हमें नहीं दिखाई पड़ता कि जो दुनिया का नियम है हम पर भी लागू होता है। हमको लगता है कि हम दुनिया से अलग हैं। बिरले हैं। अपवाद हैं। अपवाद होते हैं। पर फिर वो कृष्णों, बुद्धों जैसे होते हैं ना वो हमारे जैसे नहीं होते। हम और आप अपवाद नहीं हो सकते। हम पर तो जो साधारण नियम है वही लागू होते हैं। और साधारण नियम यही है कि जहां कल्याण नहीं है, वहीं आकर्षण ज्यादा है। और जहां कल्याण है वहां आकर्षण तो छोड़ो। कई बार विकर्षण हो जाता है। बुरा लग जाता है। चोट लग जाती है। चोट इसलिए नहीं लग जाती कि सत्य ने ठान रखी है हमें चोटिल करने की। चोट इसलिए लग जाती है क्योंकि घाव है। उस पर कितनी भी सावधानी के साथ सफाई करो, मलहम करो दर्द तो होगा। अब बताओ, दर्द इसलिए है कि सफाई करी जा रही है और दवाई करी जा रही है या दर्द इसलिए है कि तुम घाव पाले बैठे हो?

हम घाव पाले बैठे रहते हैं। अहंकार एक भीतरी नासूर का ही नाम है। हम घाव पाले बैठे रहते हैं। किस-किस ने कभी डॉक्टर के पास ड्रेसिंग कराई है कभी किसी घाव की? और डॉक्टर के यहां जाते वक्त कैसा लगता था? ओ माय गॉड आई एम सो एक्साइटेड। ड्रेसिंग कराने जा रहा हूं। कैसा लगता था? कैसा लगता था? किस-किस का कभी कुछ शोल्डर फ्रीज कर गया है या ऐसी कोई समस्या आ गई है कि फिजियोथरेपी करानी पड़े और जब फिजियोथरेपिस्ट आता है तो उसको देख के मन बागबाग हो जाता है। तुम आए तो आया मुझे याद, गली में आज चांद निकला। अब वो आता है वो आपका हाथ है। इससे ऊपर उठता नहीं है। वो खींच-खांच के उठा रहा है। हाथ उठे ना उठे आवाज जरूर उठती है। हाथ इतना ही जा रहा है। आवाज उतनी ही जा रही है। उसकी गलती है? उसकी गलती है?

पर इल्जाम हमेशा श्रेय पर आता है कि यह तो हमें पीड़ा देता है। अहंकार घाव है। उसकी सफाई दवाई करोगे तो पीड़ा होगी। जो सफाई दवाई कर रहा है उसको दोष नहीं देते। इनका तो नाम ही यमराज है। इनकी बातें नहीं चुभेंग तो और क्या? सोचो कितनी सांकेतिक बात है कि ज्ञान किससे मिलना है? यमराज से। उसको पलट के भी कह सकते हो। जो यमराज नहीं होगा वो ज्ञान दे भी नहीं पाएगा। ऐसे भी पलट सकते हो कि ज्ञान देने वाला हमेशा मृत्यु तुल्य ही लगेगा। जो ज्ञान दे रहा होगा वो हमेशा ऐसे ही लगेगा। कि मौतनुमा है। मौत आ गई इसके सामने। शिष्य चाहिए नचिकेता जैसा जो मौत के सम्मुख अपने पैरों चलकर खड़ा हो जाए। खींचा भी नहीं गया है। बुलाया नहीं गया है।

100 बार WhatsApp नहीं भेजा गया है। खुद ही आकर खड़ा हो गया है। और तीन दिन तक दरवाजे के बाहर खड़ा था। यमराज किसी काम से गए हुए थे बाहर। कोविड फैला हुआ था। काम बढ़ा हुआ था। तीन दिन तक आए नहीं। वह बाहर बैठे रहा। वो भी बिना खाए पिए। ऐसा चाहिए। आ रही है बात समझ में? जिसे मिटने का जुनून हो। जो स्वयं से इतना ऊब गया हो कि कहे कि अब जो होगा सो होगा। जैसे हैं ऐसा तो नहीं रहना। जिसके बहाने खत्म हो गए हो। ऐसा चित्त चाहिए जिसे अपने से अब कोई आशा ना बची हो। जिसको दिख गया हो कि इतनी बार दोहरा, दोहरा के इतने दशकों से एक ही काम कर रहा हूं। नया परिणाम कैसे मिल जाएगा। आज तक मैंने जिंदगी में जो किया वो मूलतः एक ही काम का दोहराव है। वो दिखने में सब अलग-अलग काम लगते हैं। पर मैं जो भी कर रहा हूं वो एक ही केंद्र से उठती हुई, एक ही वृत्ति है। और उस वृत्ति का एक ही परिणाम हो सकता है जो मुझे पहले ही सैकड़ों बार मिल चुका है। उसी पुराने काम को दोहरा, दोहरा के मैं नया परिणाम कहां से ले आऊंगा? जो अपने प्रति निराश हो चुका हो। मात्र उसके लिए है श्रेयता का मार्ग।

आत्मविश्वास का टूटना बहुत जरूरी है। और आत्मविश्वास के इस टूटने को श्रद्धा कहते हैं। आत्मविश्वास का मतलब होता है जो ज्ञात है, ‘मैं’, उस पर भरोसा। और श्रद्धा का मतलब होता है जो सर्वथा अज्ञात है, उस पर भरोसा। आत्मविश्वास और श्रद्धा एक साथ नहीं चल सकते। श्रद्धा का मतलब होता है यह जो मेरे पास है अभी व्यर्थ का, मैं इसको छोड़ दूं तो आगे जो होगा, कल जो होगा, वह देखा जाएगा। मुझे परवाह नहीं है। छोड़ना जरूरी है मैं जैसा हूं उसका मिटना जरूरी है। मिटने के बाद क्या शेष रहेगा, क्या बचेगा, क्या नहीं और आगे क्या होगा, मैं इसकी चिंता नहीं करता। यह श्रद्धा है। और आत्मविश्वास कहता है आगे जो कुछ होगा वो मैं निर्धारित करूंगा। मैं स्टड हूं। मैं कूल हूं। आई विल डिसाइड। मैं बहुत स्मार्ट हूं। मैं बहुत स्मार्ट हूं। यह आत्मविश्वास है। मैं प्लानिंग करूंगा। मैं अपनी प्लानिंग के हिसाब हिसाब से चलूंगा। तुम्हारी प्लानिंग के हिसाब से तुम आज कहां तक पहुंच गए हो? अपनी हालत देखो।

तुम कहते हो कि नहीं मैं पहले थोड़ा खराब हालत में था। अब बेहतर हूं। ऐसे नहीं देखा जाता। भीतरी शिक्षा इनर एजुकेशन का मतलब है ये देखो कि तुम क्या हो सकते थे। उसकी तुलना में अभी क्या हो। ये मत देखो कि तुम्हारा अतीत कैसा था और उसकी तुलना में आज तुम्हारे पास थोड़ा पैसा आ गया है मान लो। तो लोगों को लगता है देखो मैं स्मार्ट तो हूं ही। मैंने शुरुआत करी थी बहुत साधारण तरीके से। मेरे पास पैसा नहीं था। आज मेरे पास थोड़ा पैसा है। तो मैं स्मार्ट हूं। तुम्हें वो दिख रहा है जो तुम्हारे पास है। तुम्हें वो नहीं दिख रहा जो तुमने गवाया है। तुम्हें वो भी नहीं दिख रहा जो तुम हो सकते थे। अपॉर्चुनिटी लॉस दिखाई नहीं पड़ता ना। दिखाई नहीं पड़ता तो हम उसको कैलकुलेट भी नहीं करते। हम कहते हैं कि जो कुछ विज़िबल नहीं है वो फिर एक्सिस्ट भी नहीं करता। और क्योंकि वह एक्सिस्ट नहीं करता तो फिर हम उसको क्वांटिफाई नहीं कर पाते। और क्वांटिफाई नहीं कर पाते तो हम कहते हैं कि जीरो। जब कोई क्वांटिटी नहीं मिलती तो हम क्वांटिटी के सामने लिख देते हैं जीरो। ओपोरर्चुनिटी लॉस बाय डेफिनेशन इज समथिंग दैट डिड नॉट मटेरियलाइज। ठीक है ना।

तो वो ऐसी चीज तो है नहीं कि जो हुई हो उसको आप मेजर कर सकते हो। हम कहते हैं कि जो मेजरेबल नहीं है उसको हम जीरो लिख देंगे। तो आप ये तो मेजर कर लेते हो कि आपको संसार के रास्ते पर प्रियता के रास्ते पर चलकर क्या मिला? मान लो आपको 50 यूनिट मिल गए हैं तो 50 यूनिट तो आप लिख दोगे। देखा मैं कितना स्मार्ट हूं। मेरी स्मार्टनेस से मुझे 50 यूनिट का लाभ हो गया। लेकिन तुमने 5000 यूनिट का नुकसान भी करवाया है। वो तुम नहीं लिखोगे। उस माइनस 5000 की जगह तुम जीरो लिख देते हो। और ये बैड अकाउंटिंग है। यू आर अ वेरी बैड अकाउंटेंट। इट कम्स टू लाइफ। यू जस्ट डोंट नो हाउ टू मैनेज योर बुक्स। क्योंकि तुम बस वो लिख रहे हो जो ग्रॉस है, जो विज़िबल है। जो सटल है, तुम उसकी अकाउंटिंग कर ही नहीं रहे। जो सटल है उसके आगे तुम ज़ीरो लिख दे रहे हो।

ऐज इफ इट हैज़ नो वैल्यू, नो मीनिंग। अच्छा एक बात बताओ। आप मान लो यहां से चले हो मुंबई जाने के लिए। ठीक। आप बैठ गए किसी गाड़ी में, आपको कहां जाना था? मुंबई को अपनी मंजिल मानिए। अपनी नियति, अपनी डेस्टिनी, डेस्टिनेशन तो डेस्टिनी। ठीक है? आप हो इसलिए कि आप मुंबई तक पहुंचो। और आपने गाड़ी ऐसी चुनी, आपने तरीके ऐसे चुने, आपने ड्राइवर ऐसा चुना जो आपकी यात्रा के अंत तक भी आपको बस जयपुर ले जा पाया। अब मैं आपके सामने कुछ तर्क रख रहा हूं। जो आपको जयपुर ले जा पाया वो आपसे कह रहा है कि 1 कि.मी. का मैं ₹50 लेता हूं। 250 कि.मी. लेके आया हूं। दिल्ली से चले हो आप। जयपुर लेके आया हूं 250 कि.मी., 1 कि.मी. का ₹50 लेता हूं। आप उसे कुछ दोगे? वो आपको जयपुर तक लेकर आया है या उसने आपको मुंबई से वंचित कर दिया है।

ऐसे ड्राइवर को थप्पड़ नहीं पड़ना चाहिए। उसकी जगह वो क्या बोल रहा है कि देखो पहले तो तुम दिल्ली में ही पड़े थे ना। मैं तुम्हें दिल्ली से तो आगे ले आया। तुम दिल्ली से मुझे आगे ले नहीं आए हो। मुझे जहां पहुंचना था तुमने मुझे वहां तक पहुंचने नहीं दिया है। और अब मेरी उम्र बीत रही है। मेरी यात्रा समाप्त होने को है। और मैं पा रहा हूं कि मैं अभी मुंबई की जगह बस जयपुर में पड़ा हुआ हूं। ये हमारा हाल है। पर क्योंकि वो ड्राइवर भी हम खुद ही हैं। तो हम खुद को शाबाशी दे लेते हैं, आत्मविश्वास में। हम कहते हैं देखा मैंने प्रगति करी ना। दिल्ली से चला, जयपुर तक पहुंचा। ये तुमने प्रगति नहीं करी है। यह तुमने जो तुम्हारा एक ही जीवन था, उसको बर्बाद करा है। क्या हो सकते थे तुम और क्या रह गए हो।

चलो आपसे एक सवाल पूछता हूं क्योंकि हम भविष्य को लेके, आत्मविश्वास में भरे रहते हैं ना। जो वर्तमान है, वो अतीत का भविष्य है। आप आने वाले भविष्य को लेके बड़े आत्मविश्वास में रहते हो। अपनी योजनाओं के हिसाब से चलेंगे। अपनी पसंद नापसंद के हिसाब से चलेंगे। जो मुझे प्रिय लगेगा वो करेंगे। यही रहता है ना? तो हम 2024 में हैं। 2034 के हमारे पास बड़े ख्याल होंगे। कॉन्शियसली सबकॉन्शियसली रहते हैं। 2034 नहीं तो 2026 के तो होते हैं। मैं ऐसा करूंगा, मैं वैसा करूंगा, इतना बड़ा घर बनवाऊंगा, व्यापार ऐसे बढ़ाऊंगा, परिवार ऐसे बढ़ाऊंगा। यही सब तो रहता है। और तो कुछ होता भी नहीं हमारे ख्यालों में। ठीक? आगे को लेकर के आप में बड़ा आत्मविश्वास है अपनी योजना के प्रति। है ना? और योजना कहां से आती है? जो मुझे पसंद है उसी अनुसार मैं योजना बनाता हूं। ठीक है? तो थोड़ा पीछे जाकर के देखते हैं।

क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं ‘कृतं स्मर’। पीछे जो करा एक बार उसको भी देखो। 2034 की तुम अपने कॉन्फिडेंस में भर के 2024 में योजना बना रहे हो। ये बताओ आज तुम जैसे हो, आज से 20 साल पहले तुमको तुम्हारी आज की तस्वीर दिखाई गई होती और कहा गया होता यह तुम्हारा आज से 20 साल बाद का भविष्य है। क्या स्वीकार किया होता? आपकी आज की फोटो ले ली। आप आज जैसे हो फोटो ले ली और आपकी जीवनी ले ली। आपकी पूरी बायोग्राफी ले ली। और आप 2004 में हो अभी। अब हम 20 साल पीछे जाते हैं टाइम ट्रेवल। 2004 में आपको दिखाया गया कि बेटा 2024 में आप ऐसे होगे। आप में से कितने लोग यस बोलते और बोलते यस यही तो मुझे बनना था। 2004 में आपको आज की हालत दिखाई गई होती। जैसे आप आज हो। आपने स्वीकार किया होता क्या? नहीं किया होता ना। नहीं किया होता ना।

तो अपने जैसा बने रख कर के, आप वो बने हो जो आपको स्वीकार….।

तो फिर कॉन्फिडेंस में क्यों भरे हो कि आगे भी अपने हिसाब से चलना है। पीछे अपने हिसाब से चले तो आज वो बन गए जो स्वीकार नहीं है। तो उसी हिसाब से फिर आगे की यात्रा क्यों करना चाहते हो? यह कॉन्फिडेंस साइड में क्यों नहीं रखते? हम साइड में रखना तो छोड़ दो। दूसरों पर भी अपना ये आत्मविश्वास थोपते रहते हैं। विशेषकर जिनके ऊपर हमारी ताकत चल जाए। घर में पत्नी हो, लड़का हो, लड़की हो उनके ऊपर चढ़े रहते हैं। तू हमारे हिसाब से चल। तुम अपने हिसाब से चले हो। बताओ तुम्हें क्या मिला? तुम खुद को ही नहीं पसंद करते हो। ये तो छोड़ो कि हम तुम्हें नहीं पसंद करते। क्या तुम खुद को पसंद करते हो? नहीं। तुम भी नहीं अपने आप को पसंद करते। अभी प्रमाण मिल गया आज से 20 साल पहले, तुम्हें तुम्हारी आज की हालत दिखाई गई होती, 2004 में रमेश बाबू को वो तस्वीर दिखा दी जाती जो रमेश बाबू आज 2024 में है तो 2004 वाले रमेश बाबू 2024 वाले को तुरंत रिजेक्ट कर देते। कर देते कि नहीं?

श्रद्धा का मतलब है मैं तो मूर्ख हूं ही। श्रद्धा का मतलब है अपनी सीमाओं को जान लेना। श्रद्धा माने आत्मज्ञान और श्रद्धा माने निष्काम कर्म। श्रद्धा कहती है जो होगा देखा जाएगा। जो मेरे करे हो रहा है उससे तो बेहतर ही होगा जो भी होगा। अपने हिसाब से चल कर के तो मैं 2004 से 2024 तक इस हालत में पहुंच गया हूं। अब अपने हिसाब से नहीं चलूंगा। आगे जो भी होगा, अभी तक जैसा हुआ, उससे तो बेहतर ही होगा। यह श्रद्धा है। और श्रद्धा ना हो तो नचिकेता यमराज के सामने नहीं खड़े हो सकते। मौत से सबको डर लगता है।

श्रद्धा का मतलब है मैं जिस हालत में हूं वो ऐसी हो गई है कि अब मुझे मौत से भी डर नहीं लगता। मौत से वो डरे ना जिसके पास कुछ बचा हो छिन जाने के लिए। मेरे पास है क्या? समझ में आ रही है बात? ये जो आप चल नहीं पाते हो सही रास्ते पर। ये जो गीता को और सच को आप जीवन की परिधि पर, जरा सी जगह में समेटे रहते हो। उसका कारण यही है। आप बहुत आत्मविश्वासी हो। कॉलर ऐसे है बिल्कुल ऊपर। आई एम द डूड। वही कौवा बिरयानी वाला वो मुझे बहुत पसंद है बेइंतहा। मतलब उसका जो आत्मविश्वास है गजब। अंत में वो बाबा बन जाता है जब कॉन्फिडेंस पर चलते चलते दुनिया से जबरदस्त चोट पड़ती है, पड़ती जाती है, पड़ती जाती है। एक जगह तो उसकी किडनी निकाल लेते हैं। खूब पिटता है दुनिया से। तो बिल्कुल बावला हो जाता है। और सड़क पे ऐसे पगला के नाचना शुरू कर देता है। तब लोगों को पता चलता है कि ये तो दिव्यात्मा है। हम्म! इतना लूटा, इतना लूटा कि पागल हो गया। उन्होंने कहा यह देखो यह है। और वो उसके कपड़े वपेड़े भी उतार लेते हैं। तो जाने कहां से किसी औरत का पेटीकोट ले आता है। वो पेटीकोट पहन करके सड़क पे पगला रहा है। तो लोग कहते हैं, उसका नाम रख के ‘पेटीकोट बाबा’।

लेकिन उसके साथ भी एक भलाई हुई। उसका आत्मविश्वास इतना आसमान चढ़ा कि फिर गिर के टूट गया। हम अपना टूटने नहीं देते। एक बहुत आईरॉनिकल तरीके से, जो उसके साथ हुआ, वही बुद्धत्व का रास्ता भी होता है। तुम्हें बहुत कॉन्फिडेंस है ना अपने आप पे। तो वो सब कुछ कर लो जो तुम करना चाहते हो। तुम भी बाबा बन जाओगे। क्योंकि फिर तुम्हें दिख जाएगा कि कितने नासमझ हो। कितने मूर्ख हो। दुनिया ने तुम्हें कितना लूटा है। सिर्फ जेब ही नहीं काटी है। किडनी भी काट ली। पर हम उतना भी होने नहीं देते हैं। बिल्कुल बच-बच के चलते हैं बच-बच के। बच-बचके कहां तक की यात्रा करते हैं? श्मशान तक की। बिल्कुल अपने आप को बचा करके यहां तक लाया हूं। ओह माय गॉड। बचा के लाए हो? काहे के लिए बचा के लाए हो? आ रही है बात समझ में?

बिना विनम्रता के कैसे सीखोगे? जब तक भीतर यही भाव बना रहेगा कि मैं ही डूड हूं, तब तक कैसे होगा? उपनिषद के सामने भी रिक्लाइनर पर बैठोगे तो कैसे होगा? bookmyshow.com, पॉपकॉर्न किधर है भाई? अरे पॉपकॉर्न बोल के मक्का खिला दिया। कौवा बिरयानी। कुछ आ रही है बात समझ में? आत्मविश्वास का टूटना माने लैक ऑफ कॉन्फिडेंस नहीं होता। लैक ऑफ सेल्फ वर्थ नहीं होता। लैक ऑफ सेल्फ एस्टीम नहीं होता। उसका मतलब होता है जबरदस्त साहस। ऐसा साहस जो परवाह ही नहीं कर रहा कि आगे क्या होगा। मुझे कॉन्फिडेंस की जरूरत नहीं है। बात यह नहीं है कि जरूरत है पर कॉन्फिडेंस नहीं है। मुझे अब कॉन्फिडेंस की जरूरत ही नहीं। टू कनफाइड इज टू प्लेस योर फेथ इन समथिंग। यही अर्थ होता है कनंफाइड का। मैं अब आवश्यक नहीं समझता कि भीतर जो अहंकार बैठा हुआ था, मैं उसमें श्रद्धा रखूं। छोड़ दिया उसको। एक अर्थ में मैं कह रहा हूं कि मैं अब इतना मजबूत हो गया हूं कि आगे जो भी होने वाला है मैं देख लूंगा। मैं इसको कह रहा हूं कॉन्फिडेंस का टूटना। आगे जो भी होने वाला है मैं देख लूंगा। पर मुझे मेरे जैसा नहीं रहना है। आ रही है बात समझ में?

नहीं आ रही? नहीं आ रही है तो फिर प्रेय वाला रास्ता है। जो अच्छा लगे वो करो। संविधान भी तो आपको यही हक़ देता है। जिसको जो मन में आए वो करो। प्रिय रास्ता यही है। जिसको जो मन में आए करो। माय लाइफ माय रूल्स। यही है प्रेय रास्ता। मुझे जो पसंद है वो मैं करूंगा। फ्रीडम का मतलब यह है कि अभी मुझे पिज़्ज़ा खाना है। तो अपुन अभी पिज़्ज़ा मांगता। ये फ्रीडम है। जिनके लिए फ्रीडम के ऐसे अर्थ हैं उनके लिए उपनिषद नहीं है। हमारे तुम्हारे लिए सभ्यता का विकास या टेक्नोलॉजिकल एंपावरमेंट और क्या है? यही तो है कि अब रात में अगर तुम्हें 3:00 बजे भी पिज़्ज़ा खाना है तो आ जाएगा घर।

उपनिषद हंसते हैं दुनिया अजब दीवानी रे। ये इसको फ्रीडम मान रहे हैं। कि अपुन को जो जब मांगता तभी मिल जाता। यही फ्रीडम है। इससे क्या पता चल रहा है आपको? प्रिय ना लगूं तो मुझे देखोगे भी नहीं। और ये बहुत अच्छे से जानते हैं क्योंकि वीडियो का काम यह करते हैं। यह कह रहा है कुछ नहीं। आप जो अभी बोल रहे हो यह, आप 10 साल पहले भी बोल रहे थे। कोई नहीं सुनता था आपको। कई बार तो ऐसे ही कहीं टीशर्ट पहन के बैठ जाते थे। शॉट्स में बैठ के भी कई बार अंधेरे में बैठ जाते थे। बत्ती नहीं जलाते थे। उसमें वीडियो की जगह जब देखा जाता तो सिर्फ ऑडियो होता था। देखे ऐसे, फिर उस पर ऊपर से तस्वीरें चिपकाई जाती थी। कुछ इसलिए कि अंधेरा है और कुछ इसलिए कि कई बार जो हालत है वो दिखाने लायक नहीं है। तस्वीर चिपका दो भाई। बात तो यही तब भी बोल रहा था पर कोई सुनने को तैयार नहीं था। फिर वहां से बढ़कर के इन लोगों ने कहा, ‘कुछ ढंग का पहन लो इंसान जैसे लगो।’ तो इंसान जैसा लगाने के चक्कर में बाबा बना दिया कुर्ता पजामा। और यह वो गेटअप के नाम पर। इतनी लंबी दाढ़ी, उसमें कुछ बात आगे बढ़ी पर उसमें खतरा ही हुआ कि लोगों ने मुझे सचमुच बाबा ही मान लिया। तुम क्या समझ रहे हो यार?

मेरा नहीं इसका काम है ये। फिर ये आ गया और जब से ये आ गया तब से मामला और बढ़ गया है। यह धर्म है हमारा। धर्म के नाम पर भी हमें क्या चाहिए? कुछ ऐसा जो नैना अभिराम हो। नैना समझ रहे हो जो इंद्रियों को अच्छा लगता हो। ऐसा कुछ नहीं जो अहंकार को विगलित करता हो। कुछ ऐसा जो आंखों को अच्छा लगता हो और अगर मुझे आप इसलिए सुनते हो कि यह मेरा आपको अच्छा लग रहा है तो मुझ में और किसी ग्लैमर मैगजीन की आई कैंडी में क्या अंतर है? आई कैंडी समझते हो? वो जो तमाम तरीके के प्रोसेससेस करा के, बोटक्स करा के और 100 तरह की सर्जरी करा करके, जो लाइन ट्रीटमेंट करा करके, आर्टिफिशियल बियर्ड भी होती है ताकि लगे कि चेहरा मैस्कुलिन है। बहुत कुछ तरीके की चीजें होती हैं। भारत में आमतौर पे हमारे जो गाल हैं वो भरे-भरे होते हैं। तो थोड़ी ग्रीक लुक देने के लिए ट्रीटमेंट होता है। जिसमें गाल ऐसे अंदर को आ जाते हैं। ऐसे ये जेंट्स में कह रहा हूं। ये सब करा के क्या अंतर रह गया है, फिर उसमें और धर्म में?

और मेरा कोट तो छोटी चीज है। यही काम, क्या हम अपने पूज्य देवी देवताओं, आराध्यों के साथ भी नहीं करते? हमने क्या उनके भी बटक्स ट्रीटमेंट नहीं करा दिए हैं? नहीं करा दिए? गणपति के एब्स बना दिए? बताओ उनके उदर के बारे में क्या बोलते हैं हैं दामोदर। उनके शरीर के बारे में क्या बोलते हैं? महाकाय। लेकिन क्योंकि तुम्हारी फिल्मी आई कैंडीज में तुमको ऐब्स अच्छी लगती हैं। तो तुमने गणपति के भी ऐब्स निकाल दी। वही काम राम के साथ कर दिया। श्री कृष्ण को तो बिल्कुल ही बना दिया ऐसे जैसे क्या बोलूं रोमियो। यह है धर्म को जीवन की परिधि पर रखना और मजेदार बात यह है कि ज्यादातर लोग जो धर्म को जीवन की परिधि पर रखते हैं, परिधि तो समझते हो ना? कहीं बोले ही जा रहा हूं। बोले ही जा रहा हूं। परिधि परिधि कौन सी परिधि की बात हो रही है? परिधि माने…

श्रोतागण: सरकमफरेंस।

आचार्य प्रशांत: तो यह है जैसे तो इसको अगर लोगे तो यह परिधि है। (ग्लास को हाथ में ले, उसका गोलाकार कोण दिखाते हुए।) परिधि सरकम्फ्रेंस, किनारा। ज्यादातर जो लोग धर्म को जिंदगी के किनारे पर रखते हैं उन्हीं को सबसे ज्यादा रुचि होती है अपने आप को धार्मिक बोलने में। जैसे बच्चे। दिवाली होगी तो आप घर में थोड़ा पहले पूजन करते हो, आमतौर पर पूजन शाम को होता है और उस समय पर बच्चे, क्या मचल रहे होते हैं? यह सब जल्दी से निपटाओ ताकि…

ये है धर्म हमारे लिए। जल्दी से निपटा के आगे बढ़ने वाली बात। वो केंद्र पर नहीं है जिंदगी के। वो निपटाने की बात है। वो कोने की बात है। श्रेय और प्रेय एक साथ नहीं चल सकते।

आचार्य जी कड़वा बहुत बोलते हैं। अच्छा? मैंने क्या कड़वा बोला? और बोल का स्वाद कैसे होता है यह भी बता दो। शब्द का स्वाद कैसे हो सकता है? शब्द का तो प्रभाव हो सकता है। वो प्रभाव आलोकित करने का है या और आलोक मिटा देने का है? बोलो ना? अब आपको अगर अंधेरे में ही मधुरता लगती है तो मैं क्या करूं? फिर जब आलोक आता है तो कड़वा लगता है। अगर मैं सचमुच रुचि रखता हूं आपको समझाने में तो मैं क्यों जबरदस्ती कड़वा बोलूंगा? मुझे ही पता है कि कड़वा बोल करके मेरा ही काम खराब होगा। आप नहीं सुनोगे, आप नहीं समझोगे।

पर हम कह रहे हैं, ‘नहीं जीवन के केंद्र पर क्या रहेगी?’ मधुरता। मधुरता माने वो सब मीठी चीजें जो हमको पसंद है। और उन मीठी चीजों की हमें आदत लग गई है। हम ये नहीं देख पा रहे कि उन्हीं मीठी चीजों ने हमें कितनी बीमारियां दे दी हैं। हमें उनकी आदत लग गई है। तो अब आपके सामने में अगर सत्य भी आए तो मीठा बनकर आए। यह आप शर्त रखते हो। यह कैसी शर्त है? और इस शर्त का पालन कैसे करें? उपनिषद आपकी शर्त का पालन करते हैं। गीता आपकी शर्त का पालन करती है। श्री कृष्ण ने तो बोल दिया था ना आपसे ‘निराशी निर्मम’ हो। और आपकी तो शर्त यह रहती है कि आशाएं, आशाएं, आशाएं। दिल है छोटा सा छोटी सी आशा और श्री कृष्ण ने बोल दिया निराशा।

अब क्या होगा फिल्मों का? आप तो बहुत भाव से बोलते हो। बेटा तुझे मेरी ममता की जरा भी कदर नहीं। और श्री कृष्ण ने तो बोल दिया कि निर्मम हो जाओ। ममता को डालो कचरे में। अब क्या करें? तो कड़वा होने का आरोप सबसे पहले लगना चाहिए था किस पर? श्री कृष्ण पर। पर वहां हिम्मत नहीं होती। या मुझे लगता है कि हिम्मत होती है तभी उनको खीर चटाते रहते हो कि कुछ मीठे हो जाए। अब समझ में आया काहे के लिए जाकर के हम अपने सब पूज्यों को मीठी-मीठी चीजों का ही भोग लगाते हैं। नमकीन तो नहीं खिलाई जाती मंदिरों में क्योंकि उन्होंने जो भी सिखाया वो हमें बहुत कड़वा लगता है। ये है बात असली। तो हम कहते हैं कुछ इनका मुंह मीठा कर दिया जाए। मुहावरा भी यही है कि इनके कड़वे मुंह से हमेशा कड़वी बातें निकलती है। मुंह मीठा करो। खीर डाल लो लड्डू डालो पर तुम उनके मुंह में कुछ भी डाल दो। सच तो कड़वा लगेगा ही लगेगा।

संत साहित्य इसलिए वह काम कर जाता है कई बार। जो रिचाएं नहीं कर पाती हैं। रिचाओं में विज्ञान है और संत वाणी में कला है। अहम की हालत को जिस तरीके से संत कवि बयान कर देते हैं वो ऋषियों के भी बस का नहीं है। ठीक वैसे जैसे जो काम आर्ट्स में हो सकता है वह साइंस के बस का नहीं होता ना। ‘सूली ऊपर सेज पिया की’। ‘इश्क है अपने ही खून में नहाना और मुस्कुराना’। ये मतलब समझ रहे हो ना? एक नैक होना चाहिए दर्द झेलने का। श्रेय मार्ग उनके लिए है। इश्क है अपने ही खून में नहाना और मुस्कुराना। या जैसे गालिब एक आग का दरिया है और डूब के जाना है, ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजिए। अब यह बात ऋषि ऐसे नहीं बोल पाएंगे। ऋषि वैसे ही बोलेंगे जैसे यहां बोल दिया है। श्रेय प्रेय एक साथ नहीं चल सकते। इसी बात को फिर संत कला देते हैं। विस्तार देते हैं कि समझो।

‘सर काटे भई धरे…

मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा। तुमको लगता है कि तुम्हारी जिंदगी मीठी है? नहीं। जैसी जिंदगी चल रही है उस जिंदगी का मरण मीठा है। जो तुम भीतर से बने बैठे हो उसकी समाप्ति मीठी है। ऐसी मरनी मरो जिस मरनी गोरख मरी दीठा। समझ में आ रही बात?

और न जाने कितने तरीके। आप उनके पास जाएंगे, वहां आप पीड़ा में आनंद पाएंगे। वो पीड़ा के ही गीत गाते हैं। वहां सारा आनंद ही इसी में है कि विरह बहुत गहरी है। बहुत आंसू है। पर श्रद्धा पूरी है कि मिलन ही नियति है। मिलन तो होना है। सच्चाई है मिलन। उसको कौन टाल सकता है?

अभी मैंने अपने ऊपर बहुत सारा झूठ लाद रखा है। काम मेरा क्या है? इस झूठ को हटाना। जब तक आत्मविश्वास रहेगा मैं अपना झूठ नहीं हटाऊंगा।

आप लोग ये एक्टिविटी करिएगा आज वापस जाकर के। संत साहित्य में सब हम लोग कम से कम पांच ऐसे दृष्टांत खोज कर लाएं जहां मिटने में और पीड़ा में आनंद उभरता हो।

‘मैं मैली पिया उजरे मिलन कहां से होए?’

‘पिया मेरे जागे मैं कैसे सोई री’

‘बिन जागे ना मिलेंगे सजन सखिया’

पिया का स्वभाव है जागृति और मैं कौन हूं? मैं हूं प्रकृति। वो जागृति है मैं प्रकृति हूं। मैं ऐसे पड़ी रहती हूं तो बिन जागे ना मिलेंगे सजन सखिया। मैं जो हूं अगर मैं वही बना रहूंगा तो सजन के मिलने की कोई संभावना नहीं है तो फिर वहां पर आत्मा एक एब्स्ट्रक्शन नहीं रह जाता। आत्मा माने प्रियतम। जैसे, जैसे, सजीव हो गई हो आत्मा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories