जो सामने है, उसपर ध्यान दो

Acharya Prashant

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जो सामने है, उसपर ध्यान दो

प्रश्नकर्ता: मैं अपने जीवन में हारा हुआ महसूस करता हूँ और जीवन की असफलताओं से बहुत अधिक परेशान हो जाता हूँ। इससे कैसे बाहर निकलूँ?

आचार्य प्रशांत: एक-से-एक चोटियाँ हैं चढ़ने के लिए, आई-आई-टी का एग्जाम क्लियर नहीं हुआ बहुत छोटी चोटी है वह। हजारों लोग हर साल करते हैं न क्लियर ? मेरे समय में तो हज़ार-डेढ़ हज़ार सीटें थी आजकल शायद दस हज़ार हो गई हैं। दस हज़ार लोग हर साल करते हैं न क्लियर ? तुम्हें क्या लग रहा है, ये दस हज़ार बड़े शिखर पर जाकर बैठ जाते हैं? उनसे जाकर पूछो वो कहेंगे कि खास तो कुछ हुआ नहीं अभी, हज़ारों चोटियाँ हैं जो अभी बाकी हैं जिनको छुआ नहीं।

एक से एक चोटियाँ हैं, पर वह दिखाई तब पड़ेंगी जब आँखें खोलो। अगर आँखें बंद हैं और मन में बीती बातों के ही सपने चल रहे हैं, तो जीवन में कितना कुछ है बड़ा-बड़ा और बहुत बड़ा वो दिखाई नहीं पड़ेगा। और अगर तुम चूकना ही चाहते हो तो उसका सबसे अच्छा तरीका यही है कि बीते हुए को याद करते रहो और उसी की याद में खोए रहो। यह वर्तमान को चूकने का सबसे अच्छा उपाय है।

यह वैसा ही है जैसे कि कोई अपने साथ करोड़ों लेकर चल रहा हो और उसके दस रूपये कहीं पीछे गिर जाएँ। वह अपने करोड़ों छोडकर वह दस रुपये लेने निकल जाए और उसी की कोशिश में लगा हुआ है। वही उसके लिए बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ है कि अरे मेरा दस रुपया खो गया। और वापिस लौट कर आता है तो क्या पाता है? करोड़ों गए। करोड़ों उपलब्ध हैं उनका खयाल करो न।

अभी तुम्हारे पास जो है इससे ऊँचा कुछ नहीं हो सकता। इसके अलावा कुछ होता ही नहीं है तो तुलना की बात भी नहीं है कि इससे ऊँचा। इससे ऊँचा क्या होगा? कुछ और है जो इससे ऊँचा होगा? तुम जिस स्थिति में हो, तुम जीवन में जहाँ खड़े हो उसके अलावा कुछ है? कुछ विकल्प वगैरह है क्या? इस क्षण में जहाँ बैठे हो इसके अलावा कोई विकल्प है तुम्हारे पास? क्या इसी क्षण में कहीं और हो सकते हो?

यहीं है न? और यहीं पर सारी चोटियाँ हैं। यहीं पर सारी संभावनाएँ और सारी उपलब्धियाँ हैं। पर करोड़ों गँवा दोगे अगर वो दस रुपये की याद में बैठे रहे तो। वरना और कोई करोड़ों गँवाए ही क्यों? इसीलिए गँवाता है। यह याद रहेगा? जो दस रूपये की याद में बैठे रहते हैं वह अनिवार्यतः करोड़ों गँवा देते हैं।

उसको छोड़ो पीछे, रात गई बात गई। अभी जो सामने है उसका खयाल करो, उसमें डूबो और तुम हैरान रह जाओगे। तुम कहोगे बाप-रे-बाप इतनी बड़ी संभावना सामने थी और मैं किस छोटी चीज़ के खयाल में डूबा हुआ था। कहाँ फँसा हुआ था! एक बात का मैं पक्का आश्वासन दे सकता हूँ: जिंदगी में ऊँची-से-ऊँची संभावना कभी पीछे नहीं छूटती।

कोई भी कभी यह न कहे कि जो कुछ भी उच्चतम था, बड़े-से-बड़ा था वह अब अतीत में है, वह मैं पीछे छोड़ आया हूँ। और अब ज़िंदगी ढलान पर है, अब तो मेरे सामने जो है वह छोटा-मोटा है, ऐसा कभी नहीं होता। ज़िंदगी तो उत्तरोत्तर बड़े हो जाने का नाम है। यहाँ तो लगातार जो है वह बड़े-से-बड़ा है और उससे बड़ा कुछ हो नहीं सकता, वह अतुलनीय है। कहा न निर्विकल्पता है।

तुम कभी ढलान पर नहीं होते। कोई कभी यह न कहे ‘*द बेस्ट इज़ बिहाइंड मी*’ (श्रेष्ठ पहले था)। ‘द बेस्ट इज़ नेवर बिहाइंड यू, द बेस्ट इज़ ऑल्वेज़ बिसाइड्स यू (श्रेष्ठ तुम्हारे पहले नहीं था, श्रेष्ठ तुम्हारे साथ है)।

प्र२: जैसे कि अगर मैं किसी भी चीज़ में सक्सेस पाता हूँ, मैं कोई कंपेटिशन जीतता हूँ, तो उस समय एक हैप्पीनेस की फीलिंग होती है। वह एक अच्छी फीलिंग होती है। सर आप कैट टॉपर रहे हैं, आपने आई-ए-एस में एक सौ चौरासी रैंक लाई, आप आई-आई-टी में भी रहे थे। आपको किसी भी बड़ी कम्पनी या एम-एन-सी (बहुराष्ट्रीय कंपनी) में एक अच्छा जॉब मिल सकता था जिससे सोसाइटी आपको वही हैप्पीनेस देती। लेकिन आपने हमें एडुकेट करने का सोचा। तो इससे जो हैप्पीनेस आपको मिलती है क्या यह उसी तरह की हैप्पीनेस है, या उससे बहुत बढ़कर है?

आचार्य: मुझे तुम्हारे साथ रहने से कोई हैप्पीनेस नहीं मिलती है। पहले तो यह भ्रम मिटा दो कि मैं तुम्हारे पास आता हूँ तो मुझे खुशी मिल जाती है। तुम्हारे पास खुशी है?

प्र२: नहीं।

आचार्य: तो मुझे कैसे दोगे? बड़ी अहंकार की बात कह दी तुमने कि मैं यहाँ आता हूँ तो तुम मुझे खुशी दे दोगे, कैसे दे दोगे? मैं यहाँ आता हूँ क्योंकि मैं मस्त हूँ अपने में। मैं यहाँ इसलिए नहीं आता हूँ कि मुझे खुशी मिल जाएगी।

जो भी मिलने की तलाश में होते हैं वो भिखारी होते हैं। मैं यहाँ इसलिए नहीं आता हूँ कि मुझे कुछ मिल जाए, मैं यहाँ इसलिए आता हूँ क्योंकि मुझे कुछ मिल गया है। मैं किसी खुशी की तलाश में नहीं घूम रहा हूँ।

तुम्हें जो रास्ते बताए जाते हैं उनमें कहा जाता है कि ये खुशी की ओर ले जाएँगे और उन रास्तों की कोई मंज़िल नहीं होती। तुम बस चलते रहते हो, खुशी कभी आती नहीं। हाँ, मील के पत्थर मिलते जाते हैं: खुशी पाँच-सौ मील आगे, खुशी। मन में ऐसे लिखा ही रहता है, गोल-गोल घूमते ही रहो।

जो थोड़ा सा आँख खोलकर के देखता है, वह कहता है, "बार-बार, बार-बार यही बताया जा रहा है, कभी पाँच-सौ मील आगे, कभी चार-सौ मील आगे, कभी कहा जाता है ऊपर है, कभी दाएँ, कभी बाएँ, जितनी दिशाएँ होती हैं हर दिशा में तीर लगा हुआ है। कभी इधर जाओ, कभी उधर जाओ, यह क्या नचा रखा है, क्या बेवकूफ़ बना रखा है, तो वह कहता है कि ज़रा थमूँ और समझूँ कि माजरा क्या है! ऐसे चलते-चलते तो उम्र बीत रही है।" और जब वह थमता है तो कहता है, "लो! यहीं तो है। ये तो सब बेवकूफ़ बनाने के आयोजन थे कि इधर जाओ और उधर जाओ, यहीं तो है पाँवों के नीचे, दिल के भीतर। मिल गई।" ऐसे नहीं मिल गई कि हाँसिल किया, ऐसे नहीं मिल गई कि बड़े सूरमा थे, कहीं पहाड़ पर चढ़कर फतह कर के लाए हैं खुशी को, जो और लोग नहीं कर पा रहे थे इन्होंने करके दिखाया।

सही बात तो यह है कि औरों ने मुझसे कहीं ज़्यादा मेहनत की है, अगर कोई काबिलियत का प्रदर्शन करने की प्रतियोगिता हो तो उन्होंने ज्यादा काबिलियत दिखाई है, वो बेचारे बड़ी मेहनत करते हैं, घनघोर। दिन-रात खटते हैं। मैं तो मौज मना रहा हूँ। खूब मेहनत की है उन्होंने। खूब दौड़ लगाई है खुशी के पीछे। मैं तो आलसी था। मैं तो रुक गया। या कौन दौड़े?

यूँ ही कहाँ कौन दौड़े, और दौड़ने से रुके तो पता चला पहुँच गए हैं। पर देख रहा हूँ कि चारों तरफ सब दौड़ रहे हैं। यही छोटी सी बात बताने आता हूँ। तुमसे कुछ पाने थोड़े ही आता हूँ। पाना होता तो मैं भी दौड़ ही रहा होता न अभी? मुझे देखकर लगता है दौड़ता होऊँगा?

(श्रोतागण हँसते हैं)

इस बात की सच्चाई ऐसे बैठे-बैठे नहीं जानोगे, कि दौड़ते जा रहे हो और सोच रहे हो कि सुन भर लेंगें तो पता चल जाएगा। थोड़ा सा थमो। क्षण भर को ही सही थमो। फिर तुरन्त पता चल जाएगा कि बात क्या है, थमने में ही सुनाई पड़ता है। थमे नहीं तो सुन नहीं पाओगे, और थमे तो सब समझ जाओगे कि क्या कह रहे थे ये इतने दिनो से, तुरन्त समझ जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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