जो कठिनतम है उसे साध लो, बाकी अपने आप सध जाएगा

Acharya Prashant

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जो कठिनतम है उसे साध लो, बाकी अपने आप सध जाएगा

प्रश्नकर्ता: कृष्ण अध्याय नौ में बताते हैं कि वे सब भूतों में समभाव से व्यक्त हैं, वहीं अध्याय दस में बताते हैं कि जो कुछ भी विभूतियुक्त, कांतियुक्त और शक्ति युक्त है, वो कृष्ण की अभिव्यक्ति है। अध्याय नौ में कृष्ण कहते हैं कि ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद मैं ही हूँ और अध्याय दस में कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। अध्याय दस में श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि छल करने वालों में मैं जुआ हूँ। अगर कृष्ण सर्वत्र हैं तो इतना विस्तार से बताने का क्या तात्पर्य हो सकता है? आचार्य जी, क्या ऐसा भी कुछ है जो कृष्ण की अभिव्यक्ति नहीं है? समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: कृष्ण की अभिव्यक्ति तब नहीं है जब आप उसे मानने से इंकार कर दें। प्रश्न यह नहीं है कि क्या कहीं पर कृष्ण अभिव्यक्त नहीं है, प्रश्न होना चाहिए क्या कोई ऐसा भी है जिसके लिए कृष्ण अभिव्यक्त नहीं है? अपनी ओर से तो कृष्ण अभिव्यक्त-ही-अभिव्यक्त हैं, हमारी ओर से अभिव्यक्त नहीं हैं वो। तो ऐसा निश्चित रूप से कोई है जिसके लिए कृष्ण नहीं हैं—वो हम हैं। हमें कृष्णत्व दिखाई दे तो कृष्णत्व है, हमें कृष्णत्व न दिखाई दे तो हमारे लिए तो नहीं है न।

चौथा अध्याय, ग्यारहवाँ श्लोक: कृष्ण कहते हैं कि जो मुझे जैसा देखता है, जैसा भजता है, मैं भी उसके लिए वैसा ही हो जाता हूँ।

तुम मान लो कि जगत में कृष्ण नहीं है तो जगत वास्तव में तुम्हारे लिए कृष्णहीन ही हो जाना है। कृष्णहीन जगत कैसा होगा? आनंदहीन। जो मान ले कि जगत कृष्णहीन है, जगत उसके लिए कृष्णहीन हो जाएगा। तुम जो मानोगे, तुम्हारा संसार वैसा ही हो जाएगा। और यह कृष्ण की इच्छा है, उन्होंने पूरी मुक्ति दे रखी है जीव को। वो कहते हैं कि मुझे पाना है या नहीं पाना है, तुझे यह मुक्ति भी, यह चुनाव, यह विकल्प भी उपलब्ध है। तू जगत में मुझे देखना चाहे तो देख, नहीं देखना चाहता तो मत देख। हाँ, यथार्थ सुनना चाहता है मेरी तरफ़ का तो मैं बता देता हूँ कि सब कुछ मैं ही हूँ—यह यथार्थ है। और फिर उपाय बताया है उन्होंने स्वयं को पाने का। उपाय यह है कि जो कुछ इस जगत में उच्चतम है, तू उसको पाने की साधना कर। है तो इस जगत में जो कुछ भी, वह मेरी ही अभिव्यक्ति है, लेकिन यह बात तुझे दिखाई नहीं देगी। यह बात दिखाई देने का उपाय क्या है? कि जो कुछ भी ऊँचे-से-ऊँचा है जगत में, उसे पाने निकल। जब ऊँचाई की साधना करेगा तो कृष्ण को पा लेगा। समझ में आ रही बात?

तो यह बात दोतरफ़ा हो गई है। कुछ विरोधाभासी हो गई है, इसको समझना पड़ेगा। जुए में भी कृष्ण हैं, जो निकृष्टतम छल चल रहा है, उसमें भी कृष्ण हैं। इस जगत के पातालों में, गड्ढों में, गंदी और नारकीय जगहों में भी कृष्ण ही हैं। लेकिन कृष्ण हैं उन सब जगहों में, यह तुम्हें अगर जानना है तो तुम्हें उन जगहों को छोड़ना पड़ेगा, तुम्हें उठना पड़ेगा उच्चतम की ओर, जैसे कि कोई अगर पहाड़ के शिखर पर चढ़ जाए तो उसे बहुत दूर तक सब साफ़ दिखाई देने लग जाता है, जैसे कि कोई हवाई जहाज पर बैठ जाए तो उसे नीचे का पूरा परिदृश्य स्पष्ट हो जाता है।

दुनिया में कृष्ण ही हैं, कृष्ण की ही दुनिया है, लेकिन यह बात समझोगे तब जब तुम दुनिया से ऊपर उठोगे। जो दुनिया में ही रंजित है, जो दुनिया से ही लिपटा हुआ है, उसे कभी समझ में नहीं आएगा कि यह दुनिया चीज़ क्या है। ‘दुनिया क्या है?’, अगर यह समझना है तो दुनिया से ऊपर उठो।

तो इसीलिए कृष्ण एक तल पर यह कहते हैं कि मैं ऋग्वेद हूँ, यजुर्वेद हूँ, सामवेद हूँ और फिर यह भी कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। यह क्या बात है? अभी तो कह रहे थे कि चारों वेद मैं ही हूँ और अब कह रहे हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ, यह क्या बात है? सब कुछ वहीं हैं, लेकिन सब कुछ वही हैं, यह जानने का उपाय है ऊपर उठना।

जो ऊँचे-से-ऊँचा है, उसकी ओर जाओ, नीचा अपने-आप समझ में आ जाएगा। जो कठिनतम है, उसको साध लो, बाकी सब अपने-आप आसान हो जाएगा।

ब्रह्मविद्या को कठिनतम कहा गया है। कहा गया है कि जो बिल्कुल समझ में न आने वाली चीज़ है, वह ब्रह्मविद्या है। जैसे यही कि "मैं सब कुछ हूँ लेकिन सब चीज़ों में जो ऊँचे-से-ऊँचा है, वह मैं हूँ। मैं गोरैया भी हूँ, मैं कौवा भी हूँ, मैं तोता भी हूँ, मैं मैना भी हूँ।" और फिर कहते हैं कि "मैं तो पक्षियों में गरुड़ हूँ।" थोड़ी देर पहले तो कह रहे थे तोता हूँ, मैना हूँ, कोयल हूँ, कौआ हूँ और अब क्या बोल रहे हैं? मैं तो जी गरुड़ हूँ।

"नहीं, आप बताइए साफ़-साफ़, आप सब कुछ हैं या सिर्फ़ गरुड़ हैं?" वो मुस्कुरा देंगे, कहेंगे कि मैंने दोनों बातें बोल दीं, तुम अगर समझ सकते हो तो समझ लो।

तो विद्याओं में सबसे क्लिष्ट और सबसे कठिन ब्रह्मविद्या है क्योंकि दिमाग को झंझोर डालती है। यह सामान्य तर्क पर चलती ही नहीं, इसमें विरोधाभास है। बाकी सब ज्ञान के जो क्षेत्र हैं, वो तार्किक होते हैं, उनमें अंतर्विरोध नहीं होते। दो और दो कभी चार और कभी पाँच नहीं हो सकता, यह नहीं कहेंगे आप कि पिछले अध्याय में दो और दो चार था, इस अध्याय में दो और दो पाँच हो गया। गीता में बात पलट जाती है। सातवें अध्याय में कुछ और है और नौवे, दसवें में कुछ और है। और बातें दोनों ही सही हैं। जो विरोधाभास को साथ लेकर चल सके, वह मानवों में उच्चतम है। नहीं तो आदमी कहता है कि बता दो यह सफेद है या काला, या तो सफेद होगा या काला होगा। जो यह समझ पाए कि सफेद होकर भी काला है और कालेपन में ही सफेदी है, वह समझ लो आदमियों में सर्वश्रेष्ठ हो गया, नरश्री हो गया।

जिसने ब्रह्मविद्या सीख ली है, उसको बाकी सब चीज़ें बड़ी आसानी से आ जाती हैं, वो किसी भी कला में पारंगत हो जाएगा, वह किसी भी विज्ञान को बड़ी आसानी से सीख लेगा। उच्चतम को पा लिया न, नीचे वाले तो सब सध ही जाते हैं, है कि नहीं?

फिर समझिएगा, कृष्ण की दृष्टि से सब कुछ वो ही हैं। अच्छे वाले भगवान वो नहीं है, दयानिधान, करुणानिधान, सब अच्छा-अच्छा करने वाले। वो कह रहे हैं कि जुआ में भी मैं हूँ, हत्या में भी मैं हूँ, जन्म में मैं हूँ, तो मृत्यु में भी मैं ही हूँ। साफ़ जगहों में मैं हूँ, तो गंदी जगहों में भी मैं ही हूँ। सब कुछ मैं ही हूँ। द्वैत के दोनों सिरों पर मैं हूँ।

यह मत कह देना कि ईश्वर तो दयालु है, न्यायप्रिय है, सब जीवों से प्रेम मात्र करता है। वो कह रहे हैं कि नहीं, प्रेम-व्रेम की कोई बात नहीं है। जीव जैसा मुझे देखता है, वैसे ही मैं जीव को देखता हूँ, प्रेम वग़ैरह की कोई बात नहीं। तुम मेरे लिए जैसे हो, मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ तुम्हारे लिए। यह सब हटा दो कि वहाँ पर बूढ़ा परमपिता बैठा हुआ हूँ जो सबके ऊपर प्रेम-पुष्प बरसा रहा है, वैसा कुछ भी नहीं है। तुम मेरी उपेक्षा करो, मैं तुम्हारी उपेक्षा कर दूँगा।

कृष्ण बहुत आगे की बात कर रहे हैं। कृष्ण हमारे सिद्धांतों पर नहीं चलेंगे, और वो यह भी कह रहें हैं कि मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं पर नहीं चलता; मैं कर्मफल पर चलता हूँ। हम सोचते हैं कि जाएँगे भगवान के सामने, प्रार्थना वग़ैरह करेंगे, काम हो जाएगा। वे कह रहे हैं कि यह सब कुछ नहीं, मैं तो योग्यता देखता हूँ, मैं तो कर्मों का फल देखता हूँ। समझ में आ रही बात?

तो कृष्ण ने जब पूरी माया ही रची है तो उस माया में जो तथाकथित अच्छाइयाँ है, वो भी कृष्ण की और जो तथाकथित बुराइयाँ है, वो भी कृष्ण की। या आप यह कहेंगे कि जन्म देने वाले तो कृष्ण हैं और मारने वाला कोई एंटी -कृष्ण है? कोई अकृष्ण तो आ नहीं गया, मार भी वही रहे हैं बैठ करके। कुछ ऐसा हो रहा है दुनिया में जो आपको बहुत भा रहा है, वह तो कृष्ण ने करा ही, कुछ ऐसा हो रहा है दुनिया में जो बिल्कुल ही निर्मम है, क्रूरतापूर्ण है, अन्यायपूर्ण है, उसको भी करवाने वाले कौन है? कृष्ण ही हैं।

यह यथार्थ है संसार का, प्रकृति का, माया का। लेकिन इस यथार्थ को समझने के लिए आपके पास एक ही तरीका है, वह तरीका यह है कि इस दुनिया के क्षेत्र में जो ऊँची-से-ऊँची जगह आप हासिल कर सकते हैं, वो करें। ऊँची-से-ऊँची जगह से मतलब यह नहीं है कि नेता बन जाओ या पदवी इकट्ठी कर लो, अफसर बन जाओ; चेतना के तल की ऊँचाई हासिल कर लो, फिर वह बात समझ में आएगी जो पहले कही गई। कौन सी बात? कि सब कुछ कृष्ण का है। बात समझ में आ रही है? तो एक बात यथार्थ की है और दूसरी बात उपाय की है। स्पष्ट हो रहा है?

गरुड़ हो जाओ फिर समझ जाओगे कि कोयल, कौवा, तोता, मैना, सब कृष्ण हैं। गरुड़ हुए बिना नहीं समझ पाओगे। ऊँचाई हासिल करो फिर यथार्थ समझ में आएगा। ऊँचाई जब तक हासिल नहीं करोगे तब तक यही कहते रहोगे कि अच्छा-अच्छा भगवान का, बुरा-बुरा शैतान का। कृष्ण कह रहे हैं कि भगवान तो मैं हूँ ही, बेटा, शैतान भी मैं ही हूँ।

भारत में और पश्चिम में यह बहुत बड़ा अंतर रहा है। पश्चिम ने शैतान को भगवान के खिलाफ़ खड़ा करा। पश्चिम में दो होते हैं — एक भगवान और शैतान। भारत में एक ही होता है, शैतान उसका (कृष्ण का) बेबी होता है। कृष्ण कहते न कि माया भी मेरी ही है। शैतान भारत में भगवान के खिलाफ़ नहीं रहा है, शैतान भारत में भगवान का खिलौना रहा है—खिलाफ़ नहीं, खिलौना। तो कृष्ण अपनी माया से मनोरंजन करते हैं। जितनी शैतानी हरकतें हैं, वो भी फिर कराने वाले कौन हुए? कृष्ण ही हुए। यह लीला है। इसीलिए पश्चिम में लीला जैसी कोई बात नहीं, उन्हें लीला शब्द ही नहीं समझ में आता आसानी से। उन्हें गुड-बैड (अच्छा-बुरा) समझ में आता है, वर्च्यू-वाइस (गुण-दोष) समझ में आता है, होलीनेस (पवित्रता) और ईविल (बुराई) समझ में आता है; लीला नहीं समझ में आती कि जहाँ पर कृष्ण ही माया फैला रहे हैं, यह बात उन्हें समझ में नहीं आती। बोलते हैं, “यह कैसे हो सकता है? कृष्ण को तो अच्छा होना चाहिए न, वह माया क्यों फैला रहे हैं?”

ऐसा ही है, भाई, अद्वैत। दो हैं ही नहीं। तुमने तो भगवान और शैतान अलग-अलग कर दिए, हमारे यहाँ अद्वैत है, एक। वही माया फैला देता है और वही गुरु बनकर प्रकट हो जाता है माया काटने के लिए, यही उसके दो रूप हैं। सत्य के समझ लो दो बाजू हैं – एक माया और एक गुरु। माया उसने फैला रखी है जीव को भरमाने के लिए और फिर गुरु को भेज दिया बीच में माया को काटने के लिए। क्यों कर रहे हो, भाई, यह सब? कोई जवाब नहीं है, बस ऐसा ही है। ‘क्यों’, ‘कहाँ’, ‘किसलिए’, ‘कब’, यह सब सवाल नहीं पूछने हैं। मालिक की मर्ज़ी, बात ख़त्म।

प्र२: आचार्य जी कृष्ण का वास्तविक अर्थ क्या है और कृष्ण-तत्व को कैसे पाया जाए?

आचार्य: ‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ है वह जो आपको खींचे, जिसमें कर्षण हो, कर्षण। जिसमें कर्षण हो सो कृष्ण। आकर्षण जानते हैं न, वैसे ही कर्षण जो आपको खींचे। तो चेतना को जो खींचे ले रहा है, जिसके लिए आपका मन व्याकुल है, उसका नाम कृष्ण। और क्या पूछा?

प्र: कृष्ण-तत्व को कैसे पाया जाए?

आचार्य: प्राप्ति का नहीं, खेल मुक्ति का है। कृष्ण-तत्व को पाना नहीं होता, जो फिज़ूल पा रखा है, उसको गँवाना होता है। कृष्ण-तत्व कहाँ है? बगल के घर में छुप गया है क्या कि आप पाने जाओगे। वह कभी खोता नहीं है, बस आच्छादित हो जाता है। बताते हैं न कृष्ण ख़ुद ही कि जैसे सूरज बादलों के पीछे छिपा रहता है, गर्भ में जो शिशु होता है, वह गर्भ में छुपा रहता है गर्भ में जो द्रव्य है उनके अंदर, अग्नि धुएँ के नीचे छुपी रहती है, वैसे ही सत्य भी छुपा रहता है। खो नहीं जाता, पाने की बात नहीं है, गँवाने की बात है।

और जैसे ही यह बात आती है वैसे ही अध्यात्म फिर अरुचिपूर्ण लगने लग जाता है। लोग अध्यात्म में भी पाने ही आते हैं कि कुछ मिल जाएगा। यहाँ पाने का खेल ही नहीं है, मिटाने की बात है। व्यर्थ की चीज़ें छोड़ दो, कृष्ण की प्राप्ति पहले ही हो चुकी है, दिख जाएगा। कृष्ण आपको तब भी प्राप्त थे, जब आप नहीं थे, फिर आप हो गए *(हँसी)*। कृष्ण आपको भली-भाँति, भरपूर प्राप्त थे, जब आप नहीं थे, फिर आप हो बैठे। अब हो बैठे हो तो भुगतो, किसने कहा था हो बैठने के लिए?

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।

निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १०, श्लोक ९

प्र: परम पूज्य आचार्य जी, यह लगता है कि साधना या परम की चर्चा आदि वस्तुतः एक कल्पित ज्ञात की एक कल्पित अज्ञात को पाने की ही चेष्टा है और इन सब कल्पनाओं का टूटना निश्चित ही है। इस संदर्भ में उपर्युक्त श्लोक का तात्पर्य क्या है? और ‘मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करने’ से क्या आशय है? क्या जीव के लिए द्वैत का निरंतर बना रहना निश्चित है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य: सब कल्पित हो सकता है, ज्ञात व अज्ञात। कह रहे हैं कि साधना और परम की चर्चा वास्तव में एक कल्पित ज्ञात की एक कल्पित अज्ञात को पाने की कोशिश है। एक कल्पित ज्ञात से प्रश्नकर्ता का आशय है अहम्, वह जो कुछ पाने की कोशिश कर रहा हूँ और कल्पित अज्ञात से आशय है वह जिसको पाने की कोशिश की जा रही है। तो कह रहे कि यह सब कुछ वही तो है कि एक काल्पनिक इकाई एक दूसरी काल्पनिक इकाई को पाने की कोशिश कर रही है। कौन सी काल्पनिक इकाई? यह जो ‘मैं’ हूँ, यह दूसरी काल्पनिक इकाई को पानी कोशिश कर रही है जिसका नाम है सत्य, परमात्मा या कृष्ण इत्यादि। तो कह रहे हैं कि यह तो सब कल्पना कल्पना का खेल हुआ, आचार्य जी, इसमें रखा क्या है?

बेटा, सब कल्पना का खेल होगा जैसा सपना कल्पना का खेल होता है। पर सपने में ही अगर दिल का दौरा आ गया तुम्हें तो? कल्पना को तुम क्या कम ज़ोरदार समझ रहे हो। सपने में हालत देखी है कभी अपनी? दिल का धड़कना और पसीने का बहना। सपना जैसा भी होगा, तुम मुझे यह बताओ कि उसमें तुम्हारी हालत क्या है? होंगी कल्पनाएँ, अगर तुम इतना ही समझते होते कि यह सब कुछ काल्पनिक है, तो तुम इसमें दु:ख क्यों झेल रहे होते। कसौटी दु:ख है न, यह कह देने भर से थोड़ी हो जाएगा कि आचार्य जी, 'अ' (प्रश्नकर्ता) तो काल्पनिक है। 'अ' अगर काल्पनिक है और जानता है भली-भाँति कि काल्पनिक है तो इतना परेशान क्यों है? निश्चित रूप से कहीं-न-कहीं वह अपने-आपको यथार्थ समझता है, सत्य समझता है, कल्पना नहीं जानता।

कल्पना से मुक्ति का प्रमाण है आनंद। आनंद है अगर तो फिर खूब कर दो घोषणा कि आचार्य जी, यह तो कल्पनाओं का खेल है, मुझे खेलना नहीं। मैं कहूँगा कि मत खेलो, तुम तो वैसे ही स्वस्थ हो, आनंदित हो, मुक्त हो, उड़ो। तुम्हें क्या आवश्यकता है फिर अध्यात्म इत्यादि की। पर अभी तुम कह बस रहे हो कि मैं काल्पनिक हूँ, अपने जीवन को देखो तो तुम्हें प्रमाणित नहीं होगा कि तुम काल्पनिक हो। मैं तुम्हें कोई कहानी सुनाऊँ और बताकर सुनाऊँ की कहानी काल्पनिक है और उस कहानी में तुम्हारे ही बारे में बहुत दारुण वर्णन हो और तुम वो कहानी सुनकर रोने लग जाओ तो जाहिर है न कि तुम्हें बताया गया था न कि सब कुछ काल्पनिक है पर तुम भूल बैठे। अगर तुम्हें सतत याद रहे कि यह सब कहानी काल्पनिक है तो इतना रोओगे क्या? इतनी आसक्ति रहेगी? इतना लिप्त रहोगे? मोह के, मद के इतने धागे रहेंगे, रहेंगे क्या?

तो मैं तुम्हारे ज्ञान को अस्वीकार करता हूँ। तुम्हारे अनुभव की बात करूँगा, तुम्हारा अनुभव तो सुख-दु:ख का है। ज्ञान तुम्हारा कह रहा है कि 'अ' (प्रश्नकर्ता) काल्पनिक है पर फिर भी तुम झूला तो सुख-दु:ख का ही झूल रहे हो न? उससे बाहर आना है। तुम्हें बुरा लग रहा है जीवन, इसलिए अध्यात्म है। अन्यथा अध्यात्म का कोई औचित्य नहीं। जीव अगर एक स्वस्थ, संतुलित, स्थायी अवस्था में हो तो उसे अध्यात्म नहीं चाहिए, भाई। मुक्त को मुक्ति के किस्से सुना करके क्या करना है? अध्यात्म इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम अमुक्त हैं, हम बद्ध हैं।

अपने वाक्य को देखो, कह रहे हो कि सारी कल्पना का टूटना निश्चित ही है, जब कोई कह दे कि कोई चीज़ निश्चित है तो क्या वो अपने-आपको अज्ञानी मान रहा है? अगर सब कल्पना है तो तुम्हारा यह नैश्चितता भी क्या हुआ? काल्पनिक ही न। पर देखो तुम इसे काल्पनिक नहीं मान रहे, इसको तुम यथार्थ मान रहे हो। तुम कह रहे हो कि कल्पनाओं का टूटना निश्चित है। यह निश्चितता भी काल्पनिक क्यों नहीं है फिर, अगर निश्चितता काल्पनिक है तो निश्चित हुई क्या? फँस गए। अपने पर बहुत भरोसा है तभी तो इतनी निश्चितता कि बात कर रहे हो न। अध्यात्म उसी भरोसे की सच्चाई उजागर करने के लिए है।

फिर पूछ रहे हो, “उपर्युक्त श्लोक में मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करने से आशय क्या है?”

वासुदेव में निरंतर रमण करना कुछ नहीं होता, बात यह है कि हम अपने में रमण करते रहते हैं। हमारा रमण, भ्रमण सब अपने ही भीतर होता है। वासुदेव में रमण करने से आशय है अपने से बाहर आना। अपने से बाहर क्या है? इसकी कोई चर्चा नहीं, बातचीत का मुद्दा नहीं है वह। तुम अपनी कालकोठरी से बाहर आ जाओ, यही बहुत है। अपने भीतर रमण करना छोड़ो, यही बहुत है। अपने भीतर रमण करने का प्रमाण होता है ‘मैं’। तुम्हारे सब विचारों में ‘मैं’ बैठा होगा। तुम्हारी सब चिंताओं में ‘मैं’ बैठा होगा। तुम्हारे सब संबंधों में ‘मैं’ बैठा होगा। तुम्हारी हर योजना में ‘मैं’ बैठा होगा। इसे कहते हैं अपने ही भीतर रमण करना।

अपने से बाहर आने का मतलब है ‘मैं’ के प्रति ज़रा अगंभीर हो जाना, ‘मैं’ को उसका स्थान याद दिला देना। कहना कि तुम इतनी भी ज़रूरी नहीं हो, इतने भी बड़े या आवश्यक नहीं हो कि हर जगह तुम घुसे ही रहो। छोटे से हो तुम, चलो वहाँ कोने में बैठो! इसको कहते हैं अपने भीतर रमण करने से बाहर आना।

फिर पूछा है, “क्या जीव के लिए द्वैत का निरंतर बना रहना निश्चित है?”

द्वैत का निरंतर बना रहना निश्चित है लेकिन जीव के लिए द्वैत बना रहे , यह आवश्यक नहीं। अंतर समझो। द्वैत तो रहेगा, किसके लिए द्वैत रहेगा? उसके लिए जो द्वैत में है। मस्तिष्क के लिए तो द्वैत रहेगा क्योंकि बिना संसार के मस्तिष्क हो नहीं सकता और बिना मस्तिष्क के संसार हो नहीं सकता। मस्तिष्क के लिए तो द्वैत रहेगा। हाथों के लिए तो द्वैत रहेगा, जहाँ हाथ है, वहाँ जगत है। देखो हाथ जब भी है, कहाँ है? जगत में ही तो होगा न, जगत नहीं तो हाथ नहीं।

तुम्हारे लिए द्वैत रहे, यह आवश्यक नहीं है। तुम द्वैत से मुक्त हो सकते हो। तुम कह सकते हो कि हाथ के लिए संसार है, संसार के लिए हाथ है, मैं इन दोनों का खेल देख रहा हूँ, तमाशे की तरह। मेरे लिए ये दोनों तमाशा हैं। मस्तिष्क के लिए संसार है, संसार के लिए मस्तिष्क है, मेरे लिए ये दोनों तमाशा हैं। तो अब द्वैत है तो तुम्हारे लिए नहीं है, तुम्हारे लिए क्या है? तमाशा।

यह कोशिश मत करना कि द्वैत मिट जाए। जिसके लिए द्वैत है, उसके लिए रहेगा ही। हाँ, तुम्हारे लिए मिट सकता है, तब मिटेगा जब तुम्हारे लिए यह सब कुछ बस एक खेल बन जाए, तमाशे की तरह देखो, ‘बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे’। बच्चे का खेल है, चल रहा है। ये मस्तिष्क क्या है? बच्चा ही तो है, कुछ समझता थोड़ी ही है, नादान। हम देख लेते हैं इसकी नादानियों को। कभी गुस्सा आता है, हम देख लेते हैं, “अच्छा! गुस्सा गए, साहब, ठीक है।” तुम गुस्साओ, हम देख लेंगे।

जिनके घरों में छोटे बच्चे हैं, उन्होंने उनके खूब रंग देखे होंगे। गुस्साते भी हैं, पाँव भी पटकते हैं, हँस भी देते हैं, रोते खूब हैं। जितने हाव-भाव किसी भी वयस्क में हो सकते हैं, बच्चों में भी होते हैं। पर बच्चों के हाव-भाव देखकर आप कोई बड़ी प्रतिक्रिया थोड़ी ही दे देते हो। आप क्या करते हो? हँस लेते हो, तमाशे की तरह देख लेते हो, गंभीरता से थोड़ी ही ले लेते हो। मस्तिष्क को भी ऐसे लेना होता है। इसे कहते हैं द्वैत से मुक्ति।

जो-जो लोग सवाल लिखते तो हैं पर पूछते नहीं है, वे अपने-आप से पूछेंगे कि क्यों नहीं पूछा। यह भी आशिक़ी का एक अंदाज है, कि ख़त तो लिखेंगे पर जबां से बयान नहीं करेंगे। *(हँसी)*। क्यों? हम इतने बुद्धू थोड़े ही हैं कि माशूक सामने है और खत पढ़ते रह जाए। (हँसी)

प्र३: मेरा प्रश्न फिर से मृत्यु के ऊपर ही है कि आम ज़िंदगी में जीवन के ऊपर जैसे बोला जाता है कि जीवन आनंद है पर मृत्यु की कोई बात इसमें कोई आती नहीं है। जैसे आध्यात्मिकता में भी आप देखे लोगों को तो मृत्यु पर कुछ ज़्यादा चर्चा नहीं है। आजकल मोटिवेशन भी देख रहे हैं या कहीं भी है, कहीं भी कोई जगह मृत्यु के प्रति कोई बात या कुछ भी उसका ऐसा दिखाया नहीं जा रहा है कि वो वास्तविकता है।

आचार्य: डरे हुए हैं न। जो असली थे, उन्होंने तो सौ बार मौत की बात करी। यहाँ साखी ग्रंथ रखा है कबीर साहब का, उसमें ‘काल को लेकर अंग’ है पूरा। काल को ले करके दो-चार साखियाँ, दो-चार दोहे नहीं हैं, काल का पूरा एक अध्याय जिसमें मात्र काल की और मृत्यु की ही बात है। गुरुग्रंथसाहिब उठाइए, उसमें बार-बार, बार-बार मृत्यु की बात है। जीज़स का जीवन देखिए, उस जीवन का शिखर ही है मृत्यु का उनका सहर्ष वरण।

आज अगर आप पाएँ कि अध्यात्म में जो लोग हैं, वो मृत्यु की बात करने से घबरा रहे हैं, तो बात बस यही है कि वो घबराए हुए हैं। जो घबराएगा, वह कतराएगा। वो कहते हैं कि जीवन आनंद है। जो जीवन मृत्यु से समाप्त हो जाने वाला है, वह आनंद कैसे हो सकता है? जिस जीवन को आनंद बताया गया है, वह भौतिक नहीं आत्मिक जीवन है। भौतिक जीवन तो कष्ट से परिपूर्ण है। आनंद है वह जीवन जो न कभी शुरू होता है, न कभी ख़त्म होता है। यह जिसको आप कहते हैं ज़िंदा होना, इस ज़िंदगी में आनंद हो ही नहीं सकता। हम तो ज़िंदगी इसको समझते नहीं कि एक आदमी है, चल-फिर रहा है, साँस ले रहा है, खाना-पीना खा रहा है तो उसको कह देते हैं कि ज़िंदा है, इसमें नहीं आनंद हो सकता है। जिस जीवन में आनंद है, वह वो जीवन है जो कभी शुरू ही नहीं होता। वो उस जीव के लिए है जो कभी जन्म ही नहीं लेता, वो उस जीव के लिए जिसकी कोई मृत्यु नहीं।

सच्चे गुरु की पहचान यह होगी कि वह बार-बार, बार-बार आपको जीवन की निस्सारता से परिचित कराएगा और आपका ध्यान मृत्यु की ओर खींचेगा बार-बार। और झूठे वक्ताओं की पहचान यह है कि वो मौत से बहुत कतराएँगे, मौत से बहुत खौफ़ खाएँगे, मौत के बारे में कुछ बोलेंगे ही नहीं, मौत की बात ही नहीं करेंगे, बार-बार यही कहेंगे कि 'लेट्स मेक लाइफ़ ब्यूटीफुल’ '। कभी बताएँगे नहीं कि लाइफ़ माने क्या। हाँ, लाइफ़ शब्द का इस्तेमाल बार-बार करेंगे, जीवन-जीवन करेंगे, जीवन क्या है, यह कभी नहीं बताएँगे। क्योंकि उनके अनुसार जीवन है ही यह हाड़-माँस के पुतले का गतिशील होना। उनके जीवन की परिभाषा ही यही है – हाड़-माँस का पुतला चल रहा है तो लाइफ़ * । और वो बार-बार कहेंगे, * ‘लाइफ़ वेल वीइंग’ , ‘लाइफ़ वेल वीइंग’ , पर कभी बताएँगे नहीं कि लाइफ़ क्या, लाइफ़ माने क्या। उनके अनुसार लाइफ़ यही है प्रकृति, इसको वो लाइफ़ समझते हैं।

और आपने बात करी उनकी जो मोटिवेशनल (प्रेरणास्पद) बातें करते हैं। उनके लिए तो बहुत ज़रूरी है कि वह आपको याद ही न आने दे कि आप मरोगे। वो तो आपके अहंकार को बिलकुल झाड़ पर चढ़ा देना चाहते हैं और मौत का तथ्य जब सामने आता है तो अहंकार चित मुँह के बल गिरता है धूल में। तो आपको तो मौत याद भी आ रही होगी तो कहेंगे कि, “नहीं, मौत-वौत कुछ नहीं, तू ज़िंदा रहेगा, तू आगे बढ़। बस तू भाग मिल्खा। कर सकते हो, तुम कर सकते हो, तुम बढ़ो तो, तुम इरादा तो करो, तुम कर सकते हो।”

अहंकार और सुनना क्या चाहता है, यही तो। हाँ, कर सकते हैं, हम भी कर सकते हैं। ख़ासतौर पर जवान लोगों को पकड़ लो, उनमें तो राजसिकता वैसे ही बहुत चढ़ी रहती है और उनके इरादे भी बहुत कुछ पाने के होते हैं। अब जो पाने निकले थे वहाँ चाटा खाकर आए हैं, फिर सामने मिल गए मोटिवेशन गुरु। वे बोलेंगे, “नहीं, तुम कर सकते हो, कमर कस लो। तुम कर सकते हो।” वो फिर जाएगा, और करने क्या गया है? करने गया कोई गलीच काम ही। उसको वह कभी नहीं बताएँगे कि क्या करने योग्य है। बस यह कहते रहेंगे कि तुम जो कुछ भी करना चाहो, तुम वो कर सकते हो।

वो इस प्रश्न को छेड़ेंगे ही नहीं कि जीवन का लक्ष्य क्या है। अतः प्रतिपल क्या कर्म है जो करने योग्य है? इसकी बात ही नहीं करेंगे, क्योंकि यह बात करने के लिए गुरु में भी कुछ पात्रता होनी चाहिए। ख़ुद समझ में आया हो कि जीवन में क्या करने लायक है, तब तो दूसरों को बताएँ न कि जीवन में क्या करने लायक है। वे बस यह बताते हैं कि तुम्हें जो कुछ भी करना है, यू कैन डू इट (तुम कर सकते हो)।

प्रश्न यह नहीं है कि वह इस तरह की बातें क्यों कर रहे हैं, प्रश्न यह है कि आप यह सब बातें सुन क्यों रहे हैं। हर समय में हर तरह के लोग हुए हैं, उन्हें हक़ है अपने तल की बात करने का, पर आपको भी तो हक़ है न कि आप उनकी बात न सुनें। आप काहे सुन जाते हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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