जो जल्दी दूसरों से प्रभावित हो जाते हों || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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जो जल्दी दूसरों से प्रभावित हो जाते हों || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्नकर्ता का प्रश्न पढ़ते हुए) आचार्य जी! मैं लोगों से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता हूँ। किसी की बात से या किसी ने कहा कि देश के लिए कुछ करना चाहिए तो बात ठीक लगती है। किसी ने कहा गरीबों की मदद करो, तो मान लेता हूँ। पर मैं जो अपने जीवन का लक्ष्य बनाता हूँ, उसमें आगे नहीं बढ़ पाता हूँ। मन कहीं-न-कहीं फँस जाता है, प्रभावित हो जाता है, कुछ दिन तक प्रभाव रहता है, बाद में फिर छूट जाता है।

तो ये तो सबकी कहानी है। जब तक अपना कुछ नहीं होगा जीवन में तब तक तो परायों पर आश्रित रहोगे ही न। तुम प्रश्न पूछ रहे हो कि परायों पर क्यों आश्रित हूँ, प्रभावित क्यों हो जाता हूँ। असली सवाल पूछो न कि वो जिस पर मुझे आश्रित होना ही चाहिए, उससे मुझे क्या दुराव है? खाली तो अगर कमरा भी पड़ा हो और भले ही उसमें ताला लगा हो, पर फ़र्श पर आकर धूल बैठ ही जाती है।

पहले कॉलेज के लड़कों से बहुत बात करता था। तो उनसे एक सवाल पूछा, मैंने कहा, ‘तुम जिस मोहल्ले में रहते होंगे वहाँ घर बने होंगे एक के बाद एक और बीच में कभी-कभार खाली प्लॉट होते हैं।’ बोले, ‘हाँ।’ तो मैंने कहा, ‘मोहल्लों में बीच में जो ऐसा खाली प्लॉट छूट जाता है, बताओ उसका क्या इस्तेमाल होता है?’ क्या इस्तेमाल होता है? कूड़ा डाला जाता है।

तुम प्लॉट खाली छोड़ोगे दुनिया उसमें आकर कूड़ा डाल देगी। तुमने खाली छोड़ा क्यों ? तुमने उस पर मन्दिर क्यों नहीं बनाया? मन्दिर नहीं बना सकते थे, तो कम-से-कम दीवार क्यों नहीं खड़ी की? हमारा मन खाली प्लॉट की तरह है, जिसका मन आता है, कूड़ा डाल जाता है।

आत्मा से दूरी तमाम तरह के बन्धनों को और गुलामियों को आमन्त्रण है। और जो गुलाम होता है, याद रखना वो किसी एक का गुलाम नहीं होता। ये हो सकता है कि किसी एक क्षण में तुम्हें अपना कोई एक मालिक नज़र आये , और वो तुम्हें बैरी लगे। जब तुम्हें कोई एक दूसरा बैरी लगता है, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा उस एक के विरोध में, उसको हटाने में लग जाती है। तुम उसे कई बार हटा भी देते हो और शीघ्र ही तुम क्या पाते हो? उसका स्थान किसी दूसरे ने ले लिया है।

खाली प्लॉट को एक बार साफ़ कर भी दोगे तो दोबारा कचरा आएगा न? तुम अपना एक मालिक बदलोगे तो दूसरा खड़ा हो जाएगा और मालिक तुम्हारा एक तो कभी होता भी नहीं। एक पता चलता है, या दो पता चलते हैं या चार पता चलते हैं। तुम्हारे मालिक दस हज़ार हैं। जब जिसका समय आता है, तब वो नकेल कस देता है। तुमसे कभी कोई काम करा रहा है, कभी कोई काम करा रहा है।

तो इन मालिकों की बात मत करो, उनकी बात करना अनुपयोगी है। बात ये करो कि मैं गुलाम क्यों हूँ? दोनों बातों का अन्तर समझो। ये मत पूछो कि फ़लाना मेरा मालिक क्यों बन गया, ये पूछो कि मुझमें गुलामी के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्योंकि अगर गुलामी की तुम्हारी वृत्ति बरकरार रही तो एक नहीं तो दूसरा तुम ठिकाना ढूँढ़ ही लोगे गुलामी का।

गुलामी की वृत्ति का मूल कारण होता है — कोई-न-कोई धारणा। आज़ादी तो अकारण होती है। गुलामी के ही कारण होते हैं और गुलामी का कारण यही होता है कि तुमने अपने बारे में कोई मान्यता सत्य बना ली है। तुमने अपने बारे में और संसार के बारे में कुछ सोचा और उस सोच को सच का दर्ज़ा दे दिया। कुछ-न-कुछ तुमने ऐसा सोच रखा है, जो सही नहीं है, जो सत्य तो छोड़ दो तथ्य भी नहीं है। पर तुम उससे चिपके हुए हो।

तुमने क्या सोच रखा है, उसके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है। बारीकियाँ अलग-अलग हो सकती हैं, विवरण में कुछ आ सकता है, पर मूलतः वो क्या है मैं बताये देता हूँ, तुमने क्या सोच रखा है? तुमने ये सोच रखा है कि तुम छोटे से हो और मिट जाओगे। तुमने अपने बारे में दो बातें सोच रखी हैं कि तुम छोटे से हो और मिट जाओगे। स्थान में तुम छोटे हो और समय में तुम नश्वर हो।

ये तुम्हारी तुम्हारे प्रति धारणा है। ये धारणा व्यक्त किसी और वाक्य में हो सकती है, ये धारणा व्यक्त किसी और रूप में हो सकती है पर मूलतः तुम्हारी धारणा यही है। इसी धारणा के कारण तुम गुलाम हो। इस धारणा से हटने का उपाय ये नहीं है कि तुम कहो मैं छोटा सा नहीं हूँ या तुम ये कहो मैं मिटूँगा नहीं। और न ही इस धारणा से बचने का उपाय ये है कि तुम कहो कि मैं बहुत बड़ा हूँ या मैं अमिट, अमर हूँ।

इस धारणा से बचने का उपाय ये है कि अपने बारे में किसी भी धारणा को प्रोत्साहन दो ही नहीं। अपने बारे में कोई भी विचार उठे, तो कहो, ‘मैं विचार की विषय-वस्तु नहीं हूँ। हर बारे में सोच लेंगें। कोई भी विषय विचारणीय है, पर मैं कौन हूँ और क्या हूँ ये विचारणीय नहीं है।’

अपनेआप को अपनी सारी मानसिक उठा-पटक से अलग रखो। खूब सोच लो कि दुनिया में क्या चल रहा है, क्यों हो रहा है, कैसा हो रहा है, पर ये मत सोचने लग जाना कि बाहर कुछ हो गया तो तुम घट या बढ़ जाओगे। अपनेआप को अलग रखो। दीवार के बारे में खूब सोचो पर ये मत कह दो, ‘मैं दीवार।’ मैं और दीवार का रिश्ता मत बना दो, मैं और दीवार को एक तल पर मत लेआ दो। नहीं तो कोई दीवार पे चढ़कर तुम्हारा बाप बन जाएगा, तुम गुलाम हो जाओगे।

तुमने जिस भी चीज़ से अपना रिश्ता बनाया, उसी रिश्ते को लगाम बनाकर तुम्हें बन्धक कर दिया जाता है। अपनेआप को किसी भी चीज़ से बाँधकर , जोड़कर , सम्पृक्त करके मत देखना। हर चीज़ किसी-न-किसी की हो सकती है और तुम किसी चीज़ से जुड़े हो तो जिसकी वो चीज़ है, वो तुम्हारा आका हो गया। जिससे भी जुड़ोगे गुलाम हो जाओगे।

अपनी निजता को अक्षुण्ण रखो, अस्पर्शित रखो। आत्मा असंग होती है, उसका कोई साथी नहीं। पूर्ण रहो भीतर और पूर्णता न विचार की बात है, न अनुभव की बात है वो ये बात है कि अपनी पूर्णता के विषय में मुझे कोई विचार नहीं रखना। न ये विचार कि मैं पूर्ण हूँ, न ये विचार कि मैं अपूर्ण हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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