स्थूलशरीराभिमानि जीवनामकं ब्रह्मप्रतिबिम्बं भवति। स एव जीव: प्रकुत्या स्वस्मात् ईश्वर भिन्नत्वेन जानाति।।
स्थूलशरीर अभिमानी जीव नामक ब्रह्म का प्रतिबिंब होता है। वह ही जीव स्वभाव से ही ईश्वर को अपने से भिन्न जानता है।
—तत्वबोध, श्लोक २७
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। मैं स्वयं विभिन्न प्रकार से स्वभाव में स्थित रहने का प्रयास करता हूँ, मगर हमेशा विफल ही होता हूँ। कृपया स्वभाव में स्थित रहने के विषय में मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: स्वभाव में स्थित रहने का प्रयास कैसा? स्वभाव माने वह जो हृदय में है ही, स्वभाव माने तुम्हारा केंद्र बिंदु। उससे छिटककर तुम जा कहाँ सकते हो?
समझो बात को, स्वभाव समझ लो हृदय तुम्हारा, दिल। अब हृदय तो वहीं है जहाँ होना चाहिए, पर मन, जिसको मोटे तौर पर अभी दिमाग ही बोल लो, उसका कुछ भरोसा नहीं, वह कहीं भी चला जाता है। यह (हृदय) तो वहीं है जहाँ होना चाहिए, यह (दिमाग) नशे में—“आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे।” कहते हैं न कि फलाने का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ है। मुहावरा सुना है न? यह तो नहीं सुना न कि 'हृदय सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ है'? यही (दिमाग) चंचल है, भगोड़ा है, यह कहीं भी पहुँच गया!
अब साहब धुत हैं, इन्हें क्या लग रहा है कि दिल भाग गया है कहीं, हृदय भाग गया है कहीं। तो अभी ये पूरी कोशिश में लगे हैं कि हृदय को वापस खोजकर लाना है, जैसे तुम प्रयास में लगे हो कि, "मैं स्वभाव में वापस जाने का प्रयास करता रहता हूँ।" जैसे कोई आदमी अपने घर के ही भीतर हो, पर नशा ख़ूब चढ़ा हो तो कल्पना करता हो कि जंगल पहुँच गया है। कभी लगता उसको कि समुद्र में डूब रहा है, ख़ूब चिल्ला रहा है और ख़ूब कोशिश कर रहा है कि घर वापस आना है, और कोशिश वह क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है? घर के भीतर ही दौड़-दौड़कर, दौड़-दौड़कर, दौड़-दौड़कर वह कोशिश कर रहा है घर वापस आने की।
स्वभाव में तो तुम स्थित हो ही, बस मान्यता तुम्हारी यह है कि तुम कुछ और हो गए। स्वभाव नहीं पुनः प्राप्त करना है, स्वभाव विरुद्ध जो भी मान्यता है तुम्हारी, उसका निरीक्षण करना है। उसका परीक्षण करो, जाँचो उसे। यह मत कहो कि अशांत हो तुम; शांति स्वभाव है तुम्हारा, बल्कि अगर बहुत अनुभव उठता हो कि “हम अशांत हैं, हम अशांत हैं, हम अशांत हैं”, तो ठहरकर पूछो अपने-आपसे कि “क्या वाक़ई अशांत हूँ मैं?”
समझना, अगर वाक़ई अशांत होते तुम तो तुम्हें अशांति का अनुभव नहीं हो सकता था। अगर अशांति मात्र होते तुम, तो तुम्हें अशांति का अनुभव कैसे हो जाता? अशांति का अनुभव भी तुम्हें इसीलिए होता है क्योंकि पीछे एक शांत पृष्ठभूमि है। उस पृष्ठभूमि के समक्ष तुम्हें अशांति प्रतीत हो रही है, भासित हो रही है। अशांति-ही-अशांति होती, तो कौन कहता अशांति को अशांति? काले पर काला लिखा हो, तो कौन पढ़ेगा? अगर तुम कहते हो कि यहाँ सब काला-ही-काला है, तो कुछ और भी होगा। अगर तुम कहते हो कि कहीं बहुत अंधेरा है, तो एक बात पक्की है − तुम्हारी आँखों में रोशनी है।
जब भी यह मान्यता उठे कि तुम स्वभाव से दूर हो, उस मान्यता की कड़ी परीक्षा लो—क्योंकि स्वभाव से दूरी संभव ही नहीं—यह नहीं कि हृदय को खोजने निकल पड़े।
एक आदमी बड़े-बड़े टॉर्च ले करके कुछ खोज रहा था, मैंने पूछा, “क्या खोज रहे हो?” तो बोला, “अपनी आँखें।” तुम खोज रहे हो, इसी से साबित होता है कि आँखें तो तुम्हारे पास पहले से ही हैं। पागल! आँखें नहीं होतीं, तो तुम खोज कैसे रहे होते?
कुछ ऐसा है जो खो नहीं सकता, कुछ ऐसा है जिससे तुम दूरी नहीं बना सकते, उसे कहते हैं 'स्वभाव'। आ रही बात समझ में?
जितनी भी तुम्हारी अवस्थाएँ होती हैं, वो सब आती-जाती चीज़ें हैं। उन सब अवस्थाओं के पीछे बैठा है अनंतर स्वभाव, उन सब अवस्थाओं के पीछे बैठा है अचल आकाश। जैसे बादल आ-जा रहे हों, ध्यान तो सारा बादलों पर ही चला जाता है न? बादलों में रूप हैं, रंग हैं, आकार हैं; आकाश पर कहाँ ध्यान जाता है! पर बादल दिखाई ही इसीलिए पड़ते हैं क्योंकि उनके पीछे आकाश है।
दिनभर मन की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। उन अवस्थाओं का बदलना ही इसीलिए प्रतीत हो रहा है क्योंकि उनके पीछे स्वभाव है। तो दिनभर अगर मन बदलता रहे, मूड बदलता रहे, तो यह ना मान लेना कि तुम स्वभाव से दूर हो गए। दिनभर अगर मन विचलित भी रहे, मन के मौसम अदलते-बदलते भी रहें, तो भी तुम और पक्का जानना कि तुम तो स्वभाव में ही स्थित हो। तुम्हें स्वभाव को पाना नहीं है, ढूँढ़ना नहीं है; तुम्हें बस इस भ्रम से मुक्त होना है कि तुम स्वभाव खो बैठे हो। खोया ही नहीं, पाना क्या!
खोने के पक्ष में जितने प्रमाण हैं, वो सारे प्रमाण वास्तव में पाने के हैं। जैसे कोई आदमी कहे कि “मैं अपनी आँखें मेज़ पर रख आया था और अभी जाकर देखा तो आँखें खो गई हैं”, जैसे कि कोई जाकर बोले कि “मैं अपनी आँखें मेज़ पर रख आया था और अभी-अभी मैंने प्रमाण पाया है कि आँखें मेज़ पर नहीं हैं”, और तुम पूछो, “क्या प्रमाण है कि तुम आँखें खो बैठे हो, बताओ? प्रमाण दो कि कैसे जाना तुमने कि तुम आँखें खो बैठे हो।” तो बोल रहा कि, “मैंने अभी देखा है कि आँखें मेज़ पर नहीं हैं, आँखें खो गईं मेरी।” यह खोने के पक्ष का प्रमाण है, या पाने के पक्ष का? हमारे मित्र कह रहे हैं कि इन्होंने अभी-अभी देखा कि इनकी आँखें खो गईं हैं।
जितनी बार तुम्हें प्रमाण मिले कि तुम उद्विग्न हो, चंचल हो, अशांत हो, हिंसक हो, कामुक हो, भयभीत हो, उतनी बार कहना कि ये सारे प्रमाण जिधर को इशारा करते प्रतीत होते हैं, वास्तव में उससे विपरीत इशारा कर रहे हैं। ज्यों ही प्रमाण मिले कि तुम भीरु हो और भयभीत हो, वैसे ही कहना, “अगर भीरु होना और भयभीत होना स्वभाव होता, तो भीरुता का और भय का हमें पता कैसे चलता?”
पता ही उसी चीज़ का चल सकता है जो बादल की तरह आती-जाती चीज़ है, जैसे आकाश का नहीं पता चलता न, बादलों का पता चलता है। भय का पता चला माने बादल का पता चला और बादल का होना वास्तव में प्रमाणित किसे कर गया? आकाश को। भय का तुम्हें पता चला मानो तुम्हारी निर्भयता सिद्ध हो गई। कितनी मज़ेदार बात है! जिस चीज़ का तुम्हें पता चल रहा है, उससे बहुत आगे का कुछ प्रमाणित हुआ जा रहा है।
तुम्हें पता चला, तुम महा अज्ञानी हो, यह तो ज्ञान हो गया! तुम्हें पता चला, तुम अति क्षुद्र हो, यह तो तुम्हारी अनंतता हो गई! अब डरना है क्या? नहीं डरना है। क्योंकि अगर डर गए तो इससे यही पता चला कि कितने निडर हैं।
अनुभव उसी चीज़ का होगा जो आकर चली जानी है, और जितनी तुम अपनी पहचानें बनाते हो, वह अनुभव में आती हैं, तभी तो बनाते हो न। जो आकर चला जाना है, वह स्वभाव तो हो नहीं सकता। भय का अनुभव हुआ है लेकिन कभी ऐसे भय का अनुभव हुआ है जो आया है तो टिक ही गया है? भय आया है तो भय गया भी। इसका मतलब भय स्वभाव नहीं है। लो सिद्ध हो गया। और जो असली है, उसका कोई अनुभव कभी होता नहीं। दर्द का अनुभव होता है, होता है न? कोई दर्द ऐसा भी है जो हो ही रहा है। दर्द आया है तो दर्द गया भी। अनुभव दर्द का, पीड़ा का होता है।
तुम्हारे बाएँ घुटने में दर्द है, तुम्हें अनुभव हो रहा होगा। तुम्हारे दाएँ घुटने में दर्द नहीं है, दाएँ घुटने का कुछ अनुभव हो रहा है? वहाँ कोई अनुभव ही नहीं। तो अनुभव यही सिद्ध करता है कि अनुभव झूठा है, क्षणिक है, आया है, जाएगा, और जो असली चीज़ है, उसका कभी अनुभव होगा ही नहीं।
असली चीज़ हमेशा अनुभव के पार की है तो जो भी अनुभव हो, उसके सामने मजबूती से खड़े हो जाओ, कह दो, “तूने अनुभव में आ करके अपना मिथ्या होना साबित कर दिया। तू अगर अनुभव में नहीं आया होता तो शायद हमें यही लगता कि तू सत्य है, पर तू अनुभव में आ गया, इससे तो पूरा प्रमाणित हो गया कि तू मिथ्या ही है, क्योंकि जो अनुभव शुरू हुआ है, वह ख़त्म भी होगा; जो ख़त्म हो जाए, वह सत्य तो नहीं।”
जो कुछ अनुभव में आ गया, वह सत्य तो नहीं, झूठा ही होगा। तो तुम्हें अनुभव हो रही है अशांति, तो अशांति क्या हुई? झूठी। और ऐसी शांति भी जो अनुभव में आ जाए, वह भी क्या हुई? झूठी। तो वास्तविक शांति कौन-सी है? जो कभी अनुभव में आने की नहीं। तो मस्त रहो, शांति का अनुभव तो वैसे भी कभी होना ही नहीं है। जो असली है, उसका अनुभव तो हो सकता ही नहीं, तो तुम क्या पगलाए घूम रहे हो कि ‘शांति चाहिए, शांति चाहिए’?
शांति अगर असली होगी तो कभी अनुभव में आएगी ही नहीं। अनुभव में आ गयी तो वैसे ही झूठी है। तुम्हें शांति का अनुभव मिल भी गया, तो करोगे क्या उस अनुभव का? वह अनुभव झूठा है, अनुभव की सारी चीज़ें झूठी हैं। सत्य अनुभव में आने का नहीं, तो तुम मगन रहो। ना उसके आने का कुछ पता चलना है, ना उसके जाने का कुछ पता चलना है, क्योंकि ना वो आएगा ना जाएगा; वह बस है।
जब ना उसके आने का पता चलना, ना उसके जाने का पता चलना, जब उसका अनुभव ही नहीं हो सकता, तो तुम खोज किसको रहे हो? स्वभाव का जब अनुभव ही नहीं हो सकता, स्वभाव का जब पता ही नहीं लग सकता, तो तुम क्यों स्वभाव खोजने निकले हो और तुम्हें पता कैसे चलेगा कि स्वभाव पा लिया? क्योंकि उसको पाने का भी कोई अनुभव होगा ही नहीं। पाने का अनुभव तो तब हो न जब पहले खोने का अनुभव हुआ हो, जो खो सकता ही नहीं, उसके खोने का अनुभव तुमने कर कैसे लिया? आश्चर्य है!
अशांत हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि शांत नहीं हो, जब तुम अशांत हो, तब तुम अशांत भी हो और शांत भी हो। ग़लती तुम यह कर देते हो कि तुम अपना नाम जोड़ देते हो अशांति के साथ। शांति सदा है, आसमान की तरह, अशांति आता-जाता बादल है। आसमान भी है, बादल भी हैं, लेकिन तुम अपना नाम जोड़ देते हो बादल के साथ। भूल यहाँ पर हुई।
आसमान को खोजने मत निकल पड़ो। जैसे कोई नन्हा चूहा भागा जा रहा हो, बेचारा बड़े तनाव में है, पूछे कि “क्या हुआ, क्या खोज रहा है? शक्कर का दाना?” बोला, “नहीं! आसमान खो गया है, आसमान खोजना है। करतूत बिल्ली की है, अंदर की बात हमें पता है, वही ले गई है आसमान।”
अशांति से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि जब तुम अशांत हो, तुम तब भी शांत हो। डर से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि जब तुम डरे हुए हो, तुम तब भी भयमुक्त हो।
भूल कहाँ है? डर का बादल भी है और निर्भयता का आकाश भी है, तुम देखने लग गए बादल, भूल इसमें है। बिलकुल निर्लज्ज हो करके मान लिया करो कि अभी तो बहुत डरे हुए हो, क्योंकि तुम्हारा डरा होना यह बिलकुल सिद्ध नहीं करता कि तुम निडर नहीं हो, तुम डरे होकर भी पूर्णतया निडर हो। मज़ेदार बात हो गई! तुम मलिन होकर भी विशुद्ध निर्मल हो। अब बताओ, निर्मलता खोजना है क्या?