प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कोई भी काम करने से पहले मेरे दिमाग में प्रश्न उठने लगता है कि ये काम होगा कि नहीं। जैसे कोई पेपर देने जाता हूँ तो पहले ये होता है कि फेल हो गया तो क्या होगा। ऐसा क्यों होता है आचार्य जी?
आचार्य प्रशांत: क्योंकि तुम्हें पेपर देने से कोई मतलब ही नहीं होता न बेटा। ये बात तो कितनी बार पहले भी बोली है। तुम्हें मतलब ही इस बात से होता है कि किसी तरह से पास हो जाएँ, किसी को प्रदर्शित कर दें कि पास हो गए। दूसरे ज़्यादा ज़रूरी हैं। दूसरों को दिखाना ज़्यादा ज़रूरी है कि पास हो गए। दूसरों को कभी तुम ये थोड़ी बोलते हो कि “देखो आज दिल खुश है। वो तीन घंटे पेपर दिया, वो तीन घंटे बिलकुल मस्त हो गए थे।”
तुम जाकर अपने घरवालों को बताओगे यह बात कि आज पेपर देने में बड़ा मज़ा आया। वो कहेंगे “इसमें क्या ख़ास बात है। जब रिजल्ट आएगा तब बात करना।” तो इसीलिए जो तुम्हारी नज़र है वो पेपर देने पर कभी रहती नहीं, वो तुम्हारी नज़र रहती है रिजल्ट पर। जबकि पेपर देने में क्या मज़ा है, वो बात ही अलग है। उसके लिए तुम्हें कभी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। तो तुम्हें लगता है पेपर देना तो सिर्फ़ एक निमित्त है, ज़रिया है; पेपर देना तो ज़रिया है ताकि अच्छा रिजल्ट आ जाए। पेपर देना ज़रिया नहीं होता, पेपर देना अपने-आपमें एक मज़ेदार बात होती है।
अब मैच चल रहा है, टेस्ट मैच। कितने दिन का चल रहा है? पाँच दिन का। अगर यही बात ज़रूरी होती कि कौन जीता, कौन हारा तो सिक्का उछाल लो। उसमें भी तो कोई जीत जाएगा, कोई हार जाएगा। काहें पाँच दिन लगा रहे हो? पाँच दिन खेलने में मज़ा है। रिजल्ट तो एक आखिरी गेंद पर पता चलेगा। रिजल्ट तो आखिरी गेंद की बात है। अगर रिजल्ट ही कीमती होता तो पाँच दिन क्यों बाईस लोग लगे हुए हैं और एक अंपायर बेचारे की और दुर्गति कराई है। खेलने में मज़ा है न, रिजल्ट तो आखिरी गेंद की बात है। उस पर कौन मर रहा है!
और अगर चलो यह भी कह दो कि रिजल्ट सिक्के से नहीं हो सकता, तो ठीक है एक-एक गेंद खेल लो आखिरी में। जिसने उस गेंद पर ज्यादा रन बना दिया वो जीता। इतना पाँच दिन क्यों कर रहे हो? रोज़ नब्बे-नब्बे ओवर क्यों चल रहे हैं? खेलने में मज़ा है न। नहीं तो नतीजा तो एक गेंद से भी निकल सकता है; एक गेंद तुम खेलोगे, एक गेंद हम खेलेंगे, जिसने चौका मारा वो जीत गया।
प्र: आचार्य जी, डर क्यों लगता है? जैसे कि मैं बोलता हूँ तो सोचता हूँ कि बोलूँगा तो गलत न बोल दूँ, डर लगता है। बोलता भी रहता हूँ तो डर छुपा रहता है कि कहीं गलत न हो जाए। यहाँ शिविर में आने से पहले भी डर था कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। ये डर क्यों रहता है?
आचार्य: डर इसलिए लगता है क्योंकि यक़ीन नहीं है न, श्रद्धा नहीं है। तुम्हें लगता है कि जो भी तुम्हारी असलियत है, जो भी कीमती चीजें हैं तुम्हारी, जिस पर तुम जीते हो, जहाँ से तुम्हारी साँस चलती है, वो चीज़ तुमसे छिन सकती है।
प्र: आचार्य जी, मैं कंट्रोल भी करना चाहता हूँ डर को लेकिन कंट्रोल नहीं होता।
आचार्य: नहीं, डर को कंट्रोल -वण्ट्रोल नहीं किया जाता। डर को फ़िर कंट्रोल करने के नाम पर दबा दोगे। वो और परेशानी की बात है। डर को कंट्रोल वगैरह नहीं करते हैं। मन में जब तक यह भावना बैठी ही हुई है कि बेसहारा हैं, कुछ हाँसिल करना है, हाँसिल करेंगे तब जीवन सार्थक होगा, जो हाँसिल करेंगे दूसरों से करेंगे। जब तक इस तरह का एक आश्रित मन है, अनाथ मन है तब तक डर लगता ही रहेगा न।
मैं लुटेरों से भरे जंगल में घूम रहा हूँ और मेरे पास रक्षा का कोई साधन न हो और जेब में मेरी सारी जमा-पूंजी भरी हो तो डर तो मुझे लगेगा। एक तो मैं अक्षम हूँ, अपने-आपको बचा नहीं सकता। दूसरा जमा पूंजी सारी की सारी यहीं है। और तीसरा चारों तरफ़ लुटेरे हैं। तो डर तो लगेगा ही न।
प्र: आचार्य जी तो इसको कंट्रोल नहीं कर सकते?
आचार्य: इसको कंट्रोल नहीं कर सकते। इसको बस ये जान सकते हो कि न जमा पूंजी बाहर है, न तुम अक्षम हो, न लुटेरे है, न लुटने का कोई ख़तरा है। ज़्यादातर मानवता मन में यही मॉडल लेकर के चलती है कि दुनिया लुटेरों से भरी हुई है, सारी हमारी जमा पूंजी हमसे कहीं बाहर है—हमसे बाहर है मतलब आंतरिक नहीं है, जेब में है, हाथ में है, कहीं पर है—और तीसरा यह कि जब लुटने की बारी आएगी तब हम अक्षम हो जाएँगे, अशक्त हो जाएँगे, अपने आपको बचा नहीं पाएँगे।
हम सबका यही मानना है तभी तो रात में ऐसे दरवाज़े पर दस्तक दी होती है तो तुरंत डर जाते हो कि ये क्या है, कोई लूटने ही आ गया। रात में दरवाज़े पर दस्तक होती है तो कभी ऐसा हुआ है कि एकदम खुश हो गए हो कि आए भगवान आज पधारे? किसी को देखा है कि अचानक उसके दस्तक होती हो और वो नाचना शुरू कर देता हो, आओ प्राणपति तुम्हारा ही इंतजार था? होता है कभी?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो देख रहे हो इससे क्या पता चलता है हमारे मन के बारे में कि मन में धारणा यही है कि दरवाज़े के बाहर जो है वो लुटेरा है। हम सबके मन में यह बात बैठ गई है कि जगत हमारा दुश्मन है। इसीलिए एक अनजानी आहट को हमेशा हम दुश्मनी की आहट ही मानते हैं। अनजाने पर हमेशा हम अविश्वास ही करते हैं। अपरिचित को लेकर हमेशा आशंका ही रहती है।
ये बात समझ में आ रही है? तो दुनिया लुटेरी है इस भावना को मन से त्याग दो। मज़ेदार बात यह है कि जितना तुम ये सोचते हो कि दुनिया लुटेरी है, उतना ही ज़्यादा तुम स्वयं लुटेरे बनते जाते हो, क्योंकि अब तुम्हें हक़ मिल गया न। तुम कहते हो दुनिया मुझे लूटने को तत्पर है तो फ़िर मुझे भी तो हक़ है लूटने का। दूसरों को लुटेरा मानते-मानते पूरी दुनिया ख़ुद लुटेरा बन जाती है। हर आदमी के पास तर्क़ यही है: दूसरे मुझे लूटे उससे पहले मैं उनको लूट लूँगा।
फ़िर माँ-बाप भी बच्चों को सिखाते हैं कि, "देखो घोंचू बनकर मत रहना, बेवकूफ बनकर मत रहना, ज़रा दुनियादारी सीखो।" उसका मतलब यही होता है कि ज़रा होशियार रहो भाई, कोई लूटे उससे पहले चेत जाओ, पलटवार करो; ऑफेंस इज द बेस्ट डिफेंस (आक्रमण सबसे अच्छा बचाव है)।
फ़िर दिल का धड़क जाना रात की दस्तक पर यह भी बताता हैं कि तुम्हें अपनी क्षमता पर यक़ीन नहीं है। अगर तुम्हें पता ही होता कि होगा कोई भी दोस्त हो कि दुश्मन हो, झेल लेंगे तो तुम थोड़े ही परेशान हो जाते। और जिसको अपनी दुर्बलता पर जितना यक़ीन होता है वो दरवाज़े की दस्तक से उतना ज़्यादा डर जाता है। घर पर तुम्हारे पिताजी होंगे, दरवाज़े पर दस्तक होगी बहुत नहीं डरेंगे। माँ अकेली होंगी, पसीने छूट जाएँगे क्योंकि उन्हें अपनी दुर्बलता पर ज़्यादा यक़ीन है। वो कहती है, अरे! अभी घर में कोई पुरुष नहीं है, दरवाज़े पर कोई आ गया, अब हमारा क्या होगा भगवान जाने।
जो अपने-आपको जितना कमज़ोर समझेगा, वो अपरिचित से उतना ज़्यादा आशंकित रहेगा, वो नए से उतना ज़्यादा आशंकित रहेगा। वो अनजान और अप्रत्याशित से उतना ही ज़्यादा आशंकित रहेगा। तो इन सब बातों से तुम्हें अपने मन का अंदाजा लग जाता है कि “कुछ भी नई जगह से क्या मैं डर जाता हूँ? योजना के विरुद्ध जाकर या योजना से परे जाकर के अगर कुछ हो रहा होता है तो क्या मैं घबरा जाता हूँ?" अगर यह सब हो रहा है तो तुम समझ लो कि तुमने धारणा बना रखी है कि तुम कमजोर हो। योजना पर चलने की इच्छा ये बताती है कि तुम कहते हो कि “भाई इतनी ही ताकत है कि बंधे-बंधाए रास्ते पर चलूँ। अचानक कुछ अनजाना मिल गया जिसकी हमने तैयारी नहीं की है तो हम फँस जाएँगे। हम इतने बलवान नहीं है कि अनहोनी को झेल सकें।"
फ़िर एक धारणा तुम्हारी और भी है। क्या? कि जो आया है वो कुछ लूट लेगा। क्योंकि जो असली खजाना है उसका तो तुम्हें पता है नहीं। तुम तो खजाना यही जानते हो कि रुपया-पैसा कोई लूट ले जाएगा, कोई अपमान कर देगा। तो ये सब काम तो दूसरे वाले कर ही सकते हैं। कोई बाहरी आ करके ये तो कर ही सकता है कि तुम्हारी घड़ी छीन ले, तुम्हारे पैसे छीन ले, तुम्हें दो-चार बातें बोल दे, किसी और तरीके से तुम्हारा अपमान कर दे। यह सब हक़ तो दूसरों के पास होते ही हैं और तुम सोचते हो कि इसके अलावा तुम्हारे पास कोई भी धनराशि है नहीं। तुम्हें लगता है दौलत ही तुम्हारी उतनी ही है जो दूसरों से मिली है, जो दूसरे छीन सकते हैं। तो दिल और धड़क जाता है जब दस्तक होती है।
जिसको ये पता हो कि मेरा छिन तो सकता नहीं, वो कहेगा, "होगा कोई, बाहर खड़े होंगे तुर्रम खॉं, हमारा बिगाड़ क्या लेंगे? हमारी जो असली दौलत है वो तो बहुत किसी सुरक्षित जगह पर रखी हुई है। वहाँ उसके लुटने का कोई तरीक़ा ही नहीं है। हमारी दौलत को कोई लूट ही नहीं सकता।" उनको डर लगेगा अब?
प्र: नहीं।
आचार्य: तुम एक लाख रुपए जेब में रखकर जा रहे हो अंधेरी गली से। तब ज़्यादा डरते हो या एक लाख रुपए सुरक्षित बैंक अकाउंट में रखे हो तब डरते हो? जब बैंक अकाउंट में रखे हैं तब डर नहीं लगता न। पता है कि नहीं लुट सकते। लेकिन जब जेब में रखे हों तो डर लगता है।
हम में से ज्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं होता है कि हम सब के पास एक बैंक अकाउंट है, और वो बहुत सुरक्षित बैंक है। और जो लॉकर है वो इतना मोटा है, लोहे से बना हुआ है। उसमें आज तक सेंध लगी नहीं है और लग ही नहीं सकती। तुम्हारी जो असली दौलत है वो वहाँ उस बैंक में जमा है। और लॉकर बहुत मजबूत है, नहीं टूटेगा। तो कोई आए, बोले, "तुम्हें लूटने आए हैं!" तुम बोलना, "ले जा, क्या ले जाएगा, ले, आ लेले!" लेने वाले शर्मा के भाग जाए, कहे, "हम ही भिखारी निकले!"
अपने मन में यक़ीन रखो कि कोई भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। कोई तुम्हारा कुछ लूट नहीं सकता। ये दो-तीन बातें हैं, इनको अगर याद रखोगे तो डर नहीं लगेगा।
क्या है दो-तीन बातें? पहला: दुनिया लुटेरों से नहीं भरी हुई है, ये धारणा निकालो। दूसरा: तुम्हारी असली दौलत ऐसी नहीं है कि छिन सके। तीसरा: तुम अक्षम नहीं हो। तुम ऐसे नहीं हो कि तुम अपनी सुरक्षा स्वयं नहीं कर सकते। तो अपनी दुर्बलता पर तुमने जो यक़ीन कर रखा है उसको छोड़ो। ये बस एक भावना ही है कि मैं बहुत कमजोर हूँ। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम यह भावना रखो कि तुम मजबूत हो। बस यह भावना छोड़ दो कि तुम कमजोर हो।