प्रेम का अर्थ ये नहीं कि, “तुम मुझे खुश रखो, मैं तुम्हें खुश रखूँ।“ बिलकुल भी नहीं!
जिससे देह का सुख मिल गया, जिससे मन का सुख मिल गया, धन का सुख मिल गया उसी को कह दिया, ‘इससे प्रेम है।‘ यही है न प्रेम हमारा?
दूसरे को सुख देने का नाम प्रेम नहीं है, ना दूसरे से सुख पाने का नाम प्रेम है। जिससे प्रेम होता है उसे सुख नहीं दिया जाता, इसका आशय ये नहीं है कि उसे दुःख दिया जाता है। इसका आशय ये है – जिससे प्रेम होता है उसके विषय में ना ये सोचा जाता है कि, ‘इसको सुख दूँ’, ना ये सोचा जाता है कि, ‘इसको दुःख दूँ’। उसके विषय में मन एक ही शुभ विचार से भरा रहता है।
क्या?
“इसको सच्चाई कैसे दूँ? इसे मुक्ति कैसे दूँ? इसे ऊँचे-से-ऊँचा, बेहतर-से-बेहतर कैसे होने दूँ? इसे आसमान कैसे दूँ?”
हाँ, जिसे आसमान देना चाहोगे, तुम अक्सर ये पाओगे कि वो तुमको गरियायेगा। क्योंकि उसे चाहिए था ज़मीन का एक टुकड़ा और तुम उसे देना चाहते हो आसमान।
कोई बात नहीं! प्रेम में बड़ा धैर्य होता है, बड़ी सहनशीलता…