प्रश्नकर्ता: हमारा जो मन है वो डूअलीटी (द्वैत) में ही रहता है। पहले वो समाज में ढूँढता है चीज़ों को, फिर वो आध्यात्म में ढूँढता है चीज़ों को। जब वो दोनों जगह से हारता है तब वो थककर रुकता है। तब आप उपनिषद् की बात करते हैं। उपनिषद् भी मैं तीन महीने से उपनिषद् के क्लासेज़ (सत्र) कर रहा हूँ ऑनलाइन। तो सारे श्लोक एक ही बात कह रहे हैं, कोई श्लोक कोई नयी बात नहीं कह रहा। वो उसकी बात कर रहें हैं जिसकी बात हम कर ही नहीं सकते। तो इट्स अ काइंड ऑफ़ रिमाइंडर (यह एक तरह की याद दिलाना) कि आपको रिमाइंड (याद) कराना है कि आप जहाँ भी टिक रहे हो, वहाँ टिकना नहीं है आप को।
तो मेरा प्रश्न ये है कि वो चीज़ें हमें समझ में आ गयी हैं और हमें थोड़ी शान्ति मिल गयी है। ये मालूम पड़ गया है कि कैसे आगे बढ़ना है। अब कहीं भटक नहीं रहें हम। वो समझ में आ गया है। लेकिन जो हमारे फ्रेंड सर्किल (मित्र परिचय) में जो लोग हैं जिनसे हम कभी मिल जाते हैं, फैमिली में जो लोग हैं। अगर वो वहाँ फँसे हुए हैं, उनको निकालना है वहाँ से, तो अगर उन्हें समझाना है इस बात को कि ऐसे-ऐसे कुछ चीज़ें होती हैं। और आपको जो चीज़ आप जहाँ ढूँढ रहे हो वो वहाँ नहीं मिलेगी। तो वो शायद उन्हें समझ में नहीं आता है कुछ समझते हैं, कुछ सुनते हैं, लेकिन सब नहीं कर पाते हैं।
तो मेरा प्रश्न ये है कि जो मैंने पहले भी पूछा था कि ये जो आपने बात की थी विद्या की, ये इतनी मुश्किल क्यों है हम सभी के लिए? या फिर जैसे रमण महर्षि हो गये, निसर्गदत्त महाराज हो गये, जिद्दु कृष्णमूर्ति हो गये, ऐसे लोगों को हम क्यों उँगलियों पर काउंट (गिन) कर सकते हैं? ये इतनी संख्या में क्यों नहीं हैं?
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे दोस्त पता नहीं कहीं फँसे हैं कि नहीं फँसे हैं। लेकिन तुम ज़रूर अपने दोस्तों में फँसे हुए हो। तुम्हें अपने दोस्तों को मुक्ति क्यों दिलानी है? तुम्हारे दोस्त कहीं जाकर फँसे होंगे। पर दुनिया में शायद आठ अरब, आठ सौ करोड़ लोग हैं जो कहीं-न-कहीं फँसे हुए हैं। तुम उन्हीं अपने दो-चार दोस्तों की क्यों बात कर रहे हो? इसका मतलब तुम उन्हीं दो-चार में फँसे हुए हो। तो मैं किस समस्या का निवारण करूँ कि तुम्हारे दोस्त कहीं फँसे हुए हैं या इस समस्या का कि तुम अपने दोस्तों में फँसे हुए हो?
ये आध्यात्मिक लोगों की बड़ी प्रचलित शिकायत रहती है कि साहब तीन महीने के अन्दर हम तो इनलाइटेंड (प्रबुद्ध) हो गये। पर यही काम हम अपने परिवार वालों और दोस्तों के साथ नहीं कर पा रहे। वो नासमझ कुछ समझते ही नहीं। हमने तो पूरी कोशिश कर ली उन्हें समझाने की। पर बड़े बुद्धू हैं। मेरे जैसे होनहार पथ-प्रदर्शक के होते हुए भी इन्हें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।
तुम्हें पहले समझाऊँ क्या आसक्ति है कि तुम उन्हीं दो-चार लोगों पर इतनी जान लगा रहे हो? उन्हें छोड़ काहे नहीं देते बाबा? छोड़ने से मेरा मतलब ये नहीं है कि उनसे रिश्ता तोड़ लो।
सूरज ये देखकर रोशनी देता है क्या कि किसके आँगन में धूप का टुकड़ा गिरेगा? वो किसी को वंचित तो नहीं करता, लेकिन साथ-ही-साथ वो किसी को वरीयता भी नहीं देता। तुम वरीयता क्यों दे रहे हो? मैं नहीं कह रहा हूँ कि अपने दोस्तों को तुम अपने विशेष ज्ञान से वंचित कर दो। पर उन्हें वरीयता काहे को दे रहे हो? अब वरीयता दोगे तो कष्ट भी होगा। क्योंकि वरीयता देने का मतलब ही यही है कि तुम अपनेआप को अभी वही समझते हो-दोस्तों का दोस्त, यारों का यार। नहीं तो इस तरफ़ तुम्हारे दोस्त रहते हैं (हाथ के इशारे से समझाते हुए) ये तुम्हारा घर है, दायीं तरफ़ तुम्हारे दोस्त रहते हैं, उनको तुम जगाने में बड़े उत्सुक हो और बायीं तरफ़ जो है, उसको तुम दुश्मन मानते हो या अपरिचित, अनजाना मानते हो। उसको तुम कुछ बताना नहीं चाहते। उसको काहे नहीं बता रहे भाई? उसने क्या अपराध किया है? उसको क्यों तुम वंचित रख रहे हो अपने कृपा पुष्पों से? सब पर गिराओ न सूरज की तरह।
फिर वही बात कि साहब मैं तो दुनियादारी से बिलकुल उठ गया हूँ। और मुझे तो अब देखिए कोई लेना-देना नहीं, मेरी कोई कहीं पर बेड़ियाँ नहीं बचीं हैं, कुछ नहीं है। पर मेरे माँ-बाप नहीं समझ रहे। माँ-बाप को न बड़ी आसक्ति है, घर से और घरवालों से। अच्छा! माँ-बाप को घर वालों से आसक्ति है, इसकी तुम शिकायत करने आये हो और तुम्हें माँ-बाप से आसक्ति है, इसकी तुम बात ही नहीं कर रहे? नहीं तो तुम माँ-बाप पर ही इतनी ज़ोर आजमाइश क्यों करते?
यहाँ हम बैठे हुए हैं, एक-दूसरे से बात कर रहे हैं न या एक दूसरे के हम रिश्तेदारों से बात कर रहे हैं? न मैं आपका रिश्तेदार हूँ, न आप मेरे रिश्तेदार हैं। अगर हम यही तय कर लें कि साहब जाग्रति तो रिश्तेदारों का ही अधिकार है। तो फिर तो ये बातचीत भी नहीं हो सकती। ये रिश्तेदारी वगैरह न बहुत छोटी बातें होती हैं। अकेले आये हो, अकेले जाना है।
ये मसले बिलकुल व्यक्तिगत होते हैं। इस पर किसी को ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती। ये कोई विरासत की बात नहीं होती है कि बाप को समझ में आयी है तो बेटे को दे देंगे। न ऐसी चीज़ होती है कि अब बेटे की नौकरी लग गयी है तो बाप का कर्ज़ा उतार देगा। जिसको चाहिए सिर्फ़ उसको मिलेगा। देने वाले की नज़र में बाप भी बच्चा है और बेटा भी बच्चा है। तुम्हारी नज़र में तुम्हारा बाप, बाप है। जो देता है उसकी नज़र में तुम सब भाई-बहन हो। आपस में सब भाई-बहन हो। तुम्हारी बीवी भी तुम्हारी बहन है, तुम्हारा बाप भी तुम्हारा भाई है। तुम एक-दूसरे को क्या दे लोगे? और अगर देना ही है तो सबको अपना भाई मानो न, सबको बराबर का दो। ये खून के रिश्तों से क्या आसक्ति है?
लेकिन ये हमारी बड़ी समस्या रहती है। मेरी पत्नी नहीं समझती, मेरा पति नहीं समझता। काहे को समझे? क्यों समझे? सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुम उसकी पत्नी हो और तुम्हें दो बातें उपनिषदों की समझ में आ गयीं। क्यों? तुमने तीन महीने का कोर्स कर लिया। बड़ा सस्ता होगा ऐसा उद्बोधन इनलाइटनमेंट (प्रबोधन) जो तीन महीने का कोर्स करके मिल जाता है भाई।
तुम्हारी ज़िद्द ये है कि मुझे तो मिल ही गया है तीन महीने के अन्दर। दूसरे को भी मैं ही दे दूँगा। तुम्हें किससे मिला था? हालाँकि मिला नहीं है। पर अगर दावा भी है कि मिला था, तो तुम्हें मुझसे मिला और अपनी माता जी को तुम दे लोगे? तुम्हें मुझसे मिला और अपनी माता जी को देने के लिए तुम मेरे बराबर हो गये? मुझसे अहंकार लड़ा रहे हो? मेरा अहंकार ज़्यादा बड़ा है। (व्यंग में हँसते हुए)। मैं नासमझ हूँ? प्रश्न नहीं समझ रहा तुम्हारा? रुक जाओ! तुम जो बोल रहे हो वो तुमने पहली बार नहीं बोला है। ये सैंकड़ो बार दोहराया गया प्रश्न है। हर बार अलग-अलग सन्दर्भ में, अलग-अलग मुखों से, अलग-अलग शब्दों में आता है सामने। पर भाव वही रहता है, ये दुनिया वाले इतने नासमझ क्यों हैं। दुनिया वाले नासमझ हैं?
पहली बात तो नासमझी पर ही दुनिया वालों का ही क्या अख्तियार है भाई। थोड़ी नासमझी तुम्हारी भी है, उसे स्वीकार कर लो। और दूसरी बात, मैं क्यों नहीं समझा पा रहा उनको। तो दोनों बातें बता दीं। पहली बात तो ये कि जिसको समझना है वो इस कारण से कभी नहीं समझेगा कि उसके किसी नात-रिश्तेदार ने समझ लिया है। कभी नहीं होगा ऐसा।
और दूसरी बात, जहाँ से समझा जाता है, जहाँ से शायद तुमने भी समझा है भले ही आंशिक रूप से, वहाँ तक उनको लेकर आओ न। लेकिन ये भी हमारा ही रहता है, हम तो नेटवर्क में हैं, दूसरे को हॉटस्पॉट दे देंगे। नहीं, दूसरे को हॉटस्पॉट मत दो। सिम दो, नेटवर्क में लाओ उस बेचारे को भी। लेकिन नहीं, नेटवर्क तो हमारा ही रहेगा, तू हमारी कृपा से थोड़ा सा हॉटस्पॉट ले ले। (इशारे से समझाते हुए) मतलब समझ रहे हैं बात का कि नहीं समझ रहे हैं?
थोड़ा संस्था का भी ख्याल करो न, परिवार का एक आदमी कोर्स करके अगर बाकी चार लोगों को पढ़ा देगा तो अनुदान राशि भी नहीं आयेगी भाई। तो हमारा खेल ही ऐसा नहीं है कि एक को मिले चार में बाँट दे। कर ही नहीं पाओगे। एक से दूसरे में ऐसे नहीं पहुँचती। सेंटर (केंद्र) पर लॉगिन करना पड़ता है। अगर वो पहला व्यक्ति जिसे कोई बात समझ में आयी थी, उसने यही तरीका आज़मा लिया होता। तो फिर तो ये काम ही आगे नहीं बढ़ पाता न।
जब तुमने पहला प्रश्न पूछा था मैंने तुम्हें तब भी बोला था कि खरा सवाल है और खरा होता अगर सवाल ज़रा अपनी ओर होता। और अभी भी तुम उसी ढर्रे पर चले जा रहे हो जो पहले प्रश्न में परिलक्षित हुआ था। थमो! अपनी बात करो, बहुत ज़रूरत है अंतर्गमन की। दूसरों के बारे में पूछना कि वो फ़लाना था, 6-G, डेनमार्क, नॉर्वे और पहले सवाल उनके बारे में कर रहे हो और अब सवाल अपने दोस्त, यार और रिश्तेदारों के बारे में कर रहे हो। पूरी दुनिया ही बेचारी खराब है। बस एक इकाई है जिसके बारे में कोई चर्चा नहीं करनी, वो इकाई कौन है? हम। डेनमार्क,फिनलैंड वालों की भी बात कर लेंगे और 6-G और फोर्ब्स-500 की भी बात कर लेंगे, अब घर वालों की बात कर लेंगे, उनकी बात कर लेंगे। ऐसे नहीं होता। दिस इज़ नॉट द वे ऑफ़ ऑनेस्ट ऑब्जरवेशन (यह अवलोकन का ईमानदार तरीका नहीं है।) ऐसे नहीं करा जाता।