जिसे चोट लग सकती है, उसे सौ बार लगनी चाहिए || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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जिसे चोट लग सकती है, उसे सौ बार लगनी चाहिए || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। क्या मानसिक तल पर बिना हर्ट (आहत) हुए जीवन जिया जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: जब तक वो मौजूद है जो हर्ट माने आहत हो सकता है; बहुत ज़रूरी है कि वो एक बार नहीं, सौ बार आहत हो। इनका सवाल था कि क्या बिना हर्ट हर्ट माने आहत हुए, चोट खाए — बिना हर्ट के जीवन जिया जा सकता है। हर्ट हमारे लिए क्या होता है? 'एक अनुभव।' है न? एक अनुभव होता है, जिसका पता हमें यदा-कदा ही लगता है न। आप चौबीस घंटे निरंतर तो आहत नहीं होते रहते न। बीच-बीच में दिन में एक-आध बार, चार बार, कोई दिन खराब है तो दस बार चोट लग जाती है। लेकिन जो चोट खानेवाला है, वो भी क्या बस दिन में दस दफ़े ही आता है हमारे भीतर या वो लगातार है? और ये बात बस सांयोगिक होती है कि उस पर चोट लग कितनी बार रही है।

भई, चोट खाने के लिए कोई चाहिए न जो कमज़ोर है इसलिए चोट खाता है। चोट कौन खाता है? हमारे भीतर वो जो कमज़ोर, दुर्बल बैठा हुआ है वही चोट खाता है न। तो उसे चोट लगती कब है? यदा-कदा। कोई आकर कुछ बोल गया, संयोगवश कोई घटना हो गयी। ठीक है न? तो वो बुरा मान जाता है और बुरा तो मानेगा ही क्योंकि वो कैसा है? कमज़ोर है। तो उस पर जैसे ही स्थितियों की चोट लगती है; कईं बार तो चोट लगनी ज़रूरी भी नहीं होती, स्थितियों का झोंका ही लग जाए तो उसे दर्द हो जाता है। तो उसको फिर चोट का अनुभव हो जाता है, ठीक है?

अब जो इन्होने सवाल पूछा है कि क्या बिना चोट खाये जीवन जिया जा सकता है। जहाँ तक मैं समझ रहा हूँ, प्रश्न पूछ रहा है कि क्या बिना चोट के, अनुभव के जीवन जिया जा सकता है। हम ये जो अनुभव होता है दुखकारी इसको ही हटाने में रुचि रखते हैं न। कि ये जो पाँच-दस बार दर्द हो गया, दुःख हो गया, हर्ट हो गया ये न हो; यही हमारी रुचि है न।

इस प्रश्न के पीछे भी यही उत्सुकता है कि बता दीजिए कि किस तरीके से ये जो यदा-कदा कोई चीज़ आकर के बेंध जाती है, कोंच जाती है वो न किया करे। लेकिन प्रश्नकर्ता की उत्सुकता शायद उसको हटाने में नहीं हैं जो भीतर बैठा है दुर्बल और जिसको चोट लगनी तय है, उसको हटाने में हममें से किसी की रुचि नहीं होती; नहीं होती न? क्योंकि उसका नाम क्या है?

प्र: अहम्।

आचार्य: अरे! उसको कौन हटाये। तो हम कहते हैं, वो बना रहे भीतर, बस चोट न लगे.ट चोट खाने वाला बना रहे भीतर चोट न लगे। हम कहते हैं, 'चोट खानेवाला बना रहे भीतर बस चोट का अनुभव न हो।’

आदमी जीवन भर जो हरकतें करता है चाहे वो आर्थिक क्षेत्र की हों, पारिवारिक क्षेत्र की हों यहाँ तक कि चाहे वो अध्यात्मिक क्षेत्र की ही उसके हरकतें क्यों न हों; वो सब ले-देकर यही कोशिश होती है, क्या? 'चोट खाने वाला बचा रहे चोट न रहे।' हम अपनेआप को ही धोखा देते रहते हैं। तो मैंने आपसे क्या कहा मैंने कहा कि जब तक भीतर वो मौजूद है जिसको चोट लग सकती है, भगवान करें तुम्हें एक नहीं, दिन में सौ दफ़े चोट लगे। मैं कह रहा हूँ, ‘जब तक भीतर वो मौजूद है जो चोट खा सकता है वो दुर्बल, वो झूठा, वो दीन-हीन, वो मायावी — जब तक भीतर वो मौजूद है तुम्हें एक बार नहीं, सौ बार चोट का एहसास हो। ताकि तुम अपनेआप को ये दिलासा न दे पाओ कि तुम स्वस्थ हो, ठीक हो कि तुम्हें उपचार की ज़रूरत नही।’

चोट नहीं लगेगी तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि तुम्हारे भीतर ‘मैं’ का नाम पहनकर के एक दुर्बल शख्स बैठा हुआ है? कैसे पता चलेगा बोलो? पता चलेगा? तो चोट लगनी ज़रूरी है। आम आदमी कभी-कभार चोट खाता है, जो उससे भी गिरा हुआ होता है वो भी कभी-कभार चोट खाता है लेकिन वो ऐसी व्यवस्था लेता है कि चोट लगे तो दर्द न हो। खूब कमा लेगा, ये कर लेगा, वो कर लेगा, तमाम तरह के साधन इकट्ठा कर लेगा, दर्द के अनुभव के खिलाफ़ कुछ बन्दोबस्त कर लेगा, है न?

तो दर्द उठा नहीं कि तुरन्त उसने एक गोली खाली। किसी भी तरीके की गोली हो सकती है वो; मनोरंजन की गोली हो सकती है, भोग की गोली हो सकती है, सफलता की गोली हो सकती है, प्रतिष्ठा की गोली हो सकती है, अध्यात्म की गोली भी हो सकती है कि चोट लगी नहीं गोली खा लो और अपनेआप को ये जता दो कि साहब हमे तो अब चोट लगती नहीं हम तो पार हो गये। इससे ऊँचे तल का होता है वो आदमी जो यदा-कदा चोट खाता है। इससे ऊँचे तल का वो होता है जो कहता है, "आ बैल मुझे मार।" वो आग्रह कर करके बुलाता है कि मुझे चोटें लगें, लगें, लगें, लगें, लगें।

‘अगर कुछ होगा नहीं दुर्बल मेरे भीतर तो बाहर से जीतने भी आघात हो रहे होंगे उससे मैं आहत होऊँगा ही नहीं। और अगर मेरे भीतर अभी कमज़ोरी बैठी है तो बाहर से जब आघात होगा तब मुझे उस कमज़ोरी का पता चल जाएगा। बहुत अच्छी बात है आओ मारो, मुझे ठोको-बजाओ, मुझे आग से गुज़ारो तभी तो मुझे पता चलेगा कि मेरे भीतर क्या है जो खाक हो जाना चाहिए।'

आ रही है बात समझ में?

और फिर सबसे ऊँचे तल पर जो होता है, उसके भीतर से वो सब कुछ मिट चुका होता है; जल चुका होता है जो चोटिल हो सकता है। अतः अब उसे चोट क्या लगेगी जब चोट खाने वाला ही नहीं बचा?

हममें से ज़्यादातर लोग इन चार तलों में से किस तल के होते है? नीचे से दूसरे तल के, है न? सबसे नीचे तल पर, हमने कहा, वो लोग हैं जो चोट तो खाते हैं लेकिन वो अपने ही खिलाफ़ साज़िश रचकर खुद को जतला देते हैं कि हमें तो चोट लगती नहीं। उससे ऊपर साधारण आदमी होता है जिसको चोट लगती है और जब चोट लगती है तो बौखला जाता है, तिलमिला जाता है, है न? उससे ऊपर हमने कहा, होता है ‘साधक’। और साधक क्या बोलता है?

श्रोतागण: "आ बैल मुझे मार।"

आचार्य: "आ बैल मुझे मार।" मुझे चोट चाहिए। दर्द मंजूर कर लूँगा, दुख गँवारा है लेकिन भीतर कमज़ोरी का बैठे रहना गँवारा नहीं। तो लगे चोट अच्छी बात है। और जो इन तीनों चरणों को पार कर जाता है वो वहाँ पहुँच जाता है जहाँ न चोट और न चोटिल होने वाला।

हम अगर दूसरे तल पर हैं तो क्या हमें चौथे तल की बात करनी चाहिए? एकदम नहीं करनी चाहिए। जो भी लोग जीवन में तरक्की करने में उत्सुक हों उनको एक छोटी सी बात बताए देता हूँ, 'सीढ़ी है बस जो सामने पायदान है उस पर नज़र रखना, ये कोशिश तो करना ही नहीं कि ऊपर देख रहे हो कि वो जो बिल्कुल आखिरी तल्ला है सीधे उस पर छलांग मार दें।' सीढ़ी पर कैसे चढ़ते हो? एक-एक कदम। न? तो दूसरे चरण पर हो अगर तो बात करना सिर्फ़? तीसरे चरण की। चौथे चरण की बात करने में ज़ायका बहुत है, मज़ा बहुत है; उपयोगिता कुछ नहीं। मज़ा चाहिए या उपयोगिता चाहिए?

श्रोतागण: उपयोगिता।

आचार्य: हाँ और ये अध्यात्म से जुड़े लोगों के साथ खूब होता है। वो सीधे एकदम परम स्थिति की बातें करने लग जाते हैं। ‘आहा हा हा! परम मुक्ति, आखिरी समाधि!’ उससे कुछ मिलेगा नहीं। आप तो बस ये देखिए कि आप कहाँ पर हैं और उसकी तुलना में एक कदम ऊपर बढ़ जाइए। तो आप अगर दूसरे तल पर हैं तो तीसरे तल पर अब आपको क्या रवैया रखना है? क्या रवैया रखना है चोट के प्रति?

श्रोतागण: "आ बैल मुझे मार।"

आचार्य: लगे और चोटें लगें, लगें। झेल लेंगे। घबराना नहीं हैं, बचना नहीं हैं, हटने का नहीं पीठ दिखाने का नहीं। (स्वयं की छाती पर हाथ थपथपाते हुए) छाती पर लेने का। (छाती की ओर इशारा करते हुए) ये खोखली होगी, कमज़ोर होगी तो छिद जाएगी; पर खोखली और कमज़ोर हो तो छिद ही जाए, कौन बचाए इसको! कमज़ोर चीज़ वैसे भी कितने दिन चलनी है?

बड़े साहब लोग बता गये है कि कमज़ोरी हमारा स्वभाव नहीं। तो छाती अगर हमारी कमज़ोर है तो नकली छाती होगी, असली छाती कहीं और होगी। वो छुपी है। ये नकली वाली छिद ही जाए और अगर असली होगी तो पता ही नहीं लगेगा। असली अगर होगी तो उस पर चोट का पता ही नहीं लगेगा। ठीक है?

ये सब बातें तुम आम संसारियों के लिए छोड़ दो कि चोट न लगे , चोट न लगे । जवान आदमी हो छाती चौड़ी करके खड़े हो जाओ समय के सामने, संसार के सामने। लगे चोट।

ठीक है?

दर्द आप अपना उपचार हो जाता है दर्द से घबराना नहीं। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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