ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम न हो

Acharya Prashant

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ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम न हो

वक्ता: अजय का सवाल है कि लोग कहते हैं कि ज़िन्दगी से दो–चार चीज़ें कम हो जायें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता । अजय पूछ रहे हैं, ‘अगर ज़िंदगी से प्यार, पैसा, परिवार वगैरह कम हो जाये, तो क्या कोई फर्क पड़ेगा?’

ज़िन्दगी से चीज़ें कम हो जायें तो कोई फर्क नहीं पड़ता पर ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम नहीं होनी चाहिए। बात को ध्यान से समझो। चीज़ें ज़िन्दगी नहीं होती। चीज़ों को जाने दो, चीज़ों से ज़िन्दगी नहीं बनती। चीजें तो बाहर से आई हैं और उन्हें बाहर चले जाना है। चीज़ों का स्वभाव है आना और जाना। ज़िन्दगी आने–जाने वाली चीज़ नहीं है। वो पूरी है और वो ज़िन्दगी जो चीज़ों के पीछे भागते हुए बीतती है, वो अधूरी रह जाती है। बड़ी गरीब रह जाती है। गरीबी यह नहीं कि पैसा कम हो गया, गरीबी यह है कि पैसा और चाहिए था। अन्तर समझो इस बात का। गरीब वो नहीं जिसके पास इतना ही है, गरीब वो है जिसे अभी और चाहिए। फिर भले उसके पास कितना भी हो, अभी वो और मांग रहा है, तो ज़िन्दगी बुरी है, क्योंकि वो चीज़ों के पीछे भाग रहा है।

बात को साफ़–साफ़ समझो। देखो, हमने शुरू में ही कहा था कि मूल सवाल बस एक है कि क्या बाहरी है और क्या बाहरी नहीं है। याद है, जब ज्ञान और किस्मत की बात हो रही थी तो हमने कहा था कि मूल प्रश्न और कुछ नहीं, बस यही है कि क्या है जो तुम्हारा आपना है और क्या है जो आपना नहीं है, बाहरी है, आयातित है। चीज़ें सदा बाहरी है, व्यक्ति सदा बाहरी है, स्थितियां सदा बाहरी हैं। मैं दोहरा रहा हूं, तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी समझ है। तुम्हारी जानने की क्षमता, तुम्हारी होश की काबिलियत। सिर्फ वो है तुम्हारी अपनी, सिर्फ वो तुम हो। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है तुम्हारा। अबी सभी कुछ इसी कसौटी पर कस लो। तुमने कहा पैसा, तुमने कहा परिवार। परिवार व्यक्तियों का समूह है। यह सब कुछ चीज़ें ही हैं, चीज़ों में इन सबको शामिल कर रहा हूँ मैं। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियां, समय, जो कुछ भी आता जाता रहता है उन्हें चीज़ ही मानो। उससे तादात्म्य मत बैठा लेना, उसको अपनी पहचान मत मान लेना, कि ‘मैं कौन हूँ? मैं फलाने परिवार का सदस्य हूँ। मैं कौन हूँ? मैं वो हूँ जो बहुत अमीर है‘। इनको अपने पहचान मत बना लेना। ‘मैं कौन हूँ? जिसके पास यह डिग्री है‘। बाहरी चीज़ों के साथ एक गहरा नाता मत जोड़ लेना। उनको आने दो, वो पड़ी हैं जीवन में, उनका काम है जीवन में। उनकी कुछ उपयोगिता है, सुविधा भी है। बस इतना ही उनका तुमसे सम्बन्ध रहे कि इससे कुछ सुविधा मिल जाती है। वो तुम्हारी पहचान ना बन जाए। अगर वो तुम्हारी पहचान बन गयी, तो वही होगा कि ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम हो जाएगी।

हटाना नहीं है। हटाना तो यह बताता है, कि उनसे तुम्हें कुछ परेशानी हो रही है। ना उनके होने से तुम्हें कुछ दुश्मनी होनी है और ना उनके चले जाने से तुम्हें कोई विशेष लाभ होना है। उनका तो तय है। तुम व्यक्तियों को कैसे हटा सकते हो? कैसे हटा पाओगे यह बताओ? हमने कहा चीज़ें, चीज़ें यानि बाहरी। जो बाहरी है, उसको तुम हटा कैसे पाओगे? तुम जब तक जिंदा हो, जहाँ भी हो, जैसा भी हो, बाहरी तो हमेशा मौजूद रहेगा ना? जिस हवा को ले रहे हो, यह बाहरी हवा है। जिस ज़मीन पर बैठे हो, वो बाहरी ज़मीन है। भाग कर हिमालय की चोटी पर भी चढ़ जाओगे, बाकि सब लोगो से रिश्तें नातें तोड़ दो, तो भी वहाँ बाहरी तो मौजूद रहेगा ही। पेड़–पौधे और कुछ ना रहे, यह मन तो रहगा जो बाहरी से भरा हुआ है, इसको तो साथ ही लेकर जाओगे, इसे तो छोड़ के नहीं जा पाओगे ना? बाहरी से ना डरना है, ना भागना है, बस जानना है कि वो बाहरी है। उससे पहचान नहीं बना लेनी है।

जो कुछ बाहरी है, उससे डरने की भी ज़रूरत नहीं है, उससे भागने की भी ज़रूरत नहीं है। बस उससे एक गहरा तादात्म्य ना बन जाये इसका होश रखना है। ‘मैं बाहरी नहीं हूँ‘, यह बोध लगातार बना रहे। ‘मैं चीज़ नहीं हूँ‘, लेकिन जीवन हमारा ऐसे ही हो जाता है। तुम अगर एक आम आदमी को देखो तो उसने आपनी जीवन को चीज़ों से संयुक्त कर दिया है। उसके घर से अगर सोफे कम हो जायें तो उसे लगता है कि ज़िन्दगी से कुछ चीज़ कम हो गया। अगर तुम एक आम आदमी को देखो, तो उसके घर में अगर एक नया बड़ा टीवी आ जाये, तो उसे लगता है कि उसकी ज़िन्दगी बढ़ गयी और उसकी गाड़ी चोरी हो जाए तो उसे लगता है कि ज़िन्दगी चोरी हो गयी। यह गड़बड़ है। यह मामला गड़बड़ है, तुमने वस्तुओं के साथ जीवन जोड़ दिया है। तुमने आपनी पहचान स्थापित कर ली वस्तुओं से, व्यक्तियों से, परिस्थितियों से। अब दिक्कत हो कर रहेगी। यह ना होने पाए बस।

-‘संवाद‘ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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