जिनसे मन लगाते हैं, उन्हीं से दुख क्यों पाते हैं?

Acharya Prashant

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जिनसे मन लगाते हैं, उन्हीं से दुख क्यों पाते हैं?

आचार्य प्रशांत: चलिए, अब ज़रा माता से कुछ बात कर ली जाए। तो सप्तशती, अब ये मुझे बहुत-बहुत, बहुत प्यारी रही है। सबसे पहले, आज से तीन साल पहले हुआ था, दो साल पहले हुआ था?

श्रोतागण: तीन साल।

आचार्य: तीन साल, तो २०२० हो गया न?

श्रोतागण: दो साल।

आचार्य: दो साल, दो साल पहले। तो ऋषिकेश में थे, और तब पूरी सप्तशती पर एक-एक श्लोक लेकर के पूरा भाष्य तैयार किया था। तो रुचि इसमें पहले से थी, और जो पूरा काम था वो सितम्बर, २०२१ में हुआ था, एक महीने के अन्दर-अन्दर ही हुआ था।

सप्तशती है, कुछ सात-सौ के आँकड़े में विशेष है। जो दो ग्रन्थ मुझे प्रिय हैं, दोनों में सात-सौ। कौनसे?

श्रोतागण: भगवद्गीता और दुर्गासप्तशती।

आचार्य: भगवद्गीता, दुर्गासप्तशती दोनों में सात-सात सौ हैं, ठीक है? विशेष बात क्या है? विशेष बात ये है कि उधर जो मामला है, वो ज्ञान का है। वहाँ पर कृष्ण ज़्यादातर आपको बोलते नज़र आएँगे पुरुष की ओर से और यहाँ जो पूरी बात है वो प्रकृति की ओर से है। बहुत बढ़िया।

वहाँ ब्रह्म की बात है, जो उपास्य है। यहाँ प्रकृति की बात है, जो उपाय है। और उपास्य तक पहुँचना है तो उपाय तो चाहिए न? कि नहीं? वहाँ साध्य की बात है, यहाँ क्या है? यहाँ साधन है।

तो आने वाले तीन-चार सत्रों में, अष्टावक्र गीता के, हम सप्तशती का एक-एक चरित्र लेते रहेंगे। ठीक है?

पहला चरित्र तो बस जो पहला उसका प्रकरण या पहला अध्याय है, वो उतना ही है। तो आज हम ले लेंगे वो, हम फिर विस्तार में बात भी कर पाएँगे। दूसरा थोड़ा बढ़ता है। उसमें जो दूसरा, तीसरा, चौथा अध्याय है, वो आ जाते हैं, दूसरे चरित्र में। जो तीसरा है लेकिन वो लम्बा है काफ़ी, शुम्भ-निशुम्भ वाला। तो उसमें पाँचवें से लेकर तेरहवें प्रकरण तक है।

तो ये कुछ निश्चित नहीं है कि जो तीसरा है, वो एक ही सत्र में समाप्त हो पाएगा कि नहीं। नहीं हो पाया तो फिर हम चौथा (सत्र) लेंगे, वो जो चौथा है, ये फिर नवदुर्गा माने दशहरा के बाद तक जाएगा, पर कोई बात नहीं, कोई बात नहीं। माँ कोई नौ दिनों तक सीमित थोड़े ही हैं, नौ दिन में अगर हो गया काम तो ठीक है, नहीं तो फिर एक दिन और भी लेना पड़ेगा, ले लेंगे।

तो पहले तो रूप-रेखा बता देते हैं, तो सात-सौ श्लोक हैं, इतना कह दिया; तेरह इसमें प्रकरण हैं, वो भी कह दिया और तेरह चरित्रों में कैसे बँटे हैं, वो भी कह दिया। जो पहला प्रकरण है उससे पहला चरित्र है। दूसरा, तीसरा, चौथा, उससे दूसरा चरित्र है। और फिर पाँचवें से तेरहवें तक तीसरा है। अब ये किस आधार पर बँटे हैं? जो प्रकृति के तीन गुण होते हैं, उनके आधार पर बँटे हैं।

तो शुरुआत होती है तमोगुण से। तो जो पहला चरित्र है, वो महाकाली को समर्पित है, महाकाली को। और वहाँ जिसका नाश होता है वो हैं मधुकैटभ। पहला चरित्र — तमोगुण, महाकाली, मधुकैटभ; ये पहला चरित्र है जो आज लेंगे।

दूसरा चरित्र — रजोगुण, महालक्ष्मी, महिषासुर। तो जिसको हम आमतौर पर दुर्गासप्तशती या देवी महात्म्य कहते हैं, वो असल में दूसरा चरित्र है, दूसरा चरित्र है। ठीक है? और जनमानस में लक्ष्मी धन-धान्य की देवी बन गयी हैं, लेकिन सप्तशती के अनुसार महालक्ष्मी ही महादुर्गा हैं। रजोगुणी, जैसे प्रकृति के तीन गुण हैं न। तो माँ, देवी, महामाया, महामाँ, वही एक-एक गुण में अपनेआप को प्रकट करती हैं। जब वो अपना रजोगुण प्रकट करती हैं, तो उनको हम बोलते हैं, महालक्ष्मी। महालक्ष्मी को ही माँ दुर्गा कहा जाता है, महिषासुरमर्दनी।

तो जो आप आमतौर पर नवदुर्गा में देखेंगे कि महिषासुर मर्दन हो रहा है, और वो जो सबसे प्रचलित जो देवी की छवि है, वो सप्तशती के दूसरे अध्याय से आ रही है और वो महालक्ष्मी की है, रजोगुणी देवी। ये तक कहा जाता है कि अगर आप पूरी सप्तशती नहीं सुन सकते हैं — नवदुर्गा के दौरान — तो आप सिर्फ़ उसका जो दूसरा चरित्र है, वो सुन लें, तो ये परम्परा में है कि उससे पूरा फल मिल जाता है। पूरा नहीं सुन सकते तो सिर्फ़ दूसरा चरित्र सुन लो, उससे पूरा काम हो जाता है।

ये तो हम जानते ही हैं कि सिर्फ़ ये कान वाले सुनने से नहीं होगा। ठीक है न? सुनने का वास्तविक अर्थ क्या होता है? कि भीतर जाए तो मनन भी करो, फिर निदिध्यासन भी करो और फिर उसको एकदम पचा लो। जब पचा लोगे तो फिर मन को क्या लग जाती है? समाधि लग जाती है।

तो सुनने का, श्रवण का मतलब ये नहीं होता कि हियरिंग (कानों से सुनने की क्रिया मात्र), वो कोई दूसरी चीज़ होती है, बहुत आगे की बात है। तो जब कहा जाता है कि दूसरा अगर आपने चरित्र सुन लिया, तो उससे जो मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं या मुक्ति मिल जाती है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वहाँ पर कोई बैठ गये हैं पंडित जी और वो आपको सुनाये जा रहे हैं और आपने सुन लिया उसे तो तर जाओगे, नहीं, नहीं, नहीं। सुनना नहीं है, गुनना है। गुनना है। ठीक है?

और फिर जो तीसरा चरित्र है उसमें आते हैं हमारे सतोगुणी देवी हैं, महासरस्वती। और ये सबसे विस्तृत है। और इस समय हमारे सामने कौन आएँगे? दो भाई, शुम्भ, निशुम्भ आएँगे। शुम्भ-निशुम्भ आएँगे, उनकी पूरी सेना आएगी और इतने सारे आएँगे, उनका सबका नाम लेंगे, तो एकदम मामला रोचक है बिलकुल।

माँ है न, प्रकृति है। सत्य में तो सबकुछ आकर क्या हो जाता है, ‘एक।’ वहाँ तो सारी विविधताएँ समाप्त करके क्या कर दिया जाता है? ‘एक’ और फिर एक को भी क्या कर देते हैं? शून्य कर देते हैं, सब खत्म। अब जब लेकिन यहाँ तो माँ हैं, माँ का क्या है? तो यहाँ तो ये होगा कि एक देवी से शुरुआत होगी, और वो एक देवी कितनी देवी बन जाएँगी? सौ बन जाएँगी, और बनती ही जाती हैं। सबके तो हम नाम भी न गिना पायें, इतनी बनेंगी अभी तीसरे चरित्र में।

पर जो अब पहला चरित्र है आज हमारे पास, वो उतना विस्तृत नहीं है। पर बहुत, बहुत रोचक है। जैसे एक-एक बात में प्रतीक छुपे बैठे हों। मैं प्रयास करूँगा कि स्मृति से सब बता भी पाऊँ और प्रतीक जो है वो सामने भी ला पाऊँ।

तो शुरुआत होती है मार्कण्डेय ऋषि से, मार्कण्डेय ऋषि से। वही मार्कण्डेय ऋषि जिनके नाम पर मार्कण्डेय पुराण है। तो शुरुआत होती है, मार्कण्डेय ऋषि हैं और वो अपने आश्रम में बैठकर के ज्ञान दे रहे हैं। और ज्ञान बताओ किसको दे रहे हैं?

श्रोता: पशुओं को।

आचार्य: पक्षी। पशु अभी आगे आएँगे, जब मेधा मुनि आएँगे। सिर्फ़ पक्षी बैठे हैं और ज्ञान दे रहे हैं, है न रोचक शुरुआत? पक्षियों को ज्ञान दिया जा रहा है, इससे आशय क्या है?

श्रोता: चेतना एक पक्षी है।

आचार्य: चेतना एक पक्षी है, नहीं। प्रकृति है। अहम् क्या है? प्रकृति का ही तो उत्पाद है न? तो पक्षी माने वो अहम् जो अभी शरीर से संयुक्त है। पशु जैसा ही है, वही पक्षी है, वही आशय है। और पक्षी बैठे सुन भी रहे हैं और मुनि पूरी बात बता रहे हैं। और जो पूरी सप्तशती बतायी गयी है, वो बतायी ही किसको गयी है? इन्हीं पक्षियों को बतायी गयी है, भाई। इन्हीं पक्षियों को ये पूरी सप्तशती बतायी गयी है। ठीक है?

तो ये पक्षियों को बात बतायी जा रही है, और अब क्या बताया जाता है उनको? उनको बताया जाता है कि दो जने हैं, उनकी कहानी है। अब इनको सुनो।

दो जनों में पहले हैं, एक राजा। राजा सुरथ। ठीक है? राजा सुरथ। राजा सुरथ का ऐसा है कि ये बड़े ही न्यायप्रिय राजा हैं, और सबका बड़ा खयाल रखते थे और अच्छे हैं, दानी भी हैं, भीतर उनके दया, करुणा, ये सब हैं, जैसा एक अच्छे राजा में हो सकती हैं चीज़ें। तो उन पर बाहर से आक्रमण हो जाता है। कोला विध्वंसी नाम के कोई लोग होंगे, वो आक्रमण कर देते हैं।

तो राजा का शायद ज़्यादा मन प्रजा के हितकारी कामों में रहा होगा, सेना की उतनी तैयारी करना वो भूल गये या थोड़ी लापरवाही आ गयी या जो भी हुआ। या सिर्फ़ संयोग की बात है। वो लड़ाई में जाते हैं, लड़ाई हार जाते हैं। तो ये जो कोला वाले लोग थे, विध्वंसी, जो भी थे, नाम ही उनका विध्वंसी है। तो वो लोग राजा का आधा राज्य या जितना भी राज्य, कुछ हिस्सा वो लूट-लाट लेते हैं।

राजा को बड़ी चोट लगती है, चोट ये नहीं लगती कि मेरा हिस्सा लूट लिया; वो कहते हैं, ‘उसमें मैंने बहुत तरीके से काम कराये थे। वो जो मेरी प्रजा थी उसको बच्चों की तरह मैं चाहता था, वो सब उनके, सब अन्तर्गत आ गयी। वो लोग पता नहीं अब क्या करेंगे।’

तो बुझे मन से राजा अपनी राजधानी लौटकर आते हैं, तो यहाँ क्या पाते हैं? वहाँ पाते हैं कि जब मन्त्रियों को पता चला है कि राजा कमज़ोर हो गया और आधा राज्य कोई लूट ले गया है, तो मन्त्रियों ने पीछे से षडयन्त्र कर दिया है, मन्त्रियों ने पीछे से साज़िश कर दी है। और इधर मन्त्रियों को पता चलता है, उधर उनको (विध्वंसीयों को) पता चलता है, तो वो कहते हैं, ‘फिर राजधानी पर ही आक्रमण कर देते हैं। ‘

विध्वंसी लोग बोलते हैं कि जब इनकी राजधानी ही अब अस्थिर हो गयी है, तो क्यों न राजधानी पर आक्रमण कर दें। तो ये सब चल रहा होता है और राजा बिलकुल व्यथित हो जाते हैं। कहते हैं, ‘बाहर मुझे हारना नहीं चाहिए था, मैं हारा। जिनसे मैं हारा, ये बर्बर लोग हैं, उन्हें जीतना नहीं चाहिए था, पर मैं इनसे हारा। और जो मेरे अपने लोग हैं, इन्होंने मेरे खिलाफ़ षडयन्त्र करा।’

तो राजा ऐसे बिलकुल व्यथित होकर के जंगल की तरफ़ चले जाते हैं। बोलते हैं, ‘मैं जा रहा हूँ, मैं जंगल जा रहा हूँ, लौट आऊँगा।’ क्या करोगे जंगल में? ‘ऐसे ही घूमूँगा, शिकार करूँगा, कुछ भी करूँगा, मैं जा रहा हूँ।’ पर राजा के मन की बात शायद ये होती है कि मुझे लौटना नहीं है।

तो वो राजा जंगल जाते हैं, तो वहाँ उनको दिखाई पड़ता है एक आश्रम है। वहाँ आश्रम में क्या देखते हैं? वहाँ गज़ब दृश्य दिखाई देता है। क्या गज़ब दृश्य दिखायी देता है? कि जैसे मार्कण्डेय ऋषि थे, उनके सामने तो सब चिड़िया बैठी हुई थीं। तो वहाँ जाते हैं, वहाँ एक मेधा मुनि हैं। उनके सामने शेर, चीते और बाघ और ये जो भेड़िये-वेड़िये, जितने भी हिंसक पशु होते हैं, ये बैठे हुए हैं। और उन्हीं के बगल में उनके जो शिकार वाले होते हैं, वो बैठे हुए हैं।

तो गाय है, चीतल है, हिरण है, नीलगाय है, खरगोश है, ये सब बैठे हुए हैं। और बाज बैठा है, बाज के बगल में बटेर बैठा हुआ है, और बाज उसको कुछ नहीं बोल रहा। भेड़िया बैठा है, भेड़िये के बगल में मस्त खरगोश तीन-चार बैठे हैं, भेड़िया उन्हें कुछ नहीं बोल रहा। और वहाँ पर ऋषि हैं, अपना उनसे बात कर रहे हैं, सब जानवरों से, और जानवर सब ज्ञान ले रहे हैं और ऐसे-ऐसे (सिर हिलाते हुए) अपना जानवर (कह रहे हैं) ठीक है।

तो राजा कहते हैं कि ये कुछ अद्भुत बात दिखी, यहाँ कुछ बात बनेगी। तो जाते हैं राजा, जब तक कुछ पूछे इतनी देर में एक और आदमी आ जाता है वहाँ आस-पास। वो देखते हैं, ये कौन आ गया। तो वो होता है एक समाधि नाम का व्यापारी, वैश्य। तो जैसे राजा अपने क्षेत्र में एक अग्रणी राजा थे, वैसे ही ये जो व्यापारी है, ये तगड़ा सेठ होता है अपने समय का, अपनी जगह का। तो देखते हैं ये आ रहा है मुँह लटकाये। बोलते हैं, ‘हाँ भाई, तेरा क्या है? मेरा तो सब राज्य लुट गया, तेरा क्या है?’

वैश्य बोलता है, ‘आपके जैसी ही कहानी है, मैं बहुत अच्छा व्यापारी था और बहुत मैंने सम्पदा इकट्ठा करी। और जितने मेरे नाते-रिश्तेदार थे, पत्नी थी, बच्चे थे, सबको मैंने पढ़ाया-लिखाया और मेरे जो सब अर्दली थे, नौकर-चाकर थे, भृत्य लोग थे, उन भृत्यों का मैंने बड़ा खयाल रखा, उनको जितने तरीके से विकसित कर सकता था किया। लेकिन अभी अब व्यापार में घाटा होने लग गया पिछले कुछ समय से, तो मेरी ही पत्नी ने और मेरे ही बच्चों ने मुझे बाहर निकाल दिया, और तो और छोड़ो इन भृत्यों ने भी मुझे अपमानित किया। तो मैं तो जंगल ये सोचकर ही आया हूँ कि यहाँ पर कोई जीव-जन्तु मुझे खा ले और मेरी कहानी खत्म करे।’

तो दोनों मेधा मुनि के सामने बैठ जाते हैं। तो मुनि पूछते हैं, ‘बात क्या है?’ तो सुनिएगा, बड़ी मज़ेदार (बात है), बोलते हैं (राजा और वैश्य), ‘देखिए, वैसे तो हम समझदार लोग हैं, लेकिन फिर भी हमारे भीतर बड़ी इस वक्त निराशा और अवसाद, दुख है।’ तो मुनि बोलते हैं, ‘समझदार तुम हो, पर तुम्हारी समझदारी वैसी ही है जैसी इन पशुओं की समझदारी है। तुम्हारी समझदारी ठीक वैसी ही है जैसी इन पशुओं की समझदारी है। माने तुम्हारी जो बुद्धि है वो तुम्हारी पशुता से अच्छादित है। तुम्हारी जो पूरी बुद्धि है, तुम्हारी सारी जो समझदारी है उस पर जो तुम्हारा देह-स्वभाव है वो चढ़ा हुआ है। बुद्धि तो तुम्हारी चल रही है, पर तुम्हारी बुद्धि वैसी ही चल रही है जैसे छिपकली की बुद्धि चलती है कि कैसे पतंगा पकड़ लूँ।’

जानवरों को देखा है कितनी बुद्धि लगाते हैं? गिरगिट बुद्धि लगाता है अपना रंग बदल लेता है। यहाँ तक कि ऐसे-ऐसे फूल, पौधे, ये सब आते हैं। जैसे पिचर प्लांट (कीटभक्षी पौधा) एक होता है, वो बुद्धि लगाकर ऐसा बन जाता है कि उसमें कीड़े घुस जाते हैं, वो खा जाता है। सोचो, माँसाहारी पौधा। वो पिचर माने सुराही जैसा बन जाता है, सुराही। पौधा है वो सुराही जैसा अपना रूप कर लेता है, उसका फूल है या कोई चीज़ है वो ऐसी (हाथ से बनाते हुए) सुराही जैसी बन जाती है। तो कीड़े कहते हैं, ‘वाह! सुराही! ला आज पीना है’ और उसमें घुस जाते हैं। जैसे ही घुस जाते हैं सुराही बन्द हो जाती है और पौधा खा गया।

हम सोचते है कि जानवर पौधा खाते हैं, यहाँ पौधा जानवर खा जाता है। तो बुद्धि तो पशुओं में क्या पौधों में भी होती है। पर वो सारी बुद्धि काहे के लिए होती है? बस अपनी देह चलाने के लिए, अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए। तो मुनि कहते हैं, ‘जितनी भी तुम्हारी बुद्धि है न, बुद्धि दोनों में पूरी है, पर ये (देह चलाने के लिए है)।’

तो बोलते हैं, ‘आपकी बात तो ठीक लग रही है क्योंकि मैं भली-भाँति जानता हूँ,’ राजा बोलते हैं, ‘मैं भलीभाँति जानता हूँ कि मुझे धोखा दिया गया। लेकिन फिर भी आप जानते हैं मुनि मुझे दुख किस बात का है?’ मुनि बोलते हैं, ‘किस बात का है?’

बोलते हैं, ‘मुझे दुख इस बात का है कि ये जो मेरे मन्त्री हैं न, इनको मैंने ही बड़ा करा है। मुझे दुख इस बात का है कि इन्होंने मुझसे तो विश्वासघात करके मुझे निकाल दिया, अब इनका क्या होगा। मुझे दुख इस बात का है कि मेरा एक प्रिय हाथी था, अब मैं वहाँ नहीं हूँ तो उस हाथी का क्या होगा। मैंने प्रजा के लिए इतनी सारी हितकारी योजनाएँ चलायी थीं, मुझे दुख इस बात का कि अब मैं राज्य छोड़ रहा हूँ तो मेरी प्रजा का क्या होगा। जिन लोगों ने मुझे धोखा दिया है, मैं इस वक्त भी चिन्तित हूँ कि उनका क्या होगा। और मैं जानता हूँ ऐसा होना नहीं चाहिए, पर पता नहीं ये कौनसा मोह है जो मेरी बुद्धि को पकड़े हुए है। सब जानते हुए भी मेरा दुख कम नहीं हो रहा।’

मुनि कहते हैं, ‘बताता हूँ, कौनसा मोह है, अभी बताऊँगा।’ बोलते हैं उससे, वैश्य से, ‘हाँ भाई, तुम बताओ।’

वैश्य बोलता है, ‘सेम टू सेम , एकदम वही बात है।’ बोल रहा है, ‘व्यापार में घाटा हो गया, ये लड़कों ने मुझे तो बाहर निकाल दिया है।’ बोलता है, ‘पुत्र-पुत्री, पत्नी, जितने थे सबने मिलकर निकाल दिया है, पर मैं ये भी जानता हूँ कि उस घाटे की भरपाई भी सिर्फ़ मैं ही कर सकता था। अब मुझे दुःख इस बात का है कि ये जिनको मैं पीछे छोड़ आया हूँ इनका क्या होगा। ये तो सड़क पर आ जाएँगे, भूखे मरेंगे। मुझे अपना दुख नहीं है, मैं तो जंगल आया ही इसीलिए हूँ कि मुझे शेर, भालू खा जाए। पर मुझे दुःख इस बात का है कि मेरे पीछे इनका क्या होगा। जबकि मैं जानता हूँ इन्होंने ही मुझे धोखा दिया, लेकिन फिर भी मैं इनको लेकर दुखी हूँ। ये क्या माया है? ये क्या माया है?’

मुनि बोलते हैं, ‘हाँ, माया ही है, इसको महामाया बोलते हैं। ये तुमसे गुनाह करवा देती है जबकि तुम्हें पता होता है कि तुम गुनाह कर रहे हो। ये तुम्हें मूर्ख बना देती है जबकि तुम्हें पता होता है तुम मुर्ख बन रहे हो।’ तो दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं, कहते हैं, ‘ये क्या बात हुई? बताइए, थोड़ा विस्तार में बताइए क्योंकि ये बात हमें बिलकुल अपनी स्थिति जैसी लग रही है। हम सब जानते हैं, अच्छे तरीके से जानते हैं कि हमारे जीवन में क्या चल रहा है, लेकिन फिर भी हम दुख से मुक्त नहीं हो पा रहे।’

(राजा कह रहे हैं), ‘जिन मंत्रियों ने, सेनापतियों ने और बाकी लोगों ने मुझे इतना धोखा दिया, मेरी गद्दी छीन ली, मेरी पीठ पर वार किया। मैं जंगल में आकर सोच रहा हूँ कि अरे, उन बेचारों का क्या होगा क्योंकि उन सबको शिक्षित भी मैंने किया था, प्रशिक्षित भी मैंने किया था, राज्य व्यवस्था में दीक्षित भी मैंने किया था, अब मुझे लग रहा है उनका क्या होगा।’

ये (वैश्य) कह रहा है, ‘वही मैं अपने सोच रहा हूँ। मेरी पत्नी ने तो मुझे निकाल दिया है, पर मैं अच्छे से जानता हूँ कि जो मेरा व्यापार है अब उससे चलेगा नहीं और व्यापार पहले ही घाटे में है, तो वो तो पूरा ही डूब जाएगा।’ (मुनि) बोलते हैं, ‘हम बताते हैं, कि आप समझना चाहते हो कि तुम्हारे साथ अगर क्या हो रहा है, तो उसको समझने का तरीका है प्रतीकों से भरी हुई एक कथा, प्रतीकों से भरी हुई एक कथा।

तो यहाँ से महामाया की कथा की शुरुआत होती है। याद रखना है हमें बहुत अच्छे से कि मुनि की कोई रुचि नहीं है कहानी भर सुनाने में, राजा को और वैश्य को। मुनि उनका दुख दूर करना चाहते हैं और जिस कारण से दुख है वो कारण समझाना चाहते हैं। हाँ, वो कारण समझाने के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ उपाय लग रहा है कि प्रतीकों से लदी हुई एक कथा सुनायी जाए।

तो हमें कथा सुनते-सुनते लगातार प्रतीकों को खोलते रहना हैं, प्रतीकों का अर्थ करते रहना हैं, नहीं तो वो कथा हमारे लिए बस ऐसे मनोरंजन बनकर रह जाएगी। समझ में आ रही है बात? क्योंकि होता ये है — अभी अन्त में जब तीसरा चरित्र पूरा होगा, कि कथा समाप्त होती है और दोनों को ही कुछ बात समझ में आती है, और समझ के अनुसार फिर वो कुछ निर्णय लेते हैं जिससे उनका दुख दूर हो जाता है।

तो आप से भी प्रश्न यही है कि ये जो कथा अब आपके सामने आएगी, ‘क्या आप उसको समझ पा रहे हैं?’ सुनना नहीं है, समझना है। सुरथ (राजा) ने और समाधि (वैश्य) ने उस कथा को समझा है, जब समझा है तो अन्त में एक को मुक्ति मिल जाती है और एक को मनोकामना मिल जाती है। वहाँ उसका भी अर्थ है। जो समझेगा उसको मिलेगा, जो नहीं समझेगा उसे कुछ नहीं मिलता।

तो अब क्या बता रहे हैं और उसका अर्थ क्या है, ये साथ-साथ चलना है। पहले तो हमने यही देख लिया है कि मार्कण्डेय ऋषि और मेधा मुनि दोनों ही बात किनसे कर रहे थे। पशुओं से, जीवों से बात कर रहे थे। तो माने यहाँ जो बात है उसका जीव से बड़ा सम्बन्ध है (अपने शरीर की और इशारा करते हुए)। कुछ ऐसा है जो शरीर से है, रिश्ता जिसका, जिसका रिश्ता देह से है। तो ये जो महामाया है न, ये देह में बसती हैं, देह में। और ये जो सारा प्रवचन है ये देही के लिए ही है, देही के लिए ही है।

देह में ये (महामाया) कितनी गहराई से वास करती हैं, ये समझाने के लिए ऋषि कहते हैं, ‘जानते हो, एक बार भगवान विष्णु सो रहे थे, तो उनकी देह से दो असुर पैदा हो गये। कह रहे हैं, ‘कान के मैल से पैदा हुए।’ देह में माया इस हद तक वास करती हैं कि भगवान की देह में भी माया बैठी हुई हैं, दो तरीके से। अभी बताएँगे।

एक तरीका तो ये कि उनके कान के मैल से दो असुर पैदा हुए। अब नहीं किसी के कान के मैल से असुर पैदा हो जाते, तो भगवान कोई व्यक्ति नहीं हैं, भगवान यहाँ पर क्या हैं? एक संकेत है, एक प्रतीक है, एक सिम्बल है। कुछ समझाना चाह रहे हैं ऋषि। जो वो समझाना चाह रहे हैं ये दिखाकर के कि देखो, हमारी बात को पशु और पक्षी सुन रहे थे, वही वो समझाना चाह रहे हैं ये बोलकर कि भगवान विष्णु के कान के मैल से दो असुर पैदा हो गये। ठीक है?

ये दो असुर पैदा हो गये। माने देह, देह जो है वो माया का गढ़ है। देह, माया का गढ़ है। और देह से जो पैदा होता है उसको ही असुर कहते हैं। देह के मल को ही असुर कहते हैं। और वो देह किसी की भी हो, निकलेगा मल ही। विष्णु की भी देह है, तो क्या निकला? मल ही निकला। कुछ नहीं है ऐसा कि — तो ये मत सोचिएगा कि आप तो बड़े ज्ञानी हो गये, ‘अब तो भई हम तो मुक्त पुरुष हैं। गीता का तीसरा अध्याय चल रहा है, तो हमारी देह से थोड़े ही मल निकलेगा।’ तो और क्या कमल निकल रहा है?

देह तो देह है, देह से बचकर, देह से बचकर। और देह कितनी भी शुद्ध कर लो, मल तो उससे निकलेगा-ही-निकलेगा। भगवान विष्णु की देह से भी मल ही निकल रहा है। उनके कान से निकल रहे हैं, कान में ये जो होता है न, कान का मोम जिसको बोलते हैं, इयरवैक्स।

अब वो कान का मोम सबके होता है, तो वो प्रतीक है। कि देह तो एक ही रहेगी, नहीं फ़र्क पड़ता कि तुम्हारी चेतना कहाँ पहुँच गयी। देह तो वैसी ही रहेगी। कुछ भी हो जाओ, तुम कितने बड़े-बड़े आदमी बन जाओ कान में जैसे मैल रहता-ही-रहता है, कुछ भी कर लो। और तुम कान को कितना भी साफ़ कर लो उसमें थोड़ा सा मैल हमेशा रहता है। पूरी सफ़ाई कराकर आ जाओ फिर भी तुम उसमें अगर देखोगे, उसमें रुई या कुछ करोगे, तो उसमें कुछ-न-कुछ पाओगे, है अभी मौजूद।

तो जैसे कितनी भी सफ़ाई कर लो कान में मैल रहता है वैसे ही देही कितना भी ऊँचा हो जाए देह की जो मलिन प्रकृति है वो तो रहेगी-ही-रहेगी। इसीलिए हम कहते हैं कि देही को तो सतत ध्यान ही अपनाना पड़ेगा। कोई बिन्दु ऐसा नहीं आ सकता जब आप कह दो कि मैं मुक्त पुरुष हूँ, मुझे ध्यान की, सतर्कता की, अवधान की कोई ज़रूरत नहीं है। जब भगवान विष्णु के कान के मैल से पैदा हो सकते हैं (असुर) तो हम, आप क्या चीज़ हैं। भगवान विष्णु के कान के मैल से भी असुर निकल पड़े, तो हमारे कान के मैल से तो पता नहीं क्या निकलेगा।

समझ में आ रही है बात?

शरीर के रज से ही जो पैदा हो उसको असुर बोलते हैं। शरीर के रज से सावधान। और शरीर का रज यही नहीं होता कि कान का मैल या कि मूत्र या विष्ठा, यही नहीं होता। शरीर का रज हैं — विचार, वृत्तियाँ, भावनाएँ। इनको एक सही क्रम में रखिए — वृत्ति, भावना, विचार; ये शरीर का वास्तविक रज है। रज माने क्या? जो शरीर से पैदा होगा-ही-होगा। तो शरीर है तो वृत्ति? तमाम तरह की वृत्तियाँ — काम, क्रोध, मोह, सारा। और फिर भाव उससे उठते हैं, तमाम तरह की भावनाएँ और फिर विचार, ये शरीर का मैल है। ये पैदा होता ही रहेगा, सावधान।

कुछ समझ में आयी बात ये?

अब ये दोनों निकल पड़े। क्या नाम बताया उन्होंने इनका? ‘मधु, कैटभ।’ ये दोनों जो हैं यहाँ पर मधु, कैटभ हैं। पहले अध्याय में जिनका काम तमाम होगा, यहाँ के, पहले अध्याय के खलनायक हैं मधु, कैटभ। तो ये निकल पड़े। अब हमारे पास अगर समय होता, अब उतने विस्तार में हम जा नहीं सकते, तो ये जो नाम भी हैं मधु, कैटभ, इनके पीछे भी एक बात है, वो भी नाम भी संकेतात्मक हैं, पर अभी हम नहीं ले पाएँगे इसको, अभी आप लोगों के प्रश्न भी लेने हैं।

तो ये दोनों निकलकर के क्या करते हैं? इन्होंने ब्रह्मा जी को दौड़ा लिया। अब ब्रह्मा कोई व्यक्ति तो है नहीं कि टाँग-वाँग लेकर हैं और दौड़ पड़े, तो हमने तो देखा है वो कमल पर बैठे रहते हैं हमेशा, दौड़ते भी कैसे होंगे? पर मतलब समझो।

ब्रह्मा से क्या मतलब है? देवत्व, देवत्व। तुम्हारे ही शरीर से जो असुर पैदा होते हैं वो तुम्हारे ही देवत्व को दौड़ा लेंगे। कहेंगे, ‘मरना है इसको।’ तो ब्रह्मा जी दौड़ रहे हैं, मामला ही थोड़ा अटपटा लग रहा है। बूढ़े आदमी, चार सिर; दौड़ेंगे तो किधर को दौड़ेंगे? एक सिर मतलब जैसे चौराहा।

तो ब्रह्मा जी नहीं दौड़ रहे थे। लेकिन इस पर अभी कोई एनिमेशन सीरीज (सजीव श्रृंखला) बन जाएगी या कोई टीवी धारावाहिक बन जाएगा, तो उसमें ऐसे ही दिखा देंगे कि दो ऐसे ही एकदम मुसदंड़ राक्षस हैं और बड़ी-बड़ी कटार, और तलवार और भाला लिये हैं और ब्रह्मा जी ऐसे (उठाने का अभिन्य करते हए) धोती उठाये भाग रहे हैं ज़ोर-ज़ोर, ज़ोर-ज़ोर भाग रहे हैं।

वही सब कर-करके तो हमने पुराणों को समाप्त कर डाला न? नहीं तो ऐसा नहीं है कि पुराणों की कोई उपयोगिता नहीं है। मैं बार-बार बोलता हूँ कि वेदान्त के प्रकाश में पुराणों की जो कथाएँ हैं वो अपने रहस्य उगलना शुरू कर देती हैं। कभी ताला-कुंजी की तरह बोलता हूँ कि वेदान्त की कुंजी लगाओ तो पुराण खुल जाते हैं।

ये अलग बात है कि सब कथाएँ ऐसी नहीं है कि वो मर्मपूर्ण या रहस्यपूर्ण हैं, ऐसा नहीं है। लेकिन बहुत सारी कथाएँ ऐसी हैं पुराणों में जिनमें बड़ी बात है, अच्छी बात है। पर हमें उन कथाओं के रहस्य का कुछ पता नहीं होता। अच्छा, वैसे ये जो पूरी दुर्गासप्तशती है ये भी पुराण में ही पायी जाती है, ‘मार्कण्डेय पुराण।’ ये भी पुराण से ही आ रही है।

कहाँ तक पहुँचे थे? हाँ, तो अब ब्रह्मा जी को दौड़ा लिया, माने क्या? किसको यहाँ दौड़ा लिया है? देवत्व को दौड़ा लिया है। ठीक है? देवत्व को दौड़ा लिया है। वैसे ये जो तीन देवता होते हैं हमारे, जो त्रिमूर्ति हैं उसमें ब्रह्मा जी सतोगुण के प्रतिनिधि होते हैं। विष्णु माने जाते हैं संचालक, चलाने वाले, तो विष्णु किसके प्रतिनिधि होते हैं? ‘रज के।’ और शिव जी हैं जो, सब खत्म कर दो, एकदम सबकुछ शून्य में चला जाए, सब अन्धेरा हो जाए, तो वो तमोगुण के प्रतिनिधि होते हैं।

तो ऐसे भी कह सकते हो कि ब्रह्माजी को दौड़ा लिया माने आपकी जो सात्विकता होती है उसको आपका ही असुर मारने को पछिया लेता है कि इसको तो खत्म ही कर दें। अब ब्रह्मा जी बड़े हैरान, कहें, ‘कहाँ से आ गये ये दोनों, ये तो थे ही नहीं। ये निकले कहाँ से, इतने भारी, विशाल।’

तो उनको कहीं से खबर मिली होगी कि ये तो विष्णु जी सोये पड़े हैं, उनके पीछे से ये काम हो गया है। तो वो किसी तरह लपट-झपट वहाँ पहुँचे विष्णु जी के पास। कि इनको कहा जाए कि भाई आपने करा है, आप ही सम्भालो।

तो विष्णु जी सो रहे हैं। सो रहे थे तभी तो ये दोनों निकल पड़े। तो इससे ये भी समझो — भगवान भी अगर सो गये, तो उनकी देह से असुर पैदा हो जाता है। यहाँ सोने से क्या आशय है? आँख का सोना, कि चेतना का सोना?

श्रोतागण: चेतना का।

आचार्य: चेतना का सोना। होंगे आप बहुत बड़े भगवान, आप माने ये जो देही है, जो व्यक्ति है, जो मनुष्य है उसको सम्बोधित करके कहा जा रहा है कि अगर तुम भगवत्ता के स्तर को भी प्राप्त कर लो तो भी सो मत जाना। “मैं कहता हूँ जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।” कर मत देना ये काम, जागते रहो। विष्णु भी सो गये तो ये असुर निकल पड़े। अपनी चेतना को सोने मत देना।

समझ में आ रही बात ये?

तो अब ब्रह्मा जी जा रहे हैं, वो हिला-डुला रहे हैं सब — अब ये लिखा नहीं है सप्तशती में इस तरीके से, मैं उसको बस आपके लिए थोड़ा अच्छा सा कर रहा हूँ। और उसमें बिलकुल, क्या लिखा है साफ़-साफ़, तो उसके लिए वो सोल्यूशंस कोर्स (समाधान पाठ्यक्रम) है वो देख लीजिएगा। मैं उसका कोई यहाँ पर विज्ञापन नहीं कर रहा हूँ, पर आप अगर रुचि रखते ही हैं कि एक-एक श्लोक को जानना है, तो वो वहाँ उपलब्ध है वहाँ देख लीजिएगा।

तो अब ये (ब्रह्मा जी) जाते हैं, विष्णु जी काहे को उठें, वो अपना मस्त सोये हुए हैं। तो उनको पता चलता है कि यही जो महामाया हैं जिनसे ये दोनों असुर निकल पड़े, यही विष्णु की निद्रा बनी हुई हैं, योग निद्रा। इतनी ताकत है कि इन्होंने विष्णु को भी सुला दिया है। तो ब्रह्मा जी ने जितनी कोशिश कर सकते थे उनको जगाने की, सारी कर ली, वो काहे को उठें।

तो ब्रह्मा जी को बात समझ में आयी, क्योंकि भाई बुद्धिमान तो हैं ही। पूरी परम्परा के अनुसार ब्रह्मा (सबसे बुद्धिमान होने का इशारा करते हुए), ब्रह्मा बोले, ‘ये जगाने से नहीं उठेंगे, ये अब जिसने इनको सुलाया है उसी से बात करनी पड़ेगी।’ तो उन्होंने स्तुति शुरू करी। किसकी स्तुति शुरू करी? माया की।

बोले, ‘माया तुझसे कौन जीत सकता है? जब तू विष्णु को सुला सकती है, तो तुझसे कौन जीत सकता है? तुझसे कौन जीत सकता है? तू महापराक्रमी है, तुझसे जीत पाना किसी के लिए सम्भव नहीं।’ अच्छा याद दिलाइएगा, ‘माया की स्तुति या देवी की स्तुति का अर्थ क्या है?’ इस पर हम बात करेंगे, क्योंकि इन दिनों में, नवदुर्गा में स्तुति-ही-स्तुति होगी, तो उस स्तुति का वास्तविक अर्थ क्या है उस पर हमें बात करनी है, अभी याद दिला दीजिएगा।

तो उन्होंने देवी स्तवन करा, उन्होनें कहा देवी तुमसे ऊपर कुछ नहीं। तो फिर देवी जो हैं, कहते हैं कि विष्णु जी की आँखों और भौहों से प्रकट होकर के बाहर आ गयीं, बाहर आ गयीं। जब उनकी स्तुति की गयी तो बाहर आ गयीं। जब बाहर आ गयीं तो विष्णु जग गये, क्योंकि उन्होंने तो सुला रखा था उनको, तो वो बाहर आ गयीं तो विष्णु जग गये। विष्णु जग गये तो ब्रह्मा जी ने अपना हाल बताया, बोले, ‘ये आपके करतूत, ये देखिए, ये दो लगे हुए हैं मेरे पीछे, मार ही डालेंगे।’

तो विष्णु बोले, ‘कुछ करता हूँ।’ तो विष्णु खड़े हो गये, उन्होंने अपने हथियार, अस्त्र उठा लिए, दोनों राक्षसों को बोला, ‘अरे, ब्रह्मा जी को क्या परेशान कर रहे हो, इधर आओ, हिम्मत है तो।’

अब ये दोनों कौन हैं? ये विष्णु जी से ही निकले हैं, और माया है। होने लगा युद्ध और सप्तशती कहती है, ‘पाँच हज़ार साल तक युद्ध चलता रहा।’ अब पाँच हज़ार साल माने पाँच हज़ार साल नहीं, माने अनन्त काल भी तुम युद्ध कर लो माया से, तो जीत नहीं सकते। विष्णु भी नहीं जीत सकते, तुम क्या जीतोगे? “छोड़न की जो बात करे, बहुत तमाचा खाय।”

अब विष्णु जी ने पूरे अपने प्राण लगा दिये, पूरे बल से वो संघर्ष कर रहे हैं, ये दोनों हार नहीं रहे, हार नहीं रहे। तो अब जब महामाया ये देखती हैं कि पूरे प्राण लगा दिये इन्होंने, तो वो जाकर के राक्षसों का मन बदल देती हैं।

और राक्षस कहते हैं, ‘हमसे बड़ा कोई योद्धा है?’ एक-दूसरे से। अब ऐसे नहीं बोलते हैं, पर समझा रहा हूँ। राक्षस एक-दूसरे को बोलते हैं, ‘हमसे बड़ा कोई योद्धा है?’ दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हैं। एक बोलता है, ‘न भाई, तुझसे बड़ा कोई है ही नहीं।’ दूसरा बोलता है, ‘न भाई, तेरे से बड़ा कोई नहीं है।’ फिर दोनों बोलते हैं, ‘अगर हमसे बड़ा कोई नहीं और तुमसे बड़ा कोई नहीं और हम दोनों एक तरफ़ और ये अकेला है विष्णु, और तब भी इसने हम दोनों से लोहा ले रखा है बराबरी का। तो ये तो भाई बहुत गज़ब का हो गया।’

और जबकि विष्णु जीत नहीं पा रहे थे इन दोनों से, लेकिन अचानक इन दोनों की बुद्धि फिर गयी। और बुद्धि फिरने की शुरुआत ही कहाँ से होती है? कि हमसे बड़ा कोई नहीं है। दोनों एक-दूसरे से बोलते हैं, ‘तुझसे बड़ा कोई नहीं है’, वो बोलता है, ‘तुझसे बड़ा कोई नहीं’, माने हमसे बड़ा तो कोई है ही नहीं।’ दोनों बोलते हैं, ‘फिर ये बढ़िया आदमी है क्योंकि हमसे बड़ा तो कोई है ही नहीं और ये हम दोनों से उलझा हुआ है।

तो दोनों कहते हैं फिर, ‘ठहर जा, लड़ाई बहुत हुई, तू आदमी बढ़िया है।’ विष्णु जी बोलते हैं, ‘ये लड़ाई के बीच में क्या हो गया?’ दोनों बोले, ‘तू बढ़िया लगा हमें, पसन्द आ गया, हमसे वर माँग ले।’

विष्णु जी को समझ में आता है, यही मौका है, कुछ कर लो नहीं तो पाँच हज़ार साल तो हो गये हैं इनका कुछ नहीं होगा। विष्णु जी बोलते हैं, ‘एक ही वर माँग रहा हूँ तुम दोनों से।’ अब ये राक्षस हैं, ये विष्णु को वर दे रहे हैं। विष्णु बोले, ‘एक ही चीज़ चाहिए तुम दोनों से, तुम दोनों की मृत्यु मेरे हाथों हो।’

दोनों घबरा जाते हैं, बोलते हैं, ‘ये तो क्या? भाई, जे का होगो? ये हम तो वरदान माँगने को कह रहे थे, ये तो तेज़ निकला, बहुत तेज़ निकला।’ बोलते हैं, ‘थम जा, हम भी तेज़ी दिखाएँगे।’ बोलते हैं, ‘हाँ ठीक है।’

तो कहते हैं, उस समय प्रलयकाल चल रहा था और चारों तरफ़ पानी-ही-पानी था, जलाप्लावित थी भूमि। बोलते हैं, ‘इसको बोलो, ठीक है, हमें मार लेना, ऐसी जगह पर जहाँ पानी न हो, जहाँ पानी न हो।’ तो फिर दोनों एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे होंगे, ‘हा-हा! पानी तो हर जगह है, अब कैसे मारेगा?’

तो विष्णु बोलते हैं, ‘ठीक है।’ तो विष्णु पानी में अपनी टाँग ऐसे उठाते हैं, एक टाँग, एक टाँग उठाते हैं तो वो पानी से बाहर आ गयी, और एक को पकड़ते हैं अपनी जाँघ पर रखकर मार देते हैं। फिर दूसरे को पकड़ते हैं, दूसरी जाँघ पर रखकर मार देते हैं। तो इस तरीके से दोनों का खेल खत्म होता है। ये है प्रथम चरण।

अब ये कोई साधारण सी या सस्ती कहानी नहीं है काल्पनिक, कि आपको बता दिया गया ‘सोये थे, कान के मैल से निकल आये और फिर वो (ब्रह्मा जी) आकर स्तवन कर रहे हैं, तो उनके भौं से प्रकट हो रही हैं (योग माया), तो जब प्रकट हो रही हैं तो विष्णु कह रहे हैं, ‘अच्छा, मैं इनको मज़ा चखाता हूँ’। फिर लड़ाई हो रही है। फिर...

इसमें हर छोटी-छोटी बात में, हर छोटी-छोटी बात में प्रतीक छुपे हुए हैं। सारी जो समस्या थी वो किसने पैदा करी? माया ने भगवान को भी सुला दिया। और फिर समस्या सुलझाई भी किसने? माँ ने।

तो सप्तशती कहती है, ‘माँ ही बन्धन हैं, माँ ही मोक्ष हैं।’ ये बताने के लिए ये पूरा वृत्तान्त कहा गया है। माँ ही बन्धन हैं, माँ ही मोक्ष हैं। बन्धन कब आता है? जब सो जाते हो। मोक्ष कब आता है? जब स्तुति करते हो। सो जाओगे तो बन्धन है, स्तुति करोगे तो मोक्ष है। तो इसलिए कहा था कि स्तुति माने क्या है वो हम समझना चाहेंगे।

स्तुति का अर्थ समझिए वेदान्त के तरीके से, ‘निन्दा न करना।’ मैं क्यों कह रहा हूँ ‘निन्दा न करना।’ बात गहरी है। देखिएगा, आपके जीवन में कुछ भी गड़बड़ होती है, आप दोष किसको देते हो? (चारों ओर इशार करते) इसको दोष देते हो न? स्थितियों को दोष देते हो। इसकी वजह से हो गया, उसकी वजह से हो गया, उसकी वजह से हो गया, उसकी वजह से हो गया, ऐसे हो गया, वैसे हो गया।

प्रकृति के प्रति जो दोष-दृष्टि रखेगा वो प्रकृति से कभी मुक्त नहीं हो पाएगा।

प्रकृति माने माया। पूरी सप्तशती प्रकृति के बारे में है। प्रकृति को जो दोष देगा, माने जीवन को और संयोगों को जो दोष देगा; बाहरी स्थितियों को, परिस्थितियों को जो दोष देगा वो कभी मुक्त नहीं हो पाएगा।

दोष हमेशा किसका मानना है? अपना। मैं छोटा हूँ, माँ, मैं छोटा हूँ। अगर मुझे दुख मिल रहा है तो मेरी वजह से मिल रहा है। माँ की स्तुति न करने का अर्थ होता है प्रकृति को ही दोष दे देना। प्रकृति ने क्या किया? प्रकृति तो बस है। प्रकृति तो कभी आकर के अहंकार से लिपटती नहीं न? ये लिपटने-झपटने का और बन्धन स्वीकार करने का काम कौन करता है? अहंकार, और दोष किसको देता है? प्रकृति को। स्तुति का मतलब होता है, ‘आत्मज्ञान; अपनी गलती देखना, प्रकृति पर गलती नहीं डालना।’ ये माँ की स्तुति है।

इन नौ दिनों तक अपनेआप को लगातार देखें। इन नौ दिनों तक अपनेआप को लगातार देखें, आपके जीवन में जो भी दुख-दर्द, क्लेश-कष्ट हैं उसका ज़िम्मेदार कभी भी न संयोग को ठहराएँ, न समाज को ठहराएँ। कुछ नहीं है। ‘अगर कुछ हुआ है, तो मेरी वजह से हुआ है। ‘माँ, तू तो माँ हैं’, माँ कभी बच्चे को दुख देती है क्या? पर आज तक मैं अज्ञानवश किसको दोष देता रहा? माँ को दोष देता रहा। माँ क्षमा।

और माँ माने समय, माँ माने सब परिस्थितियाँ, माँ माने शरीर, माँ माने समाज, माँ माने सबकुछ जिससे अहंकार सम्बन्ध रखता है। उन सबको कहना है, ‘आपमें कोई दोष नहीं, सारा दोष मुझमें है, मैं आपके सामने करबद्ध हूँ, नमित हूँ।’ ये नवदुर्गा की विधि हुई। ये माँ की स्तुति का मर्म हुआ।

नवदुर्गा भी इसीलिए है ताकि आप स्वयं को देख पाएँ। और जितना आप स्वयं को देखते जाओगे उतना आप कहते जाओगे कि माँ तो मुक्ति का अवसर थीं। अगर मुक्ति के अवसर को मैंने अपने लिए कष्ट बना लिया, तो दोष मेरा है। और माँ महान हैं, क्योंकि वो आज भी मुक्ति का अवसर लिए खड़ी हैं।

माँ तो मुक्तिदायिनी हैं, मैं पगला था कि मुक्तिदायिनी माँ को मैंने अपने लिए मृत्युदायिनी बना लिया। और पहले तो मैंने माँ को अपने लिए मृत्युदायिनी बना लिया, ऊपर से मैं बार-बार आक्षेप किस पर करता रहा? माँ पर ही करता रहा। लेकिन माँ, मुझे मुक्ति चाहिए और मुक्ति तुम्हीं दे सकती हो। और मुक्ति कैसे मिलती है? स्वयं को देखकर के। स्वयं को देखना, आत्मज्ञान।

जितना स्वयं को देखते जाओगे उतना प्रकृति के प्रति अनुग्रह, कर्तज्ञता उठते जाएँगे। और साथ-ही-साथ एक तरह का प्रायश्चित होता चलेगा। आज तक जो सारा दोष डालते रहे स्थिति और समाज पर और संयोग पर, उस सारे दोष के अपराध से निवृत होते चलोगे, प्रायश्चित होता चलेगा। नौ दिन पर्याप्त हैं प्रायश्चित के लिए। यही नवदुर्गा है।

तो जब आप मूर्ति के सामने नमित खड़े हों, तो यही कहिएगा, ‘आप क्या नहीं दे सकती थीं मुझको?’ यूँही नहीं कहा गया है कि मनुष्य जन्म अनमोल होता है। ‘माँ, प्रकृति, आपने मुझे मनुष्य जन्म दिया, अनमोल जन्म दिया, उसके बाद इस अनमोल जन्म में मोक्ष का, निर्वाण का, अवसर भी आपने ही दिया। आप तो बहुत कुछ दे सकती थीं, लेकिन मैंने लिया क्या? मैंने लिया जीवन से मात्र कचरा। मैंने जीवन से हीरे-मोती की जगह एकदम सड़ा हुआ कचरा और कंकड़ उठा लिए, और ये कंकड़-कचरा उठाने के बाद मैंने सारा इल्ज़ाम किस पर लगा दिया? आप पर लगा दिया। माँ, क्षमा! माँ, क्षमा!’ ये नवदुर्गा पूजन है।

और ये भाव अगर आपमें नहीं आ रहा है, कि ये जो सामने है न, ये माँ हैं और ये मुक्तिदायिनी हैं। प्रकृति मुक्तिदायिनी कब बन जाती है? जब प्रकृति को समझते हो। और प्रकृति को नहीं समझ सकते अगर उसके प्रति दोष-दृष्टि है। कुछ नहीं समझ सकते अगर उसके प्रति दोष दृष्टि है। जिसके प्रति आपके पास पहले ही पूर्वाग्रह है वो आपको समझ में नहीं आएगा।

न समझो तो मृत्यु है; समझ लो तो मुक्ति है।

ये आप तय करोगे कि माँ आपके लिए मृत्युदायिनी हैं या मुक्तिदायिनी हैं, और वो दोनों हैं, वो दोनों हैं। आप थोड़ी सी चूक कर दो, तो मृत्यु, कष्ट, विनाश निश्चित है।

काली के हाथ में मुंडमाल होता है, उसको हम कहते हैं ये असुरों के मुंड हैं। और अभी हमने क्या कहा, असुर कौन है?

श्रोता: जो देह से बँधा हुआ है।

आचार्य: जो देह की रज से संचालित हो जाए वो असुर है। तो वो किसी और का मुंड नहीं है, वो हमारा ही मुंड है। जो चैतन्य होने की जगह देह की रज को अपना मालिक बना लेगा, माँ उसके लिए मृत्यु बनेंगी। लपलपाती जीभ देखी है? और गले में मुंडमाल देखा है? वो हम ही हैं।

यही प्रकृति जीवन देती है और यही प्रकृति बुरे-से-बुरी मौत देती है। प्रकृति निष्पक्ष है, तय आपको करना है कि आप प्रकृति से सम्बन्ध क्या बना रहे हो।

स्पष्ट हो रही है बात कुछ?

तो ये जो राजा और वैश्य की जिज्ञासा है, ये जिज्ञासा किधर को जा रही है? दोनों ने पूछा कि हम सब जानते हैं, फिर भी हम क्यों मोह से ग्रस्त हैं और दुख भोग रहे हैं। तो ऋषि उन्हें किस तरफ़ को ले जा रहे हैं? ऋषि उन्हें ये बताने ले जा रहे हैं कि तुम्हारे शरीर में ही वो असुर बैठे हुए हैं जो तुम्हारे दुःख का कारण हैं।

‘तुम सोच रहे हो राजा कि दुख का कारण हैं कोला विध्वंसी और मंत्री तुम्हारे। न। तुम सोच रहे हो वैश्य कि दुख का कारण हैं ये व्यापार का घाटा, और पुत्र और पत्नी। न। तुम्हारे ही भीतर वो बैठा है जो तुम्हारी बुद्धि को भ्रमित करता है। और जब तक ये जानोगे नहीं तब तक ज्ञान काम नहीं आएगा।’ क्योंकि दोनों बार-बार कहते हैं, राजा और वैश्य, कि हम समझते सब हैं, लेकिन फिर भी दुखी हैं। सब जान गये फिर भी दुखी हैं, सब जान गये फिर भी दुखी हैं।

तुम सब जान गये, तुम स्वयं को नहीं जाने हो। तुम जान गये सबकुछ, तुमने स्वयं को कहाँ जाना सुरथ और समाधि? तुम दोनों ने स्वयं को नहीं जाना। और स्वयं को जानने का ही अर्थ होता है, ‘माँ का दर्शन।’ आत्मज्ञान माने किसका ज्ञान? ‘माया का ज्ञान।’ माया माने माँ। माँ का दर्शन मात्र आत्मज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। बहुत सीधी सी बात है न? आत्मज्ञान में हमने बहुत बार बोला है, ‘आत्मा तो जानी नहीं जाती।’ आत्मज्ञान में क्या जाना जाता है? अपनी माया ही तो जानी जाती है, माया ही माँ हैं।

तो इन नवदुर्गा के दौरान आपको माँ के दर्शन करने हों अगर सचमुच, तो माँ को अपने भीतर देखिएगा, दर्शन वहीं है। आत्मज्ञान ही नवरात्रि में पूजन है। एकदम आरम्भ से ही बता दिया गया है कि माँ कहाँ है। माँ आपके ही भीतर हैं। ये देह माँ से आती है और माँ इसी देह में बैठी हैं। जैसे बच्चे की देह में माँ बैठी होती है न, बच्चे की देह में माँ नहीं बैठी है? वैसे ही आपकी देह में माँ बैठी हुई हैं। माँ का दर्शन करना है, तो अपनी देह को समझो अच्छे से। यही जो देह है। “या घट भीतर, सात समन्दर।” यही है, यही माँ है, जानो इसको। नहीं जानोगे, तो इसमें से न जाने कैसे-कैसे शुम्भ, निशुम्भ और महिषासुर निकलेंगे, और जान जाओगे, तो यहीं से मुक्ति का रास्ता निकल आएगा।

समझ में आ रही है बात?

फिर से दोहरा रहे हैं, ‘आत्मज्ञान ही माँ का दर्शन है।’

प्र१: प्रणाम, आचार्य जी। जब मैंने ये सुना कि विष्णु जी की देह से असुर पैदा होते हैं, तो मुझे याद आया कि धृतराष्ट्र के देह से भी सौ असुर पैदा हो गये। और उस प्रसंग में वहाँ पर जो उद्धारक थे वो भी विष्णु के अवतार ही थे, कृष्ण। अब देह तो सभी के पास होती है, देह तो अनिवार्यता है एक तरीके से, तो फिर देह से क्या देवता भी पैदा हो सकते हैं?

आचार्य: जिसकी देह सोयी हुई नहीं है वो देवता है, देवता पैदा नहीं करने हैं। विष्णु तो देवता है ही न, विष्णु देवता पैदा काहे को करेंगे? सो गये, तो बात ये है कि धृतराष्ट्र तो धृतराष्ट्र, विष्णु भी असुर पैदा कर देते हैं। धृतराष्ट्र असुर पैदा करें, ये बात हमें बहुत नहीं खलती, क्योंकि धृतराष्ट्र हमें ऐसे तो बताया नहीं गये कि बहुत होशियार हैं, वो होशियारी तो सारी विदुर को दी गयी थी। ये सारा जो बोध का काम था, समझदारी का काम था, वो कौन देखता था? वो तो विदुर देखते थे।

धृतराष्ट का तो हमको पता है, वो तो मोह ग्रस्त हैं और ममता उनमें बहुत थी, सिर्फ़ आँख से नहीं वो अन्धे थे। उनको तो दिखाया ही गया है कि — तो धृतराष्ट्र से दुर्योधन आ गया, इसमें विस्मय क्या है? सप्तशती जो खास बात बोलती है, वो बोलती है कि विष्णु से भी असुर पैदा हो जाएँगे अगर विष्णु सो गये। और महामाया में निश्चित रूप से ये ताकत है कि वो विष्णु को भी सुला दें। और महामाया के सुलाये जो सोता है वो ब्रह्मा के हिलाये-डुलाये भी जगता नहीं। कोई भी आकर के हिलाएगा-डुलाएगा, उठोगे नहीं, अगर महामाया ने सुलाया है तुम्हें तो।

प्र१: ये जो मेधा मुनि हैं या मार्कण्डेय ऋषि हैं, इनके सामने एक उल्टी बात देखने को पता चलती है कि जो हिंस्र पशु हैं वो भी वहाँ पर अपनी प्रकृति के स्वभाव के उल्टा व्यवहार दर्शा रहे हैं, तो वहाँ पर प्रकृति का उल्लंघन हो रहा है। तो प्रकृति हैं वो, तो महामाया उनमें भी है, लेकिन वो जगे हुए हैं ऋषि के प्रकाश में, इसीलिए वो अपनी प्राकृतिक क्षेत्र का भी उल्लंघन कर पाये।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल। ज्ञान में, ज्ञान के क्षेत्र में, ज्ञान के प्रभाव क्षेत्र में पशु भी जैसे जगने लग जाते हैं। ऋषि पशुओं से, पक्षियों से बात कर रहे हैं इसमें हमारे लिए एक सान्त्वना है, क्या? अरे, जब वो पशु को ज्ञान दे सकते हैं और पशु अपनी प्रकृति को चुनौती देने लग सकता है, तो तुम तो इंसान हो। तुम क्यों सोच रहे हो कि मेधा मुनि जैसे किसी के सामने बैठोगे, तो तुम्हें लाभ नहीं होगा। अजगर को लाभ हो गया, शेर, चीते को लाभ हो गया, तुम्हें क्यों नहीं लाभ होगा? तुम्हें क्यों लग रहा है कि उनकी बात इतनी जटिल है कि तुम्हें समझ में नहीं आएगी।

वो पक्षियों को बैठकर के पुराण सुना रहे हैं, मार्कण्डेय। हम सोचते हैं कि वृद्ध ही होंगे, कर क्या लेंगे, पक्षी है वो तो, पशु भी नहीं है कि भग रहा है वो, फुर्र से उड़ गया, क्या कर लोगे? “मनवा तो पंछी भया, उड़ि के चला आकाश।” वो मन के ही सब पंछी हैं जो वहाँ बैठे हुए हैं। तो मन को इतनी मर्यादा रखनी होगी कि जब ऋषि के सामने बैठे हैं तो उठकर नहीं जाना है, उठकर नहीं जाना है। गाया करते थे न, कि भला-बुरा कहा जाए, तो उठ नहीं भागिए।

“उठ भागे सो रार, रार महानीच है। जेहि घट उपजै क्रोध, सोई घट मीच है॥”

“गुरु शरण जाइके, तामस त्यागिये। भला बुरा कहा जाए, तो उठ नहीं भागिये॥” (~कबीर साहब)

तुम बस उठकर मत भाग जाना। पक्षियों का वहाँ बैठा होना यही बताता है कि उनके पंख हैं, पर उन्होंने अपने पंखों को भी मर्यादा दे दी है, उठ नहीं भागेंगे। सोचो, वहाँ कौए भी बैठे हैं, कौआ काँव-काँव करेगा तो ऋषि उसको आँख तो दिखा ही रहे होंगे, तो कौआ ये थोड़े ही कह रहा है कि मैं जा रहा हूँ, मैं नहीं सुन रहा। और कौआ भी वहाँ बैठा हुआ है, बात सुन रहा है, ज्ञान ले रहा है।

प्र१: असुरों ने अपनी बुद्धि चलायी, उनको लगा कि हम अपनी बुद्धि से खुद की रक्षा कर सकता हैं। उन्होंने ऐसी शर्त रखी कि मुझे यहाँ पर नहीं मार सकते, वैसे हिरण्यकश्यप ने भी अपनी बुद्धि पर भरोसा किया था। उन्होंने भी सोचा कि मैं ऐसी शर्त रखूँगा कि मुझे मार नहीं पाएँगे।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल। ये बात हमें पौराणिक साहित्य में बार-बार देखने को मिलती है, कि होशियारी करी और जूते खाये। और इन्होंने तो थोड़ी ही होशियारी करी थी कि पानी ही भर न हो, हिरण्यकश्यप ने तो होशियारी का बाप दाग दिया था। बोला था, ‘न दिन हो, न रात हो; न अन्दर हो, न बाहर हो; जो मारने आये वो न पशु हो, न मनुष्य हो।’ और क्या शर्त लगायी थी ऐसे ही? ‘चौखट के अन्दर नहीं, चौखट के बाहर नहीं; दिन नहीं, रात नहीं; न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।’ तो जितनी तरीके की वो अपनी बुद्धि से शर्तें बता सकते थे उन्होंने सब बता दी थीं। बोले ‘अभी बताते हैं।’ वहाँ भी विष्णु ही थे, नरसिंह अवतार।

तो बुद्धि का तो खूब उपहास किया गया है ताकि बुद्धि अपनी औकात में रहे, बुद्धि को उसकी सीमाएँ बतायी जा सके। बुद्धि को बताया जा सके कि तुम जब तक अहम् से संचालित हो रही हो, तुम अहम् के किसी काम नहीं आओगी। बुद्धि एक अच्छी सेविका है। वो अच्छी सेविका कब है? जब वो सही मालिक की सेवा करे, बस, बस।

मालिक सही होना चाहिए, इससे तय हो जाता है कि सेवक सही है कि नहीं। मालिक अगर आत्मा है, तो बुद्धि अच्छी सेविका है। और मालिक अहंकार है, तो ये बुद्धि ऐसे करतूत, ऐसे करतब दिखाएगी कि अहंकार को ही खा जाएगी। न बचे मधु-कैटभ, न बचे हिरण्यकश्यप।

बुद्धि से नहीं होता, ये बुद्धिजीवी होने से नहीं होता; अहम् स्वच्छ होना चाहिए, मन निर्मल होना चाहिए। आम भाषा में कहें तो नीयत साफ़ होनी चाहिए, ईमान पक्का होना चाहिए, सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। तब जाकर बुद्धि काम आती है, नहीं तो बुद्धि से कुछ नहीं होता।

प्र१: ये जो आपने सीख दिया आखिर में कि स्तुति का अर्थ है आत्मज्ञान। तो सुरथ और समाधि दोनों प्रकृति को दोष दे रहे हैं। ये दोनों कह रहे हैं कि परिवार वालों और अन्य लोगों की वजह से हमें दुख है।

आचार्य: हाँ, बहुत बढ़िया बात। और यही बात मेधा मुनि उनके मन से निकालेंगे। वो कह रहे हैं, ‘तुम जानते तो सबकुछ हो।’ दोनों पढ़े-लिखे हैं, दोनों का जो वर्णन आता है विस्तार सप्तशती में, दोनों का बड़ा अच्छा वर्णन आता है। दोनों एक तरीके से समझ लो नायक हैं, सात्विक चरित्र हैं दोनों ही। दोनों समझदार भी हैं। दोनों सबके शुभेच्छु भी हैं। जिन्होंने इनको कष्ट दिया है ये उनका भी भला ही चाहते हैं। लेकिन दोनों ही स्वयं भी दुख में धँसे हुए हैं। दोनों में कहीं-न-कहीं ये अब भाव आ गया है कि जीवन ही समाप्त कर देते हैं। ‘हमने अच्छा किया और दुनिया से हमें, देखो कितना कष्ट मिला।’

तो मेधा मुनि इनसे कह रहे हैं, ‘तुम फिर अभी जीवन को समझे नहीं हो, और नाहक ही तुम्हारा दावा है समझदारी का।’ तो जब ये बोलते हैं न, कि वैसे तो हम समझते हैं, तो मुनि तंज कस देते हैं। बोलते हैं, ‘तुम वैसे ही समझते हो जैसे ये मेरे सब चूहे-बिल्ली जो यहाँ बैठे हुए हैं न, ये जितने समझदार हैं वैसी ही तुम्हारी बुद्धि है समझदारी की।’

असली ज्ञान तब है जब आत्मज्ञान हो। आत्मज्ञान नहीं है तो बाकी सारा तुम्हारा ज्ञान दो कौड़ी का।

प्र१: वो तो मेधा मुनि ने थोड़ा सम्मान रख लिया कि कम-से-कम पशुओं के स्तर पर गये, नहीं तो उससे भी।

आचार्य: नहीं तो उससे भी नीचे।

प्र१: धन्यवाद।

आचार्य: इसको ऐसे भी देख सकते हो कि दुर्गा सप्तशती में ये कहने की चेष्टा की गयी है कि सप्तशती में वो बल है कि वो पशु को भी चैतन्य बना दे। या ऐसे कह सकते हो कि साधु संगत में, ऋषि की संगत में वो बल होता है कि उसके सामने अगर जानवर भी बैठ जाए तो वो जानवर भी चैतन्य हो जाएगा, जैसे भी समझना चाहो।

प्र२: नमस्ते, आचार्य जी। जैसा कि आज सप्तशती के प्रथम अध्याय में मुनिवर कथा बताते हैं, राजा और वैश्य को। तो कथा का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि भगवान विष्णु सोने चले गये। तो जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, तो उसमें हमें भगवती महामाया की शक्ति का एक तरह से वर्णन दिखता है कि वो सुला भी सकती हैं और फिर विध्वंस भी कर सकती हैं।

तो एक पक्ष तो ये दिखता है कि सारी शक्ति महामाया के हाथ में है। और दूसरा पक्ष ये दिखता है, जैसा आप भी बताते हैं और यहाँ पर मुनिवर के आश्रम में जो पक्षी थे, उनके बारे में भी बताया गया कि उन्होंने चुनाव किया कि बस उठकर नहीं भागना है, बस बैठे रहना है।

तो एक तो मनुष्य मात्र का चुनाव है, जैसे भगवान विष्णु की भी बात लें, भगवान विष्णु का चुनाव है कि नहीं सोना है और भगवती जी की शक्ति है कि सुला देना है। तो इसमें शंका ये है, जो उनके सोने की घटना है उसमें किसका हाथ है?

आचार्य: आप ही के भीतर कोई है जो आपको जागने के लिए प्रेरित करता रहता है और आप ही के भीतर कोई है जो आपको सुला देना चाहता है। जो आपको सुला देना चाहता है वो ये (शरीर) है, माँ; जो माँ से मिला है न, माँ से, वो आपको सुला देना चाहता है। और सुला ही देगा, माँ ही जीतेंगी। माँ जब भगवान विष्णु से जीत गयीं तो सबसे जीतेंगी।

ये शरीर, मतलब आपके ऊँचे-से-ऊँचे इरादों को परास्त कर देगा। आपका जो शरीर है वो आपकी अच्छी-से-अच्छी नीयत को हरा देगा। आपकी सद्बुद्धि, सद्विचार, सद्भावना सब हार जाएँगे, आपके शारीरिक ज़ोर के आगे। जो शारीरिक वृत्ति है वो बिलकुल भारी पड़ेगी, आप हों चाहे भगवान तुल्य ही क्यों न।

एक ही तरीका है इस शारीरिक वृत्ति को अपने पक्ष में कर लेने का — इसको जान लो।

इसको जानने को ही कहते हैं, ‘माँ का दर्शन।’ माया का दर्शन ही माँ का दर्शन है। अपनी ही माया का दर्शन, माँ का दर्शन है। नहीं तो आपके — फिर कह रहा हूँ — आपके सुन्दरतम और सर्वोत्तम इरादे भी आपकी ही देह से परास्त हो जाएँगे। आप चाहते रहोगे बहुत ऊँची बात; आप कहोगे, ‘आचार्य जी, आज गीता समागम है, उठना है, जगे रहना है, जगे रहना है। आपको पता ही नहीं चलेगा देह कब सुला देगी, नहीं पता चलेगा। आपके इरादों की कोई कीमत नहीं है देह के बल के आगे। और देह सबकुछ बनकर आती है, देह सब बनकर आती है। देह, भावना बनती है, विचार बनती है। देह नीयत पलट देती है, सब बदल देती है।

आपने उपवास रखा हो, आप कह रहे हों, ‘कुछ नहीं खाना, कुछ नहीं खाना।’ रात में आठ बजते-बजते चूहे इतनी ज़ोर-ज़ोर से चायें-चायें पेट में कुलबुला रहे हैं, नीयत ही बदल जाएगी। आप कहोगे, ‘थोड़ा खाने से क्या हो जाता है? नहीं, क्या हो जाता है? बताओ।’ नीयत ही बदल गयी। आपके मन में तर्क आने लग जाएँगे, खाने के पक्ष में।

आपको ये भी नहीं लगेगा कि आपने बेईमानी करी है, बल्कि कोई बताने आएगा कि तुमने बेईमानी करी है, तो आप उससे लड़ जाओगे। आप कहोगे, ‘बेईमानी कैसी है? कोई बेइमानी नहीं।’ किसी आदमी को आप ये जताकर देखिए कि उसने गलती करी है, वो मानता है कभी? क्योंकि उसके पास अपनी गलती या अपनी बेईमानी के पक्ष में तर्क खड़े हो जाते हैं स्वतः। ये शरीर का काम है। शरीर ही माँ है, शरीर ही माया है। इसी शरीर को जान लो तो मुक्ति है।

आत्मज्ञान ही माँ का दर्शन है।

प्र२: धन्यवाद, आचार्य जी।

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। मैंने देह से लड़कर देखा, लेकिन मैं जीत नहीं पाया। और मैंने पाया कि मैंने जितनी बार कोशिश करी कि मैं संयम रख लेता हूँ, संयम रख लेता हूँ, पर हर बार जाकर उसके सामने हार जाता हूँ। कारण अभी देखा तो यही पाया कि भई, मैं देह को गलत मान रहा था। मैं मान रहा था कि प्रकृति के कारण से ये सब है, जबकि ऐसा नहीं है।

ये मेरी कामनाएँ हैं और इन्हीं कामनाओं के बहाव में बह जाता हूँ। देह तो मिला है। उसका सही उपयोग करना है, सही कर सकते हैं। गलत करना है, गलत कर सकते हैं। तो अभी जैसे आपने कहा कि माँ के सामने, प्रकृति माँ के सामने क्षमा का भाव हो कि माँ आप ही रास्ता दिखाएँ और इस रास्ते में सहायक बने। तो क्या ये सही अवलोकन है?

आचार्य: एक भूल जो कभी नहीं करनी है, अच्छे से समझ लीजिए। वो है स्वयं से लड़ने की। स्वयं से लड़कर कोई नहीं जीत सकता। आत्मज्ञान का मतलब लठ चलाना नहीं होता। युध्यस्व का मतलब होता है — जानना। क्योंकि अहंकार न जानने पर पलता है। उस अन्धेरे, उस असूया से संघर्ष का या युद्ध का मतलब होता है — प्रकाश डालना, जानना। जानना ही संघर्ष है।

ये लड़ना-भिड़ना और अपने साथ ही ज़ोर-जबरदस्ती करना, ये अच्छा लगता है क्योंकि अहम् को बल देता है। ‘मैं अच्छा आदमी हूँ, देखो, मैं कितनी जोर से लगा पड़ा हूँ खुद को परास्त करने में।’ इससे अच्छा लग जाएगा, किसको अच्छा लग जाएगा? अहम् को ही अच्छा लग जाएगा। ‘देखो, मैं अपने से ही लड़ा हुआ हूँ, मैं अपने से ही लड़ा हुआ हूँ। देखो, मैंने अपना क्या हाल कर लिया। मैंने खाना छोड़ दिया, मैं सूख गया।’

जैसे जिम जाने वाले अपनी फूली हुई देह दिखाते हैं वैसे ही अध्यात्मिक लोग अपनी सूखी हुई देह दिखाते हैं। मुश्किल है बताना कि अहंकार किसका ज़्यादा है। शायद सूखी हुई देह वाले का ज़्यादा है। वो दिखा रहा कि देखो मैंने इसको फुला लिया। ये दिखा रहा है, ‘मैंने इसको सुखा लिया।’ सुखा लो, उसे अच्छा लगेगा, अहम् को थोड़ा बढ़िया लगेगा, इससे इज्ज़त भी कुछ मिल जाएगी। लेकिन मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति तो मिलती है देह को जानकर के।

स्वयं को जानने के अलावा कोई दूसरा मार्ग होता तो मेरे पास कोई स्वार्थ नहीं है कि मैं आपसे छुपाता। बाकी दूसरे जितने मार्ग हैं भी, वो भी ले-देकर आ तो आत्मज्ञान में ही जाते हैं। तो जब आत्मज्ञान में ही आना है तो शुरुआत ही वहीं से कर लो न। इससे लड़ नहीं पाओगे, बाबा।

लड़ना ऐसा-सा है, जैसे टोटी खुली हुई है नल की और मोटी धार बह रही है, और आप झाड़ू लेकर के लड़ रहे हैं उससे। सीक वाला झाड़ू लेकर के, जितना पानी फैल रहा है, आप उससे लड़ रहे हो। कैसे लड़ रहे हो? झक-झक, झक-झक, झक-झक लगे हुए हो, लगे हुए हो, लगे हुए हो, लगे हुए हो। बोल रहे हो, ‘तू फैलेगा, मैं समेट के मानूँगा।’ इससे बड़ा अच्छा भाव आएगा भीतर। ‘मैं योद्धा हूँ, मैं कितना कुछ कर रहा हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ।’ जीतोगे? बोलो जीतोगे?

प्र३: नहीं।

आचार्य: खुद को जानने का मतलब होता है, ‘देखो कि ये सब जो बह रहा है, ये किस नलके से, किस टोटी से आ रहा है।’ जान लो, जान लोगे तो बन्द हो जाएगा। झाड़ू लेकर के, झाड़ू को तलवार का तुम समानार्थी मान लो, कि भीतरी युद्ध कर रहे हैं झाड़ू लगा-लगाकर के, लगा-लगाकर के। वो इतनी मोटी धार है, वो फैलता जा रहा है, फैलता जा रहा है। वो जितना फैल रहा है, तुम उतना झाड़ू मार रहे हो, कोई फ़ायदा है?

स्रोत पर पहुँचना होगा। नल स्रोत है, उस पर जाओ, बन्द कर दो। उसके बिना कोई सफलता नहीं मिलेगी। बात समझ रहे हैं? संघर्ष नहीं करिए स्वयं से। देखिए कि क्या चलता रहता है, अपनी प्रतिक्रियाओं को देखिए, अपनी सफलताओं को भी देखिए। और फिर देखिए कि कैसे आपकी सफलता में ये आपकी असफलता का बीज था।

प्र३: इस बात में आचार्य जी और स्पष्टता चाहिए, जैसे आपकी सफलता में ही आपकी असफलता का बीज था।

आचार्य: हाँ, माने बहुत ज़ोर से झाड़ू मारा, बहुत ज़ोर से झाड़ू मारा उतने में ऊपर टंकी खाली हो गयी। खूब खुश हो गये, अपनी भी पीठ थपथपा दी, पूरे मोहल्ले को बुलाकर अपनी पीठ थपथपवा ली। क्या? कि इनके झाड़ू मारने से, देखो, यहाँ पूरी सफ़ाई हो गयी। सब सूख गया। और वो जो पानी बह रहा था, वो भी बन्द हो गया।

हुआ क्या है? टंकी खाली हुई थी। आप मस्त होकर के सोने चले गये, झाड़ू को तकिया बनाकर के। और एकदम खुश हैं। टंकी थोड़ी देर में अब भर जाएगी। सो रहे हो, टंकी भर गयी। नीन्द खुली, बाढ़। सफलता में असफलता का बीज था।

ऐसी सफलता जो आत्मज्ञान के बिना मिली है, तुरन्त चेत जाइए, बहुत तगड़ी मार पड़ने वाली है। कोई कहे कि जीवन में मुझे किसी भी प्रकार की सफलता मिली है और आत्मज्ञान है नहीं। माने बहुत तगड़ी मार पड़ने वाली है, एकदम सुधर जाओ। कुछ आने वाला है, कुछ बहुत भयानक आ रहा है तुम्हारी ओर।

आत्मज्ञान घर की हवा में ही नहीं है; न बाप में है, न माँ में है। लेकिन बच्चों को देखकर कह रहे हैं, ‘क्या मेरे शानदार बच्चे निकले हैं, क्या शानदार बच्चे निकले हैं।’ शानदार निकल ही नहीं सकते। बाप का मुँह देखो, माँ की शक्ल देखो, इनके शानदार बच्चे निकल ही नहीं सकते। पर अगर इनको लग रहा है कि निकले हैं शानदार बच्चे, किसी भी दिन पुलिस आकर बताने वाली है कि वहाँ पर वो चार जुआ खेल रहे थे, कि ड्रग्स मार रहे थे और ये पकड़ा गया है आपका नुन्नू।

कुछ बहुत भयानक होने ही वाला है बस। जहाँ आत्मज्ञान के बिना भी सुख या शान्ति या सफलता लगे वहाँ समझ लो कि टाइम बम टिक-टिक कर रहा है। बस, फटने ही वाला है।

प्र३: एक बात आप और बताते हैं, जैसे कि ये सब राम के लिए हैं या ये सब कबीर साहब के लिए हैं, आपके लिए तो संयम हैं। आपको तो वो सब चीज़ों का ध्यान रखना हैं जो आपको रखनी चाहिए। सतत सजग रहना है।

आचार्य: कैसे? कैसे पता चलेगा, क्या रखनी चाहिए, क्या नहीं रखनी चाहिए?

प्र३: जैसे मान लीजिए कि मुझे बहुत सारी चीज़ें खाने की आदत है, तो अभी उससे शरीर खराब होता है। तो इसको मैंने नियन्त्रित भी करने की कोशिश की है।

आचार्य: ये देखा है कि किस जगह पर वो आदत आपकी जग जाती है?

प्र३: जहाँ पर बाज़ार दिखता है।

आचार्य: बाज़ार आपको क्या चीज़ लेकर जाती है?

प्र३: वो कामना ही लेकर जाती है, अन्दर की।

आचार्य: बाज़ार आपको ठीक वही चीज़ लेकर जाती है, शायद देख लीजिएगा, जिसको आपने अपना जीवन, घर, परिवार, दफ़्तर बना रखा है। देखिएगा।

कोई भी बीमारी एक पूरा इको सिस्टम (पारिस्थितिकी तन्त्र) माँगती है। आत्मज्ञान का मतलब होता है कि सिर्फ़ बिखरे हुए पानी पर ध्यान नहीं देना है, उसके पीछे क्या है ये भी जान लेना है।

प्र३: आचार्य जी, आप बताते हैं जैसे कि जब तक आप आस-पास को बदलोगे नहीं तब तक परिणाम भी बदलने वाला नहीं है।

आचार्य: ठीक है।

प्र३: ये वही बात है न?

आचार्य: बिलकुल वही बात है। भीतर बदलाव आएगा तो बाहर जो चीज़ें हैं उनको वैसे ही कैसे छोड़ सकते हो। फिर तो भीतर तो कोई बदलाव आया नहीं, आया भी तो आपने उसको बाधा दे दी। कोई कहे कि मैं भीतर से मैं जान गया हूँ कि व्यर्थ ही आज तक मैं शरीर में ठूँस रहा था माल। और उसका फ़्रिज उसी माल से भरा हुआ है जिस माल से पहले भरा रहता था। तो ये आदमी या तो झूठ बोल रहा है या बेवकूफ़ है। अगर इधर (भीतर) कुछ बदलाव आना होगा, तो उधर भी आएगा। तुम्हारा फ़्रिज नहीं बदला, तो तुम्हारी देह बदल सकती है क्या? बोलो।

प्र३: नहीं।

आचार्य: तुम्हारी किताबों की अलमारी नहीं बदली, तुम्हारी ज़िन्दगी बदल सकती है क्या? तुम्हारी संगति नहीं बदली, तुम्हारी मति बदल सकती है क्या? जिसकी मति बदल रही होगी उसका प्रमाण आ जाएगा, खुला प्रमाण आ जाएगा, उसकी संगति बदल जाएगी। पर हम ज़्यादा होशियार लोग हैं न, हम चाहते हैं हमें श्रीकृष्ण भी मिल जाएँ, कबीर साहब भी मिल जाएँ और जैसे हमारी दुनिया चल रही है वो वैसी ही चलती रहे, उसमें कोई बाधा न पड़े।

तुम कहते हो, हम दोनों ओर से चैम्पियन (विजेता) हैं। छुप-छुपकर आध्यात्म भी कर लेते हैं और जो हमारा सामाजिक, सांसारिक जीवन है उसके भी जो लड्डू हैं उसका स्वाद भी लेते रहते हैं। ऐसा नहीं हो पाएगा। अगर कृष्ण आते हैं न जीवन में, तो राजा बनकर आते हैं। जब वो आते हैं तो फिर आपकी दुनिया, वो अपने हिसाब से चलाते हैं।

कृष्ण आपकी ज़िन्दगी में आपके सेवक बन कर थोड़े ही आएँगे। वो जहाँ होते हैं — शत्रुघन सिन्हा का था न, ‘हम जहाँ होते हैं लाइन वहाँ से शुरू होती है।’ अगर वो आपकी ज़िन्दगी में आएँगे तो फिर वो तय करेंगे कि अब और कौन रहेगा आपकी ज़िन्दगी में। इसीलिए तो आप उन्हें अपने जीवन में नहीं लाते, क्योंकि आपके जीवन में जो आपने भीड़ भर रखी है वो कृष्ण से कम्पैटिबल (अनुकूल) नहीं है न? कृष्ण अगर अन्दर आ गये तो बाकी सब बाहर जाता है।

कृष्ण बाकी सब बर्दाश्त ही नहीं करते, कहते हैं या तो मुझे रख लो या ये गन्दगी रख लो। और जिसने गन्दगी से आसक्ति कर ली उसने कृष्ण के लिए अपने द्वार बन्द कर दिये, बिलकुल। वैसे आपके लिए अच्छा क्या है? आपकी ज़िन्दगी के फैसले आप करें या कृष्ण करें?

प्र३: कृष्ण।

आचार्य: कृष्ण आपको बिलकुल मुफ़्त में मिल रहे हैं, लाइफ़ कंसल्टेंट (जीवन सलाहकार) के तौर पर। वो कह रहे हैं, ‘मुझे अपने जीवन में ले आओ, आगे का काम मैं देख लूँगा।’ तो उन्हें ले ही क्यों नहीं आते? वो आकर देख लेंगे न, आपके फैसले कैसे होने चाहिए, आपके रिश्ते कैसे होने चाहिए, आपकी आजीविका कैसी होनी चाहिए, आपके विचार, भावनाएँ; जो कुछ भी है आपकी ज़िन्दगी में, वो कैसा होना चाहिए, वो सम्भाल लेंगे। आपसे बेहतर ही सम्भालेंगे थोड़ा या आपसे बुरा कुछ करेंगे?

प्र३: बेहतर।

आचार्य: जब आपसे बेहतर ही करेंगे, तो दे दो उन्हीं को सबकुछ, सम्भाल लेने दो उनको। “नैया तेरी राम हवाले, लहर लहर हरि आप सम्भालें।” वही सम्भालेंगे, अब आपको क्या करना है। ‘हरि आप ही उठायें तेरा भार।’ क्या मजे की बात है! ये तो मुनाफ़े का सौदा लग रहा है, भाई। आप रहिए तो गीता के साथ, अभी देखिए क्या होता है।

गीता आपको मजबूर कर देगी, गीता आपको मजबूर कर देगी अपनी ज़िन्दगी बदलने को। ऐसी हल्की चीज़ नहीं है। आपको पता भी नहीं चलेगा, और जब तक पता चलेगा तब तक ‘चिड़िया चुग गयी खेत।’ आपमें से बहुतों की ज़िन्दगी बदल चुकी है, आपको अभी पता नहीं चल रहा। कैसे प्रसन्न हो गये, बिलकुल।

प्र३: बदल चुकी है और बदलेगी।

आचार्य: वो जैसे होता है न, कि माँ, बच्चे को कैसे खाना खिला देती है, उसको चिड़िया की कहानी सुना रही है, चींटी की कहानी सुना रही है, ऊँट की कहानी सुना रही है। वो मगन है, उसको बीच में धीरे से मुँह में एक चम्मच डाल दिया। (बच्चा पूछता है), अच्छा फिर क्या हुआ? बताओ। ‘हाँ, लो, लो फिर, फिर बताया। वो बच्चे को पता भी नहीं चलता कब उसको पूरी खुराक दे दी गयी। वो यही सोच रहा है कि उसको अभी चिड़िया उड़ और कुत्ता उड़ करा जा रहा है। आपको पता ही नहीं है कि चल क्या रहा है। क्यूट (प्यारा) लग रहे हैं तुम आज, गोल-गोल, बच्चे के जैसे ही।

प्र४: प्रणाम, आचार्य जी। सर, मेरा आलोकन ये है, जैसे अभी आपने बताया कि हमारे ही भीतर कुछ ऐसा है जो जगाये रखता है और कुछ ऐसा है जो हमें सुलाने की भी कोशिश करता है। ये सत्य है शरीर की बात। तो वो मेरे साथ पिछले दो सत्रों से और आज भी हो रहा था। बार-बार नीन्द आ रही थी। जब से प्रश्न सत्र शुरू हुआ उसके बाद से थोड़ा सा जाग गया, जब से मैंने प्रश्न भेजा तब से और जाग गया।

आचार्य: आप समझ गये न, फिर जगने का सूत्र? सवाल लेकर खड़े हो जाइए। ‘नीन्द के सामने सवाल लेकर खड़े हो जाइए। सवाल ही ढाल है। शरीर उठे, तुरन्त उसके सामने खड़े हो जाइए, ‘हाँ भाई, क्या, क्या है तू? क्या चाहता है? कौन है तू? कहाँ से आया? इंटरड्यूस योर सेल्फ़ (परिचय देना)। पासवर्ड बता। चीज़ क्या है तू?’ ये सब करिए उसके साथ।

प्र४: सर, और ये भी देखा कि जैसे ही मैंने सवाल लिखा तो उसके बाद नीन्द बिलकुल नहीं आयी, क्योंकि सामने ये था कि केन्द्रित होकर बैठना है और वो सजगता जो आप बताते हैं, तो वो थोड़ा सा बढ़ गयी। तो यहाँ से ये भी समझ में आया कि जितना ज़्यादा अगर ध्यान बढ़ाना है तो प्रश्न और…

आचार्य: एक लिख लीजिए तरीका, विधि। ‘जहाँ हार हो रही हो उससे बड़ी लड़ाई में उतर जाओ, तो जीतने लगोगे।’ एक तल पर अगर हार रहे हो न, उससे कठिन तल चुन लो, जीतने लगोगे। अध्यात्म का नियम संसार के नियम के बिलकुल विपरीत चलता है। संसार का नियम कहता है कि अगर सत्तर किलो वर्ग में मुक्केबाज़ लड़ रहा है और हारता है, तो उसको पैंसठ वाले में चले जाना चाहिए, अगर पैंसठ में आता है वो तो। तो पैंसठ में जीतने लगेगा। अध्यात्म कहता है, ‘पैंसठ में हार रहे हो तो सत्तर में लड़ो, वहाँ जीत जाओगे।’ जिस चुनौती से हार रहे हो, जीतना चाहते हो तो उससे बड़ी चुनौती स्वीकार कर लो।

नीन्द बहुत छोटी चुनौती है, इसीलिए तो इससे हार रहे हो। जब नीन्द आये न, तो नीन्द से ज़्यादा बड़ी चुनौती स्वीकार कर लो, नीन्द गायब हो जाएगी। एकदम तुरन्त गायब हो जाएगी। उदाहरण दे देता हूँ, ‘नीन्द आ रही थी, नीन्द आ रही थी, तभी किसी ने आकर के बताया कि तुम्हारे दस हज़ार (रुपये) चोरी हो गये।’ नीन्द कहाँ गयी? ज़्यादा बड़ी चुनौती आते ही छोटी चुनौती गायब हो जाती है। अब नीन्द आ रही है, नीन्द आ रही है, ऊँघ रहे हो, बड़ी चुनौती माँग लो। अच्छा ठीक है, सवाल पूछना है। नीन्द इधर-उधर जाकर खुद ही सो जाएगी। ये सबके लिए है।

जीवन में जिस भी तल पर हार हो रही है, उससे पीछे नहीं हटो, उससे थोड़ा और आगे बढ़ जाओ, जीतने लगोगे। शरीर पर नहीं लागू होता ये, मन पर लागू होता है। ये मत कर लेना कि जिम में गये थे, पाँच किलो नहीं उठ रहा था, दस किलो उठाने लग गये। फिर हाथ तुड़ाकर कह रहे हैं, ‘इन्होंने बताया था’, मैंने नहीं बताया ये। मन पर लागू होता है, मन पर।

प्र४: धन्यवाद, सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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