झूठा प्रेम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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झूठा प्रेम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: : जिससे जितना प्यार करोगे उससे उतना ज्यादा नफ़रत भी करोगे। और आपने अभी ये भी बोला कि एक बेटी है, उसका पिता उससे बहुत ज़्यादा प्यार करता है, यदि वो भाग जाएगी तो उसको मार भी डालेगा। लेकिन वो प्यार नहीं है। क्यों सर?

आचार्य प्रशांत: हमारा प्रेम ऐसा ही है। देखो दो चीज़ें हैं- एक तो ये कि वास्तव में प्रेम क्या है और दूसरा ये कि हमने किसको प्रेम का नाम दे रखा है।

हमने सब झूठी चीज़ों को प्रेम का नाम दे दिया है।

मुझे तुमसे एक आकर्षण हो गया क्योंकि मेरी एक ख़ास उम्र है और तुम्हारी भी एक ख़ास उम्र है, और इस उम्र में शरीर की ग्रंथियाँ सक्रिय हो जाती हैं। सीधे-सीधे ये एक शारीरिक आकर्षण है, यौन आकर्षण है।

मैं इसको क्या नाम दे देता हूँ? मैं बोल दूँगा कि ये प्रेम है। क्या ये प्रेम है? पर नाम हम इसे प्रेम का ही देंगे। अभी बीता था वैलेंटाइन्स डे। तो प्रेम है।

प्रेम है क्या? क्या वास्तव में प्रेम है?

अगर प्रेम है तो यही प्रेम आठ की उम्र में क्यों नहीं हुआ? इसलिए नहीं हुआ क्योंकि तुम्हारी ग्रंथियाँ ही सक्रिय नहीं थीं, तब तुम्हारी ये शारीरिक ग्रंथियाँ सक्रिय नहीं थीं, यौन ग्रंथियाँ। अब सक्रिय हैं।

इसी तरीक़े से जब बच्चा पैदा होता है, माँ का उससे मोह है। उस मोह को ‘ममता’ का नाम दिया जाता है। ‘मम’ शब्द का अर्थ समझते हो? ‘मम’ माने मेरा। ममता का अर्थ भी प्रेम कतई नहीं है, ममता का अर्थ है चीज़ मेरी है इसलिए मुझे पसंद है। पर हम उसे क्या नाम दे देते हैं? हम कह देते हैं माँ का बेटे से प्रेम है। वो प्रेम नहीं है, वही बच्चा जिससे आज उसको इतनी ममता है, छह महीने बाद पता चले कि बच्चा अस्पताल में बदल गया था तो क्या करेगी वो? इसी बच्चे को उठा कर के कहेगी कि मेरा बच्चा बदल कर लाओ। होगा कि नहीं होगा? क्या ऐसा नहीं होता? छह महीने बाद अगर माँ को पता चले बच्चा बदल गया था तो क्या इसी को रखे रहेगी या अपने वाले को ले आयेगी? अगर वो मिल जायेगा तो उसको ले आयेगी।

प्र: सर, अपने वाले को ले तो आयेगी पर प्रेम तो वही रहेगा न?

आचार्य: क्या वाकई प्रेम रहेगा? ध्यान से देखना। क्या उससे वही प्रेम रहेगा?

प्र: सर, वो हो ही जाता है। जुड़ाव हो ही जाता है।

आचार्य: ईमानदारी से देखो, छह महीने तक उसके साथ था।

प्र: सर, व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो ऐसा नहीं होगा।

आचार्य: नहीं होगा ना ऐसा, नहीं होगा।

प्र: सर, यशोदा को कृष्ण से था।

आचार्य: ये सब मिथक कहानियाँ हैं। हम उनकी बात नहीं कर रहें हैं यहाँ। तुम जीवन को अपनी दृष्टि से देखते हो, चारों ओर लोग हैं, वहाँ देखो और जवाब दो। अपने घर को देखो, अपने परिवेश को देखो और जवाब दो। सारा ध्यान इस पर चला जायेगा, उससे जितने भी तार थे टूट ही जाएँगे। ये वही बात है कि जैसे तुम कहते हो, ‘मेरा पेन’। यहाँ इतने पेन रखे हुए हैं, तुम किस पेन के साथ सयुंक्त हो? इसके साथ (एक कलम की ओर इशारा करते हुए)। इस पेन में और उस पेन में मूलत: कोई अंतर है क्या? कोई अंतर नहीं है न? पर तुम इससे सयुंक्त हो क्योंकि ‘ये मेरा है’। इस बच्चे में और उस बच्चे में मूलत: कोई अंतर नहीं था, पर माँ जाएगी और बदल देगी क्योंकि ‘मेरा है’। तो उसे प्रेम बच्चे से था या ‘मेरे’ से था? प्रेम क्या बच्चे से था या ‘मेरे’ के भाव से था?

प्र: ‘मेरे’ के भाव से था।

आचार्य: और ‘मेरे’ का जो भाव है इसी को ममता इसलिए कहा जाता है। ‘ममता- मेरा’। पर हमें बचपन से ही बता दिया जाता है कि ये प्रेम है। ये प्रेम नहीं है, ये तो मालकियत की भावना है, ये मेरा है। ये वही भावना है कि मेरी साइकिल, मेरी स्कूटर, मेरा धर्म और जब तुम किसी चीज़ के मालिक होते हो तो फ़िर तुम उससे अपेक्षाएँ भी करते हो, तो कहते हो, ‘मेरे हो तो मेरे ही रहना’, फिर इसलिए साँस-बहू के झगड़े भी होते हैं। "मेरे थे, किसी और के कैसे हो गए? मेरे हो तो अब मेरे होने का फर्ज़ भी अदा करो", उसको तुम चाहे दूध का क़र्ज़ बोल लो या जो भी बोल लो।

प्र: अपेक्षाएँ होती क्यों हैं?

आचार्य: अपेक्षाएँ व्यापार में होती हैं। जीवन जीने के दो ढंग हैं- प्यार में जियो या व्यापार में जियो। हमने प्यार वाला ढंग कभी जाना नहीं, हमने व्यापार का ढंग ही जाना है। ‘तू मेरे लिए ये कर और मैं तेरे लिए वो करूँगा’। इसलिए हम अपेक्षाओं में ही जीते रहते हैं। हर चीज़ से हमारी अपेक्षा है, हमें तो अपने आप से भी बड़ी अपेक्षाएँ हैं, ये भूलना मत और तुम अपने आप को कितनी गालियाँ देते हो जब अपनी अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाते क्योंकि तुम अपने-आप से भी प्रेम नहीं करते। तुम ये नहीं कहते कि मैं जैसा हूँ, सो हूँ। तुम कहते हो, ‘मैं जब कुछ हो जाऊंगा तब मैं अपने-आप को स्वीकार कर सकता हूँ, अभी तो मैं जैसा हूँ तो घृणास्पद हूँ, अभी मुझमें ऐसा कुछ भी नहीं जो प्रेम के काबिल हो’। और यही तुम्हें लगातार बताया भी जाता है, ‘तुम हो ही क्या? पहले इंजिनियर बन जाओ, कुछ बन जाओ तब तुम्हारा जीवन जीने लायक होगा। अभी तो तुम बेकार हो, व्यर्थ है तुम्हारा जीवन, अभी तो तुम यही करो कि लक्ष्य के पीछे भागो, कुछ बन जाओ, अपेक्षा’।

तो ये सब नकली प्रेम है जिनको हमने प्रेम का नाम दे दिया है, ये सब नकली प्रेम है और जब ये नकली प्रेम होते हैं तो घृणा कहीं दूर नहीं होती, वो आसपास ही होती है इसलिए वो झट से आ जाती है। पति-पत्नियों में देखा है कितने ज़बरदस्त झगड़े होते हैं और झगड़े ना हों तो उनकी गृहस्थी आगे ही ना बढ़े। उस प्रेम में घृणा अंतर्मिश्रित होती है जैसे दूध और पानी मिले-जुले रहते हैं। कह ही नहीं सकते कि प्रेम कहाँ है और घृणा कहाँ है। कभी देखा है पत्नी किसी और की तरफ़ देखने लग जाये तो पति का क्या हाल होता है और पत्नी को पता चल जाए कि पति किसी और के साथ घूम रहा है तो उसका क्या हाल होता है? प्रेम तुरंत घृणा में तबदील हो जाता है।

ये कैसा प्रेम है?

तो हमने प्रेम के नाम पर ये सब गंदगी एकत्रित कर रखी है और इसको हम प्रेम का नाम देते हैं।

प्र: सर, सुना है ऐसा सब कहते हैं कि जैसे कि बहुत लोग प्रेम करते हैं तो कहते हैं कि ज़रूरी नहीं है कि आकर्षण हो। बाकि सबके लिए वो आकर्षण हो सकता है, पर उस के मन में नहीं है। लेकिन उसके अंदर ये घृणा वाली भावना भी आती है। तो ये प्रेम नहीं है?

आचार्य: नहीं।

प्र: ऐसा क्यों सर?

आचार्य: कोई और ज़रूरत होती है अकसर। देखो, संभव तो है ही कि जो असली प्रेम है वो भी जीवन में आ सके। इसकी संभावना तो है ही। पर होता ऐसा लाखों में से किसी एक आदमी के साथ है। तुम पूछ रहे हो कि और क्या वजह होती हैं?

प्र: जी सर। और यह भी कि अगर किसी को यह झूठा प्रेम हो गया तो उससे अब कैसे दूर हो सकता है?

आचार्य: समझ कर।

प्र: क्या समझेगा?

आचार्य: ‘मुझे वो आकर्षित कर रही है। मुझे नहीं आकर्षित कर रही, मेरे होर्मोनस को आकर्षित कर रही है’। बस समझ जाओ।

प्र: सर, होर्मोनस, आपने बताया ना कि केवल जैसे ही…

आचार्य: मेरे बताने की आवश्यकता नहीं थी। अगर तुम अपने जीवन पर ध्यान देते, तुम ख़ुद भी समझ जाते। तुम जान जाते कि लड़कियों को देखकर मुझे जो होता है वो आज से दस साल पहले तो नहीं होता था। तुमने अगर अपने जीवन पर ध्यान दिया होता तो तुम ख़ुद ही समझ जाते न। दिक्कत ये है कि हम बेहोशी का जीवन जीते हैं, हम अपने ही जीवन पर ध्यान देते नहीं है कि हो क्या रहा है। अगर ध्यान देते तो ख़ुद ही जान जाते कि ये जो हो रहा है वो पूरे तरीके से शारीरिक प्रक्रिया है। शारीरिक प्रक्रियाओं के अलावा भी कुछ चीज़ें होती हैं।

प्र: आप कहते हैं कि चेतना को देखो, अपने शरीर को देखो। मतलब कि आपका शरीर क्या है? आपका शरीर जब आपके प्रेमी के साथ है, तो फ़िर हम उसके साथ क्यों न जाएँ?

आचार्य: शरीर को जाने दो। शरीर जो ये कुछ कर रहा है ये यांत्रिक चीज़ है और यंत्र होना तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुमने वही प्रश्न अभी पूछा था न कि हम क्यों समझें? क्योंकि तुम्हारा स्वभाव है समझना। तुम्हारा स्वभाव नहीं है यंत्र होना। यंत्र कुछ नहीं समझता। ये यंत्र है, इसे तो प्रकृति ने मशीन की तरह उपयोग कर रखा है सिर्फ़ और सिर्फ़ आबादी बढ़ाने के लिए। शरीर बस ये चाहता है कि खुद जिंदा रहे और मरने से पहले अपने जैसे कुछ और पैदा कर के जाए। प्रकृति तुमसे बस यही चाहती है और कुछ भी नहीं चाहती। प्रकृति चाहती है कि एक तो तुम ख़ुद जिंदा रहो, अपने शरीर की देखभाल करो और मरने से पहले तुम ख़ूब सारे बच्चे पैदा कर जाओ। यही काम हर जानवर करता है। पर तुम प्रकृति से परे भी कुछ हो, तुम प्रकृति के आगे भी कुछ हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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