प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। सौभाग्य है कि उपनिषद् को इतनी सरलता से आपके साथ सुनने का अवसर मिला। मेरा प्रश्न है कि जब मैं अपने सम्बन्धों को देखता हूँ, मैं पाता हूँ कि मैं हमेशा ही उलझा रहता हूँ। समस्या को ढूँढने की भी कोशिश करता हूँ और मैं और उलझ जाता हूँ। और क्योंकि मन के इतने करीब हूँ, तो मन से दूर भी नहीं जा पाता। तो इस विवशता की स्थिति में मैं क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: वही उत्तर है जो वेदान्त का सबको है। देखो, मकड़े से नहीं कह पाओगे तुम कि जाल न बनाओ। तुम उससे नहीं कह पाओगे कि ये जो तुमने तार इस तरह से बुना है, ये किसी को फँसा सकता है। मकड़े का काम है तार का जाल बुनना और फँसाना ही। प्रकृति की बात है भाई। मकड़े का जाल देखा, तुम क्या करोगे? बैठकर मकड़े को समझाने लगोगे? मकड़े को समझाने लगोगे क्या?
प्रकृति से उलझकर कोई नहीं जीतता। तुम्हें प्रकृति के अतीत जाना है। प्रकृति पर विजय जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रकृति पर विजय की कोशिश पश्चिम ने करी है। द कॉन्क्वेस्ट ऑफ़ नेचर (प्रकृति पर विजय) बोलते हैं वे। वे कहते हैं, ‘जंगलों को जीत लेंगे, नदियों को जीत लेंगे, बाँध बना लेंगे, अन्तरिक्ष को जीत लेंगे।’ भारत ने कभी कहा ही नहीं कि प्रकृति को जीतना है।
पश्चिम का सारा विज्ञान ही प्रकृति को जीतने के लिए है। उन्होंने जो कुछ भी जाना विज्ञान में उसका एक ही प्रयोग करा। क्या? प्रकृति पर फ़तह करनी है। ठीक है न? भारत ने कभी नहीं कहा। प्रकृति की, भारत की समझ बहुत गहरी थी।
पश्चिम का प्रकृति के प्रति जो दृष्टिकोण है उसमें बड़ा बालकपन है, शैशव है उसमें। छोटे बच्चे जैसी नादान बातें कि इसको जीत लेंगे, इसको जीत लेंगे, इसको हरा दो। भारत ने कभी नहीं कहा, ‘हराना है।’ भारत ने तो पूजा करी और पूजा करके आगे बढ़ गये।
माया की पूजा करी और माया से क्या माँगा? मुक्ति। ये भारत की बात है। गज़ब देख रहे हो। माया जो बन्धन का कारण, उसी माया की पूजा करी और क्या माँग लिया उससे? मुक्ति। भारत का प्रकृति के प्रति ये रहा है।
भारत कह रहा है, ‘जीत नहीं सकते।’ आई बो टू दी, यू कैन नॉट बी ओवरकम (मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आप पर विजय नहीं पायी जा सकती।) जीत नहीं सकते। सिर झुकाकर आगे बढ़ जाएँगे। सिर झुकाकर आगे बढ़ जाएँगे। और कहा कि माँ तो वरदायिनी है, माँ मुक्तिदायिनी है। वही माँ जो महामाया है, महामृत्यु है,महामारी है, वही माँ महामुक्ति भी है। वही देगी मुक्ति। बस उसके प्रति अवमानना का भाव मत रखना। लिप्त नहीं होना है, समझना है। यही पूजा है। लिप्त नहीं होना है।
हमारे यहाँ सब देवियाँ हैं, स्त्री शरीरों में हैं। लेकिन उनको हम स्त्रियों की तरह नहीं देखते। भोग की, काम की दृष्टि से नहीं देखते। इसमें सीख है कि प्रकृति को कैसे देखना है। भोगने के लिए न देखो प्रकृति को। समझ लो, सिर झुका लो। वही प्रकृति मुक्ति भी दे देगी।
ये कहते मत रहो बस कि प्रकृति में फँस गये, फँस गये, फँस गये। फँसने का काम तुमने करा है। तुम अपना स्वार्थ, अपना लालच ज़रा संयमित रखते तो नहीं फँसते न। प्रकृति को क्यों दोष दे रहे हो? और प्रकृति से ही वो चेतना उठती है जो चेतना मुक्ति तक जा सकती है। तुम उससे वरदान माँगो। उसे भोगो नहीं। उसका आशीर्वाद माँगो।
यहाँ ऋषिकेश लोग आते हैं। ऋषिकेश को भोगने आते हैं, ऋषिकेश का आशीर्वाद लेने नहीं आते। अन्तर समझ गये साफ़-साफ़? यही ऋषिकेश भुक्ति के लिए प्रयुक्त हो सकता है, कि हाँ भोग रहे हैं, भोग रहे हैं, राफ्टिंग करी, फिर शराब पी, सम्भोग किया। भुक्ति, भोग, भोग, भोग।
और इसी ऋषिकेश में शान्ति से बैठ जाओ, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन, समाधि। यही पर्वत,यही गंगा मुक्ति में सहायक हो जाएँगे। और ये कितनी विचित्र बात है कि जो जगह मुक्ति में जितनी सहायक हो सकती है, उस जगह का भुक्ति में, माने भोग में उतना ही ज़्यादा इस्तेमाल होता है। सब हनीमून मनाने वाले कहाँ जाते हैं? प्राकृतिक जगहों पर। दिल्लीवालों को शराब पीनी है वीकेंड (सप्ताहांत) पर, तो कहाँ जाएँगे? प्राकृतिक जगहों पर। ऋषिकेश का ये इस्तेमाल होता है। चलो, वीकेंड पर चलकर वहाँ शराब पीयेंगे।
जहाँ से उपनिषद् उठे थे, उस जगह का प्रयोग किया जा रहा है भोग के लिए, शराब के लिए,वासना के लिए। इसी से समझ लो कि प्रकृति दोनो काम कर सकती है तुम्हारे लिए। “माया दोय प्रकार की, जो जानै सो खाय। एक मिलावै राम से, दूजी नरक ले जाय।।”
इसी ऋषिकेश में तुम्हारे लिए घोर नर्क हो सकता है, अगर तुम यहाँ अपनी वासनाएँ पूरी करने की कोशिश करोगे तो। जो ऋषिकेश में आये और इस जगह का प्रयोग करे वासनाओं के लिए, वो नर्क में पड़ेगा। और इसी ऋषिकेश में मुक्ति के तमाम साधन मौजूद हैं। जो ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है, वो तुम्हें यहाँ मिल जाएगा।
समझ में आ रही है बात?
तो लड़ना नहीं है। कुछ ऊँचा खोजना है। आगे बढ़ना है। जो चीज़ आपको परेशान करती है,उसी का सहारा लेकर आगे बढ़ जाइए। आपकी परेशानियाँ भी आपको इतना तो बताती हैं न कि गलती हो गयी। अनुगृहीत रहिए कि अच्छा! माँ ने कुछ सीख भेजी है। क्या सीख भेजी है? ये मत करना। ये जो अभी करा, ये मत करना। कुछ और करो अब चलो। अब उलझे नहीं रहो बेटा यहाँ, चलो आगे जाओ। कुछ और करो।
माँ तुम्हें समस्या देकर, दुख देकर बता रही है—यहाँ उलझे नहीं रहो; बेटा आगे जाओ, कुछ और करो। लेकिन हमें तो अपनी समस्याओं से ही मोह है, हम उन्हीं में उलझे रहते हैं, जैसा प्रश्नकर्ता कह रहे हैं। आगे जाओ न। कोई समस्या सुलझ नहीं सकती। ये अहंकार का बड़ा फ़ितूर रहता है कि मैं समस्याएँ सुलझा लूँगा।
साहब, किसी की कोई समस्या आज तक नहीं सुलझी। हाँ, जो ज्ञानी हुए हैं, उनकी समस्याएँ पीछे छूट गयी हैं। उन्हें याद नहीं रह जाता कि समस्याएँ हैं। और भूलिएगा नहीं कि समस्या का आपसे कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। आपके मन से अगर समस्या मिटी तो वो मिट ही गयी। ऐसा नहीं है कि समस्या एक पत्थर की तरह थी जिससे आप आगे आ गये, पर अगर पुनः मुड़कर पीछे जाएँगे तो पत्थर अपनी जगह पड़ा हुआ होगा। नहीं, ऐसा नहीं है।
पत्थर का आपके शरीर से पृथक अस्तित्व हो सकता है। तो आप पत्थर को पीछे भी छोड़ दें तो भी वो पीछे अपनी सत्ता, अपना अस्तित्व कायम रखेगा। समस्या ऐसी चीज़ नहीं है। समस्या कहाँ होती है? मन में। पत्थर होता है पृथ्वी पर, समस्या होती है मन में। समस्या आपने अगर पीछे छोड़ दी, तो वो मिट ही गयी। वो मिट ही गयी। मिट गयी।
‘आदिग्रन्थ’ पर हम चर्चा कर रहे थे। आज से सात-आठ साल पहले की बात है। तो किसी ने पूछा, ‘सुमिरन क्या होता है?’ मैंने कहा, ‘विस्मरण।’ वो कहते हैं, बार-बार सुमिरन की बात आती है। क्या होता है? मैंने कहा, “विस्मरण। भूलना ज़रूरी है।” याद तो तुम किसको रखोगे? याद रखने के लिए आप प्रतीक बनाओगे, कुछ नाम तैयार करोगे। कुछ विधियाँ रखोगे। वो जितनी छोटी-से-छोटी रहें उतना अच्छा, नहीं तो खुद झंझट बन जाते हैं। तो सुमिरन वास्तव में विस्मरण की बात है। भूलो, भूलो, भूलना ज़रूरी है। भूलना ज़रूरी है। फँसना नहीं है, भूलना है। याद रख-रखकर फँसते हो। याद नहीं रखना है, भूलना है।
कैसे भूलना है? जहाँ हो, उससे एक कदम आगे बढ़ो। जो उच्चतम है, जो परमात्मा ही है, परम है, पूर्ण है उसको तो तुम एक झटके में याद कर नहीं पाओगे। उसका कोई नाम इत्यादि भी नहीं है। तो फिर व्यावहारिक बात क्या है? जो कुछ भी कर रहे हो, उससे थोड़ा ऊपर की चीज़ याद रख लो। मन खाली नहीं रहता। मन माँगता है न कि कुछ याद रहे? जहाँ फँसे हो, उससे ऊपर का कुछ याद रख लो। कुछ याद रख लो।
संस्था में लोग आते हैं। पूछता हूँ, ‘क्यों नहीं किया कोई काम?’ तो बड़ा एक साधारण प्रचलित सा उत्तर रहता है, ‘भूल गये।’ मैं ये पूछता ही नहीं, ‘क्यों भूल गये?’ मैं पूछता हूँ, ‘याद क्या था?’ क्योंकि कोई भूल सकता ही नहीं है जब तक कुछ और याद न कर ले। मन खाली नहीं रहता।
जो आवश्यक था उसको तुम भूल इसीलिए गये हो बेटा, क्योंकि तुमने कोई फ़ालतू चीज़ पकड़ी है। मुझे बताओ, क्या पकड़ा? तुम भूल ही नहीं सकते थे। कोई रिपोर्ट (विवरण) भेजना भूल गया, कोई ये भूल गया, कोई वो भूल गया। कुछ नहीं कर रहे। तुम भूले ही इसीलिए, क्योंकि तुम कोई नालायकी पकड़कर बैठे थे। कुछ व्यर्थ की चीज़ याद कर रहे थे। उल्टी बहा दी न गंगा? सारा अध्यात्म इसमें है कि नीचे को छोड़ने के लिए ऊँचे को याद रख लो। और तुमने क्या कर दिया? तुम्हें ऊँचा मिला हुआ है। तुमने निचले को पकड़कर ऊँचे को भूला दिया। वरना ऊँचा भूल सकता ही नहीं था। समझ में आ रही है बात? हम समस्याओं में ही पैदा होते हैं। जैसे हम बार-बार कहते हैं, ‘देह धरे का दंड है। पैदा हुए हो तो समस्याएँ मिलेंगी।’ मकड़ जाल में ही पैदा हुए हो। रोओ मत, चिल्लाओ मत। आगे बढ़ो भाई। ये थोड़े ही है कि कीचड़ में गिरे हुए हो और शिकायतें कर रहे हो, कीचड़ गंधाता बहुत है। और इसमें आठ सौ एक तरीके के बैक्टीरिया (जीवाणु) हैं। क्या करना है? खड़े हो जाओ। खड़े हो जाओ, आगे बढ़ जाओ।
अगर तुम आगे बढ़ गये, तो वो कीचड़ अब समस्या है नहीं। प्रकृति में तो कीचड़ होता ही है। वो कोई समस्या की बात है? समस्या इसमें नहीं थी कि कीचड़ था, समस्या इसमें थी कि तुम कीचड़ में थे। और तुम कीचड़ में इसलिए थे, क्योंकि तुममें कीचड़ था।
समझ में आ रही है बात?
प्रकृति में कीचड़ है, कोई समस्या? किसी को कोई समस्या? पर कीचड़ में तुम हो, तो बड़ी समस्या है। तो कीचड़ से शिकायत क्या करनी है? उठो, आगे बढ़ो। आगे बढ़ो। प्रकृति में कामवासना न हो तो संसार ही नहीं होगा। लेकिन तुम कामवासना में हो तो तुम्हारे लिए समस्या है। तुम आगे बढ़ो न बाबा।
प्रकृति में तो जो है वो रहेगा ही। तुम नहीं रहोगे, प्रकृति रहेगी। तुम छोटी चीज़ हो। प्रकृति तो समय ही है। जब तक अस्तित्व है, प्रकृति है। उसके इसी तरीके से सब नियम-कायदे चलते रहेंगे। तुम्हें इनकी शिकायत करके क्या मिलेगा? ग़ुस्सा बहुत आता है। कितना बहुत आता है? कितना बहुत आता है ग़ुस्सा? कितना कर लोगे? अभी तुम्हारी बस दस साल और उम्र है। कितना कर लोगे? तुम्हारा वर्णन ही गलत है। गुस्सा बहुत आता है। बहुत का माने क्या? बहुत माने क्या? बहुत माने क्या? दस साल? पिछले चालीस साल से आ रहा है, दस साल और आएगा। बहुत माने क्या? बहुत माने क्या?
पड़ा रहने दो गुस्से को। वो बहुत नहीं आता है। वो प्रकृति की बात है, उसमें होता है क्रोध। आगे बढ़ो। कुछ ऊँचा पकड़ो। फिर क्या क्रोध नहीं आएगा? तुम अभी भी क्रोध पर ही पड़े हुए हो। मैं कह रहा हूँ, ‘ऊँचा पकड़ो।’ सवाल फिर से पूछा, फिर क्रोध नहीं आएगा। तुम्हारी सारी नज़र क्रोध पर है। सत्य पर नज़र रखो, क्रोध को पड़ा रहने दो। नहीं तो क्रोध का क्या होगा? तुम फिर क्रोध की बात करने लग गये। तुम्हें बात ही नहीं समझ में आ रही है? मैं कह रहा हूँ, ‘पड़ा रहने दो।’ सारी सीख वेदान्त की यही है। क्या? पड़ा रहने दो। नहीं फिर ग़ुस्सा कम…? अब मुझे ग़ुस्सा आ रहा है। पर मैं क्या करूँगा? पड़ा रहने दूँगा। मेरे पास कौन है? मैं उपनिषद् की बात करूँगा न। मुझे क्रोध आ भी रहा है तो मैं उसको पड़ा रहने दूँगा। मैं क्रोधित होकर ही सही, पर रहूँगा उपनिषदों के साथ। क्रोधित भी हूँ तो उपनिषदों के साथ हूँ। ये वेदान्त की सीख है। पड़ा रहने दो। तुम वो करो जो आवश्यक है।
समझ में आ रही है बात?
क्रोध, काम ये तो सब शरीर की तरह हैं। इन पर झुर्रियाँ पड़ जानी है। ये बड़ी विकट, अटल, अनन्त समस्याएँ हो कैसे गये? इनमें दम ही कितना है? ये तो शरीर से सम्बन्धित है। शरीर ही नहीं टिकना। ये कितना टिकेंगे? और इनको ऐसे लेकर आते हो आध्यात्मिक साधक कि देखिए साहब, बड़ी भारी समस्या है। क्या? क्रोध और काम और मोह। जिन्हें तुमसे मोह था, वे आधे रवाना हो चुके हैं। तुम पैदा हुए थे, तुम्हारे दादा-दादी को बड़ा मोह था तुमसे। उनका मोह कहाँ है? उनके साथ राख हो गया उनका मोह। तो मोह बहुत बड़ी समस्या कैसे हो गयी? वो तो राख हो जाएगा शरीर के साथ। क्यों इतनी बड़ी बात करके उसको बड़ी बात बना दे रहे हो? छोटी चीज़ को बड़ा इतना तुम क्यों बना रहे हो?
समझ में आ रही है बात?
जो कुछ भी है तुम्हारे पास, वो लिये-लिये आगे बढ़ो। वो फ़कीर की कहानी याद है न? क्या बोला था उसने? कम एज़ यू आर (तुम जैसे हो, वैसे ही आओ)। क्या कहा था? कम एज़ यू आर, इवन इफ़ यू हैव ब्रोकन योर वो अ थाउज़ेंड टाइम्स, कम एज़ यू आर। (चाहे तुमने हज़ार बार भी अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी हो, तुम जैसे हो, वैसे ही आओ)। इंतज़ार मत करो निर्मल होने का, शुद्ध होने का, पूर्ण और पवित्र होने का। कम एज़ यू आर। जैसे हो, आगे बढ़ो।
समस्याएँ हैं तो पड़ा रहने दो समस्याओं को, तुम आगे बढ़ो। घुटनों में दर्द हो रहा है। कोई बात नहीं, तुम आगे बढ़ो। तर्क मत लगाओ। कितना आगे बढ़ेंगे? एक किलोमीटर जाएँगे, फिर रुक जाएँगे। तुम आगे तो बढ़ो, क्या पता आधे किलोमीटर पर बस मिल जाए। तुम वो करो जो तुम कर सकते हो।
समझ में आ रही है बात?
तुम जैसे भी हो, जैसे भी हो, उससे बेहतर हो सकते हो। बस इतनी सी बात है। तुम जैसे भी हो, जैसे हो उससे बेहतर हो सकते हो। तो बेहतर हो जाओ। संसार पर तुम्हारा बस नहीं, संयोगों पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं। लेकिन अपने अंदरूनी जगत पर तुम्हारा नियंत्रण है। तुम अपने मन के लिए क्या विषय चुनोगे, इसपर तुम्हारा अधिकार है। उस अधिकार का प्रयोग करो। स्वयं को एक बेहतर विषय दो। पुराने विषयों, पुराने जीवन में उलझ-उलझ मर मत जाओ। क्या बोलो उसको? “ये संसार काँटन की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है। ये संसार कागज़ की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है। रहना नहीं देस बेगाना है।”
कौन से देश की बात हो रही है? भारत देश छोड़ने के लिए नहीं कहा जा रहा। कहाँ जाओगे? आन्तरिक देश छोड़ने के लिए कहा जा रहा है। तुम जिस देश में रहते हो भीतर-भीतर, तुम्हारा देश है ही नहीं। वो तुम्हारे भीतर है, तुम उसके भीतर हो। लेकिन वो देश है बेगाना। तो गड़बड़ बात हो गयी। धर लिये जाओगे। बेगाने देश में घुस गये। वो बेगाना देश तुम्हारे भीतर है और तुम उसके भीतर हो।
साहब समझा रहे हैं, “रहना नहीं देस बेगाना है, ये संसार काँटन की झाड़ी उलझ-उलझ मर जाना है।” अब झाड़ियाँ काटने न निकल पड़ना, कि लेकर बड़ा चाकू और संसार काँटों की झाड़ी है, उलझ-उलझकर मर जाएँगे और हम तो साहब देखिए, समाजसेवक किस्म के आदमी हैं। तो हम दुनियाभर की झाड़ियाँ साफ़ करेंगे। तुम नहीं कर पाओगे बाबा। उन झाड़ियों को माँ का वरदहस्त है। तुम एक झाड़ी काटोगे, पाँच पैदा होंगी। जितना काटोगे, काटने से ही उससे ज़्यादा पैदा होंगी। काटने में मत उलझ जाना। तुम तो आगे बढ़ो। समझ में आ रही है बात?
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