प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, किसी का वास्तविक इंट्रेस्ट (रुचि) क्या है, अगर जानना है तो कैसे जाने? पहले मुझे डांसिंग (नृत्य) में इंट्रेस्ट था, स्केचिंग (चित्रकारी) में इंट्रेस्ट था। लेकिन अभी सिचुएशन (परिस्थिति) ऐसी हो गयी है कि मुझसे कोई पूछता भी है कि मेरा इंट्रेस्ट क्या है, तो आई एम वेरी कंफ्यूज्ड, आई डोंट नो (मैं बहुत ही संशय में होती हूँ, मुझे पता नहीं होता)। मतलब पहले था कि मैं स्केचिंग करती तो मुझे मज़ा आता था। लेकिन अभी मैं स्केचिंग भी करना चाहती हूँ, एक बार लगता है कि हाँ, चलो करते हैं। लेकिन फिर लगता है क्या फ़ायदा, कुछ होना तो है नहीं, इस तरह के थॉट्स (विचार) आते हैं। तो ये जो एक मतलब लेयर (परत) है, या क्या है आइ डोंट नो , कि मतलब क्या खुद से थोड़ा दूर हो गये हैं?
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं हो गये हैं, फ़ायदेबाज़ हो गये हैं! बात-बात पर पूछते हैं कि फ़ायदा क्या है? फ़ायदा क्या है? कर लेंगे स्केचिंग , कोई बता दे कि फ़ायदा है। हर स्केच में पाँच हज़ार, कर लेंगे, इतनी सी बात है।
प्रश्नकर्ता: मोटिवेशन (किसी कार्य को करने के लिए एक प्रकार के बल की कल्पना करना) नहीं बचा है?
आचार्य प्रशांत: मोटिवेशन ही बचा है, हर काम आपको मोटिवेशन से ही करना है। मोटिव (उद्देश्य) होगा तो करेंगे, मोटिव नहीं है तो नहीं करेंगे — मोटिव माने लालच। अब आप मोटिवेशन की दिवानी हो गयी हैं, मोटिवेशन न हो तो कुछ करती ही नहीं हैं। दुनिया से सीख लिया है कि मोटिवेशन बड़ी बात हो गयी।
ये(पक्षी) दौड़ लगा रहे हैं, ये किसलिए लगा रहे हैं, इन्हें क्या मोटिवेशन है? मैंने देखा पक्षी को, इधर से उसको उधर जाना था। वो नाक की सीध में भी जा सकता था, वो यहाँ से उड़ा, ऐसे गया (लहराते हुए), ये क्या कर रहा है वो? ये तो बड़ा इनेफिसियेंट (अकुशल) तरीका है उड़ने का न? कि जाना है, कितना होगा ये? चालीस मीटर, और उड़ रहे हो तुम सौ मीटर। कोई पूछेगा कि भाई, फ़ायदा कितने का हुआ? तो फ़ायदा तो हुआ कुल चालीस मीटर का, इतनी ही दूरी तय कर पाये। और ऊर्जा कितनी व्यय की? सौ मीटर वाली, ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे जा रहा है। ये नासमझ लोग हैं, वो बिना फ़ायदे के लिए भी उड़े जाते हैं, आप कहते हैं, ‘फ़ायदा बताओ?’
प्रश्नकर्ता: सर, बुक में एग्जाम्पल ( उदाहरण) लिखा था कि पहले तो एफिसेंसी (दक्षता) बढ़ा ली, तो जो दिमाग है उस तरह सोचने लगा कि हाँ, मतलब ये काम अच्छी तरह से करना है। फिर कुछ करने को बचा नहीं उसकी जगह, तो फिर वो बेचैनी वाली है। जैसे पहले तो हमने उसे मोटिवेशन बना लिया कि हाँ, ये हमको एफिसेंसी बढ़ानी है। फिर जब दिमाग में वो चीज़ पा ली, तो वो जो मोटिवेशन वाला दिमाग था, उसके बाद अब कुछ करने को बचा नहीं, तो उसे कुछ चाहिए करने को। तो अब मतलब वो बेचैनी वाला पूरा चक्र है।
प्रश्नकर्ता:: सर, अभी आपने बोला था जब मेडिटेशन (ध्यान) पर प्रश्न था कि जो उचित हो, उसे समर्पित हो जाओ। तो जो उचित निकलेगा, अभी तो वही फ़ायदे-नुकसान वाला तौलकर ही निकलता है कि हमारे लिए ये उचित है। अगर हम उसी को समर्पित हो जाएँ, फिर तो हम वही करते जा रहे हैं जो कंडीशन (परिस्थिति) कहता जा रहा है?
आचार्य प्रशांत: ठीक है न, जिसमें तुम्हारा फ़ायदा हो वही करो। कहाँ है तुम्हारा फ़ायदा?
प्रश्नकर्ता: फ़ायदा तो देख लिया, फ़ायदा तो नहीं था यहाँ।
आचार्य प्रशांत: बस, वो मत करो। जहाँ वास्तव में तुम्हारा हित हो, जाओ न वहाँ पर। बहुत ध्यान दो इस बात पर कि हित किसको कहते हैं, हित कहाँ है, बहुत पूछो अपने आप से। फ़ायदे की एक परिभाषा ये होती है कि जब फ़ायदा हो गया, उसके बाद फ़ायदे की बहुत आकांक्षा बचती नहीं है। अगर फ़ायदा ऐसा हो रहा है तुमको जिसके बाद और फ़ायदे और फ़ायदे चाहिए, तो फिर अभी लाभ हुआ नहीं।
तुम कब कहते हो कि दवाई से लाभ हो गया, जब और दवाई और दवाई चाहिए? दवाई से लाभ तब हुआ जब दवाई की आवश्यकता शून्य हो जाए या न्यून हो जाए। तो वो फ़ायदा ढूँढो न जिसके बाद और फ़ायदा चाहिए न हो, वो कामना करो जिसके बाद और कामना करनी न पड़े। वही उचित है, उसी दिशा में जाओ। जो भी कामना कर रहे हो, उसके बाद पूछना अपनेआप से कि इससे कामनाएँ और बढ़ेंगी या ये आखिरी कामना है? कि इसको कर लूँ तो फिर और कुछ नहीं चाहिए होगा।
कामनाओं की भी पूरी एक सूची होती है न, उसमें सबसे ऊपर उस कामना को रखो जो बाकी कामनाओं को खत्म ही कर देती है। तुम्हारे पास सात काम हों, सातों अलग-अलग हों और उन सातों में एक काम ऐसा है जिसको कर लिया तो बाकी छः अपने आप हो जाएँगे, तो कौनसा सबसे पहले करोगे? किसको सबसे ज़्यादा ऊर्जा दोगे? उस काम को न जो बाकी सब कामों का सुपरसेट है? जिसको कर लिया तो सब कर लिया। और ये मत बोलो अपने आप से कि बाकी छः करूँगा नहीं, ये कह दो कि ये पहला निपटा लूँ, फिर बाकी छः भी कर लूँगा। और पहला निपटाने के बाद भी अगर तुम्हें लगता है कि बाकी छः करने हैं, तो तुम कर भी लोगे।
अपने आप को पूरी छूट दो, ये बोलो ही मत कि कामना वर्जित है। ये बोलो ही मत कि बाकी सारे काम मैंने त्याग दिये, तुम कहो, ‘उनको भी करूँगा, पहले ये कर लूँ जो ज़रूरी है।’ वो उचित है, उसको कर लो। उसको करने के बाद वाकई अगर तुम्हारा मन है यूँही मनोरंजन के लिए, मस्ती के लिए तुम बाकी सारे काम भी करना चाहते हो तो करते रहना। पर प्रथम को प्रथम का दर्ज़ा दो, आवश्यक को आवश्यक का स्थान दो, आवश्यक को पीछे मत धकेलो। और आवश्यक की परिभाषा क्या? वो तुम्हें शांत कर जाएगा, वो तुम्हारी आन्तरिक उथल-पुथल को शांत कर देगा।
और अगर तुम पाते हो कि कुछ ऐसा है जो अपने होने के बाद तुम्हें और बेचैन ही करेगा, तो उसको निचला दर्जा दो। जहाँ शांति पाते हो वहाँ तत्काल जाओ। जहाँ जाने से मन उत्तेजित होता हो, कामनाएँ और बढ़ती हो, वहाँ जाने से बचो। जहाँ जाकर तुम्हारा होश खुलता हो, दृष्टि साफ़ होती हो, वहाँ जाने को वरीयता दो। और जहाँ जाने से तुम्हें बेहोशी छाती हो, उन्माद छाता हो — भले ही उस उन्माद में सुख हो, नशे में भी एक सुख होता है, पर उस सुख से बचना।
सुख ही चुनना है तो होश का सुख चुनो, बेहोशी का नहीं। ये सब पूछा करो न कि जो कर रहा हूँ वहाँ से कर्मों, कर्तव्यों की एक नयी श्रृंखला शुरू होती है या पुरानी श्रृंखलाओं का अंत होता है। ये प्रश्न पूछना बहुत ज़रूरी है — जो मैं करने जा रहा हूँ अब, उससे कर्म-कर्मफल-कर्तव्य की एक नयी श्रृंखला शुरू हो जाएगी, नया चक्कर या पुराने चक्करों का अंत होगा? ये पूछो।
तुम भाग रहे हो किसी लड़की के पीछे, किसी लड़के के पीछे, चलो, तुमने उसको पकड़ लिया, फिर? फिर एक चक्कर करोगे कि विवाह आयोजित करोगे, वो अपने आप में अच्छा बड़ा चक्कर है! फिर बच्चे पैदा होंगे, वो घनचक्कर हैं! ये देखो, अब चार और हैं छोटे-छोटे, वो भीतर अभी अपने घोंसले में पड़े हुए हैं! फिर अब इतने सारे हो गये कुटुम्ब, तो क्या चाहिए?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चाहिए!
आचार्य प्रशांत: घर चाहिए भाई, ये रेला लेकर के सड़क पर तो नहीं घूमोगे न। और घर कोई छोटा चक्कर है?
प्रश्नकर्ता: बहुत महँगा चक्कर है।
आचार्य प्रशांत: बहुत महँगा चक्कर है! अब जिस वृत्ति ने तुमसे ये सब करवाया है, वही वृत्ति कहेगी कि अब और भी कुछ करूँ। एक घर के बाद दूसरा घर हो सके तो यदि, गाड़ी इत्यादि तो चाहिए ही, वो तो कहने की बात ही नहीं। पहले छोटा फ़्रिज था फिर बड़ा फ़्रिज चाहिए, पहले दो अलमारियाँ थीं अब चार अलमारियाँ चाहिए। और ये तो शुरुआत है, फिर बच्चों का ब्याह, फिर बच्चों की शिक्षा, बच्चों की शादी, बच्चों की नौकरी, बच्चों की तरक्की, उनके रगड़े, झगड़े, लफ़ड़े।
अभी तो बस मोहिनी के पीछे भागे जा रहे हो, क्षण भर को रुक कर वो सब सोच लो कि आगे क्या है। और ये तुम्हारे जीवन का एक हिस्सा नहीं बनेगा, ये तुम्हारा जीवन ही खा जाएगा, ये तुम्हारा जन्म ही खा जाएगा, ये सबकुछ तुम अपने खाली समय में, पार्ट टाइम (आधे समय)में नहीं करोगे, ये तुम्हारा मुख्य, प्रथम और एकमात्र धन्धा बन जाना है। यही कर रहे हो अब, अब ये मनोरंजन नहीं रहा है, ये जीवन बन गया। ये ऐसा नहीं है कि विलासिता के लिए शाम को निकले थे कि अब जाते हैं, ज़रा सा मोहिनी से मिलकर आते हैं। अब ये शाम की बात नहीं है कि घंटे भर के लिए डेटिंग , अब ये सुबह से शाम भर की बात है और रात की भी, तो ये देख लेना!
वो कहानी शुरू करो जो कहानियों का अंत करे, वो कहानी मत शुरू करो जिससे हज़ार कहानियाँ और निकलती हों। तुम पहले ही कहानियों के मारे हुए हो, तुम पहले ही कहानियों में बहुत उलझे हुए हो, तुम्हें कहानियों से मुक्ति चाहिए, तुम्हें नयी कहानियाँ नहीं चाहिए। जो तुम्हारी कहानियों को विराम दे दे वो उचित है, वही शुभ है, वही करणीय है। या फिर ये कह दो कि पुरानी कहानियाँ बड़ी तृप्ति दे रही हैं, बड़ा आनंद है, ऐसा तो है नहीं। तो वहीं से सबक ले लो कि कुछ नया चाहिए; जो पुराने का ही विस्तार हो, उससे बचो। क्योंकि पुराने में यदि तुम्हें तृप्ति होती तो तुम तर ही गये होते। पुराने से अगर तृप्ति नहीं मिली, तो आगे कुछ ऐसा मत करो जो पुराने जैसा ही हो, आगे ऐसा कुछ मत करो जो सिर्फ़ पुराने का नया नाम हो। आगे कुछ ऐसा करो जो वास्तव में नया हो, जो वास्तव में नया हो उसको ही वर्तमान कहते हैं, उसी को शुभ कहते हैं, वही उचित है, वही करणीय है, वही प्राथमिक है, वही परमात्मा है।