जीवन का परमसुख क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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जीवन का परमसुख क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: जीवन का ऊँचे से ऊँचा सुख क्या है?

वक्ता: जीवन का ऊँचे से ऊँचा सुख क्या है, अब इसमें, ध्यान सारा परम सुख की ओर चला गया, जीवन का परम सुख।इसमें जीवन को भूल गए, सवाल तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे ‘जीवन’ पता ही हो। ‘जीवन तो हमें पूरा पता है, आप बस इतना बता दीजिये कि उसमें सुख क्या है?’ हो गयी ना गड़बड़? जीवन अपने-आप में पूरा-पूरा सुख है, उसमें कोई कांट-छांट थोड़े ही करनी है कि सुख इतना है और दुःख इतना है, और सुख में भी परम सुख इतना है। जो जीवन को जान जाए, उसके लिए ये प्रश्न ही महत्वहीन हो जाता है, फिर वो यह पूछेगा ही नहीं कि जीवन में परम सुख क्या है।

जो भी जीवन में परम सुख मांग रहा है वो जीवन के टुकड़े कर रहा है, वो जीवन को बांट रहा है, और जब भी तुम जीवन को बाँटोगे, तुमने खुद दुःख को बुला लिया। जीवन को जानते हो हम कैसे बाँटते हैं? हम कहते हैं, ‘अगर ऐसा-ऐसा परिणाम आया तब तो मैं अधिकारी हूँ खुश होने का वरना नहीं’, ये मैंने बांट दिया, मैंने शर्त लगा दी। मैंने कहा, ‘अगर तुम ऐसा-ऐसा करो तब तो तुम मेरे दोस्त हो वरना नहीं’, ये मैंने बांटा, शर्त लगा दी। अब मुझे दिक्कत होगी, दुःख होगा। अगर आज बादल निकल आये, तब तो मैं मानूंगा कि मैं सुखी हूँ और अगर धुप निकल आयी, पसीना आया तो मैं कहूँगा, ‘बड़ा दुःख है’। ‘अगर इतने हज़ार की नौकरी लग गयी तब तो मानूंगा कि सुख है, वरना बड़ा दुःख है’, अब तो तुम्हें दुःख मिलेगा क्योंकि जो तुम चाहते हो वो हो नहीं सकता क्योंकि उसके होने में हज़ार और कारण भी सहभागी हैं।

जीवन में कोई परम सुख नहीं है, जीवन ही परम सुख है। लगातार जो हो रहा है तुमने उसको ठीक से अनुभव नहीं किया इसलिए तुम्हें जीवन बहुत सस्ता लगता है। अभी यहाँ बैठे हो ना, ज़रा दो मिनट न लो, फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि साँस लेना कितना बड़ा सुख है। तुम कहोगे कि इस से बड़ा सुख हो नहीं सकता, पर ये तुम तभी मानोगे जब पहले दुःख मिले, जब पहले कोई तुम्हारी नाक बंद कर दे। जब मरने के करीब आ जाओगे तब मानोगे कि साँस लेने से बड़ा सुख हो क्या सकता था पर मैंने कभी धन्यवाद् नहीं दिया कि मुझे साँस लेने को मिल रही है। अपनी ही आँखें बंद करो और कल्पना करो कि ये आँखें कभी नहीं खुलेंगी, कि तुम अंधे ही हो गए, उसके बाद पता चलेगा कि ये देख पाना ही कितना बड़ा सुख है। ये जो तुम्हें मिला ही हुआ है, इसका तुम शुक्रिया कभी अदा करते नहीं, इसलिए इस से आगे के किसी सुख की तलाश रहती है।

मैंने कहा था ना, तुमने कभी इस बात का अहसान नहीं माना होगा कि गुरुत्वाकर्षण उतना ही है जितना आवश्यक है, कि एटमोस्फियरिक प्रेशर उतना ही है जितना है आवश्यक है। जानते हो एटमोस्फियरिक प्रेशर थोड़ा सा कम हो जाए, तुम्हारी एक-एक नस फट जाएगी?गुरुत्वाकर्षण दोगुना हो जाए, तुम चल ही नहीं पाओगे, तुम्हारा वज़न दोगुना हो जाएगा। हवा में ऑक्सीजन ज़रा सी कम हो जाए तो साँस नहीं ले पाओगे और ज़रा सी ज्यादा हो जाए तो सब कुछ जलने लग जाएगा। पर तुम इनमें सुख मानते ही नहीं, तुम्हें लगता है कि ये सब छोटी बातें हैं, इनमें क्या होता है, ये तो मिला ही हुआ है, ये सब तो हमारी क्वालिफिकेशन है। जैसे तुम्हारी कोई पात्रता हो, इस कारण ऑक्सीजन मिली हो, जैसे कि तुम्हारी कोई पात्रता हो इस कारण तुम्हें बुद्धि मिली है, देख पाने की क्षमता मिली है, सूंघ पाने की, और छू पाने की क्षमता मिली है। इनका तो जैसे कोई मोल ही नहीं है, ऐसे जीते हो। कभी इसका धन्यवाद् अदा करके देखो, उसके बाद इससे आगे का कोई सुख माँगोगे नहीं।

बैठे हो यहाँ पर और कितनी बीमारियाँ हैं जो हो सकती हैं और नहीं हो रही हैं। तुम में यहाँ कोई बैठा हो जिसके सर में दर्द हो या शरीर का कोई और हिस्सा हो जहाँ टूट-फूट हो, वो अच्छे से जानता होगा कि जब सर हल्का होता है तो उस हल्केपन की क्या कीमत होती है, पर तुम इस बात को ध्यान ही नहीं रखते ना। रात को सोते हो, कोई गारंटी होती है कि अगली सुबह उठ ही जाओगे? निश्चित रूप से उठना तुम तो तय नहीं करते। सो रहे हो, साँस तब भी चलती रहेगी, इसकी कोई गारंटी है। ये तुम नहीं तय करते, पर सुबह उठते ही तुम्हारे मन में अनुग्रह का एक भाव नहीं आता। अभी तुम्हारा लंच का घंटा था, खाना खा कर आये हो, खाना पच रहा है और तुम्हें कुछ भी नहीं पता कि वो कैसे पच रहा है। मैं तुमसे इतना ही पूछ लूँ कि कौन से एंजाइम हैं जो पचा रहे हैं, तुम बता नहीं पाओगे, और एंजाइम अगर बता भी दो, तो यह नहीं बता पाओगे कि क्या रासायनिक प्रक्रिया हो रही है। तुम्हें कुछ नहीं पता, खाना फिर भी पच रहा है, पर इस बात को तुम कुछ महत्व ही नहीं देते। अपने शरीर के अन्दर तुमने कभी झांककर नहीं देखा, तुम्हारे पास एक लीवर है, किडनी है, आँतें हैं, दिल है, फेफड़े हैं, मस्तिष्क है, इन्हें कभी देखा भी नहीं है, फिर भी ये अपना काम कर रहे हैं। तुम समझते हो ये कितनी बड़ी बात है? और तुम कह रहे हो जीवन में और क्या परम सुख है, और क्या परम सुख होगा? तुम्हारा ये जो मतिष्क है, ये काम करे जा रहा है, करे जा रहा है और बिना तुम्हारी किसी पात्रता के काम करे जा रहा है, तुमने कमाया नहीं है, ये तुम्हारी योग्यता नहीं है, ये तुम्हें पारिश्रमिक नहीं मिला है किआपका मस्तिष्क ठीक काम करेगा क्योंकि आप बड़े बहादुर हैं। आप जैसे भी हैं, ये काम करता है।

और कुछ सुख नहीं है जीवन में। जीना ही सुख है। तुम इस बात की कीमत समझ रहे हो कि तुम रोशनी देख पाते हो, हरियाली दिखाई दे रही है, कि तुम चल पाते हो, कि तुम्हें समझ में आता है, कि तुम शांत हो पाते हो, इनकी कीमत जानते हो तुम? जीवन मिला है, जीवन में ऐसे कुछ लोग हैं जिनसे तुम प्रेम करते हो, इस बात की कीमत जानते हो? और तुम्हें अब क्या चाहिए?किस बात की महत्वकांक्षा है?

श्रोता २: सर जो हम खाना खाते हैं, और जो एंजाइम बनते हैं, वो भी बाहर से आते हैं।

वक्ता: जैसे खाना बाहर से आता है, वैसे ही साँस भी बाहर से आती है। तुम कोशिश करो साँस न लेने की।

श्रोता २: हो पा रहा है।

वक्ता: हो रहा है? तुम अगर रोक भी दो कुछ क्षणों के लिए कि मैं सांस नहीं लूँगा, तो भी थोड़ी देर में पाओगे कि हाथ अपने-आप हट गया, साँस आने लगी। ठीक इसी प्रकार,तुम जिस खाने की बात कर रहे हो, चूंकि वो शरीर की इच्छा है, वो शरीर को ही चाहिए, तो शरीर स्वयं चल-चल कर उसका जुगाड़ करता है, तुम शरीर को रोक ही नहीं पाओगे। जैसे तुम नाक को नहीं रोक सकते साँस लेने से, वैसे ही तुम भूख को नहीं रोक सकते अपनी सामग्री जुटाने से। तुम ये पूछते हो, जब नाक पर हाथ रखते हो तो कैसे हाथ अपने आप हट जाता है? अन्दर से प्राणों की शक्ति उठती है जो हाथ को हटा देती है कि साँस आने दो, ठीक उसी तरह से प्राणों की शक्ति उठती है जो कहती है कि भोजन खोज लो और वो तुम्हारे भीतर ही नहीं, हर जानवर, हर पौधे के भीतर उठती है।

श्रोता ३: सर, खाने के लिए पैसा कमाना ज़रूरी है।

वक्ता: अगर तुम्हें सिर्फ उतना पैसा चाहिए जितने से खाना आ जाए तो बेशक पैसा कमाओ। और खाना जितना खाते होइस उम्र में, या अगले पांच साल और दस साल तक, जितना अभी खाते हो उस से पंद्रह गुना नहीं खाने लगोगे पांच साल बाद, तोअगर तुम्हें अगर उतना ही कमाना हो जितने से तुम्हारा खाना आता है तो बेशक कमाओ। पर दुनिया को देखो, ये सब लोग जो कमाने के लिए पागल हो रहे हैं, क्या ये इस खातिर कम रहे हैं कि खा सकें? ये खाने के लिए नहीं पागल हो रहे, ये अपने लालच के पीछे पागल हो रहे हैं। इनका दिमाग असंतुलित है इसलिए पागल हो रहे हैं। खाना तो तुम आज भी खाते हो, तो कितना खर्च करते हो खाने पर? हज़ार, दो हज़ार, पाँच हज़ार। और कितना खर्च कर लेते हो? पर लोग क्या इतना कमाने के लिए घूम रहे हैं? तो यह बेकार का तर्क मत दो कि खाने के लिए आदमी को कमाना पड़ता है। तुम खाने के लिए नहीं कमाते, तुम अपने लालच के लिए कमाते हो।

श्रोता ३: सर समाज के लिए…

वक्ता: समाज के लिए कमाते हो। तुम इसलिए कमाते हो कि समाज में तुम्हारी इज्ज़त बनी रहे। वो जो आज का पहला सवाल था कि मैं अपने आप को जानता ही वही हूँ जो दूसरे मुझे बताते हैं, तुम कमाते इसलिए हो जिससे दूसरे आकर ये कह सकें कि तुम बड़े इज्ज़तदार आदमी हो। पर मन ऐसे कुतर्क खोजता है और ऐसे झूठ बोलता है, कि मैं तो खाने के लिए कमा रहा हूँ। कितना खाते हो भाई, जो इतना कमाना पड़ता है?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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