प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जैसे पहले दुनियादारी बोझ लगती थी, अब सत्य को जानना, अध्यात्म में उतरना भी एक दायित्व लगता है, वासना ही लगती है। हर वक़्त बोझिल रहता हूँ, सहज नहीं हूँ; चाहता हूँ कि सत्य अभी मिल जाए। कृपया मदद करें।
आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं, विचार करिएगा। पहली तो ये कि बोझ तो है ही। आप अगर अध्यात्म का बोझ उठाने को तैयार नहीं हैं तो दुनियादारी का बोझ है। ये अपेक्षा क्यों कर ली आपने कि जीवन स्वतः ही मज़े में निर्बोझ हो जाएगा? हम अपनी वस्तुस्थिति को लेकर बड़ी ग़लतफ़हमी में रहते हैं। हमको लगता है कि हम इंसान हैं तो हम कोई बहुत बड़ी चीज़ हैं, हमारी शिक्षा इत्यादि ने भी तो हमें यही सिखाया है न कि सब पशुओं, सब प्राणियों से ऊपर होता है…?
श्रोतागण: मनुष्य।
आचार्य: मनुष्य। और कतिपय संतजन भी यही बोल गए हैं कि मानुष जन्म मिला है जो अतिश्रेष्ठ और दुर्लभ है, तो हमको लगता है कि इंसान हैं तो हमें तो कुछ सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए। हम अस्तित्व से कुछ प्रिवलिजेस (विशेषाधिकारों) की माँग करते हैं, जिनमें से एक ये है कि बोझ इत्यादि कम रहे। हमें लगता है कि जैसे हमारा अधिकार ही है एक स्वस्थ, मस्त, निर्बोझ स्वर्णिम जीवन, पर ऐसा है नहीं।
कृपया मन से ये धारणा निकाल दें कि हम पैदा हुए हैं किसी प्रकार का आनंद इत्यादि भोगने के लिए। ये धारणा अगर आप रखते हैं, तो इस धारणा से आगे न जाने कितने दुःख पैदा होते हैं। एक बार आपने मूलतः ये उम्मीद बाँध ली कि इंसान पैदा हुए हो तो अधिकृत हो मुक्ति के लिए या आनंद के लिए, स्वच्छंदता के लिए, तो फिर जब क्लेश, दुःख और बंधन आते हैं तो दिल बड़ा टूटता है।
तुम कहते हो कि “हमें तो बताया गया था कि मानुष जन्म दुर्लभ और सर्वश्रेष्ठ है, हमें तो बताया गया था कि भगवान का पसंदीदा जीव है इंसान, और यहाँ तो जहाँ जाओ, वहीं पटाखे बजते हैं। ये कौन-सा सर्वश्रेष्ठ जन्म हमको मिला है? हमको तो बोला गया था कि चौरासी लाख योनियाँ पार करी हैं, तब जाकर ये पुरस्कार-स्वरूप जीवन मिला है। ये कैसा पुरस्कार है कि जिसमें पिटाई-ही-पिटाई है?” फिर दिल बहुत टूटता है।
मैं सबसे पहले आपके मन से ये भ्रम हटाना चाहूँगा। मनुष्य जीवन कोई पुरस्कार इत्यादि नहीं है। अगर वो पुरस्कार है भी, तो उसे मानिए कि वो बड़ा कठिन पुरस्कार है। क्या है?
प्र: कठिन पुरस्कार है।
आचार्य: कठिन पुरस्कार है। जैसे कि किसी दुबले-पतले और कमज़ोर प्राणी को आप तोहफ़े में जिम की मेंबरशिप (सदस्यता) दिला दें। अब पुरस्कार तो दिया है, तोहफ़ा है बिलकुल, भेंट दी है, क्या दी है भेंट? व्यायामशाला का आपने उसको सदस्य बना दिया, साल भर का आपने अग्रिम भुगतान कर दिया। आपने कहा, "सालभर की मेंबरशिप फ़ीस मैंने जमा कर दी है, तुम्हें जाना है बस।" वो कह रहा है, “वाह! क्या तोहफ़ा मिला है!”
पर ये बड़ा कठिन तोहफ़ा है, तोहफ़ा तो है इसमें कोई शक़ नहीं। तोहफ़ा ऐसे है कि संभावना जो है तुम्हारी, वो अब जागृत हो सकती है। दुर्बल बने रहना तुम्हारी नियति नहीं। बलवान हो जाने की तुम्हारी संभावना अब इस तोहफ़े के कारण जागृत हो सकती है। पर संभावना भर दी गयी है, उस संभावना को साकार तुम्हें ही करना है और बहुत श्रमपूर्वक करना पड़ेगा। अब तुम कहो कि “हमें तो बताया गया था कि देने वाले ने हमें अनुपम भेंट दी है, प्यार का तोहफ़ा दिया है, पर यहाँ तो वज़न उठवाया जा रहा है। बड़ा बोझ है।” तो बोझ नहीं होगा तो और क्या होगा?
भूल गए कि दुनिया क्या है? दुनिया मुफ़्त में मिली हुई जिम की मेंबरशिप है। मानव जन्म मुफ़्त में मिली हुई जिम की मेंबरशिप है, तो बोझ तो अब मिलेगा ही न। पर अगर वो बोझ आपने ठीक से उठाया तो बलवान हो जाएँगे और गड़बड़ उठाया तो हाथ-पाँव सब तुड़ा बैठेंगे।
जिम में अंदर इंस्ट्रक्टर (प्रशिक्षक) भी होता है, बोझ ही नहीं होते। जहाँ बोझ है, वहीं आस-पास घूम रहा होगा एक, उसकी शरणागत हो जाइए, कहिए कि, "बोझ तो हैं, अब ये भी बता दीजिए कि उठाना कैसे है।"
आप दोनों ही बातों से चूक नहीं सकते, पीछा नहीं छुड़ा सकते। आप कहें कि बोझ नहीं उठाना तो आपने तोहफ़े का अपमान किया; आपको जो मुफ़्त का अवसर मिला था, आपने उसको भुनाया नहीं। तो बोझ तो उठाने पड़ेंगे, लेकिन अगर आपने इंस्ट्रक्टर से पूछे बिना बोझ उठा लिए, तो नुकसान ज़्यादा होगा, लाभ कम। तो दोनों काम करने पड़ेंगे।
बोझ तो उठाना-ही-उठाना है। कोई ये उम्मीद माने ही मत कि दुनिया माने हवा के पंखों पर तैरेंगे, बोझ कैसा, गुरूत्वाकर्षण भी नहीं होगा!
भूलना नहीं, दुनिया क्या है? व्यायामशाला। यहाँ बोझ-ही-बोझ है। ठीक से उठा लो, कुछ बन जाओगे, गड़बड़ उठाया, तो टूट जाओगे। उठाने तो पड़ेंगे, उठाए बिना कोई काम नहीं चलेगा।
अध्यात्म क्या है?
बोझ को ठीक से उठाने की कला। सही बोझ का चुनाव, ग़लत बोझ का त्याग। बहुत तरह के वज़न रखे होते हैं, हर वज़न तुम्हारे लिए नहीं है। ग़लत वज़न अगर चुन रखा है तो तुरंत उसको त्याग दो। सही वज़न की ओर, सही अभ्यास, सही व्यायाम की ओर अगर तुमने उपेक्षा रखी है, तो उपेक्षा से बाज़ आओ। कुछ काम करने पड़ेंगे, कुछ काम छोड़ने पड़ेंगे।
क्या करने योग्य है, क्या छोड़ने योग्य है, इसी को जानने का नाम है अध्यात्म।
अध्यात्म का मतलब ये नहीं है कि व्यायामशाला छोड़कर जंगल भाग गए। जंगल भागोगे, वहाँ भी बोझ ही उठाना पड़ेगा, वहाँ दूसरे तरह के बोझ हैं।
और मैंने कहा था, दो बातें हैं। दूसरी बात ये है कि जब आप कहते हैं कि सत्य की तलाश भी एक बोझ जैसी लगती है, तो किसकी तलाश? सत्य के बारे में ज़रूर आपके पास कोई छवि होगी, कोई मान्यता होगी, उसी की तलाश कर रहे होंगे। सत्य की तलाश करना छोड़ ही दें, अभी आप झूठ की ही ओर ईमानदारी से तलाश करें।
सत्य की कोई तलाश नहीं हो सकती। हालाँकि हम अकसर पढ़ते हैं इस तरह की बातें − 'सत्य का अनुसंधान', 'सत्य के साधक', 'सच्चाई की खोज', इस तरह की बातें पढ़ते हैं न? लेकिन वस्तुतः सत्य की कोई खोज हो नहीं सकती। हाँ, सत्य के आशीर्वाद से, सत्य की प्रेरणा से झूठ की खोज ज़रूर हो सकती है। सच वो रोशनी है जिसमें झूठ साफ़ दिखाई पड़ता है। सच की रोशनी में अगर तुम्हें कुछ दिखेगा भी, तो क्या दिखेगा? झूठ ही दिखेगा। जब भी दिखेगा, दिखेगा झूठ ही।
तो सच को खोजना छोड़ो, सच से तो बस प्रार्थना करो, “हे आदित्य! प्रकाश कर ताकि हम झूठ को देख पाएँ।”