वक्ता: खलक सर नाम अपने को बहुत कर सर पटकता है
हमन गुरुनाम साँचा है , हमन दुनिया से यारी क्या।
गुरुनाम। कबीर का वो बड़ा अब्यूज्ड सा दोहा है:-
गुरु गोबिंद दोनों खड़े , काके लागू पाए
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताए।
उसका अर्थ क्या है? काफ़ी ज्यादा?
वक्ता:- इसका अर्थ क्या है? ये काफी… इस दोहे के साथ बड़ा अन्याय होता है। इसका अर्थ क्या है?
गुरु गोबिंद दोनों खड़े, काके लागू पाए
ठीक है यहाँ तक बात, दो खड़े हैं, दो दिख रहे हैं, अभी दो दिख रहे हैं किसके पास जाऊँ कहाँ नमन करूँ? गुरु ने क्या किया? निश्चित रूप से आप गोविन्द को जानते नहीं। गोविन्द तो निराकार है, वो आपके सामने आता भी नहीं ऐसे। तो गोविन्द को आप जानते नहीं। शरीर रूप में तो आप गुरु को ही जानते हैं। तो सामने दोनों खड़े हैं, तो आप किसकी ओर देखोगे? गुरु की ओर ही देखोगे। क्या करूँ? और गुरु क्या कह रहा है?
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताए।
वो गोविन्द की ओर इशारा कर रहा है कि उधर जा उधर नमन कर। वो ये नहीं कह रहा है कि, ‘’मेरे पाँव छू लो।’’
गुरु का अर्थ है: रास्ता जो गोविन्द तक जाता है ,
वही है, यहाँ पर ठीक बात। और गुरु वो है, जो अपनेआप को बस..
श्रोता: मीडियम।
वक्ता: रास्ता ही समझे। जिस गुरु को ये लगने लग गया कि, ‘’मैं तो, मैं ही तीर्थ स्थान हूँ, आओ!’’ वो फिर गुरु नहीं है वो अब शोषण कर रहा है। या कि ये कहो कि वो खुद ही नासमझ हो गया है। उसकी अपनी ही बुद्धि खराब हो गई है। इस दोहे में कहीं से ये नहीं है कि जा के गुरु के पाँव पहले छूओ।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताए।
हाँ, आप गुरु को जानते हो, आप गुरु के पास ही पहले जाओगे। आप जैसे ही गुरु के पास पहुँचे तो गुरु ने कहा कि, ‘’मैं नहीं, उधर जा।’’ हाँ, फिर ठीक है आप ये कह सकते हो कि उसकी ओर जाने के लिए भी पहले आपकी ओर ही आना पड़ा। तो पहले तो आप ही हो। ये कह सकते हो लेकिन गुरु नहीं कह रहा है आकर… तो जो
हमन गुरुनाम साँचा है ।
तो अर्थ बस.. यहाँ पर ज़ोर गुरु पर नहीं है। बिलकुल भी नहीं है। ये बात बिलकुल ठीक रखना कि ज़ोर गुरु पर नहीं है। कोई भी वास्तविक गुरु अपने को महत्ता देगा नहीं क्यूँकी उसको पता है कि उसमें और तुममे कोई अंतर नहीं है। दोनों एक हो, शरीर रूप में तो दोनों एक ही हो और आत्मा रूप में भी एक हो तो अंतर कैसा है? कोई भी गुरु घूम-फिर कर के तुमसे यही कहेगा कि वास्तविक गुरु तुम खुद हो अपने। वास्तविक गुरु तुम्हारे ही भीतर बैठा है तो ये ‘गुरुनाम’ का मतलब यहाँ पर किसी और का नाम नहीं है कि बाबाजी का नाम।
श्रोता: सर, वैसे कबीर तो सीधी-सीधी बात कहते हैं, घुमा-फिरा के बात करते नहीं हैं लेकिन इसमें इन्होने कंफ्यूज़िंग…
वक्ता: बिलकुल कबीर ने नहीं घुमाया है। तुम मुझे बताओ बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताए। इसमें क्या दुविधा है? हमें अर्थ का अनर्थ करना है न। कबीर के बाद बड़े गुरु हुए, जिनको ज़रूरी था कि दुकान चलाएँ तो उन्होंने उसके तुमको दूसरे अर्थ दे दिए वही कक्षा 6 में मैडम ने बता दिया कि कबीर बोल रहे हैं कि जा के गुरु के पाँव पहले छूना। कबीर नहीं कह रहे हैं कि गुरु के पाँव पहले छूना। कबीर भी जानते हैं कि सत्य तो एक ही है: गोविन्द। गोविन्द का मतलब? गोविन्द मतलब सत्य, परम। तो ‘गुरुनाम’ से अर्थ यही है कि अपना नाम, आत्मदर्शन। किसी और गुरु का नाम नहीं है ये कि फ़लाने, महाराज श्री श्री 1008 अखंड प्रताप उनका किसी का नाम नहीं है ये। किसी देवी, देवता का नाम नहीं है, किसी इश्वर,अल्लाह का नाम नहीं है ये बस एक नाम है अनाम। वही सत्य है। और फिर जब आगे कहा जा रहा है कि ‘हमन दुनिया से यारी क्या’ तो उसका ये मतलब नहीं है कि दुनिया छोड़ देनी है, उसका अर्थ ये है कि परम यार तो एक ही है। और जो बाकी सब हैं, उनसे यारी इस कारण है कि वो इसके रूप हैं। उनकी अपनेआप अन्यथा कोई सत्ता नहीं।
शरीर से तुम किसी से यारी कब तक करते हो? जिस क्षण तक वो जिंदा है। मैं अभी यहाँ बैठा हूँ, मेरी बात सुन रहे हो, अभी मैं मर के गिर जाऊँ तो बोलोगे डेड बॉडी को क्लियर करो। तो अभी तुम्हें ये शरीर कीमती है क्यूँकी ये शरीर अभी प्राणवान है, उस प्राण को समझो। वही केंद्र में है, वही जान है, वही असली है वरना इस शरीर से क्या प्यार है तुमको। तुम्हारे जो सबसे प्यारे लोग होते हैं तुम खुद जला के आते हो उनको कि पड़ौसी आता है जलाने?
तो ये बोतल बड़ी प्यारी है। ये बोतल इसीलिए प्यारी है क्यूँकी इस बोतल का प्राण वो एक है। दुनिया को ऐसे देखना है। ये आसमान बहुत प्यारा है इसीलिए नहीं कि इसका रंग नीला है कि इसमें एंटरटेनमेंट है या ऐसा कुछ। ये आसमान बहुत प्यारा है क्यूँकी इस आसमान का प्राण वो एक है। ये व्यक्ति बहुत प्यारा है क्या प्यारा है? अभी ये गिर जाए अभी इसको हम ही आग लगाएँगे। शाम तक ये शांतनु (एक श्रोता को इंगित करते हुए) भस्म और शांतनु भी नहीं बोलेंगे उसको, कोई नहीं बोलेगा कि शांतनु जल रहा है। बॉडी जल रही है। तो उसको जानो जो वास्तविक शांतनु है और उसी तरीके से पूरी दुनिया को देखो। ये दीवाल बहुत प्यारी है इसलिए नहीं कि इसका रंग-वंग आकर्षक है।
ये दीवाल प्यारी है क्यूँकी इस दीवाल में भी तो वही बैठा है न? दुनिया से यारी नहीं है, दुनिया में वो एक है, जो दिखाई दे रहा है उससे यारी है। इस कारण दुनिया प्यारी है। दुनिया में अपनेआप में कुछ नहीं रखा है, दुनिया अपनेआप में फ़ालतू है, दुनिया अपनेआप में वो बॉडी है, जिसको तुम आग लगा दोगे। जो बॉडी के भीतर बैठा है वो प्यारा है, उसको जानो, और वो सिर्फ़ इस बॉडी के भीतर ही नहीं बैठा है, वो पत्थर में भी बैठा है, नदी में बैठा है, पहाड़ में बैठा है। वो दृष्टि विकसित करो, जो उसको बहते पानी में देख पाए, जानवर में देख पाए हमारे पास वो आँख नहीं है, जो चिड़िया में भी उसको देख पाए। हमारे पास वो आँख नहीं है न, जो मुर्गे और बकरे में भी उसको देख पाए। इसी कारण तो तुम काट देते हो।
श्रोता: सर, सत्य को जानने के लिए मन में व्याकुल हुआ जा सकता है?
वक्ता: जितने तुम हो, जितना नहीं जानोगे ठीक उतने ही व्याकुल तो तुम रहोगे ही। तो उसमें कोई लिमिट नहीं है। वहाँ पर तो जो पूरा नियम है, वो तो काम कर ही रहा है। नियम सीधा-सीधा यही है: मन जितना अँधेरे में रहेगा, उतना ही रौशनी के लिए तड़पेगा, यही नियम है।
श्रोता: सर, इस पर कबीर का एक दोहा है:
के आपा दिखलाए।
आठ पैर का डाचना, मोके सहा न जाए।
वक्ता:- ये कबीर इसको व्यक्त कर रहे हैं। कबीर की अभिव्यक्ति दोहे के माध्यम से है, तुम्हारी अभिव्यक्ति दूसरे माध्यमों से होती है। कबीर थोड़े होशियार हैं तो साफ़-साफ़ इन शब्दों में कहते हैं पर तुम दूसरे शब्दों में कहते हो तुम्हारे शब्द जानते हो क्या हैं? तुम्हारे शब्द ये हैं – आज सन्डे है, फ्राइडे को नयी रिलीज़ कौन सी हुई है?
श्रोता: रामलीला (एक पिक्चर का नाम)
वक्ता: हाँ, हाँ चलो-चलो, जल्दी से चलो देख कर आते हैं। ये तुम ठीक वही कर रहे हो, जो कबीर की व्याकुलता है। यार *विंटर कलेक्शन*अब आ गया होगा, बढ़िया वाला, नया वाला ये क्या ये ग्रे सा पहन रखा है फ़ालतू चलो देख के आते हैं वाट्स हॉट दिस सीजन। ये तुम बिलकुल मीरा हो अभी, पर मीरा को समझ में आ गया था कि उसे कृष्ण चाहिए, तुम कृष्ण को स्वेटर में ढूँढ रहे हो। ये कहते हो न आज कल *कन्ज्युमरिज्म*बहुत बढ़ गया है ये कन्ज्युमरिज्म नहीं है, ये भक्ति है। ये भक्ति है, जो जानती भी नहीं कि भक्ति है। ये कन्ज्युमरिज्म वगैरह नहीं है, तुम्हें भी तो वही चाहिए, यही व्याकुलता है। तुम पूछ रहे हो कितना व्याकुल हुआ जा सकता है?
तुम देखो न लोग व्याकुल तो हैं ही। जिसको देखो वही कटोरा लेकर घूम रहा है थोड़ा सा और कुछ दे दो, थोड़ा सा और कुछ दे दो ये व्याकुलता नहीं है? और व्याकुलता एक ही है। भूलना नहीं हमने क्या बोला था। हम सब उसी प्रतीक्षा में खड़े हुए हैं मुदित जी उसी की प्रतीक्षा में है। वही व्याकुलता है, पर पता भी नहीं है कि किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं इसलिए कुछ और करने लग जाते हैं। वो प्यार जो पूरी सृष्टि पर बरसना चाहिए, वो हम कपड़ों पर बरसाना शुरू कर देते हैं। मेरे कपडे बड़े अच्छे रहे।
श्रोता: सर, जिसको ये समझ मे आ गया कि वही चाहिए उसको एक्चुअली मिल ही गया?
वक्ता: उसको मिल गया। बहुत बढ़िया। आखरी कदम पर पहुँच गया वो एक कदम और लेगा और उड़ेगा। जिसको ये समझ में आ गया न कि साड़ी की तलाश, ‘एक’ की ही तलाश है अब समझ लो बिलकुल 99 कदम ले लिए हैं सौवें पर बैठा हुआ है, अब तैयार है उड़ने को वो। अभी उड़ा नहीं है, एक कदम अभी और लेना पड़ेगा पर अब तैयार है। जब भी देखो कि बहुत किसी भी चीज़ की डिज़ायर उठ रही है, कहीं भी अट्रैक्ट हो रहे हो, तो समझ लेना कि बस ‘उसी’ की डिज़ायर है। ‘उसी’ की डिज़ायर है।
भारत में इस बात को बहुत समझा गया है इसलिए हर चीज़ को यहाँ बहुत प्रणाम कराया गया है। कुछ नहीं है, जिसको कि कहा गया है कि प्रणाम न करो। इसको आप पैनथीज्म मत समझिएगा इसको जो पश्चिमी है न, वो समझ नहीं पाता तो वो कहता है कि भारतीय लोग हर चीज़ को गॉड कहते हैं हर चीज़…. इनके इतने करोड़ देवी देवता हैं। नहीं ये बात ये नहीं है, बात एक संख्या की नहीं है बात 66 करोड़, 33 करोड़ की नहीं है बात इसकी है कि असंख्य है असीमित है। अनेक है; अनेक हैं नहीं।
जब आप कहते हैं अनेक इश्वर हैं, तो आप बिलकुल दूसरी बात कह रहे हैं। ‘अनेक हैं नहीं, अनेक है’। है एक, पर है अनेक। एक ही है, पर अनेक है और ये अनेक होना, उसकी एकता का हिस्सा है। इस्लाम में इसी बात को शिर्क बोला जाता है। टू बिलीव इन अ गॉड अदर देन अल्लाह और इस्लाम की सनातन धर्म से एक बहुत बड़ी शिकायत ही ये है कि तुम बहुत सारे ईश्वरों में यकीन करते हो, बहुत सारे कैसे हो सकते हैं? बहुत सारों में यकीन नहीं किया जा रहा है, एक में ही किया जा रहा है पर वो जो एक है, वो अनेक है।
वो कण-कण में है, वो हर जगह है, वो सब में है बहुत सारों में नहीं कोई ये कर रहा है, एक ही है और जो कहता हो कि बहुत सारे हैं वो पगला है। आपको मिल जाएँगे लोग जो कहते हैं बहुत सारे हैं एक लक्ष्मी मैया है, एक फ़लाने बप्पा हैं, एक ये हैं, एक धमाका हैं, पडाका हैं वो कुछ नहीं समझ रहे, वो पागल है, वो नहीं जान रहे। अनेक नहीं हैं। अनेक है; एक है जो अनेक है।
श्रोता: अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्ति है।
वक्ता:- हाँ।
श्रोता: मतलब वो तात्विक दृष्टि से बोला गया है अनेक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है पर मेन जो उसका ….
वक्ता:- वो एक ही है। वेदांत की नज़र से एक है और बुद्ध की नज़र से शून्य है। उन्होंने कह दिया एक भी कहना ठीक नहीं शून्य बोलो।
जो भी डिजायर उठे अनेक की। अनेक की जो भी डिजायर उठे, उसमें एक को देखिये, फिर मज़ा आएगा। सामने आपके बर्गर रखा हुआ है, वो किंग साइज़ बर्गर और उसमें अगर आपको एक क्षण को ये कौंध भी जाए बात कि ब्रह्म है, तो जानिए कि कुछ ख़ास होने लग गया है अब। मज़ेदार होने लग गया है। जो जानता है, वो पूरे जगत के साथ प्रेम में होता है और पूरे जगत को प्रणाम करता है। पूरे जगत को प्रणाम करता है लगातार। वो क्लास रूम में जाएगा, तो अपने स्टूडेंट्स के सामने झुकेगा, स्टूडेंट थोड़ी बैठे हैं, ये कौन बैठा है?
श्रोता: ब्रह्म।
वक्ता: उसे कोई…. आज शुरुआत में था कि सनातन धर्म। तंत्र जो यहाँ पर एक धरा विकसित हुई, वो कहती है कि जब आदमी और औरत मिलें, स्त्री और पुरुष मिलें, प्रेम के क्षण में और शारीरिक रूप से मिलने जा रहे हों, तो पहले एक दूसरे को प्रणाम करें। नोचना-खसोटना न शुरू कर दें। पहले प्रणाम करिए और उसको भी बड़े नमन के भाव से, बड़ी श्रद्धा के भाव से ठीक वैसे ही आरती उतारिये जैसे इश्वर की उतारी जाती है। उसके बाद ही स्पर्श कीजिए एक दूसरे को। तो सम्भोग भी फिर दैवीय है। फिर उसमें भी फिर वो कुछ नहीं है कि अरे डिज़ायर में बह गए, तुम साले पापी हो। न कुछ नहीं ऐसा कुछ नहीं। ये भी दैवीय कृत्य है।
पर फिर आपको उस कृत्या में उतरना भी ऐसे होगा जैसे कि वो दैवीय है। उसकी दैवीयता को देखना होगा। ऐसे नहीं कि फिर उसमें चोरी-चकारी चल रही है, और फिर धीरे से हाथ डाल दिया। जैसे मंदिर में घुसा जाता है कि पहले आपनेआप को मंदिर में जाने से पहले नहाते हो, तैयार होते हो, मन साफ़ रखते हो और एक नमन के भाव के साथ मंदिर में प्रवेश करते हो, ठीक वैसे ही।
श्रोता: ओशो ने एक बार कहा था कि इन कृत्यों के लिए एक अलग से कमरा होना चाहिए, इनको बिलकुल पाक माना जाना चाहिए।
वक्ता: इनके लिए भी और पूरे जीवन के लिए भी। जीवन में हर एक चीज़ पाक है, कुछ भी नकारे जाने योग्य नहीं है। आप चल रहे हैं तो ये भी एक पाक कृत्या है; कोई न कहे कि चलन अपक कृत्या नहीं है। पर आधुनिक समय के सिद्धांतों के अनुसार ये सही नहीं बैठता क्यूँकी जीवन में दो भाग किये गए हैं: एक ज़रूरी और एक गैर ज़रूरी। जैसे ही आपने कहा कि पूरा जगत दैवीय है, अब वैसे ही आप गोल्स नहीं बना सकते न। टारगेट ख़त्म। जब सब कुछ दैवीय है तो कोई टारगेट, ख़ास टारगेट कहाँ से हो सकता है? अब दिक्कत यहाँ पर आती है, आपको अगर एक लक्ष्य बनाना है, आपको अगर भविष्य में ध्यान केंद्रित करना है, तो आपको ये मानना ही पड़ेगा कि कुछ ऐसा है, जो छोटा है और कुछ ऐसा जो बड़ा है। और जो बड़ा है, वो मुझे पाना है।
जब आपको दिखने लग गया कि सब कुछ परम बड़ा है, बड़ा ही नहीं है परम बड़ा है, तो आपको फिर वर्तमान में जीना ही पड़ेगा। यही अर्थ है वर्तमान में जीने का। सब कुछ तो वही है और छोड़ के जाऊँगा कहाँ इसको? सब कुछ वही है, उस एक के आलावा और है क्या?
श्रोता: सर, फिर एक *कन्फ्यूज़न*भी हो सकता है इसमें कि अगर असंख्य संभावनाएं हैं हमारे पास कार्य की, तो फिर हम करेंगे क्या?
वक्ता: फिर तुम जो भी करो, उससे फ़र्क नहीं पड़ता।
श्रोता: फ़र्क क्यूँ नहीं पड़ता?
वक्ता: अब वो परम फ्रीडम है कि हम जो भी करें की फ़र्क पैंदा है? जो भी मन में आए करो। जो ही उचित है, जिधर को भी …ये मन के साथ गहरी मित्रता है कि अब तू जिधर को जाता है, चल हम तेरे साथ हैं। अरे! अपना ही बाघ है। उस फूल की तरफ जाएगा तो भी ठीक है, उस फूल की तरफ़ जाएगा तो भी ठीक है और कहीं नहीं जाना यहीं लेट के। सो जा तो भी ठीक है। कुछ भी गलत है ही नहीं ।
श्रोता: लेकिन यहाँ पर हम एब्सोल्युट फ्रीडम की बात कर रहे हैं, उसमें तो हम ये कहें कि हम राईट साइड पर भी गाडी चलाएँगे।
श्रोता: क्यूँकी मन ने ज़रूरी और गैर-ज़रूरी में विभाजित किया हुआ है।
वक्ता: यही तो बात है न कि बहुत सारी चीज़ें हैं, जो वापस खींच-खींच के लाती हैं। और ठीक है उनको लाना भी चहिए। वो हमारा दंड है। वो पैदा होने का टोल टैक्स है। पैदा हुए तो कुछ तो दंड भरना पड़ेगा न?
श्रोता: नहीं सर, अगर गाड़ी चलाते समय समझ आ जाए कि आप क्यूँ ये सब कर रहे हो, तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो बहुत इज़ी है इंडिकेटर देने में भी एफ़र्ट नहीं लगता फिर। ठीक है।
श्रोता: वो था न कि मन हमेशा निष्कर्ष निकलना चाहता है तो फिर लगता है उस माइंड की भी कोई गलती नहीं है, वो जिस समाज में बड़ा हुआ है जिस समाज में उसने भरा है स्वयं को, वहाँ से उसे सिखाया ही यही गया है कि हर चीज़ ऐसी होती है या तो बेनेफिसिअल होती है या नॉन *–*बेनेफिसिअल होती है। तुम चल रहे हो इससे क्या फायदा है?
वक्ता: फायदा है। तुम देखो न फायदे और नुक्सान की सारी धारणा ही ये है कि कुछ है जो छोटा है और जहाँ तुम्हें घाटा है। और कुछ है, जहाँ फ़ायदा है। और वो तुम्हें तय करना है कि फ़ायदा कहाँ है और उसके लिए दिमाग लगाओ, बुद्धि लगाओ, खुराफ़ात करो, एनालिसिस करो।
श्रोता: एंड द माइंड कम्स इन्टू बीइंग। एज़ इफ़ ही इज़ डूइंग समथिंग।
वक्ता: एज़ इफ़ वी आर डूइंग समथिंग, एज़ इफ़ वी आर समबडी।
श्रोता: ये पता नहीं कहाँ मैंने ही लिखा है शायद या किसी और ने लिखा है, ‘द माइंड थिंक्स दैट इट्स टू बिजी दैट, दैट इज़ द ओन्ली वे ऑफ़ प्लेयिंग अराउंड।’
श्रोता: और ये मॉडर्निटी का पूरा प्रीमाईस ही एक्चुअली एंड बेस्ड है। तो जब वो एंड बेस्ड होगा, तो जो मीन्स हैं वो सारे एंड बेस्ड ही हो जाएँगे। तो मीन्स का खुद में कुछ मतलब नहीं बनता, तो जो प्रोसेस है अभी का जो है, वो सारा एंड के प्रति हो जाएगा। तो मेरा पढ़ना तभी सार्थक है, जब मैं पास हो जाऊँ। अगर पास नहीं हुआ, तो पढना निरर्थक रहा। तो द एनटायर प्रीमाइस इज़ टोटली एंड बेस्ड। एंड वेलिडेट्स द मीन्स।
वक्ता: जीवन को ऐसे जीया जाए जैसे लगातार पूजा कर रहे हैं।
जीवन को ऐसे जीया जाए जैसे एक अनवरत प्रार्थना है।
श्रोता: लेकिन सर, फिर जो चीज़ आप रेगुलरली करते हैं, उसमे कोई इम्पोर्टेंस नहीं रह जाती। तो फिर अगर प्रेयर आप हमेशा ही कर रहे हैं, तो फिर प्रेयर आप …
(सभी हँसते हैं)
वक्ता: नहीं, वो प्रार्थना लगातार नहीं है, वो प्रार्थना बस है। वो प्रार्थना उतनी ही लगातार है, जितना के थिएटर का पर्दा। लगातार तो उस पर फ़िल्म चल रही है प्रार्थना उस पर पीछे परदे की तरह बस है। प्रार्थना आप लगातार कर नहीं रहे। प्रार्थाना, वो पत्थर है जिस पर पूरा जीवन आश्रित रहे। वो बैकग्राउंड है, जिस पर सारी फिल्म चलती रहे। तो ऐसे जीवन में हिंसा नहीं हो सकती। ऐसे जीवन में डर नहीं रहेगा। ऐसे जीवन की कुछ बात दूसरी होती है।