जीव के लिए ही मृत्यु है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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जीव के लिए ही मृत्यु है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

नाहं देहो न मे देहो , जीवो नाहमहं हि चित्।

अयमेव हि मे बन्ध् आसीध्या जी वि ते स्पृहा।।

अष्टावक्र गीता

वक्ता: यदि देह हूँ मैं, तो जन्म हुआ है मेरा, यदि जन्म हुआ है मेरा तो एक ही मंज़िल है मेरी, मौत। यदि देह हूँ मैं, तो जीवन मात्र एक यात्रा है जन्म से मृत्यु के बीच की। यदि देह हूँ मैं, तो जीवन का अर्थ है इस यात्रा के बड़े-बड़े पड़ाव।

देह होने का अर्थ ही यही है कि समस्त जीवन का एक ही औचित्य रह जाएगा: मौत से बचना क्यूंकि जीवन की निष्पत्ति मात्र मृत्यु ही है देह के लिए। देह और कहीं को जा ही नहीं रही, देह सिर्फ़ मौत की ओर जा रही है और आप मरना नहीं चाहते। अब आप जो कुछ भी करोगे, आप की सांस-सांस में सिर्फ़ मौत का भय होगा। आप अपने आस-पास के संसार को देखिए, उनकी गतिविधियों को देखिए, आप पाएँगे कि सब कुछ सिर्फ़ मौत के भय से चालित है; आप दुनिया के विस्तार को देखिए, आपको उसमें सिर्फ़ मौत का विस्तार दिखाई देगा।

यदि मैं देह हूँ, तो दुनिया शमशान है; यदि मैं देह हूँ तो मैं पैदा भी शमशान में हुआ और जा भी सिर्फ़ शमशान की ओर रहा हूँ। अपने आपको देह मानने का ही अर्थ है कि लगतार एक ऐसी असुरक्षा में जीना, जिससे कोई निजात नहीं है। एक तरफ़ तो मौत का खौफ़ हमें साले डालता है, दूसरी ओर मौत अनिवार्य भी है- ये बड़ी विचित्र स्थति भी है; हमें वो सता रहा है जो अपरिहार्य है, जो होना ही है। यदि देह हैं आप, तो मौत से बचेंगे कैसे? और यदि देह हैं आप, तो मौत से ज़्यादा आपको कुछ सताता नहीं है, तो जीवन नर्क है फिर; आप एक ऐसी मंज़िल की तरफ़ बढ़ते ही जा रहे हैं जिसकी याद भी आपको कंपा देती है; यदि देह हैं आप।

यदि देह हैं आप, तो लगातार आप सिर्फ़ बने रहने की कामना में जीएँगे, सुरक्षा के यत्नों में जीएंगे और आप देखिये आप जो कुछ भी करते हैं, वो किसी न किसी तरीके से सुरक्षा पाने की कोशिश ही है।

जिसको आप ज़िन्दगी कहते हैं, उसको ध्यान से देखिये, वो और क्या है? “मौत से भागने की एक असफल कोशिश”।

आप जाइए किसी सत्तर-अस्सी साल के आदमी के पास और उससे कहिए कि अपनी ज़िन्दगी के बारे में कुछ बताओ और वो जिन-जिन घटनाओं का वर्णन करेगा, आप देखिएगा कि वो किस-किस तरह से मौत की छाया मैं हैं। आप किसी वृद्ध के पास जाएँ और उससे कहें कि जीवन के बारे में कुछ कहो, बताओ ज़िन्दगी कैसी बीती तुम्हारी? तो वो जो कुछ भी बताएगा, आप देखिएगा कि वो सब कुछ वही घटनाएं हैं, जिसमें उसे सुरक्षा का एहसास हुआ था।

और सुरक्षा का एहसास होने का अर्थ ही यही है कि वो बहुत डरा हुआ है। उतनी घटनाएं घटने के बाद भी वो अभी बहुत डरा हुआ है। आप देखिये न कि आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है जीवन में? आप जन्म को याद रखते हैं, आप जन्म के उत्सव मनाते हैं, आप मृत्यु को भी याद रखते हैं, आप शादी को याद रखते है, आप बच्चों के पैदा होने को याद रखते है, आप नौकरी-चाकरी या व्यवसाय के शुरू होने को याद रखते हैं; आप देख नहीं रहें हैं कि ये सब वही घटनाएं हैं जो कुछ देर को आपको ये दिलासा दे देतीं हैं कि आप मौत से बच गए?

आपको दूसरों से सम्मान मिलता है, पद-प्रतिष्ठा मिलती है; आप उसको याद रखते हैं, आप कुछ देर को ये भूल जाते हैं कि कितने भी लोग कह रहें हो कि तुम हो, कुछ हो, अंततः तुम्हें कुछ ‘न’ हो जाना है। दूसरों से जब ये मान्यता मिलती है तो वो हमारे ‘होने’ का सन्देश देती है हमको। हम लगातार इसी शंका में रहते हैं कि हम हैं भी कि नहीं हैं?

कोई बाहर से आकर के प्रमाणित कर जाता है कि तुम हो, वो कुछ भी बोले उसे प्रमाणित तो हुआ न कि हम हैं! वो बोले कि ‘तुम अच्छे हो’ तो उसने कहा कि ‘तुम’? हो। वो बोले कि ‘तुम बहुत बुरे हो’ तो भी उसने कहा कि ‘तुम’ हो। तो दूसरों से जो मान्यता मिली, उसमें हमारी जो निरंतर शंका है, वो ज़रा कम होती है, अच्छा लगता है हमको। यही सब घटनाएं हैं जो हमें ज़िन्दगी में याद रहती हैं: परिवार-कुटुम्भ का बढ़ना या घटना, कोई पैदा हुआ, कोई मरा, किसी का विवाह हुआ, घर बनाया-सुरक्षा मिली, पदवी हासिल की, दूसरों की नज़र में मान्यता मिली।

आप देखिये कि जिन-जिन घटनाओं को आपने जीवन में महत्वपूर्ण माना है, वो सब आपके बंधन की कहानियाँ है। आप जब-जब उत्सव मनाते हो, अपनी मौत का ही गीत गाते हो; आप बच्चे के जन्म पर बधाई गा रहे हो? न, आप मौत का ही गीत गा रहे हो; आप विवाह के मंत्र पढ़ रहे हो? न, यमराज की स्तुति कर रहे हो। आपने जो भी गीत गाया है, उसके पीछे भयानक स्वर मृत्यु का ही है अन्यथा आप गीत गाते भी नहीं। एक ही बात है जो आपको थोड़े समय के लिए ही सही प्रसन्न कर देती है, क्या? कि, ‘’मैं बचा हुआ हूँ, मैं सुरक्षित हूँ, किसी तरह बस ये सिद्ध होता रहे कि मैं सुरक्षित हूँ; ‘मैं हूँ’।’’

बिरला कोई होता है, जिसने जान ही लिया होता है कि, ‘’मैं हूँ,’’ उसी को कहते हैं- आत्म को पा लेना या आत्मा को पा लेना। छोटी बात नहीं है ये कहना कि, ‘’मैं हूँ’’ क्योंकि जिसने ये कहा कि, ‘‘मैं हूँ’’ उसे साथ ही ये भी कहना पड़ेगा कि ‘मात्र मैं हूँ, केवल मैं हूँ’; छोटी बात नहीं है। हमारी स्थिति तो ये है कि अगर सारी दुनिया हमसे कहने लगे कि तुम हो ही नहीं, तो तुम बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे।

एक कहानी पढ़ी थी मैंने कि एक व्यक्ति जाता है अपना ड्राइविंग लाइसेंस रिनियु कराने तो उससे कहा जाता है कि, ‘‘न, इस नम्बर का कोई लाइसेंस तो हमने जारी ही नहीं किया’’ और वो उससे कहते हैं कि तुम्हें यदि अपना लाइसेंस बनवाना है तो जाओ और अपने होने का कोई और प्रमाण पत्र लेकर आओ, किसी और विभाग की ओर से, इनकम टैक्स की ओर से आदि से लेकर आओ। वो जहाँ भी जाता है उससे यही कहा जाता है कि ‘न, तुम्हारे होने को हमने तो कभी प्रमाणित किया नहीं’। वो घर जाता है, वहां वो पाता है कि कागज़ कह रहे हैं उसके परिवार में, उसको हटाकर जितने सदस्य हैं, बस उतने ही सदस्य हैं। ज़ाहिर सी बात है, कहानी के अंत तक आते-आते वो व्यक्ति विक्षिप्त हो जाता है। कहानी-कार ने कल्पना कर के ही कहा है कि, ‘‘उसकी स्थति ये हो जाती है कि वो बाज़ार में जाकर के अगर रोटी भी खरीदना चाहता है, तो उसकी आवाज़ भी किसी को सुनाई नहीं देती!’’

‘’हम हैं!’’, ये मानने के लिए ज़रूरी है कि कोई हो, जो कहे हमें तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है। बड़ी मुश्किल हो जाएगी आप बोलतें रहें और सब कहें कि “न, हमें कुछ सुनाई नहीं दिया’’; आपको मानना पड़ेगा कि आप हो ही नहीं। ‘’मैं हूँ कहाँ?’’ और ये हमारी बहुत बड़ी शंका है। अहंकार गाता तो रहता है: ‘‘मैं-मैं, मेरा, मुझे’’ पर इस ‘मैं’ में उसका कोई यकीन होता नहीं है, इसीलिए वो बहुत जल्दी हिल जाता है, इसीलिए वो बहुत जल्दी डर जाता है, दुविधा में आ जाता है, संदेह से घिर जाता है, इसीलिए वो बहुत जल्दी आहत हो जाता है। आप उससे दो बातें बोल दो उसके बारे में, देखिए उसे कैसा बुरा लगता है, तड़प जाता है क्योंकि उसका अपने होने में यकीन नहीं है, और अपने होने में अहंकार का यकीन हो भी नहीं सकता।

अपना होना, आत्मा का होना है; जिसने आत्मा को नहीं पाया, वो अपने होने के बारे सदा शंकाग्रस्त रहेगा।

जो एक मात्र निर्विवाद सत्य है कि, ‘‘मैं हूँ, और कुछ हो न हो पर मैं तो हूँ,’’ वो उसी के विषय में आश्वस्त नहीं रहेगा। मिटने का डर, न होने की शंका मौत है। यही मौत की परिभाषा: ‘’मैं नहीं हूँ।’’ मौत क्या है? यही भाव कि, ‘’मैं नहीं हूँ; इसी का नाम मृत्यु है।’’ मृत्यु शरीर की कोई अवस्था नहीं हैं। कृपा करके न सोचें कि आपने कोई मरा हुआ आदमी देखा है! आपने कभी कोई मरा हुआ आदमी नहीं देखा; मृत्युशरीर की कोई अवस्था है ही नहीं; मृत्यु मात्र एक भाव है।

आप कहेंगे “नहीं, साहब लोग मरते हैं हमने लाशें देखीं हैं”; आप कहेंगे कि “और साफ़ दिखाई देता है कि ये जीवित नहीं है क्यूंकि थोड़ी देर पहले ये सांस ले रहा था, थोड़ी देर पहले ये चल-फिर रहा था, बातें कर रहा था, अब नहीं कर रहा है, तो ये मर गया है। हमने लाश देखी है ये मर गया है”; पर मैं आपसे कह रहा हूँ कि आपने कभी कोई मरा हुआ देखा ही नहीं है।

समझिएगा ज़रा।

क्या ये पत्थर कहने आता है कि जो ये लाश है ये मुर्दा है? क्या बादल कहने आता है? आपने जीवन की परिभाषा ही यही करी है कि, जीवित कौन? जो मेरे जैसा हो। आपने जीवन को परिभाषित ही ऐसे किया है कि जीवित कौन? जो मेरी तरह सांस लेता हो, मेरी तरह चलता हो, मेरी तरह देखता हो, जो बोलता हो और खाता हो; तो ‘आप’ कहते हो जो अब ये सब नहीं कर पा रहा, वो मुर्दा है आप कहते हो। कभी कुछ मुर्दा होता नहीं, अस्तित्व में मृत्यु के लिए कोई जगह ही नहीं है।

मृत्यु, सबसे बड़ा भ्रम है, मृत्यु कभी घटती ही नहीं। अस्तित्व परम जीवन है।

मौत है कहाँ? पर आपने जीवन की बड़ी संकरी परिभाषा की है। आप कहते हैं कि, ‘’जीवित तो मैं तब हूँ, जब मैं देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ, खा रहा हूँ’’ अर्थात् देह के सारे काम।

देह की आपकी परिभाषा ही मृत्यु को आमंत्रण है; इस बात को गौर से समझ लीजिये।

मृत्यु है नहीं कहीं, पर जिस रूप में आपने अपनेआप को परिभाषित कर रखा है, वो परिभाषा ही मृत्यु है।

मृत्यु कहाँ है? आपसे किसने कह दिया कि जो देह पड़ी है, जो चल-फिर नहीं रही है वो मुर्दा है? ये आपसे किसने कह दिया? ये आपसे आपके अहंकार ने कह दिया क्योंकि आप अपनेआप को ज़िंदा मानते हो। आप अपने आप को जिंदा क्यूँ मानते हो? क्यूंकि कुछ गतिविधियाँ हैं, जो आप दिखाते हो, क्या? चलना, फिरना, सोना, बैठना, उठना, यही सब; तो आप कहते हो जो ये सब नहीं करता, वो मुर्दा है। अच्छा?

भली बात!

मुर्दे से पूछा कभी तुमने कि ‘तुम मुर्दा हो?’

किसी मुर्दे ने आज तक ये आकर कहा, ‘’मैं मुर्दा हूँ?’’ मुर्दे को मुर्दा किसने घोषित किया? मैंने आपसे पहले पूछा था कि कभी किसी पत्थर ने कहा कि फलाना मुर्दा है? फिर मैंने आपसे पूछा कि नदी या बदल ने कहा कि फलाना मुर्दा है? अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि कभी किसी मुर्दे ने कहा कि, ‘’मैं मुर्दा हूँ?’’ तो मुर्दे है कहाँ? मैं बताता हूँ मुर्दे कहाँ हैं। मुर्दे आपके दिमाग में हैं क्योंकि अहंकार अपनेआप को जीवित बोलता है, वो समूचे अस्तित्व को जीवित नहीं बोलता। वो ये नहीं कहता कि रेत का कण-कण जिंदा है, वो ये कहता है “मैं जिंदा हूँ”। मृत्यु का कष्ट आपको उठाना ही इसलिए पड़ता है क्यूंकि आप पत्थरों को, और पहाड़ों को और रेत को जिंदा मानते ही नहीं; तो आप कहते हो कि, ‘’जब मैं भी धूल और मिट्टी हो जाऊंगा, तो मैं भी मुर्दा हो जाऊँगा।’’ मृत्यु से बचना है तो देखो कि सब कुछ प्राणवान है, मौत कभी होती ही नहीं; पर तुम जीवन को जोड़ते ही किसके साथ हो? देह के साथ–यही बंधन है, यही नर्क है, यही मौत का खौफ है।

तुमसे किसने कह दिया कि तुम कहो कि “जब तक देह है, तब तक मैं जिंदा हूँ?’’ सोचते ही हो न ऐसा? सोचते ही तो हो? मत सोचो।

ख्याल ही तो है? हटा दो; पर तुमने खूब कल्पनाएँ की हैं- मौत को काले कपड़े पहना दिए हैं, यमराज को भैंसे पर बैठा दिया है और सींघ लगा दिए हैं, कल्पनाएं कर ली हैं कि मृत्यु के बाद कहीं और जाया जाता है और वहां दो लोक हैं; और कभी ये नहीं पूछा कि कौन है जो वहां जाएगा? आँख बंद करके देखोगे कि कौन जाएगा, तो कहोगे “मैं ही तो जा रहा हूँ;” और ‘मैं’ माने? देह। तुम भले ही ये कह दो कि आत्मा जाती है, पर आशय तुम्हारा देह से ही है। तुमसे कहा जाए कि ज़रा उस आत्मा का चेहरा देखना, तो तुम्हें अपना चेहरा दिखाई देगा और चेहरा माने देह!

मृत्यु है ही नहीं पर ज्यों ही तुमने अपने आप को देह बनाया, तुम मरणधर्मा हो गये। अब ये बेवकूफी है या नहीं है? पहले तो तुम मानो कि, ‘’मैं मरने वाला हूँ, मैं मरने वाला हूँ’’ फिर सारी ज़िन्दगी उस काल्पनिक मौत से लड़ते हुए गुज़ारो। हमारी पूरी ज़िन्दगी जानते हो क्या है? ‘लाइफ इनश्युरैंस खरीदने की कयावद’। अब जो भी कुछ करते हो, उसमें सिर्फ़ जीवन-बीमा खरीदते हो, मरने के बाद का ख्याल या मृत्यु को टालने का ख्याल या बने रहने की कोशिश; मिट न जाऊं।’’

इसकी खूब कोशिश है कि मिट न जाऊं, पर चुप-चाप ये मानने में बड़ी दिक्कत है कि, ‘‘पैदा ही नहीं हुआ, देह आई ही नहीं।’’ तब तो बड़े मज़े से जन्मोत्सव मनाते हो। {तंज कंस्ते हुए} आज छोटू का जन्मदिन है, आज मेरी परी का जन्मदिन है; अब ये नहीं देख रहे कि क्या कर दिया छोटू के साथ, डाल दिया नर्क में! गयी बिटिया रानी; उसे जन्मा के, उससे ये कह कर कि “इस दिन तुम आयीं थीं” तुमने उसे सूचित कर दिया है कि सर पर तलवार लटक रही है, जल्दी ही चली भी जाओगी! और जाना कोई चाहता नहीं, जाना तुम्हारा स्वाभाव नहीं, तुम्हारा स्वाभाव है *‘होना’*।

जिसको स्वाभाव-विरूद्ध कुछ बताया जाएगा, वो बार-बार चेष्टा करेगा अपने स्वाभाव में वापस जाने की। जिसको यह कह दिया गया कि तुम जाने वाले हो, अब उसकी एक ही चेष्टा रहेगी कि, ‘’स्वाभाव में वापस चला जाऊं,कहीं न जाऊं, मेरी विदाई न हो; रहना मेरा स्वाभाव है, तो मेरी विदाई न हो।’’ उसकी सांस-सांस बस यही पुकारेगी, “मुझे नहीं मरना है, मुझे नहीं मरना है, मुझे नहीं मरना है; पर मन क्या कहेगा? तुम देह हो तुम्हें मरना है, तुम्हें मरना है!

कठोपनिषद में यम जब नचिकेता से वार्ता करते हैं तब, नचिकेता ने पूछा है कि “मृत्यु क्या है बताइए?” उसे बताते ही नहीं क्यूंकि मृत्यु है ही नहीं! वो तो उसे बस ये बताते हैं कि, ‘‘तुम कौन हो’’। मृत्यु के बारे में यमराज न बराबर बोलते हैं, वो उसे बस ये बताते हैं, ‘’तुम कौन हो’’, इतना बता देते हैं कि, ‘‘तुम देह नहीं हो’’ और उपनिषद के अंत तक आते-आते नचिकेता अमर हो जाता है।

अमर हो जाने का अर्थ ही यही है कि ये ख्याल ही निकाल दिया दिल से कि, ‘’मैं देह हूँ’’

पर हमने बात समझी ही नहीं, हम देहभाव में ही जीए जाते हैं, हमारा नाम किसका है? देह का नाम है; लड़का पैदा हुआ है तो एक नाम, लड़की पैदा हुई है तो दूसरा नाम, और जहाँ देह होगी, वहां पूरा इतिहास भी होगा। जहाँ से देह आ रही है- बाप, दादा, पूर्वज, परर्पूर्वज, सब; ढो उनको!

अपना एक उत्सव बता दो जो देह का उत्सव न हो? जन्मोत्स से शुरु करके। जीवन भर जितने उत्सव मनाते हो, उसमें से एक बता दो, जो देह का उत्सव न हो और फिर कहते हो,‘डर क्यों लगता है!’ ये तुम कर क्या रहे हो?

दिवाली क्या मनाते हो कि राम घर लौटे थे, अच्छा? राम घर लौटे थे? राम भी तुम्हें देह ही नज़र आते हैं, कि एक देह थी जो घर से दूर चली गई थी और एक देह है जो वापस आई अयोध्या; तो घर लौटे थे! होली क्यों मनाते हो? प्रह्लाद की ‘देह’ नहीं जली! शादी माने क्या? देह से देह का मिलन। “नहीं, साहब आप गलत बोल रहे हैं, शादी माने आत्मा से आत्मा का मिलन” अच्छा? कितनी आत्माएं होती हैं? हमने तो जाना नहीं कि आत्मा अनेक है। रक्षाबंधन; बहन भाई की कलाई पर राखी बांधेगी, अब मरे-मरे घूमे बहन और भाई दोनों, तो तुम्हें ताज्जुब क्यों होता है? क्योंकि जो कलाई आज है, वो कल नहीं रहेगी! एक उत्सव तो बतादो न जिसमें देह कि छाया और मौत का राग न हो?

कृष्ण पैदा हुए थे! गजब हो गया! तुमने कृष्ण को पैदाकर मारा! पर तुम जिसको देखो उसको छग्गुमल की श्रेणी में लाकर खड़ा कर ही देते हो, हमारे छग्गुमल जी पैदा हुए थे, तो कृष्ण भी पैदा हुए ही होंगे। कभी तुम मुहर्रम मनाते हो? मरने का त्यौहार। या तो पैदा करते हो या मारते हो और भी कुछ है? मुक्ति का कोई त्यौहार है? जीवन और मरण दोनों से मुक्ति ऐसा कोई त्यौहार है? आनंद का कोई त्यौहार है? आत्मा का कोई त्यौहार है?

जब इतनी मूर्खता समाज में धर्म के नाम पर चल रही है, और धर्मों ने भी यही किया है- इस मुर्खता को ही प्रोत्साहित किया है, तो और क्या होगा? अष्टावक्र बेचारे बोलते रह जाते हैं। अब लड़के के दांत निकले हैं-चलो त्यौहार मनाएं, अब उसके बाल कटाए हैं – मुंडन — चलो त्यौहार मनाएं।

देह के अलावा कुछ और है जो मनाते हो?

इस देश के एक-आध राज्य में तो ये भी परंपरा है कि जब लड़कियों का मासिक-धर्म शुरू हो, तो भी उत्सव मनाया जाए! गाजे-बाजे बजेंगे, मन्दिर जाएँगे; तुम्हारे सारे मन्दिर मौत के मंदिर हैं और किसी को तुम पूजते ही नहीं मौत के अलावा।

पहले तो अपने मन को भर लो देह से, फिर दिन-रात कांपों मौत के डर से और फिर इसको कहो ये जीवन है। “यही तो ज़िन्दगी है बेटा”; बड़ा ज्ञान बखारो – “बेटा इसी का नाम ज़िन्दगी है, हम बड़े अनुभवी हैं।’’ अच्छा काहे का नाम ज़िन्दगी है? थरथराते रहो, कांपते रहो, दिन-रात संदेह में जीयो, संशय से घिरे रहो, इसी का नाम ज़िन्दगी है?

ग्रंथो ने यदि आपसे बार-बार कहा है कि देह-भाव को दूर करो तो इसलिए नहीं कहा है कि उन्हें बदबू आती है, शरीर से! उसके पीछे बड़े ठोस करण है: जहाँ देह है, वहां डर है; दिखाई नहीं देता?,

जहाँ देह है वहां मृत्यु है, जहाँ देह है वहां हिंसा है, और जहाँ देह है वहां न प्रेम हो सकता है न मुक्ति हो सकती है,

तो इसलिए शास्त्र बार-बार तुमसे ये कहते हैं कि देहम् की स्थति से नाहम् की स्थति पर आओ। और-ज़्यादा व्यवहारिक तल पर क्या अर्थ हुआ ये कहने का कि, ‘मैं देह नहीं हूँ’? समझेंगे। अर्थ ये हुआ कि, ‘’मैं उस सब को महत्व दूंगा नहीं, जो देह-भाव से आता है। मैं गौर से देखूंगा कि जब भी कुछ सामने आए, क्या उसमें देह बठी हुई है? और यदि है, तो ‘’मैं उसे गंभीरता से नहीं ले सकता।’’ देह पदार्थ है, देह भाव में न जीने का अर्थ है कि, ‘’मैं अब पदार्थ को गंभीरता से नहीं ले सकता।’’ कोई शास्त्र आपसे ये तो कहता नहीं कि देह नहीं है, यही तो कहता है न कि

*‘*तुम देह नहीं हो*’*। देह है पर जोड़ मत लो अपने आप को, इतने आसक्त न हो जाओ, उसी को प्राथमिक न बना लो।

देह-भाव में जीने का अर्थ है: पदार्थ को परम मान लेना; देह-भाव में न जीने का अर्थ है, ‘’पदार्थ होगा, पर हम पदार्थ से कई ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। हम उसमें जीते हैं, जो पदार्थ से बहुत ऊँचा है।’’ अब वो पदार्थ का ग़ुलाम नहीं रहेगा, अब वो वस्तुओं का गुलाम नहीं रहेगा। देह-भाव में न जीने का अर्थ है कि, ‘’जो कुछ भी सीमित है, वो मुझे रुचिकर लगता ही नहीं।’’ देह सीमित है न? सीमा है देह की, तो दिखता होगा चारों तरफ सीमओं का ही फैलाव लेकिन मन हमारा असीम में जीता है। ‘’जहाँ कहीं भी मेरे पैदा होने की छाप है, मैं उसे गम्भीरता से नहीं लूँगा, जहाँ कहीं भी मुझसे कहा जा रहा है कि तुम मरोगे मैं उस जगह को गंभीरता से नहीं लूँगा, जो कुछ भी मुझे मेरे तथाकथित जन्म से मिला है, मैं उसे गंभीरता से नहीं लूँगा। तो न मैं धर्म को गंभीरता से लूँगा, न मैं जाति को गंभीरता से लूँगा, न मैं लिंग को गंभीरता से लूँगा, न मैं राष्ट्र को गंभीरता से लूँगा।’’ देह भाव में न जीने का ये अर्थ है।

देह-भाव में न जीने का अर्थ ही यही है कि संसार अब मेरे ऊपर हावी नहीं हो सकता।

कोई ऐसा नहीं होता, जो दिन-रात ये कहता फिरे कि, ‘‘मैं देह हूँ, मैं देह हूँ।’’ ये आप सीधे-सीधे थोड़ी न कहते हो, ये आप परोक्ष रूप से कहते हो; कैसे कहते हो? आप मरे जा रहे हो किसी ‘साड़ी’ के लिए, बाज़ार में आपको

एक नयी साड़ी दिखी है और आप मरे जा रहे हो उसके पीछे। ये है! कि, ‘’मैं देह हूँ।’’ आपके दिमाग में दिन-रात आपके प्रेमी के, आपके पति के ही ख्याल घूम रहे हैं, कभी मधुर कभी कटु- ये हैं कि, ‘’मैं देह हूँ।’’ आपके मन में दिन-रात भविष्य के सपने या लक्ष्य या आशंकाएं घूम रहीं हैं- ये है कि, ‘‘मैं देह हूँ।’’ कोई सीधे-सीधे थोड़ी कहता है कि, ‘’मैं देह हूँ,’’ ऐसे कहता है। आप लगे हो इस उधेड़बुन में कि, ‘’कहाँ पर घर बना लूँ,’’ और घर की सफ़ाई कर लूँ और कहाँ प्लाट खरीदना है। ये है कि, ‘’मैं देह हूँ’’ और जो दिन-रात घर को खरीदने और सजाने की कोशिश में लगा है, वो आदमी दिन-रात मौत से थर्रा भी रहा है। और जो दिन-रात मौत से थर्रा रहा है, वो भी ये सीधे-सीधे थोड़ी कहेगा कि, ‘’मैं मौत से डर रहा हूँ।’’ वो कहेगा, “दूसरी बातों से डर रहा हूँ” उसके और इधर-उधर के दो-चार डर होंगे।

बहुत कम लोग मिलेंगे आपको, जो सीधे-सीधे ये स्वीकार करें कि वो मौत से डरे हुए हैं; लोग अपने डरों को दूसरा नाम देते हैं। कोई कहता है, ‘’मैं अकेलेपन से घबराता हूँ, कोई कहता हैं मैं कुछ छिन जाने से घबराता हूँ, कोई कहता है कि मैं घबराता हूँ कि मेरे ‘अपनों’ का कुछ बुरा न हो जाए।’’ कोई सीधे-सीधे थोड़ी मानता है कि मौत से डरा हुआ हूँ; ठीक वैसे ही जैसे कोई सीधे-सीधे नहीं कहता है कि मैं देह हूँ, मैं देह हूँ। आप किसी से मिलते हो अपना परिचय देते हो, तो ये थोड़ी न कहते हो कि, ‘’मैं देह हूँ!’’ आप अपना कुछ नाम बताते हो न? पर नाम बताने का अर्थ ही यही है कि अपने आप को देह मानते हो।

ठीक उसी तरीके से, आपके मन में जब तक पदार्थ और समय महत्वपूर्ण हैं और छाए हुए हैं? पदार्थ औरसमय। पदार्थ का मतलब हुआ दूसरे व्यक्ति या वस्तुएं और समय का मतलब हुआ अतीत या भविष्य; ये जब तक छाये हुए हैं सीधे-सीधे समझ लीजिये कि आपकी मूल धारणा ये हैं कि, ‘’मैं देह हूँ।’’

आपको जब तक वो कहानियां बहुत अच्छी लगती हैं, जो यहाँ से शुरू होतीं है कि “जीवन एक यात्रा है” और बड़े-बड़े विद्वान् हैं जो इन्हीं लफ़्ज़ों में बात करते हैं। इनके यही मुहावरे हैं कि ज़िन्दगी तो एक सफ़र है। जिनके लिए ज़िन्दगी एक सफ़र है, वो वास्तव में बहुत कष्ट सह रहे होंगे। उनसे बोलो कि, “दिख रहा है कि ज़िन्दगी एक सफ़र है, आपके लिए तो है ही, शक्ल पर लिखा है आपकी, काफी ‘सफ़र ’ किया है आपने!” कोई सफ़र नहीं है ज़िन्दगी, कोई यात्रा नहीं है ज़िन्दगी क्योंकि अगर यात्रा है तो भूलियेगा नहीं कि इसकी मंज़िल क्या है!

देह नहीं पहुँचती परमात्मा तक, देह तो शमशान ही पहुँचती है।

ये जीवन की बड़ी विचित्रताओं में से है कि जिसको आप गंभीरता से लेते हो, वही आपको मिलता नहीं और वही आपका मालिक बन जाता है। और जिसको आप महत्व देना छोड़ देते हो, वो आपके पीछे-पीछे घूमता है। कबीर ने कई दफा कहा है, कबीर कहते हैं कि

पांच सखी मिलकर रोसोई, जीमें मुनि और ज्ञानी

कबीर कहते हैं कि:

प्रभुता को तो सब भजें , प्रभु को भजे न कोई

जा मन ने प्रभु को भजा, तो माया चेरी होई

बहुत कीमत दोगे, गँवाओगे। और उसको कीमत दोगे जो असली है, जो प्रभु है वास्तव में, तो बाकी सब कुछ तुम्हारे पीछे-पीछे भागेगा। तब तुम खेल सकते हो उसके साथ, वही लीला कहलता है, तब तुम देह के साथ भी लीला कर सकते हो। तब तुम देह के साथ भी खेल सकते हो; अभी हम देह के साथ भी खेल कहाँ पाते है? अभी तो हालत ये है कि हम लगातार देह को बचाने की हालत में ही लगे रहते हैं; देह के साथ हम कहाँ खेल पाते हैं? देह भी बड़े मज़े की चीज़ है, संतो ने कहा है कि सब कुछ इसी घाट में समाया हुआ है, पर हम इस घाट का भी शोधन कहाँ कर पाते हैं? तुम जिसको बचाने की कोशिश में लगे हो, तुम्हें जिसके छिनने का खौफ़ हर समय सता रहा है, तुम कहाँ उसके नज़दीक जा पाओगे? तुम कहाँ उसकी परतें खोल पाओगे? तुम कहाँ उसके साथ खेल पाओगे?

तुम तो इसी तांक में लगे रहोगे कि बचाओ-बचाओ कहीं नष्ट न हो जाये। अब तुम्हारा जीवन सिर्फ़ इसलिए होगा कि देह को किसी तरह से बचा के रखा जाए। हज़ार तरीकों से देह की सुरक्षा करोगे, खूब सारा पैसा इकट्ठा करोगे! जानते हो खूब सारा पैसा इकट्ठा करना क्या है अंततः? कि भूखे न मरें और कुछ भी नहीं है! सुन कर अजीब सा लगेगा पर संग्रह करने की सारी प्रवृत्ति, मात्र दुर्भिक्ष से बचने का उपाय है , कि भूखा न मरना पड़े; तो तुम खूब पैसा कमाओगे, जो आदमी खूब पैसा कमा रहा है, ये सिर्फ़ एक चीज़ चाहता है कि भूखा न मरुँ और इसने कितने कमा लिए हैं? 5 अरब! 5 अरब! इसने क्यों कमाएं?कि भूखा न मरुँ!

अब तुम सुरक्षा कर रहे हो देह की, कभी भूख से बचने का इंतज़ाम करते हो, कभी कौमार्य को बचने का इंतज़ाम करते हो; तुम खेल नहीं सकते! तुम बारिश में नहीं निकल सकते, तुम नदी में नहीं कूद सकते,तुम लड़ भी नहीं सकते क्योंकि जीवन किसलिए है? ‘’देह को बचाने के लिए है, तो अब लड़ें भी तो कैसे लड़ें कहीं खरोच न लग जाए!’’

कैसे होगी अब लीला? न प्रेम कर पाओगे क्योंकि जो शारीर की सुरक्षा में लगा है, वो कैसे शारीर को खुला छोड़ेगा; तुम तो प्रेम के गहनतम क्षण में भी शरीर की सुरक्षा में लगे रहोगे। तुम्हारा मन इसी उधेड़बुन में लगा रहेगा कि, ‘’किसने मुझे कहाँ छू दिया?’’ न प्रेम कर पाओगे, न युद्ध कर पाओगे; बारिश में नाचोगे तो ख्याल रहेगा कि, ‘’कहीं गल न जाऊं, कोई देख तो नहीं रहा? वस्त्र कहीं सरक तो नहीं गया?’’ कैसे नाचोगे? तब तो जीवन बस इसीलिए है कि देह को किसी तरह से बचा कर रखो। दिन में ३-3 घंटे नहाओगे; साहब जीते किसलिए हैं? ताकि दिन में वो पुनीत-पावन क्षण आए जिसमें वो घुसलखाने में घुस पाएं; घुसलखाने इनका मंदिर है, यहाँ 3 घंटे भजन करते हैं, उसके बाद एक घंटा आईने के सामने!

जीवन किस लिए है? देह के लिए और मैं तुमसे कह रहा हूँ जो आदमी ३ घंटे घुसलखाने में बैठेगा, उसके जैसा डरा हुआ आदमी कोई दूसरा नहीं हो सकता; उसका दिल लगातार ऐसे-ऐसे काँपता होगा, ‘’धक्-धक् धक्-धक् धक्-धक्’’; हज़ार तरीके के दुःख और शंकाएं उसको घेरते रहते हैं।

जब दिल परमात्मा के साथ होता है तो मन और शरीर जो करते हैं, उसी को लीला कहा जाता है और जब दिल शरीर ही में लगा रहता है तब मन और शरीर जहाँ होते हैं उसे ‘नर्क’ कहा जाता है।

अजूबा देखोगे? जिसने शरीर की फ़िक्र करना छोड़ दिया उसका शरीर इतना सुन्दर हो जाएगा, ऐसा नैसर्गिक तेज रहेगा उसके शरीर में, उसके चेहरे पर; जो इन 3 घंटे घुसलखानों वालों को कभी नसीब नहीं हो सकता। पर ये उसको ही मिलेगा, जो अब शरीर को छोड़कर किसी और की फ़िक्र में लगा हुआ है। अजीब सी बात है न? जिसके पीछे भागते हो, वो दूर हो जाता है; जो छोड़ते हो, वो तुम्हारे साथ नाचता है;

शरीर तो आत्मा की छाया है, आत्मा में जियो शरीर अपने आप स्वस्थ रहेगा;

क्या परवाह करनी है इतनी?

इधर एक अजीब सी स्थिति का अनुभव हुआ है, ये तो बहुत समय से था कि नाम वगैरह कम याद रहते थे, अभी पिछले पांच दिनों से लर्निंग कैंप था उसमें पंद्रह- सत्रह ऐसे लोग थे जो पहली बार आए थे, जिनके चेहरे पहली बार देख रहा था; कोशिश करके भी नाम नहीं याद कर पाया उनके, यहाँ तक किया कि कागज़ पर लिखा; उन पर निशान लगाए कि किसका-किसका याद है, किसका नहीं याद है, पर चेहरा जैसे महत्वहीन हो गया था; नाम ही न याद रहें! और फर्क क्या पड़ता है? जितने बैठे हैं सामने, सबसे प्रेम का रिश्ता है, आवश्यकता क्या है? मन पर बोझ ही तो है न? एक गैरज़रूरी सूचना है नाम, बहुत गैरज़रूरी सूचना है नाम। दो सफ़ेद खरगोश आए हैं, दोनों एक से हैं, दोनों एक ही हैं; उन्हें नाम देकर के अलग-अलग क्यों करूँ? और ये स्थिति आती जा रही है, चेहरों को देखता हूँ तो कुछ ख़ास पता ही नहीं चलता, नाम नहीं याद होते, चेहरों के साथ नामों का जुड़ना कम सा होता जा रहा है। आप से अभी से क्षमा चाहता हूँ, अगर आपका नाम भूल जाऊं।

होने लगा है, लोग आते हैं कहते हैं, ‘’वो है उन्हें जानते हैं?’’ मैं कहता हूँ, मैं जनता हूँ? कौन हैं? थोड़ी उलझन वाली स्थिति भी कभी पैदा हो जाती है, वो कह रहा है कि अभी तीन-चार साल पहले की तो बात है, आपके साथ आठ महीने काम किया है मैंने। अच्छा? क्या करना है? और लोग होते हैं, जो सूचना का चलता-फिरता दस्तावेज़ हैं, उनसे नाम ही नहीं फ़ोन नम्बर भी लिखवा लो; चेहरा- फोन नम्बर। आप यहाँ बैठे हो, आपको देखते ही यदि मेरे मन में आपका नाम कौंधे, तो उसके साथ दस और तरह की सूचनाएं कौन्धेंगी; कैसे मैं कहूँगा कि यहाँ मन से मन का मिलन हो रहा है? कैसे मैं कहूँगा कि मन और मन, आत्मा की तरफ बढ़ रहे हैं? कैसे मैं कहूँगा कि अनेकता खत्म हो रही है और एकता की तरफ़ जा रहे हैं? क्यूंकि नाम तो अलग-अलग होते हैं न!

नाम का उद्देश्य ही यही होता है कि तुम्हारी पृथकता स्थापित कर दी जाए, तुम अलग हो। एक खरगोश दूसरे खरगोश से अलग है, दोनों के अलग-अलग नाम हैं।

क्या करना है?

और आप देखिएगा कि जो जितना ज़्यादा देह से संयुक्त होगा, उसे अलग-अलग नाम उतने ज़्यादा याद होंगे, वो विभिन्नता में ही जीएगा। एक मौहतरमा हैं, वो लाल रंग के 22 अलग-अलग *शेड्स*के रंग जानती हैं। और यहाँ लाल और गुलाबी में ही अंतर करने में पसीने छूट जाते हैं। फूल होता है, लोग कहते हैं कि गुलाबी है; हम कहते हैं “लाल सा दिख रहा है, गुलाबी-लाल कुछ पता ही नहीं चल रहा।” नहीं कलर-ब्लाइंडनेस नहीं है! होता है बिलकुल, फ़लाना वाला पिंक, और ऐसे-ऐसे नाम हैं रंगों के; कैसे अंतर दिख जाता है? कैसे?

पहला अंतर उसी दिन पैदा हो जाता है, जिस दिन हम कहते हैं कि “मैं देह हूँ” तो पहला अंतर है: मुझमें और संसार में अंतर; यही पहला भेद है। पहला भेद क्या है? पहली सीमा क्या है? कि मैं हूँ और संसार है और दो अलग-अलग इकाईयां हैं। जिसने पहले भेद को गंभीरता से ले लिया, वो हज़ार और भेद पैदा करेगा और जो जितना ज़्यादा भेदों में जीएगा, वो उतना ज्यादा पहले भेद को मान्यता देगा।

भेदों में कम से कम जियो; सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी एक से रहो, मत करो बहुत अंतर। थोड़ा नमक कम या थोड़ा नमक ज्यादा, क्या करना है? चार रोटी की जगह तीन ही मिल गयीं; कोई बात नहीं, भेद करना कम करो। जहाँ भेद है वहां भय है; जहाँ भेद है वहां जीवन और मौत के बीच में भी भेद है। भेद, मौत है; भेद, भय है, इसीलिए समभाव को इतना महत्व दिया गया है शास्त्रों में, समदर्शी रहो , स्थितिप्रज्ञ रहो।

जहाँ भेद वहां?

मृत्यु है और समस्त भेद देह से निकलते हैं। उत्तेजित मत हो जाओ जल्दी क्योंकि उत्तेजना का क्या अर्थ है? कि उत्तेजना की पूर्व की स्थिति से अब भेद आ गया है। पहले कुछ और था, अब कुछ और है। उत्तेजना से बचो; जहाँ उत्तेजना हैं वहां? मृत्यु है। तो जितने लोग ये मनोरंजन के नाम पर उत्तेजित होने जाते हैं, ये सब कौन हैं? ये मौत के सफ़र में है; ये मनोरंजन नहीं कर रहे, ये उत्सव नहीं मना रहे, ये अपनी शवयात्रा निकाल रहे हैं, इन्हें पता भी नहीं है।

एक देह पैदा हुई, कोई बहुत हर्ष की बात नहीं हो गयी है, पंचभूतों का संसार है इतनी घटनाएं घटती रहते हैं, एक और घट गयी। किसी की मृत्यु हो गयी, कोई बड़ी घटना नहीं घट गयी है- सूरज रोज़ अस्त होता है कोई बड़ी बात नहीं हो गयी; उत्तेजित मत हो जाओ; न हर्ष न शोक।

जहाँ द्वैत हैं वहीँ मृत्यु है ;जहाँ अद्वैत है वहीँ अमर्त्य है।

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।

अयमेव हि मे बन्ध् आसीध्या जीविते स्पृहा।।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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