जवान हो, वाकई? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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जवान हो, वाकई? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: कई बार मुझे ऐसा लगता है कि ‘ज़िन्दगी का उद्देश्य क्या है? वही स्कूल जाना, कॉलेज आना, अच्छे मार्क्स लाना, फिर अच्छी नौकरी पाना, एक विलासी ज़िन्दगी बिताना। बस? क्या यही ज़िन्दगी का उद्देश्य है? और जब ये सोचता हूँ तो काफी खालीपन सा आ जाता है। उसके बाद कुछ करने का मन ही नहीं करता।’

आचार्य प्रशांत: तुम बड़े किस्मत वाले हो कि तुम्हें वह खालीपन महसूस होता है। ज़्यादातर लोगों को यह अहसास भी नहीं होता कि ज़िन्दगी कितनी खाली है। तुम्हें अधूरेपन का, खालीपन का अहसास होता है यही बड़ा सौभाग्य है। क्योंकि इससे शायद आगे का रास्ता निकल सकता है, कुछ बात बन सकती है। जिनको पता ही नहीं चल रहा हो उनका क्या होगा? जिस बीमार को यह पता ही न हो कि मैं बीमार हूँ, उसका मरना पक्का है; इलाज की कोई संभावना नहीं है।

हम जैसे जीते हैं उन तरीकों में यह होना ही है कि सच हमें छू जाए और अहसास करा जाए कि मामला गड़बड़ है। यह ऐसी सी बात है कि जैसे एक अँधा आदमी हो जिसने अपने आप को यह यकीन दिला रखा हो कि, "मैं अँधा नहीं हूँ, मुझे सब दिखाई पड़ता है।" और उसने पूछ-पूछ कर रट भी लिया है सब कुछ। उसने रट लिया है कि कौन सी सड़क कहाँ जाती है और कितने कदम चल लें तो कहाँ पहुँच जाएँगे। उसने रट लिया है कि आसमान का रंग नीला होता है और नीला जैसा कोई शब्द होता है। उसने सारे रास्ते, सारे मकान, सारी दुकान – सब रट लिए हैं।

तो उस से तुम पूछो कि "यहाँ से यह चौराहा कितनी दूर है?" वह बता देगा जैसे उसे सब दिख रहा हो। लेकिन चलते-चलते अचानक रास्ते में एक पत्थर आ जाता है और इस पत्थर का उसे पहले से नहीं पता। उसने रट नहीं रखा कि रास्ते में एक छोटा सा पत्थर भी पड़ा है। पत्थर से चोट लगती है और वह लड़खड़ा कर गिरता है। यह चोट उसे बताने के लिए काफी है कि तुम अन्धे हो। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। जितनी रटने वाली चीज़ें थी वह तो सब रट ली पर सच रटा नहीं जा सकता। तुम्हें रास्ते का पत्थर ही नहीं दिखाई पड़ता। तुम अंधे हो।

यह वास्तविकता की ठोकर है जो उसे लगती है। पर अँधा खड़ा होता है, कपड़े झाड़ता है और आगे बढ़ जाता है। वो अपने आप को बताना ही नहीं चाहता कि मैं अँधा हूँ। ये ठोकरें हम सबको लगती हैं। ज़िन्दगी हम सबको यह अहसास कराती ही रहती है कि देखो तुम क्या कर रहे हो! यह बेवकूफी है! पर हम अंधे की तरह ही उठते हैं, कपड़े झाड़ते हैं और आगे बढ़ जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही ना हो।

और ज़िन्दगी हमें रोज़ देती है ठोकरें। हम उन ठोकरों से भी सीखने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि सीखने के लिए सबसे पहले यह स्वीकार करना पड़ेगा कि, हाँ हमारी आँखें बंद हैं। थोड़ा कष्ट होता है उसमें, अहंकार को चोट लगती है। रिश्ते नातों में खिचाव आता है। तो हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि आँखें बंद हैं हमारी। हम कहते हैं, “नहीं-नहीं, ठोकर थोड़े ही लगी है। मैं तो यूँ ही खुद ही फिसल गया था। यह कोई बड़ी बात नहीं। मुझे सब दिख रहा है। मुझे सब समझ में आता है, सब दिखता है। कोई शंकाएँ नहीं हैं।”

तो सबसे पहले तो शुक्रिया अदा करो कि तुम्हें बेचैनी अभी अनुभव होती है। एक समय ऐसा आ सकता है जब तुम्हें इसका अनुभव होना बंद हो जाए। यह एक तरह की पुकार है। इस पर ध्यान दोगे तो ज़िन्दगी बदल जाएगी, और ध्यान नहीं दोगे तो यह पुकार धीरे-धीरे कम हो जाएगी और आखिर में गायब हो जाएगी।

मुक्तिबोध नाम से एक कवि हुआ है। उसकी एक पंक्ति है कि, ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं।’ तो तुम भी क्योंकि जवान हो और पक नहीं गए हो ज़िन्दगी से, इसलिए वह पुकार आती है और अहसास कराती है कि कुछ गलत हो रहा है। कुछ बहुत गलत हो रहा है। यहीं तीस-चालीस साल के हो जाओगे तो पुकार आनी भी बंद हो जाएगी। वो पुकार भी कहेगी कि, "अब तो इसने ज़िन्दगी ख़राब कर ही ली अब क्या करूँ।"

अभी कुछ उम्मीद बाकी है इसलिए वह पुकार आती है। उसके बाद एक सहूलियत वाली नौकरी लेकर बैठ जाना, एक गोरी-चिट्टी बीवी लेकर बैठ जाना, एक-दो बच्चे पैदा कर लेना। फिर कोई पुकार-वुकार नहीं आएगी। सुबह ऑफिस जाना और शाम को लौट आना, खाना-पीना, टी.वी. देखना, बिस्तर पर पड़ जाना और अगले दिन फिर यही; कोई पुकार नहीं। देखते नहीं हो घरों में कैसे चलता है? उन्हें कोई पुकार आती है? उन्हें कोई खालीपन लगता है। वो भरे-पूरे हैं। सब ठीक! मौज! ज़िन्दगी ऐसी ही होती है!

अभी तुमको लग रहा है कि, “ये मैं कर क्या रहा हूँ, एक कहानी लिख दी गई है और मैं उसी पर चल रहा हूँ और वह कहानी सबके लिए लिख दी गई है; जैसे मैं किसी कथा का चरित्र हूँ जिसके संवाद पहले से ही तैयार हैं; जैसे मैं कोई कठपुतली हूँ जिसको करना क्या है वह पहले से ही तय कर दिया गया है।"

पैदा हो, एक धर्म बनाओ, कुछ मान्यताएँ रखो, कुछ दिमाग में आदर्श भर लो, इस-इस तरह की पढ़ाई करो, फिर ऐसा-वैसा कोर्स कर लो, उसके बाद एम.बी.ए कर लो, या कोई नौकरी कर लो, या सॉफ्टवेयर कंपनी में काम कर लो, फिर शादी कर लो, घर बसा लो, सामान खऱीद लो, फर्नीचर खरीद लो, कार खरीद लो, फिर बच्चों का स्कूल में एडमिशन कराओ और फिर उनको भी वही सब कराओ और यह सब करके एक दिन... मर जाओ!

तो पहले से ही तो सब कुछ पता है। तुम काहे के लिए इतनी मेहनत कर रहे हो? यह तो होन- ही-होना है। जितने बैठे हैं उन सबके साथ होना है। तो जब यही होना है तो तुम परेशान किस लिए हो? यह पक्का है यही होगा। सबके साथ यही हो रहा है। सबके साथ यही होगा। जब तुम सब कुछ वही करते आए जो तुम्हारी स्क्रिप्ट में लिखा है तो तुम अब कैसे अलग हो जाओगे? तुम किन ख्वाबों में जी रहे हो? ”नहीं-नहीं, मेरी ज़िन्दगी बिलकुल अलग होगी। नहीं-नहीं, मैं कुछ ख़ास करके दिखाऊँगा।”

कैसे ख़ास करके दिखा लोगे? आज तक तो तुम वही करते रहे जैसा समाज ने बताया, जैसा परिवार ने बताया, अब कैसे कुछ ख़ास हो जाएगा? पुराने रास्तों पर चलते हुए नई मंज़िल पर कैसे पहुँच जाओगे?

पर एक ही है जो कह रहा है कि, “मुझे इसकी व्यर्थता दिखाई देती है”, बाकियों को कुछ नहीं दिखाई देता? “इग्नोरेंस इज़ ब्लिस (अज्ञान ही आनंद है)।” आँख बंद करे रहो - कबूतर का तर्क़ यही होता है। "बिल्ली कहाँ है? दिखाई नहीं दे रही। दिखाई नहीं दे रही तो है ही नहीं।" हमारा भी वही तर्क़ है।

और जिसको ज़रा भी दिखाई देगा, वह परेशान ही नहीं होगा, वह पागल हो जाएगा। वह रो उठेगा, कहेगा, “मैं कर क्या रहा हूँ? एक ज़िन्दगी है मेरी, उसके साथ मैं क्या होने दे रहा हूँ? मैं अनुमति कैसे दे सकता हूँ कि मेरे साथ वही सब कुछ होता रहे जो एक किसी मशीन के साथ होता है? उसका डिज़ाइन भी कोई और बना दे, प्रोग्राम भी कोई और, उसके बटन भी कोई और दबाए, और यह भी कोई और तय करे कि इसको डिस्पोस कब करना है।”

अगर तुम ज़रा भी जागोगे और अपने प्रति ज़रा भी ईमानदारी है, तो जो बेचैनी उसने कही, वह तुम सबको अनुभव होगी। और अगर नहीं अनुभव हो रही तो तुम सब मुर्दा हो। और तुम्हें पूछना होगा अपने आप से कि, "ऐसी कौन सी मजबूरी है जो मैं अपने साथ यह सब होने दे रहा हूँ, या होने दे रही हूँ?" अगर तुम लड़की हो तो जो तुम्हारे लिए पटकथा लिखी गई है वह और भी पक्की है, उससे तो ज़रा भी दाएँ-बाएँ नहीं जा पाओगी। पर कहाँ तुम ये सवाल करते कि, "मैं यह क्यों…?" और अगर जीना यही है तो जीना क्यों? फिर मर ही जाते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो अस्तित्ववादी विचारक हुए वो घूम फिर कर के एक ही सवाल पर आते थे – जीना क्यों? अगर यही जीवन है तो जिए क्यों? या तो जीवन कुछ और होना चाहिए वरना हमें जीने में कोई रुचि नहीं।

या तो कोई और जीवन हो। अल्बर्ट कामु का नाम सुना होगा। ‘मिथ ऑफ़ सिसीफस’ में उसने एक कहानी कही। वह कहता है कि, "एक पहाड़ है, ऊँचा। और मेरा काम यही है कि रोज़ाना एक पत्थर नीचे से ले जाओ उस पहाड़ की चोटी तक और जैसे ही वह पत्थर उस पहाड़ की चोटी पर पहुँचता है, पत्थर वापस आ जाता है नीचे। और मेरा काम है कि फिर अगले दिन मैं सुबह पत्थर चढ़ाऊँ और वह नीचे आए। और यही मेरी ज़िन्दगी है और रोज़ मुझे यही करना है। मैं जीऊँ क्यों?"

रोज़ मुझे कुछ ऐसा करना है जिसका कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। रोज़ एक सी ज़िन्दगी है जो अपने आप को दोहराती जा रही है, दोहराती जा रही है। और यह करते हुए मुझे अंततः मर ही जाना है। और अगर ऐसे मर ही जाना है तो आज ही क्यों नहीं?

या तो कुछ नया हो जीवन में। ऐसा जो इस दोहराव से आगे का है, जिसमें बोरियत नहीं है। ज़िन्दगी या तो मौज हो, आनंद हो,मस्ती हो, मुक्ति हो; नहीं तो कुछ नहीं होनी चाहिए। एक घिसा-पिटा जीवन। यह कोई जीवन है? और इसमें तुम्हें चंद, दो-चार ख़ुशियाँ मिल जाती हैं जैसे किसी पालतू जानवर के सामने रोटी फ़ेंक दी जाए। कि, “जी, इसी बहाने तू जी लेगा।” वैसे ही तुम्हें होली-दीवाली थोड़ी ख़ुशियाँ फ़ेंक दी जाती हैं। “जी ले! तीन सौ पैसठ दिनों में दो-चार दिन तू भी जी ले।”

और मैं समझता हूँ कि एक जवान आदमी को सबसे पहले सवाल यही उठाना चाहिए। जवान इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बच्चे को यह सवाल उठेगा नहीं। अभी वह नासमझ है, तुम नहीं हो नासमझ। और अभी तुम इतने बूढ़े भी नहीं हो गए कि कहो कि उम्र बीत गई। न तुम बच्चे हो और न अभी बहुत बड़े हो गए। तुम जवान हो। और व्यर्थ है वह जवानी जिसे अपनी विवश्ता नहीं दिखाई देती।

ऑस्कर वाइल्ड का कथन था, “*युथ इज़ लॉस्ट ऑन द यंग*”।

जवानी घटती ही नहीं, होती ही नहीं। हम या तो बच्चे ही रह जाते हैं, कि, “मैं तो अभी मम्मी की बच्ची ही हूँ।” या हम बहुत बूढ़े हो जाते हैं कि, “देखो अब हम बहुत समझदार हो गए हैं ये क्रांति वगैरह की बातें तो करो मत। चुप-चाप साधारण जीवन जी लो नहीं तो पीट दिए जाओगे।”

तो या तो हम बच्चे ही हैं, कि घर से बाहर निकलना है तो “चला जाऊँ?” चार कदम भी बाहर जाना है तो “कैसे?” तो या तो हम बच्चे ही हैं या हम बूढ़े हो गए हैं। जवानी बीच में आई ही नहीं, बाईपास हो गई। यह बड़ी विचित्र घटना घटी है हमारे साथ। बच्चा बूढ़ा हो गया बिना जवान हुए।

और मैं खोजता हूँ, दुनिया भर में जाता हूँ, कॉलेज में जाता हूँ, यूनिवर्सिटी में जाता हूँ और खोजता हूँ कि मुझे जवान आदमी दिखाई दे, मुझे दिखता नहीं। मुझे अर्धविकसित लोग दिखाई देते हैं या मुर्दा। ऐसे दिखाई देते हैं जिनका अभी विकास ही नहीं हुआ। वो अभी ज़रा से ही हैं। हाँ, दाढ़ी मूँछ आ गई है, कद बढ़ गया है पर हैं ज़रा से ही। या मुझे बूढ़े दिखाई देते हैं जिनमें अब कोई ऊर्जा शेष नहीं बची। जो अब कुछ कर ही नहीं सकते। जिनको अब बस मौत का इंतज़ार है। जवान आदमी दिखाई ही नहीं देता।

थोड़ी देर पहले एक चुनौती दी थी, अब एक और दे रहा हूँ। सिर्फ शरीर से ही जवान रहोगे या वास्तव में होना है? शरीर की जवानी किसी काम की नहीं होती। एक युवा मन चाहिए। वो आएगा या ऐसे ही रहना है? "मैं तो नन्हा-सा, छोटा-सा बच्चा हूँ।”

जिस दिन जवान होओगे उस दिन बड़ी बेचैनी उठेगी। उस दिन कहोगे, "मैं समर्थ, काबिल, जवान; मुझे इतनी ज़ंजीरें पहना रखी हैं? मैं बर्दाश्त करूँगा कभी इन्हें?" बिलकुल आग उठेगी। और वह उस बेचैनी को जला देगी, गहराई से जला देगी। वो उस सबको जला देगी जो नकली है।

ये नकली तुम्हें मिल गया है, मिलना पक्का है। यह परवरिश है। असहाय होते हो न। एक छोटा बच्चा कर भी क्या सकता है? उस पर सौ मान्यताएँ डाल दी जाती हैं। समाज जहाँ चाहता है उसे उस जगह भेज देता है। जो चाहता है वैसा धर्म थमा देता है। उसके मन में जिस तरीके की चाहता है बातें भर देता है। और यह सब चलता रहता है। चौदह की उम्र तक चलता रहता है। क्योंकि तुम असहाय होते हो। कर ही क्या सकते हो?

पर उसके बाद ये सब जो कूड़ा-कचरा तुम्हें दे दिया होता है इसको जलाने का वक़्त आता है। और अगर उसे जला नहीं रहे हो तो जवान हो नहीं। यह बात मैं बारह साल के बच्चे से नहीं कहूँगा। क्योंकि उसका निर्भर होना पक्का है दूसरों पर। जब दूसरों पर निर्भर हो तो दूसरों के कहे अनुसार चलना भी पड़ेगा। तो इसलिए मैं उस से यह बात करूँगा ही नहीं।

यही है बेचैनी। जो सब भरा हुआ है न मन में। जो सब दे दिया है न दूसरों ने, वही खालीपन है। दूसरों का बहुत कुछ है, अपने का अभाव है।

यही वह रिक्तता है। और यह रिक्तता कुछ लाने से नहीं भरेगी, यह जलाने से भरेगी। जो गन्दगी है उसे जला दो। किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं है। जो पहले ही तुम्हारे मन में बैठा दिया गया है उसे जला दो। सारी बेचैनी हट जाएगी। सब तोड़ दो क्योंकि जो कुछ है वह ज़ंजीरें ही हैं। जो भी टूटेगा वही ज़ंजीर है। तोड़ दो उसे। बिलकुल बेख़ौफ़ हो कर। मत सोचना कि यह चुनूँ या वह। कुछ बचाने के लिए नहीं है। जाने दो, सब जाने दो।

जवान होना बच्चों का खेल नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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