प्रश्नकर्ता: मैं अध्यात्म में आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहा हूँ?
आचार्य प्रशांत: ‘हाँ’ (रज़ामंदी) नहीं है। सामर्थ्य भी हो, विवेक भी हो, ऊर्जा भी हो, सब व्यर्थ है अगर हामी नहीं है। ये जो पूरा खेल ही चल रहा है न आध्यात्मिक, रूहानी, ये है ही महबूबा की हामी का। रिझाने वाला रिझाए जा रहा है, वो ‘हाँ’ ही नहीं बोलती। और हामी के बिना बात आगे बढ़ेगी नहीं।
और हामी किन बातों पर आश्रित है, कुछ कहा नहीं जा सकता। कोई अगर एक कारण होता या पाँच कारण होते या बीस भी कारण होते, कि पता होता कि तुम क्यों नहीं हामी भर रहे, तो एक-एक करके वो सारे कारण मिटाए जा सकते थे।
हामी तो बड़ी बेतुकी चीज़ होती है, बड़ी अकारण चीज़ होती है, रीझ गए तो ‘हाँ’ बोल दोगे, रीझ नहीं रहे तो अब क्या किया जाए। दिल नहीं आ रहा, हामी नहीं भर रहे। ऊर्जा वग़ैरह सब आ जाएगी, जवान आदमी हो। चुनाव नहीं कर रहे, अब चुन नहीं रहे तो कैसे बोलें। ये तो अपनी मर्ज़ी की बात है, दिल की बात है। ‘हाँ’ नहीं बोलनी अभी, तो मत बोलो, भाई।
प्र२: मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता है, कृपया कोई आध्यात्मिक उपाय बताएँ?
आचार्य: इनकी गाड़ी की क्लिच प्लेट ख़राब है, उसमें अध्यात्म क्या कर सकता है। तुमसे किसने कह दिया कि अध्यात्म इसलिए है कि पढ़ाई में तुम्हारा मन लगने लगे? नहीं लगता तो नहीं लगता, अध्यात्म क्या करेगा इसमें? अध्यात्म का इसमें क्या काम है, भाई?
उन्हें मैगी नूडल्स नहीं अच्छा लगता, वो बोलें कि “आचार्य जी, मैगी नूडल्स नहीं अच्छा लगता।” तो? तत्वबोध पढ़कर मैगी नूडल्स थोड़े ही अच्छा लगने लगेगा।
अध्यात्म का पढ़ाई-लिखाई से क्या संबंध है? तुमसे किसने कह दिया कि दुनिया जिन कामों को श्रेष्ठ समझती है, उन कामों की पूर्ति के लिए अध्यात्म सहायक हो जाएगा? आध्यात्मिक गुरु आधे से ज़्यादा बेपढ़े-लिखे थे, और तुम कह रहे हो, "सत्संग करके मेरा पढ़ाई में मन लगने लग जाएगा।"
ऐसे ही लोग आते हैं, कहते हैं, "यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं, आचार्य जी। आशीर्वाद दीजिए।"
(सभी श्रोतागण ज़ोर से हँसते है)
इसमें आचार्य जी क्या कर सकते हैं?
पता नहीं क्या भ्रम चल रहा है कि उपनिषद् पढकर आईएएस बन जाएँगे।
“नहीं, मैं गीता का रोज़ पाठ करता हूँ।”
“क्यों?”
“नहीं, उससे नौकरी लग जाएगी।”
इस बात में और इस बात में क्या अंतर है कि, "मैं वशीकरण मंत्र लेकर आया हूँ, लड़की पट जाएगी"? दोनों ही बेतुकी बातें हैं न? कि तुम अपने लालच की ख़ातिर या अपने अंधे लक्ष्यों की ख़ातिर अध्यात्म का प्रयोग करना चाहते हो।
तुमने यूँ ही कहीं एडमिशन (प्रवेश) ले लिया है किसी कोर्स (पाठ्यक्रम) में, तुमने इसलिए एडमिशन लिया है कि तुम्हें सत्य की प्राप्ति हो? जो तुमने कोर्स लिया है, उसका क्या नाम है, बैचलर इन ट्रुथ ? बोलो। या मास्टर्स इन विज़डम ? ऐसा तो कुछ है नहीं। तो उस कोर्स को पास (उत्तीर्ण) करने में ट्रुथ कैसे सहायक हो जाएगा? जो कोर्स ट्रुथ की सेवा में ही नहीं लिया गया, जो कोर्स सत्य से संबंधित ही नहीं है, उस कोर्स को पास करने में सत्य कैसे सहायक हो जाएगा?
पर हमारी तो आदत बनी हुई है, मंदिर जाकर खड़े हो जाते हैं, “इस बार बेटा देना!” तुम्हें बेटा आए, कि बेटी आए, इससे भोले बाबा का क्या प्रयोजन? उनका यही काम है कि इस बार बेटा देना, यही पूरा करते रहें? देवियाँ खड़ी हैं शिवलिंग के सामने, “बेटा चाहिए!” क्या मूर्खता है! अश्लील दृश्य है।
शिव से शांति माँगो, सत्य माँगो, बोध माँगो तो समझ में आता है, क्योंकि शिव शक्ति स्वरूप हैं, शांति स्वरूप हैं, बोध स्वरूप हैं। जिन कामों का सत्य से कोई संबंध नहीं, उन कामों को अध्यात्म से क्यों जोड़ते हो? बोलो न।
फिर तुम कह रहे हो कि कॉलेज (महाविद्यालय) में मन नहीं लगता, यहाँ मन लगता है। देखो, मैं निश्चित रूप से कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन ये भी सम्भव है कि यहाँ भी अगर परीक्षा लेनी शुरू हो जाए और यहाँ भी मामला तीन दिन का ना हो, सेमेस्टर भर का हो, तो तुम्हारा यहाँ भी मन नहीं लगेगा।
अभी तो यहाँ पर सब एक बराबर हैं। यहाँ एमबीबीएस , एमडी भी बैठे हैं, यहाँ पीएचडी भी बैठे हैं, और यहाँ तुम भी बैठे हो कि “पाँच बैकलॉग है मेरी।” और सब एक बराबर हैं, सब एक तल पर हैं, सब शिष्य ही कहला रहे हैं। तो बड़ा अच्छा लगता है कि यहाँ पर कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, यहाँ कोई हमारी क़ाबिलियत नहीं जाँच रहा। यहाँ सब एक बराबर हैं; गधा, घोड़ा एक हुआ। यहाँ भी अगर तुमसे श्रम करने को कह दिया जाए तो मुझे मालूम नहीं कि तुम्हारा उत्तर क्या होगा।
आश्रम में जब भीड़ बहुत बढ़ जाए, तो जानते हो न भीड़ छाँटने का नुसख़ा क्या है? "आ जाओ, भाई, सेवा शुरू हो रही है। कौन-कौन सेवा करा रहा है?" वो भीड़ धीरे-धीरे अपने-आप... "वो जी, वो अब काम याद आ गया था", अपने-आप भीड़ छँटने लग जाती है। तमाशाई बहुत खड़े हो जाते हैं, सेवा के लिए बोलो, “आना ज़रा!" इतना ही करवा दो कि "गमले उठाकर यहाँ से वहाँ रखवा दो आश्रम में”, भीड़ छँट जाती है। इनसे सेवा करवाओ थोड़ी *(प्रश्नकर्ता को इंगित करके)*।
अध्यात्म पनाहगाह थोड़े ही है उनकी जो हर जगह से असफल हों, कि है? तुम कैसे छात्र हो कि तुम कुछ पढ़ नहीं पा रहे? और अगर तुम जो पढ़ रहे हो, बेटा, अगर उसमें तुम्हारी रुचि नहीं है, तो पिताजी का पैसा क्यों ख़राब कर रहे हो? उस कोर्स से बाहर आओ। (अपनी ओर इशारा करते हुए) तुम जिनको सुन रहे हो, उन्होंने पढ़ाई करी थी? करी थी?
प्र२: जब करी थी तो अच्छे से करी थी।
आचार्य: तो कैसे चेले हो तुम! जो कर रहे हो, ढंग से कर लो, या मत करो।
मुझे जब नौकरी नहीं करनी थी तो रख करके आ गया, “अब नहीं करनी।” पर जब तक कर रहा था, बहुत अच्छा कर्मचारी था। ये थोड़े ही है कि वहाँ लगे हुए हो, लगे हुए हो, एक सेमेस्टर , दूसरा सेमेस्टर घिसट रहे हो। क्यों पैसा ख़राब कर रहे हो, समय भी ख़राब कर रहे हो? किसी एक क्षेत्र में जाओ जहाँ प्रेम से पढ़ सको, काम कर सको और फिर वहाँ पूरी सामर्थ्य से जुटो।
अध्यात्म इसलिए नहीं होता कि तुम्हारे ग़लत निर्णय के भी सही परिणाम ला दे। लोगों की अकसर यही उम्मीद होती है कि 'काम तो हम सारे ही ग़लत कर रहे हैं, राम तू इसका अंजाम सही दे दे!' ऐसा नहीं हो सकता। ग़लत काम का सही अंजाम राम भी नहीं देंगे तुमको।
अध्यात्म इसलिए होता है ताकि तुम अपने ग़लत काम ही छोड़ दो। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि ग़लत निर्णय का अच्छा परिणाम आ जाए, अध्यात्म इसलिए है ताकि तुम सही निर्णय कर सको। अंतर समझो।
कितने सेमेस्टर की कर ली पढ़ाई?
प्र२: सर, छठे सेमेस्टर में हूँ।
आचार्य: अरे यार! या तो अब दम लगा दो और पार कर दो, या फिर सीधे ड्रॉप आउट हो जाओ, और कहो कि “ये नहीं, ये पढ़ना है। और अब जो पढूँगा, उसे दिल से पढूँगा।” या ये कह दो, “पढ़ना ही नहीं है।” वो भी कोई अनिवार्यता थोड़े ही है कि पढ़ना ज़रूरी है, कि ग्रेजुएशन (स्नातक) ज़रूरी है; मत करो। सब रास्ते खुले हैं। पर जो करो, ज़रा होश और ईमानदारी से करो।
प्र३: मेरी अपने मन को देखने की प्रक्रिया सही है या नहीं, इसका पता कैसे चलेगा?
आचार्य: देखना सच्चा है कि नहीं, उसका प्रमाण कर्म होता है। झूठ को देखा या नहीं देखा, ये इससे साबित होगा कि झूठ जल गया या नहीं जला। देखने वाली आँख आग की होती है, अगर उसने सचमुच झूठ को देखा है तो झूठ भस्म हो जाएगा। झूठ भस्म हुआ कि नहीं?
ये नहीं हो सकता कि तुम झूठ को देख रहे हो दो साल से और झूठ अभी भी क़ायम है। और कह रहे हो, “पता तो मुझे पक्का है, मैं झूठ का दृष्टा हूँ, बल्कि साक्षी हूँ।” अगर देखा होता सही में तो दिखने वाला झूठ जल गया होता। तुम्हारे अवलोकन में कितना खरापन है, इसका प्रमाण तुम्हारा कर्म ही होगा।
बहुत लोग आते हैं, ऐसी ही बात करेंगे कि, "नहीं, मुझे पता तो सब कुछ है, पर मैं कर कुछ नहीं पाता।" तुम्हें कुछ नहीं पता है। अगर तुम्हें कुछ भी पता होता, तो सार्थक कर्म हो गया होता। और ये बहुतों का कहना है, "नहीं, मैं जानता तो हूँ कि मैं आलसी हूँ और मुझे साफ़ दिख रहा है कि आलस कहाँ से आता है, पर मैं आलस छोड़ नहीं पाता। नहीं, मुझे पता तो है कि मैं कुसंगति में रहता हूँ, पर कुसंगति छोड़ नहीं पाता।"
तुम्हें अगर वाक़ई पता होता, तो पता होना और छूटना एकसाथ होते, एकदम एकसाथ। अगर नहीं छोड़ पा रहे हो, तो माने अभी तुम्हें कुछ पता ही नहीं है। झूठ नहीं जल रहा माने झूठ को अभी देखा ही नहीं। ग़ौर से देखो, और देखो साफ़-साफ़।