जन्माष्टमी विशेष: कमज़ोरों के लिए नहीं हैं कृष्ण || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जन्माष्टमी विशेष: कमज़ोरों के लिए नहीं हैं कृष्ण || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: कृष्ण वो, जिसे आगे-पीछे से कोई लेना-देना नहीं। जो न पीछे का कायल है, न आगे से आक्रान्त। आ रही है बात समझ में? इसीलिए उनके जीवन में आपको विरोधाभास-ही-विरोधाभास दिखाई देंगे। और इसीलिए बहुत सारे लोगों को कृष्ण सुहाते भी नहीं। उनको दूसरे लोग चलते हैं मर्यादित लोग। कृष्ण के साथ मर्यादा जैसा कुछ है ही नहीं। कृष्ण का कुछ पता ही नहीं है कब क्या कर जाएँगे। आप राम को घर बुलाएँ तो बड़ी आस्वस्ति है। वो आएँगे, ड्रॉइंग रूम (बैठक) में बैठेंगे, आप शरबत देंगे, वो पी लेंगे। कोई छेड़खानी नहीं करेंगे। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।

कृष्ण का भरोसा नहीं, वो तो माखन चोर हैं। आपने घर में बुलाया, वो आपके घर का ही माखन (सारा खा जाने का इशारा करते हुए), और रास में माहिर हैं। आपके घर वाले वैसे ही ऊबे हुए हैं आपसे। कृष्ण खतरनाक हैं। लेकिन यदि खतरनाक तरीके से जीना हमें नहीं आता, तो फिर हमें जीना ही नहीं आता। कृष्ण पूर्ण इसीलिए हैं क्योंकि उनके भीतर सारे विरोध समाये हुए हैं। अद्वैत का अर्थ ही यही है कि उसमें सारे द्वैत समाये हुए हैं। किसी भी सिरे का यदि आपने निषेध किया, तो ज़ाहिर सी बात है कि उसके विपरीत सिरे से आप आकृष्ट हो गये।

किसी भी चीज़ को छोड़ने का अर्थ ही यही होता है कि आप उसके विपरीत के साथ जुड़ गये। न जुड़ने का सूत्र सिर्फ़ एक है, ‘न छोड़ो।’ लेकिन कोई ऐसा नहीं होता, जो साहसपूर्वक ये पूछने आये कि पूरा जीना है, कुछ छोड़ना नहीं, कहीं डरना नहीं। लोग ये ज़रूर पूछने आ जाते हैं कि देखिए, बड़ी आसक्तियाँ हैं, इनका त्याग कैसे करें? पागलों को ये समझ में ही नहीं आता कि आसक्ति होती ही इसीलिए है, क्योंकि जिससे आसक्ति है उसके विपरीत से तुम चिढ़े बैठे हो। नहीं समझ में आ रही बात? जब दुख से नफ़रत होगी, जब दुख से समस्या होगी, जब दुख से डर लगेगा, तो ज़ाहिर ही आसक्ति किससे हो जाएगी?

श्रोता: सुख से।

आचार्य प्रशांत: अब जब सुख से आसक्ति हो जाये, तो आप उपनिषदों की शरण में जाओ कि गीता की शरण में जाओ कि देखिए, सुख कैसे छोड़ें? तो कोई समाधान नहीं मिलेगा आपको। सुख से यदि आसक्ति हो रही है, तो समाधान सिर्फ़ एक है- दुख से डरो मत। जिसने दुख से डरना छोड़ दिया, वो सुख से चिपकना भी छोड़ देगा। लेकिन हम दुख से तो डरते हैं, और जब उसका परिणाम ये दिखाई पड़ता है कि अब हम सुखाकांक्षी हो गये हैं, मन लगातार सुविधा की ओर और सुख की ओर भागता है। तो कहते हैं गलत हो गया।

जब छूटता है तो सुख, दुख दोनों एकसाथ छूटते हैं। और दोनों एकसाथ तैसे ही छूटते हैं, कि सुख में भी पूरे रहो और दुख में भी पूरे रहो। आध्यात्मिक होने का अर्थ, फिर कह रहा हूँ, ये नहीं है कि रात से भी तकलीफ़ है और दिन से भी तकलीफ़ है। क्योंकि ये तो आनी-जानी बातें हैं, कि सूरज से भी तकलीफ़ है और बादल से भी तकलीफ़ है, ये तो आते-जाते मौसम हैं- कभी धूप, कभी छाँव। आध्यात्मिक होने का अर्थ ये है कि रात भी हमारी है और दिन भी हमारा है।

और बहुत आपको मिल जाएँगे जो कहते हैं, ये चाँद-सूरज, ये तो सिर्फ़ मानसिक प्रक्षेपण हैं, ये तो मिथ्या-भ्रम हैं, समाधि में इनका कोई अस्तित्व नहीं। समाधि का अर्थ ये नहीं है कि रात में भी मुर्दा हो गये और दिन में भी मुर्दा हो गये। समाधि का अर्थ ये है कि ऐसे जीवन्त हुए हो कि अब रात भी तुम्हारे लिए ज़िन्दा है और दिन भी ज़िन्दा है, चाँद भी तुम्हारे लिए ज़िन्दा है और सूरज भी तुम्हारे लिए ज़िन्दा है। ऐसे हम हो नहीं पाते हैं। बड़ा सुखा-सुखा हमारा जीवन रहता है, बड़ी मुर्दा-मुर्दा हमारी शक्लें रहती हैं।

पूरा जिया नहीं जाता तो हम बड़ी चतुराई पूर्वक एक रास्ता निकालते हैं, कि पूरे मर ही जाते हैं। वो भी नहीं हो पाएगा- जो जिया नहीं है वो मर भी नहीं पाएगा। ये जो पूरी परिकल्पना है भारतीय धर्मों में जीवनोत्तर जीवन की, पुनर्जन्म होगा, याकि स्वर्ग नर्क होगा। ये सब सिर्फ़ ये बताने के लिए हैं कि देखो अगर पूरा जियोगे नहीं तो पूरा मर भी नहीं पाओगे, मरने के बाद भी भटकोगे। पूरा मरना है तो पहले पूरा जी लो, नहीं तो प्रेत बनकर पेड़ पर टँगोगे। न कोई प्रेत है, न कहीं पेड़ पर टँगना है, पर इशारा है, प्रतीक है, उसको समझिए।

पूरा हमसे कहाँ मरा जाता है। जहाँ कबीर हैं, बार-बार, बार-बार बोलते रहे कि मरना सीखो। अब मरे कैसे? पूरा तो कृष्ण जियें हैं, पूरा मरेंगे भी वही। कहीं सुना है कि कृष्ण का पुनर्जन्म हुआ। कि मरकर यमुना पर घुम रहे थे, कि अर्जुन का पीछा किया। तो गये, पूरी तरह गये। एक कृष्ण की, एक बुद्ध की निशानी ही यही होती है कि जब वो जाता है तो पूरी तरह जाता है। वो पीछे अपने कोई अवशेष, कोई निशान नहीं छोड़कर जाता। हम जा ही नहीं पाते, हम अपनेआप को जाने देते ही नहीं।

हम तो चाहते हैं कि मर भी जायें तो हमारे पीछे कोई हमारा नाम लेवा रह जाये। चम्पू तू याद रखेगा न मुझे? हमारे गाने ही ये ही होते हैं कि ये जो मेरा लड़का है, ये मेरे बाद मेरा कुलदीपक होगा। या एक बड़ा मकान तैयार करवा दो, उस मकान के आगे आलेख में अपना नाम लिख दो ‘चोपड़ास्’। कृष्ण को ऐसा कोई लालच नहीं। जब जी लिया पूरा तो अब क्या लालच बचा। जब पी लिया पूरा तो अब क्या प्यास बची। अब क्यों कहें कि कोई हमारा नाम ले। अब क्यों कहें कि समय में हमारी याद आगे बढ़ती रहे।

‘अज्ञेय’ की बड़ी सुन्दर पंक्तियाँ हैं इसमें कि “क्यों पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुन्धली सी याद रहे। क्यों पथ रहे प्रशस्त मेरा, मेरा ऊॅंचा प्रासाद रहे? क्यों पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुन्धली सी याद रहे? मैंने आहुति बनकर देखा है।”

जो आहुति बन गया, जो पूरी तरह जी लिया, वो फिर ये नहीं चाहता है कि ऊँचा प्रासाद बने, कि लोग याद रखें, कि रिटायरमेंट (सेवानिवृत्ति) के बाद ज़रा योजना बना लो कितने पैसे आएँगे। कि बेटी का दहेज़ जोड़ लो, नहीं दहेज़ नहीं आजकल उसे क्या बोलते हैं, तोहफा। कृष्ण नर्तक हैं, पर उनका नृत्य न व्यवस्थित है और न आयोजित है। मानसिक नृत्य नहीं है उनका, पूरा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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