सुनहु राम स्वामी सन चल न चतुरी मोरि।
प्रभु अजहुँ मैं पापी अंतकाल गति तोरी।।
~ संत तुलसीदास
आचार्य प्रशांत: विचित्र लीला है। कहीं से आते नहीं हम और न कहीं को चले जाते हैं। मध्य में वो है जिसे हम कहते हैं कि 'हम' हैं। जन्म से पहले तुम कौन थे और कहाँ थे? और मौत के बाद तुम कौन होओगे और कहाँ होओगे? और बीच में तुमने खूब खेल रचाया है! बीच में तुम कहते हो, "मैं हूँ, मैं हूँ"। और ये अजीब-सी बात है।
जीवन हमारा कुछ ऐसा है कि जैसे ये कक्ष। इसमें एक द्वार इधर है, एक द्वार इधर है। (पहले द्वार की ओर इशारा करते हुए) उधर बाहर न कुछ है और (दूसरे द्वार की ओर इशारा करते हुए) इसके बाहर भी न कुछ है, बीच में सारा जीवन है। ये द्वार जन्म का है, ये द्वार मृत्यु का है। बाहर न कुछ है तो भीतर प्रवेश क्या करेगा?कुछ भी नहीं। जब बाहर कुछ नहीं है तो इस कक्ष में प्रवेश क्या करेगा? कुछ भी नहीं। और जब इधर (कक्ष के दूसरे द्वार की ओर इशारा करते हुए) से भी बाहर कुछ नहीं है, तो यहाँ से प्रस्थान क्या करेगा? कुछ भी नहीं।
अंदर कुछ आता नहीं, बाहर कुछ जाता नहीं, बीच में हम कहते हैं कि जीवन का मेला है। ये बड़ी अजीब बात है। ये मेला कैसे लग गया जब कोई भीतर आया ही नहीं और बाहर कोई गया ही नहीं? पर मेला हमारा शुरू भी होता है, मेला हमारा ख़त्म भी होता है। इस ताम-झाम को, इस आवागमन को ही हम जीवन का नाम दे देता हैं।
इधर भी वही है, उधर भी वही है, बीच में तुम्हारी मर्ज़ी है। उधर भी वही है, उधर भी वही है, बीच में तुम्हारी मर्ज़ी है। मर्ज़ी ये है कि या तो जान लो कि मध्य में भी कुछ नहीं है या ये कह दो कि मध्य में भी वही है। अन्यथा अपने भ्रम में डूबे-डूबे कहते रहो कि बीच में हम हैं!
बात समझ रहे हो?
जन्म से पूर्व भी वही है और मृत्यु के पश्चात भी वही है, और जन्म के बाद और मृत्यु से पूर्व तुम्हारी मर्ज़ी है। इस मर्ज़ी का विकल्प है तुम्हारे पास। क्या विकल्प है? या तो ये मान लो कि जो पूर्व में और पश्चात में है, उसे ही मध्य में होना है। जो पहले है और जो बाद में है, मध्य में भी उसको ही होना है। जो द्वार से भीतर आ रहा है, वही तो द्वार से बाहर जाएगा। द्वार से भीतर कोई आता ही नहीं क्योंकि द्वार के बाहर कोई है ही नहीं। भीतर कोई आए, इसके लिए सर्वप्रथम बाहर कोई होना चाहिए। और द्वार से बाहर कोई जाता ही नहीं क्योंकि द्वार के बाहर भी कोई है ही नहीं। तो भीतर भी निश्चित रूप से कोई है नहीं, मुझे मात्र भ्रम होता है!
एक विकल्प ये है कि मान लो कि भीतर जो तुमने खेल रचाया है वो भ्रम मात्र है, वास्तव में है नहीं। और दूसरा विकल्प ये है कि तुम माने रहो कि भीतर मैं हूँ और मेरा जीवन है। इन दोनों द्वारों के मध्य तुम ऐसे मानते हो जैसे तुम यकायक पैदा हो जाते हो। इसीलिए इस कक्ष की बनावट बड़ी ही सुन्दर है। ये आपको जीवन (कक्ष के प्रवेश द्वार की तरफ इशारा करते हुए), मृत्यु (कक्ष के प्रस्थान द्वार की ओर इशारा करते हुए) और जो जीवन के पार है, वो सब से एक साथ मिलवा देती है। ये दो दरवाज़े मात्र संयोग ही नहीं हैं, संकेत हैं। संकेत को पढ़िएगा।
अब बताइए, सत्य से मिलन का अर्थ क्या हुआ? ये पूरी बात क्या है? प्रभु से मिलना है, मुक्ति, निर्वाण – ये चीज़ क्या हुई?
प्रभु से मिलने की बात क्या द्वार के उस पार करोगे? जब जन्म नहीं हुआ था तो बात करते थे मुक्ति की? जब मृत्यु हो जाएगी, उसके बाद बात करोगे मुक्ति की? मुक्ति की सारी बात कब करते हो? जब तक जीवन है तब तक मुक्ति की बात करते हो। मुक्ति की सारी बात के पीछे अवधारणा ये है कि अभी अमुक्त हो। प्रभु से मिलने की सारी बात के पीछे अवधारणा ये है कि अभी तुम हो, प्रभु नहीं हैं; मिलन शेष है, योग शेष है।
बात वैसी हो सकता है कि हो न। हो सकता है बीच में जो तुमने मान रखा है कि तुम हो और प्रभु नहीं हैं, वो नीरवता, वो खालीपन हट गया है—वो हटा न हो, तुम्हें सिर्फ धोखा होता हो। हो सकता है कि उस पार की नीरवता और उस पार की नीरवता मध्य में भी हो। तुमने उसे बस भरने की कल्पना बैठा ली हो।
जब वही-वही है उधर भी और उधर भी और बीच में भी, तो ज़ाहिर-सी बात है कि वही तुम्हारा आदि भी है और वही तुम्हारा अंजाम भी है। जो उस पार है, वही उस पार है। तो आदि भी वही और अंत भी वही, बीच में तुम क्या करते हो, वो तुम जानो। क्योंकि बीच में तुम्हारे मुताबिक कौन बैठा है? तुम! अब इस 'तुम' का तुम क्या करते हो, वो तुम जानो।
बात आ रही है समझ में?
उधर भी वही है, उधर भी वही है, मध्य में भी वही है, पर मध्य में एक थोड़ा-सा झमेला है: मध्य वाले को तुम हरी मानते नहीं। मध्य वाले को तो तुम 'मैं' मानते हो। इस 'मैं' का तुम क्या करते हो, तुम जानो। लेकिन तुम कुछ भी करो, एक बात पक्की है, इस 'मैं' का अंत किस में होना है?
ये कक्ष है, इसमें आप कितने भी चक्कर लगा लो, निकलोगे तो इसी द्वार से न? विदाई का, प्रस्थान का एक ही द्वार है, और उस द्वार के आगे क्या है? वही जिसने भेजा था, जहाँ से आए थे। भीतर तुम चतुराई दिखा सकते हो, चक्कर-ही-चक्कर-ही-चक्कर-ही-चक्कर-ही-चक्कर-ही-चक्कर-ही-चक्कर ही काट सकते हो। भीतर तुम जो भी कर लो, उससे बाहर वाला नहीं बदल जाएगा। भीतर तुम जो भी करोगे, इससे तुम्हारी तुम्हारे विषय में जो धारणा है, वो बनती-बिगड़ती रहेगी। तुम सौ चक्कर काटो, उसको तुम नाम दोगे सौ चतुराइयों का। "मैं तो बड़ा होशियार हूँ, मैं तो विश्वविजेता हूँ। मैंने तो संसार के पचास चक्कर लगा दिए, मैं तो यहाँ के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ हूँ, बड़ा ज्ञानी हूँ।" और तुम सौ साल, सौ-हज़ार साल लगा सकते हो भीतर चक्कर काटते हुए लेकिन दरवाज़ा तो फ़िर भी वही है। निकलोगे वहीं से।
उस दरवाज़े का नाम क्या है? मृत्यु।
तुम जीवन में कुछ भी कर लो, एक चीज़ पक्की है कि जीवन में तुमने जो कुछ भी किया, वो मृत्यु के तथ्य को नहीं बदल सकता। मरोगे तो तुम है ही, एक ही द्वार है मृत्यु का। जीवन से जब भी कोई निकला है, एक ही रास्ते से निकला है, उस रास्ते का नाम है मौत।
ठीक? बात आ रही है समझ में?
फिर कह रहा हूँ, लेकिन भीतर तुम क्या करते हो, ये तुम्हारी मर्ज़ी है। जन्म से पहले और मौत के बाद वही बैठा हुआ है। बीच में भी बैठा वही है, लेकिन बीच में उसने तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी दे दी है। मर्ज़ी चलेगी तुम्हारी, तुम क्या करते हो, तुम जानो।
दो बातें हमने कहीं, दोनों एक साथ सत्य हैं। पहली, कि वास्तव में तुम्हारे पास कोई मर्ज़ी है नहीं क्योंकि अंत तुम्हारा उसी में है। तुम लाख हाथ-पाँव पटक लो, अंत तुम्हारा वहीं पर है। तुम निर्विकल्प हो, तुम्हारे पास कोई चुनाव नहीं है, तुम्हारी कोई मर्ज़ी चलने वाली नहीं। और दूसरी, कि जब तक तुम मरे नहीं हो, तब तक अपनी मर्ज़ी तुम खूब चला लो। वो मर्ज़ी उसी की देन है, उसी ने उपहार दिया है। वो कहता है, "चलाओ, हम ही ने तो भेजा है। प्रीपेड कार्ड है, जैसे ख़र्च करना हो करो।"
पर कितना भरा हुए है उस कार्ड में? वो तयशुदा है। उससे ज़्यादा ख़र्च नहीं कर पाओगे। "जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना"। प्रीपेड कार्ड है, जितना भर दिया गया, उतना ही चलेगा। कैसे चलाओगे, तुम जानो! हाँ, वो ख़त्म ज़रूर होगा। और ख़त्म होने के बाद कौन खड़ा है? वही, जिसने कार्ड दिया था।
बात आ रही है समझ में?
अब तुम्हारे पास, ये बता दो, कि मर्ज़ी है कि नहीं है? वो तुम जानो। गौर से देखोगे, तो नहीं है। पर मर्ज़ी ही चलानी है तो है, बिलकुल है।
क्या कह रहा है बाली, गौर करो:
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहुँ मैं पापी अंतकाल गति तोरी।।
स्वामी के सामने चतुराई नहीं चली; जीवन भर पापी रहा लेकिन अंत में तुम्हारी ही गति आया। तुम्हारे ही बाण से निर्वाण हुआ। जीवन भर चतुराई चलाई, जीवन भर इस कक्ष में चक्कर-ही-चक्कर काटे। जीवन भर यहाँ कभी घर बनाया, कभी दुकान बनाई, कभी महल खड़ा किया। कभी एक सपना, कभी दूसरा सपना, ऐसे जैसे यहाँ तुम्हें बसना है। ऐसे जैसे यहाँ तुम्हें कोई सातत्य मिलने वाला है। खूब चतुराईयाँ करीं, पता अच्छे से था कि दो द्वार हैं, एक से भीतर आए हो तो दूसरे से बाहर जाओगे भी, लेकिन अपने को ही धोखे में रखते रहे।
राजा था बाली। भाई की बीवी उठा लाया था। पराक्रमी था, योद्धा था, सुंदर था, शासन कर रहा था। खूब उसने सपने सजा लिए थे, महल खड़े कर लिए थे। और जब उसका संग्राम चल रहा था, किसके साथ?
प्रश्नकर्ता: सुग्रीव के साथ?
आचार्य प्रशांत: वही जिसकी बीवी उठा लाया था, तारा (बाली की पत्नी का नाम)। सुग्रीव के साथ संग्राम चल रहा है, तब भी वो उस संग्राम में भारी ही पड़ रहा था। बिल्कुल हो सकता है कि इस कक्ष के भीतर जो दुनिया है, उस दुनिया पर तुम भारी पड़ जाओ। बिल्कुल हो सकता है ऐसा कि तुम यहाँ के बादशाह बन जाओ, सिकंदर हो जाओ, अकबर हो जाओ, अशोक (महान) हो जाओ। यहाँ के तो तुम बादशाह हो सकते हो। पर एक बाण आता है और जीती हुई लड़ाई को हार में तब्दील कर देता है। जीत रहा था बाली, एक बाण आया! किसका बाण था वो?
प्र: राम।
आचार्य प्रशांत: उसी का बाण था जिसने भेजा था, उसी का बाण था जो वापस बुला लेता है। सब ख़त्म! सारी चतुराई ख़त्म! तुम बादशाह हो इस कक्ष के, इस भवन के, इस महल के, इस धरा के बादशाह हो, एक बाण आता है, बस ख़त्म!
रामायण महाकथा है, रामायण महापुराण है। उसकी घटनाओं को मात्र घटनाएँ मत मानिएगा। वानर नहीं लड़ रहे थे आपस में, बंदरों की उछलकूद नहीं हो रही है, बात कुछ और है, दूर की है। हर घटना कहीं को इशारा कर रही है। घटना को पढ़ना जानिए।
कहते हैं, बनारस के पंडित तुलसीदास से बहुत खफा हुए, कि, "ये कौन-सा नया ग्रंथ रच दिया है तुमने? और क्यों उसका इतना महात्म्य गाते हो?" तो विश्वनाथ जी के मंदिर में मानस की परीक्षा लेने के लिए वेद, पुराण, शास्त्र और मानस की एक प्रति रख दी गयी। मानस की प्रति सबसे नीचे रखी गयी, विश्वनाथ जी के सामने। मंदिर के कपाट बंद कर दिए गए, सुबह कपाट खुले, देखा गया प्रति मानस की सबसे ऊपर रखी हुई थी।
ये उदाहरण भी सांकेतिक है, मतलब समझिएगा। ये कहने के लिए है कि राम का जो वृत्त है, उसमें वेदों का सत्य समाया हुआ है। उसे कथा-कहानी-किस्सा-मनोरंजन मत बना लीजिएगा। वो कोई आम घटना नहीं है कि एक भाई दूसरे की बीवी उठा लाया है तो पत्नी वापस दिलाने के लिए बीच में कोई मध्यस्त आ रहा है, कोई राजा आ रहा है जो इंसाफ़ कर देता है। वो बात नहीं है। बात बहुत आगे की है। उपनिषदों का गूढ़ सत्य रामायण की छोटी-छोटी घटनाओं में प्रदर्शित होता है। अगर आप उस गूढ़ सत्य तक नहीं पहुँच रहे और कथा मात्र तक सीमित रह गए हैं, तो आपने छिलका-छिलका पा लिया और रस से वंचित रह गए।
समझ रहे हैं बात को?
कर लो जितनी चतुराई करनी है, अंत वही है। तुम्हारी सरी चतुराई तुम्हें तुम्हारे अंत से ही दूर रख रही है। जानते हो अंत का एक पर्याय क्या होता है? उच्चतम, आख़िरी, विश्राम। अंत माने वो जो तुम्हारे सारे प्रयत्नों की परिणीती है। तुमने जो कुछ किया, उसका शिखर है अंत। अंत माने आख़िरी, अंत माने अल्टिमेट (परम), अंत माने अद्वितीय।
बाली को आख़िरी क्षण में बात समझ में आती है कि सत्य के आगे तुम्हारी चतुराई नहीं चलती बल्कि तुम जितनी चतुराईयाँ करते हो, तुम स्वयं को ही बेवकूफ़ बनाते हो। बीच में जो तुम्हारा जीवन है, उसका उद्देश्य सिर्फ एक है, ध्यान देकर सुन लो। वो ये है कि तुम जान लो कि वो बीच की कोई चीज़ ही नहीं है। उसका न कोई आदि है न अंत है, तो वो बीच में कहाँ से आ गयी? बीच का जो तुम्हारा जो जीवन है, सुन लो ध्यान से, वो यही जताने के लिए है तुमको कि वो तुम्हारा जीवन है ही नहीं, कि जन्म एक धोखा है और मृत्यु एक झूठ है, कि तुम हो मूलतः वही जो तुम जन्म से पूर्व भी थे, जो तुम मृत्यु के बाद भी होओगे, बीच में तुमने बस किस्से गढ़ लिए हैं।
सोने जाते हो, सोने से पहले तुम स्त्री होते हो, पुरुष होते हो। सोने से पहले तुम्हारे मन में योजनाएँ होती हैं। सोने से पहले तुम्हारे पास दस पहचानें होती हैं, पचास विचार होते हैं। सोने से पहले तुम अपने नए महल की आधारशिला रख रहे थे। तुम सो गए, कहाँ गया वो महल? कहाँ गयी योजनाएँ? कहाँ गयी स्त्री? कहाँ गया पुरुष? कहाँ गए बाज़ार? एक छोटी-सी आम रोज़मर्रा की नींद भी तुम्हारे जगत को मिथ्या सिद्ध कर देती है। मृत्यु तो आख़िरी नींद है। वो तो स्पष्ट और अटूट प्रमाण है कि जीवन झूठ है और मृत्यु भी झूठ है। मृत्यु, मृत्यु के झूठ होने का प्रमाण है। मृत्यु न रहे तो हमारा जीवन नहीं चलेगा। फिर किसके खौफ से भागते फिरोगे? और भागते नहीं फिरोगे तो मानोगे नहीं कि ज़िंदा हो।
?मौत हमारी ज़िन्दगी का पर्याय है, और मौत झूठी है, ज़िन्दगी भी झूठी है हमारी।
बाली की मृत्यु राम के हाथों बताती है तुमको कि या तो जीवन का सदुपयोग करो और स्वयं ही राम को पा लो, या भरते रहो अपने पापों का घड़ा, कर्मों का घड़ा, मूर्खताओं का घड़ा। बचोगे तुम तब भी नहीं! या तो सीधे-सीधे राम का वरण कर लो या हज़ार चालाकियाँ दिखा कर, सौ प्रकार के कष्ट पाकर, पिट-पिटा कर दुनिया भर के कष्ट उठाकर मजबूर होकर फिर मान लो कि राम ही तुम्हारा अंत हैं और सद्गति हैं।
बोलो क्या मर्ज़ी है, क्योंकि बीच में तो तुम्हारी मर्ज़ी है। क्या मर्ज़ी है? हनुमान की तरह पाना है या बाली की तरह पाना है? पाया दोनों ने है। विभीषण की तरह पाना है या रावण की तरह पाना है? पाया दोनों ने है। इस चक्कर में मत रहना कि बाली बन जाओगे, कि रावण बन जाओगे, तो राम से बच जाओगे। बाली भी मरते-मरते यही कह रहा है कि, "प्रभु, आप ही के हाथों सदगती मिली"। रावण ने भी अंत में यही कहा था, "प्रभु, आप ही के हाथों सदगती मिली। आप के अलावा कोई मुझे तार भी नहीं सकता था।"
तारेंगे तो तुम्हें वो ही। तुम बताओ तुम्हें तरना कैसे है क्योंकि तुम्हारी तो मर्ज़ी बीच में है। तो तुम अपनी मर्ज़ी चलाओ और मुझे बताओ, कैसे तरना है?
तरना तो पड़ेगा, द्वार तो खुलेगा। राम तो हैं; प्रत्यक्ष होंगे। मिलना तुम्हें राम में ही है। कैसे मिलना है, वो तुम जानो। हनुमान की तरह कि बाली की तरह? सुग्रीव की तरह कि बाली की तरह? सीता की तरह कि शूर्पणखा की तरह?
कैसे मिलना है?
नहीं, मर्ज़ी है तुम्हारे पास। जब राम ने ही ज़बरदस्ती नहीं करी तुम्हारे साथ तो मैं क्यों करूँगा? दबाव मत महसूस करो। तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम रावण की तरह मिलो, राम से लड़-लड़ कर। तुम कहो, "हम मानते नहीं तुम्हें, हम तो लड़ेंगे तुम से"। खूब कष्ट पाओ, खूब पिटो, चेहरा सुजा लो। आम आदमी का जीवन और क्या होता है?कभी देखा है मुक्केबाज़ का चेहरा लड़ाई के बाद? आँखें ऐसी हैं काली-काली। वैसे ही तो हमारा चेहरा होता है। सुबह-सुबह किसी से मिलो और कोई ज़रा ज्ञानी हो, भक्त हो, ढंग का आदमी हो, तो उससे बोलो, "राम-राम"। और जो बाकी सब होते हैं दुनियादार, चतुर-चालाक, उनसे काहे पूछते हो, "कैसे हो?" उनसे तो एक बात पूछो, "और आज कहाँ पिटकर आ रहे हो?" या ज़्यादा नहा कर आ रहे हों, साबुन-तेल लगा कर आ रहे हों तो पूछो, "कहाँ चले पिटने?"
इसके अलावा और क्या है पूछने लायक?
दो ही तुम्हारी गतियाँ हैं: या तो मिल जाओ राम में या जाओ दुनियाभर में ठोकरें खाओ, पिटो इधर-उधर। तो ईमानदारी की बात यही है, "और! काफी पिटे-पिटे लग रहे हो!" कोई ज़्यादा हँस रहा हो, मुस्कुरा रहा हो, "आज कम पिटे क्या? या अभी आज का पिटना शेष है?" बचेगा कोई नहीं, कोई शाम तक नहीं पिटा है तो रात में पिटेगा। बाली को यही लगता रहा जीवन भर कि अभी पिटा नहीं हूँ। अंत में पिटा! ये मत पूछो कि, "पिटे कि नहीं?" पूछो, "आज कहाँ पिटे?" किधर से कराहते हो आज? हाऊ डू यू डू (आप कैसे हैं)? या इतना ही पूछ लो, "कहाँ?" सामनेवाला ईमानदार हो तो बस ऐसे (कमर की तरफ इशारा करते हुए) बता दे, "आज यहाँ!"
एक चुटकुला है पुराना, सुना होगा। बच्चे सुनाते हैं एक दूसरे को। पर बात बच्चों की नहीं, बड़े-बड़ों पर लागू होती है इसीलिए दोबारा सुना रहा हूँ।
एक घुसा हुआ था जंगल में, कुछ तलाश रहा होगा। लोग तलाशने के लिए कहीं भी घुस जाते हैं। तो उसको पकड़ लिया कबीले वालों ने। तो उसको ले गए कबीले के सरदार के सामने। बोले, "बढ़िया मुर्गा है, इसको पका कर खाएँगे"। और पका कर खाने से पहले मारने की उनकी एक विधि थी। पुरानी विधि है, आज से चालीस साल पहले भी बच्चे एक-दूसरे को यही चुटकुला सुनाते थे। तो बहुत पुराना होगा।
तो सरदार बोलता है, "इसको झिंगालाला करके मारो"। अब झिंगालाला जो है वो मारने का बड़ा दर्दनाक तरीका था। जो घटिया-से-घटिया मौत तड़पा-तड़पा कर किसी को दी जा सकती थी, उसे कहते थे झिंगालाला। सरदार ने आज्ञा दी, "इसका झिंगालाला करो!"
तो आदमी ने पूछा, "झिंगालाला माने क्या?"
तो उन्होंने इशारा किया, "उधर देखो, एक का झिंगालाला चल रहा है"।
अब उसने देखा तो उसकी रूह काँप गयी, बोला, "नहीं चाहिए झिंगालाला। अरे, मुझे तो मौत दे दो। मौत भली है झिंगालाला से।"
सरदार ने बोला, "ठीक है। इसको झिंगालाला, मौत तक!"
समझ में आ रही है बात? जैसे तुम हो, उसमें झिंगलाला तो होना ही है, चतुराई दिखाओगे तो उसे और बढ़ाओगे। तुम्हारी कोई चतुराई तुम्हें बचा नहीं पाएगी। हनुमान हो जाओ, जल्दी समझ लो। बाली रहो, तो मरते दम समझो। समझना तो तुम्हें पड़ेगा ही। समझने को ही राम कहते हैं। राम माने प्रज्ञान, 'प्रज्ञानम् ब्रह्म'। समझ ही राम है। समझ कभी-न-कभी तो तुम्हें आना ही है। तुम ये देख लो कि समझ आने से पहले तुम्हें जीवन व्यर्थ कितना करना है!
खुद समझ लो, नहीं तो वक़्त थपेड़े दे-देकर समझाएगा।
बचाना खोना है, चतुराई मूर्खता है। तुम जो कुछ बचा रहे हो, तुम जिसके डर से शंकित हो, वो सब भ्रम मात्र है। हम वैसे बचा रहे हैं कि जैसे कोई तैराक हो, वो सागर में तैरता हो, और उसने अंजुली में पानी भर रखा हो और पानी को बचाता हो कि कहीं ये खो न जाए! बचाने के डर के मारे तैर ही न पाता हो। हाथ तो दोनों व्यस्थ हैं बचाने में। किसको बचाने में? पानी को बचाने में। "ये मेरा व्यक्तिगत पानी है, ये कहीं खो न जाए"। पानी तुम्हारा व्यक्तिगत नहीं है, खो कुछ सकता नहीं। चारों तरफ पानी-ही-पानी है; जितना हाथ से जाएगा, उतना हाथ में वापस आ जाएगा। वास्तव में कुछ गया ही नहीं हाथ से लेकिन बचाने की फ़िराक में तुमने तैरने का आनंद ज़रूर गँवा दिया। मोल ले लिया बचाने का डर, नाहक ज़िम्मेदारी। जो ज़िम्मेदारी तुम्हारी है ही नहीं, उसको निभा रहे हो।
सारी चतुराई परम-मूर्खता है क्योंकि चतुराई में तुम वो बचाते हो जिसको बचाने की ज़रूरत ही नहीं और उसको गँवाते हो जो गँवाया जा सकता नहीं। जो पाया जा सकता नहीं है, हम उसे पाने की कोशिश में लगे रहते हैं, और जिसे खोया जा सकता नहीं, उसके खो जाने का डर हमारे जीवन का आधार बन जाता है।
सरल रहो, सीधे रहो। तेढ़ा होना तुम्हारी बुद्धि को नहीं, तुम्हारे बुद्धुपन को दिखाता है।