जन्म किसका? मृत्यु किसकी? अमर कौन? || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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जन्म किसका? मृत्यु किसकी? अमर कौन? || आचार्य प्रशांत (2015)

आचार्य प्रशांत: जिसको तुम शरीर कहते हो वह सिर्फ़ पदार्थ है। ये जो मक्खियाँ हैं न ये पदार्थ हैं, मटीरियल (पदार्थ) हैं। जो ही मटीरियल , आई एम (मैं हूँ) के संपर्क में आता है, वह अपनेआप को जिंदा समझने लगता है। उसमें भी संसर्ग के, संपर्क के कारण, आई एम की भावना आ जाती है।

जैसे कि तुम आग के पास जाओ, बहुत पास, और कोई तुम्हारे चेहरे को देखे और उसे लगे कि तुम्हारा चेहरा ही जल रहा है। रात में कभी आग के पास जाना और कोई तुम्हारा चेहरा देखे तो ऐसा लगेगा कि जैसे तुम्हारे चेहरे में ही आग हो। बिलकुल लाल-पीला, भभकता-सा तुम्हारा चेहरा हो जाएगा। जबकि आग है अलग, तुम सिर्फ़ उसके नजदीक गए हो। ठीक उसी तरह से पदार्थ जब आई एम के करीब जाता है, अहम् वृत्ति के करीब जाता है तो अहम् वृत्ति पदार्थ में भी आ जाती है।

जिसे तुम ‘मैं’ कहते हो वह मात्र पदार्थ है, जो उस वृत्ति के संपर्क के कारण अपनेआप को जीवित समझने लगा है। यह जो चलता-फिरता ढांचा है जिसको तुम शरीर कहते हो, यह जिंदा नहीं है। और तुम बार-बार इसी की मौत की बात कर रहे हो कि सत्तर साल का हो कर क्या होगा, मरेगा तो क्या होगा।

यह जिंदा है ही नहीं। यह सिर्फ अहम् वृत्ति के संपर्क में है इस कारण जिंदा जैसा लगता है, और चूँकि पदार्थ है तो पदार्थ की अपनी विशेषताएँ, प्रॉपर्टीज होती हैं, हर पदार्थ की। यह जो पदार्थ है जिसे तुम शरीर कहते हो इसकी विशेषता यह है कि यह सत्तर, अस्सी, सौ साल चलकर फिर अपना रूप बदल देता है। उसको तुम मौत बोलने लगते हो। वह मौत नहीं है, वह सिर्फ़ ऐसा ही है कि जैसे तीन दिन बाद दूध फट जाएँ। यह दूध की पदार्थगत विशिष्टता है। उसको तुम दूध की मौत बोलोगे क्या? दूध फट गया, तुम कहोगे कि दूध मर गया? इसी तरह से तुम्हारा शरीर भी करीब साठ, सत्तर, अस्सी साल चलकर गिर जाता है। उसमें मौत जैसा कुछ नहीं है, वह कभी जिंदा था ही नहीं। शरीर कभी जिंदा नहीं था; पदार्थ था जो अहम् वृत्ति के संपर्क मे आकर के जीवित जैसा लगने लगा था। मक्खी थी जो गुड़ के पास आकर के खुद भी मीठी-मीठी सी होने लगी थी। तो मौत की बात ही भ्रामक है। मौत यदि है तो प्रतिपल है, अन्यथा है नहीं।

प्रश्नकर्ता: फिर जीवित होना क्या है?

आचार्य: कुछ भी नहीं। जीवित होना यानी जीव भाव रखना। जीव भाव रखना ही आमतौर पर जीवित होना कहा जाता है।

प्र: पर यह तो पदार्थ भाव हुआ न!

आचार्य: हाँ, जीव भाव, पदार्थ भाव ही है।

वास्तव में जीवित होना हुआ अहम् वृत्ति के खेल के पार चले जाना। वहाँ पर अमर जीवन है। वहाँ पर वह वाला फिर जीवन नहीं है जो पदार्थ पर निर्भर करता हो। वहाँ वह जीवन नहीं है जो सत्तर साल में खत्म हो जाएगा या जिसको कोई आकर के गोली या चाकू मार दे तो मर जाएगा। पदार्थ की तो प्रॉपर्टी (विशेषता) है न कि उसमें से खून ज्यादा निकल गया तो गिर जाएगा।

तो जहाँ भी पदार्थ है वहाँ पदार्थ का अंत भी है। पेड़ को पानी नहीं मिलेगा तो मरेगा; तुम्हें खाना नहीं मिलेगा तो मरोगे। सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं; पदार्थ की तो सीमा होगी ही होगी। इसी को हम जीवन बोलने लग जाते हैं।

यह जीवन नहीं है, यह मात्र जीव भाव है। जीवित होना हुआ वहाँ पहुँच जाना जहाँ पर जीवन पदार्थ से संयुक्त नहीं है, न पदार्थ पर निर्भर है। तब तुम यह नहीं कहोगे कि मैं, मेरा शरीर जिंदा है। तब तुम्हें वास्तविक जीवन मिलता है और उस जीवन की कभी मौत नहीं होती। वह फिर अमरता है। जब तक शरीर को महत्व देते रहोगे, शरीर को जिंदा समझते रहोगे तब तक सिर्फ़ मौत की तरफ़ बढ़ते रहोगे।

अपनेआप को जब भी देखो तो पदार्थ की तरह देखो, बिल्कुल *मटीरियल*। यह एक मटीरियल है जो चल-फ़िर रहा है। क्यों चल-फ़िर रहा है? क्योंकि अहम् के संपर्क में है। और कैसे चल फिर रहा है? जैसी इसकी प्रॉपर्टीज हैं। समझना दोनों बातें: क्यों चल-फ़िर रहा है? क्योंकि अहम् के संपर्क में है। और कैसे चल फिर रहा है? जैसे इसकी संरचना, जैसे इसके गुण। चूँकि पदार्थ है इसीलिए अपने गुणों के अनुसार, अपने संस्कारों के अनुसार, समय में इसका परिवर्तन और अंततः लोप हो जाना है।

हर पदार्थ समय में लगातार बदल रहा है। तुम्हारा शरीर भी चूँकि पदार्थ है इसलिए समय में लगातार बदल रहा है। हर पदार्थ परिवर्तित होने के साथ-साथ लुप्त भी हो रहा है। ठीक इसी तरह से तुम्हारा शरीर भी लुप्त होने की यात्रा पर है। और अपने गुण के अनुसार, अपनी उपाधि के अनुसार, वह अहम् वृत्ति से एक बिंदु पर आकर के हट भी जाता है। मक्खी उड़ जाती है — इसी को हम कहते हैं प्राणों का निकल जाना। इसको हम कहते हैं कि आदमी अब मुर्दा हो गया। वह कुछ नहीं हुआ है, मक्खी जो गुड़ पर बैठी थी, उड़ गई। बस इतना ही हुआ है। पदार्थ उस मूल प्राणवृत्ति से अलग हो गया। पदार्थ का अब प्राण से संपर्क नहीं रहा। मक्खी उड़ गई, वो उड़ गई। पदार्थ है, उड़ गया। अपने लिए कहीं नहीं गई, कोई और देख रहा है तो उसे दिख जाएगी। दूसरी मक्खी के लिए है, वह घूम रही है। मुर्दा गिरकर कहाँ जाता है? अपने लिए कहीं नहीं जाता। जो देख रहें हैं वो कहेंगे कि मुर्दा पड़ा है। मुर्दा क्या है? पदार्थ। मक्खी जो गुड़ से हट गई है। कुछ देर के लिए बैठी थी, फिर उड़ गई।

प्र: प्राण तो पदार्थ में से निकल गया, लेकिन प्राण तो शेष है न?

आचार्य: हाँ, वह शेष है।

प्र: पर क्या वह खुद में पदार्थ नहीं है?

आचार्य: नहीं, वह पदार्थ नहीं है। तो क्या करना है उसका? काफ़ी उत्सुक लग रहे हो कि प्राण तो शेष है, क्या करोगे? दूसरी मक्खी कुछ कहेगी, वह फिर जाएगी, फिर उससे चिपक जाएगी। फिर कहोगे कि पदार्थ में प्राण आ गए। गर्भ में बच्चा आ गया।

प्र: तभी तो लोग बोलते हैं कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में चली जाती है।

आचार्य: आत्मा एक शरीर से दूसरे में नहीं जा रही है। मक्खी जा रही है। आत्मा को कहीं आना-जाना नहीं है; आत्मा स्थिर है; आत्मा की कोई गति नहीं होती; उसे गति करने के लिए कोई स्थान ही नहीं है। आकाश क्या गति करेगा? आकाश में पदार्थ गति करता रहता है।

प्र: शेष बोलने से भी ऐसा नहीं लग रहा कि कुछ इस्तेमाल हो गया, कुछ खत्म हो गया और कुछ बच गया? कि प्राण शेष रह जाता है।

आचार्य: हाँ, वह तो शेष रह ही जाता है। पर वह तुम्हारा प्राण थोड़े ही है जो शेष रह जाता है। अच्छा, इसीलिए तुम खुश हो रहे थे कि मेरे प्राण शेष रह जाएँगे।

प्राण, प्राण हैं। वह तुम्हारे प्राण नहीं हैं कि शेष रह जाएँगे। वह जो मूल जीवन वृत्ति है, वह शेष रह जाती है। अब वह पदार्थ के तलाश में रहती है और पदार्थ उसकी तलाश में रहता है। दोनों एक दूसरे की तलाश में रहते हैं।

प्र: क्या वह, दोनों वृत्तियों से मुक्त होती है?

आचार्य: नहीं वह फ्री (मुक्त) नहीं होती है। वह तो जुड़ना चाहती है। अहम् वृत्ति लगातार अधूरेपन में जीती है। उसको कोई चाहिए जिससे वह जुड़ सके। वह खुद पदार्थ की तलाश में है, इसीलिए वह पदार्थ को नए-नए तरीक़े के रूप देती है। कभी घास बना देती है, कभी तितली बना देती है, कभी कुछ, कभी कुछ। पदार्थ भी उत्सुक है उससे जुड़ने के लिए और वह भी उत्सुक है पदार्थ से जुड़ने के लिए।

प्र: अभी यह बात मेरे लिए यहाँ अटक रही है कि जैसे वह मक्खी उड़ गई तो उसकी जो भूख है गुड़ के लिए, वह अभी पूरी तरह निवृत्त नहीं हुई है। अभी उसे और चाहिए और जैसे हम यह बात भी बोलते हैं — जो अतृप्त वासनाएँ होती हैं, वह ही जन्म लेती है। न सिर्फ़ मेरा मानना यह है, बल्कि साधारणतया ऐसा बोलते हैं कि मक्खी जो थी, उसे अभी और चाहिए था।

आचार्य: मक्खी की कोई चेतना नहीं है, मक्खी पदार्थ है। तुम मक्खी को जीव मान रहे हो। उड़ी हुई मक्खी जीव नहीं है, उड़ी हुई मक्खी मात्र पदार्थ है। उसके पास कोई चेतना नहीं है। हाँ, पदार्थ ही पदार्थ को खींचता है पर वह पूरी तरीके से एक मृत बात है। उसमें तुम चाहना शब्द का उपयोग नहीं कर सकते हो। पदार्थ, पदार्थ की ओर आकर्षित हो, इसमें चाहना शब्द का उपयोग उचित नहीं है।

तो उड़ी हुई मक्खी की कोई वासना अब शेष नहीं है। उसके पास गुण हैं, इच्छाएँ नहीं हैं। चुंबक के पास यह गुण है कि वह लोहे को खींचती है। पर उसे लोहे को खींचने की कोई इच्छा नहीं है। इन दोनों में अंतर समझो — यह चुंबक की प्रॉपर्टी (गुणधर्म) है, चुंबक की इच्छा नहीं है कि लोहे को खींचे। पदार्थ की कोई इच्छा नहीं होती। मुर्दे की कोई इच्छा नहीं होती। मुर्दा जब संयुक्त होता है जीवन वृत्ति से, तब इच्छाएँ उठती हैं उसमें। हाँ, मुर्दे की प्रॉपर्टीज (गुणधर्म) होती हैं, वज़न होता है, इच्छा नहीं होती।

प्र: फिर इच्छाओं की इसमें क्या भूमिका होती है?

आचार्य: यही कि चिपकाती है।

प्र: वह तो बिना इच्छा के भी चिपक रहे थे।

आचार्य: नहीं।

प्र: चुंबक, चुंबक से बिना इच्छा के चिपक रहे थे।

आचार्य: इसकी ओर से कुछ नहीं है। इसको भी जो चुंबक बनाने का पूरा आयोजन है। वह अहम् वृत्ति के आने के साथ ही हुआ है। शून्य से ये दोनों एक साथ उपजते हैं, अहम् वृत्ति और तमाम तरीके के विषय जो उस वृत्ति को पूर्णता का वादा देते हैं।

अहम् वृत्ति का मतलब, एक अधूरापन। और यह अधूरापन अपने साथ ऐसे विषयों का पूरा एक संसार लेकर आता है, जो इसे पूर्णता का वादा करते हैं। झूठा वादा है, पर करते हैं। शून्य से जब यह जीवन वृत्ति उपजती है, तो वह एक विभाजन के तौर पर होता है। जैसे शून्य ने अपनेआप को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया हो — पुरुष और प्रकृति; जीवन वृत्ति और पदार्थ; एक ही बात है यह सब। जो कुछ नहीं था वह दो बनकर सामने आया। एक हिस्सा जो चैतन्य है, दूसरा हिस्सा जो अचेतन है। एक जो पदार्थ वाला हिस्सा है और दूसरा जो जगा हुआ हिस्सा है। और दोनों के गुण यही हैं कि उनमें आपसी खिंचाव रहता है। खिंचाव-दुराव सब रहता है, मतलब उनका आपसी कार्यक्रम चलता रहता है, आपसी खेल चलता रहता है। कभी मिलते हैं, कभी उड़ जाते हैं — यही लीला है।

प्र: जैसे अब यह समझ आ रहा है कि यह जो पूरा खेल है, मक्खियों के लिए तो नहीं है। मक्खियाँ तो बस संयोगवश हैं। तो वह जो गुड़ का ढेला है, उसको मूलतः घुल जाना है। तो जब कोई एक बुद्ध या कबीर बोध को प्राप्त होते हैं, तो उस गुड़ के ढेले का एक हिस्सा निकलकर घुल जाता है, और यह पूरा खेल इसी प्रकार चलता रहता है।

आचार्य: नहीं, नहीं, कुछ नहीं। बुद्ध, कबीर कोई हिस्से वगैरह नहीं है। बुद्ध, कबीर सीधे-सीधे वृत्ति के पीछे चले गए हैं। उनको तुम शरीर रूप में देख रहे हो इसीलिए हिस्से वगैरह की बात कर रहे हो।

क्योंकि तुम पदार्थ हो और पदार्थ, पदार्थ को ही देख सकता है तो इसीलिए वह पदार्थ जैसे दिखाई देते हैं तुमको, नहीं तो तुम कहोगे कैसे कि बुद्ध हैं? फिर तो बुद्ध हवा हैं, आसमान हैं, सन्नाटा हैं। तुम कहोगे कैसे कि बुद्ध हैं? तुम्हें बुद्ध प्रतीत हो सकें इसीलिए एक शरीर जैसे दिखाई देते हैं। तुमसे बात कर सकें इसीलिए कोई रूप उनका दिखाई देता है, नहीं तो बुद्ध कोई रूप थोड़ी हैं।

प्र: जो मूलतम् इच्छा है, वह अहम् वृत्ति की होती है, जिसको सारी मक्खियां अपने-अपने अनुसार रूप देती रहती हैं।

आचार्य: बहुत बढ़िया। एक ही मूल इच्छा होती है कि पूर्ण हो जाऊँ। पर मक्खियों की अवस्था के अनुसार, मक्खियों के चित्त के अनुसार, मक्खियों के गुण के अनुसार, वह इच्छा अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती रहती है। मूल इच्छा एक ही है — योग की, समर्पण की। इसलिए तुम कहते हो अनंत इच्छाएँ। वह अनंत इच्छाएँ नहीं हैं, वह अनंत मक्खियाँ हैं।

प्र: आपने बोला था, अहम् वृत्ति के पार जाना है। लेकिन पार जाता क्या है?

आचार्य: कुछ नहीं। जो इस पार था वह इस पार होने की इच्छा छोड़ देता है। उस पार कुछ बचता नहीं है जाने के लिए।

प्र: इस पार अहम् वृत्ति है?

आचार्य: इस पार अहम् वृत्ति है। इस पार मक्खियाँ हैं जो इस पार का खेल है, उससे जुड़ाव, उसको असली मानना, यह छूटा तो फिर उस पार।

भाई, उस पार और इस पार के बीच में कोई सीमा-रेखा थोड़े ही है। उसी पार ने तो इस पार को फ़ैला रखा है न। शून्य ने ही तो दो पैदा कर रखे हैं न। दो में जबतक दुई की भावना है, तो तब तक वह दो रहेंगे। और जैसे ही यह जो दो हैं, इनमें द्वैत की भावना गई, वो फिर वही हो जाएँगे — शून्य।

बीच में कोई अड़चन थोड़े ही लगी हुई है। तुम्हें सीमा पार करने के लिए कोई और छलांग थोड़े ही मारनी है। मैं-तुम की भावना, मैं और संसार की भावना, यह गयी नहीं कि तुम उधर पहुँच गये।

तुम कहते हो इच्छाएँ हैं और शरीर है जो उन इच्छाओं को पूरा करने का उपकरण है। यह दो की भावना हो गई न। इच्छा क्या है? अहम् वृत्ति। वही तड़पती रहती है। और शरीर क्या है? पदार्थ। तुमने दो बना दिए न!

तुम्हारी कोई भी अशरीरी इच्छा है? देखो कि कैसे इच्छा हमेशा पदार्थ की माँग करती है और पदार्थ के बूते ही खड़ी रहती है। तुम्हारी कोई भी ऐसी इच्छा है क्या जिसमें पदार्थ सम्मिलित न हो? है कोई इच्छा? नहीं है न? इच्छा का पूरा खेल ही यही है।

मूल रूप से इच्छा है अहम् वृत्ति की जो संतुष्टि पाना चाहती है। पर वह खड़ी मक्खियों के बूते है। क्योंकि पदार्थ न हो तो इच्छा खड़ी कैसे होगी?

प्र: इसीलिए जो मक्खी की कंफीग्रेशन (बनावट) है वह गुड़ को भूलने के लिए मजबूर कर देती है?

आचार्य: नहीं-नहीं, बिलकुल भी नहीं। कभी भूलती ही नहीं वह। उसका सारा खेल ही यही है — भनभनाना, पास जाना। हाँ, अलग-अलग तरीके से — कोई सीधे जाये; कोई टेढ़े जाये; कोई उछल-उछल कर जाये; कोई गिर-गिर कर जाये; कोई जाये तो युगों तक बैठी रहे; कोई जाये तो दो ही पल में उड़ जाये। वो सब जितने भी तरह के अंतर हो सकते हैं, वो सारे अंतर हैं। पर खेल मूल रूप से एक ही है — कोई तामसिक मक्खी है, गई है तो सोई पड़ी है; दस हज़ार साल से सो रही है गुड़ के ऊपर। कोई राजसिक मक्खी है, कोई सात्विक मक्खी है। तो ये सब गुणों का खेल चल रहा है प्रकृति का। पर मूल खेल एक ही है — हम अधूरे हैं और पदार्थ हमें पूरा करेगा; वादा करेगा।

प्र: जैसे हमने नारद भक्ति सूत्र में पढ़ा था कि अहम् वृत्ति, सत्य के अनादर की फल-इच्छा है। तो मूलतम इच्छा अहम् वृत्ति की ही होती है?

आचार्य: यह बात जीव के लिए कही जा रही है कि तुम इच्छाओं के खेल में इसलिए हो क्योंकि दो का आदर कर रहे हो और जो एक है उसका अनादर कर रहे हो। सत्य के अनादर का अर्थ इतना ही है कि यह जो अपने आसपास देखते हो इसको बहुत आदर देते हो। कोई सत्य का अनादर क्या करेगा? सत्य कोई सामने आता है तुम्हारे कि तुम उसको जूता फेंक कर मारोगे?

सत्य के अनादर का मतलब होता है अंड-बंड चीज़ों का आदर करना; फ़ालतू बातों का आदर ही सत्य का अनादर है। सत्य तुम्हें कहाँ मिलेगा अनादर करने के लिए? तुम कहाँ पाओगे सत्य को कि अनादर करो? इसको महत्व दे दिया, उसको गंभीरता से ले लिया, इसमें उलझे हुए हैं, यही सब सत्य का अनादर है।

प्र: लेकिन आपने जो अभी बताया, वह पारंपरिक मान्यताओं से एकदम हटकर है। वहाँ पर पता लगता है कि जो केंद्रीय यात्रा है, उसमें मैं हूँ। जबकी यहाँ पर पता लग रहा है कि मैं सिर्फ एक मक्खी हूँ। तो जो आपने बताया क्या वह बात बुद्धि के माध्यम से नहीं समझी जा सकती?

आचार्य: इंटेलेक्ट (बुद्धि) कभी कुछ समझती नहीं है। वह सिर्फ़ अपने फूलने को सामग्री चाहती है। समझना, बुद्धि का लक्षण ही नहीं है; समझना, बुद्धि का काम ही नहीं है। बुद्धि का काम है संसार में जो स्थूल व्यवस्था चल रही है, उसको कायम रखना। यह बुद्धि का काम है।

वह व्यवस्था भ्रम है। भ्रम को तोड़ने वाली कोई भी चीज बुद्धि मार्ग से प्रवेश नहीं करेगी। हाँ, बुद्धि अगर सद्बुद्धि है तो इतना कर सकती है कि जब तुम सत्य में प्रवेश कर रहे हो तो वह विनम्रता से हट जाये। सद्बुद्धि का अर्थ यही होता है। सद्बुद्धि का अर्थ ऐसी बुद्धि, जो यह समझ जाये कि उसकी सीमा क्या है और उसमें इतनी विनम्रता हो कि वह झुककर के हट जाया करे।

बाकि जो बात अभी हुई है, वह कोई नई बात नहीं है। तुम अगर बहुत ध्यान से ग्रंथों को, शास्त्रों को पढ़ोगे तो सब यही कहते हैं। शब्दों का अंतर हो सकता है पर ध्यान दोगे तो दिखाई देगा कि सब यही कह रहे हैं। यह कोई ऐसी अनूठी बात नहीं बोली है। रही बात उस कन्वेंशनल विज़डम (पारंपरिक ज्ञान, मान्यताएँ) की जो आमतौर पर सुनते आये हो, तो वह कुछ नहीं है, वह ऐसे ही है, कहानियाँ।

अपनेआप को ‘मैं’ कहने की जगह दिस बॉडी (यह शरीर) बोलो। देखो उसमें हल्कापन अनुभव होता है कि नहीं? मन को ‘मेरा मन’ कहने की जगह, दिस माइंड , इट्स थॉट्स बोलो। फिर देखो कैसी मुक्ति खुलती है।

अपनेआप को इस जीव रूप में परिभाषित करना हो तो बस ऐसे ही कर लेना कि — पदार्थ का ढेला, पदार्थ का पिंड जो फ़िलहाल जीवन वृत्ति के संपर्क में है; और वह संपर्क कभी भी टूट सकता है, संयोग पर निर्भर करता है, पिंड के गुणों, लक्षणों, चरित्र पर निर्भर करता है; वह कभी भी टूट सकता है।

एक मक्खी बैठी हुई है, दूसरी आकर पीछे से उसको एक लगाती है ज़ोर का। पहली मक्खी उड़ गई, प्राण गये। संयोग की बात है — करोड़ों, अरबों मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। कौन बैठी, कौन उड़ गया, क्या पता चलता है, यह लगातार संयोग है जो आ-जा रहा है। सड़क पर चल रहे हो, एक मक्खी ट्रक चला रही है, तुम्हारी मक्खी उड़ गई। तो अपनेआप को इसी रूप में देखना — मिट्टी जो प्राणपूरित है। क्या हैं हम?

श्रोतागण: मिट्टी।

आचार्य: ऐसी मिट्टी जो अभी जीवन वृत्ति के संपर्क में है। वह संपर्क संयोग की घटना है, कभी है, कभी नहीं है। मिट्टी, चलती-फ़िरती मिट्टी। बस चलती-फ़िरती मिट्टी, चलता-फ़िरता पदार्थ। और इससे ज़्यादा कुछ नहीं। मिट्टी गिर जाएगी, मिट्टी का गिरना तुम्हारी मौत नहीं है। इस बात को भी बिल्कुल ध्यान से समझना — इस मिट्टी का गिरना तुम्हारी मौत नहीं है; तुम्हारी मौत नहीं है, सत्य की दृष्टि से।

लेकिन यह वक्तव्य तुम्हारे काम नहीं आएगा। यह तुम्हारे काम तब ही आएगा, तुम जीव हो, जब जीव के जीवन काल में ही तुम मन को ऐसा कर लो कि वह मिट्टी और प्राण, इनसे हट जाये।

भाई, सच्चाई होगी सच्चाई पर तुम्हारे काम तो नहीं आई। तुम तो उलझे-उलझे ही जिए और कष्ट में ही मर गए न। भले ही सत्य यह है कि मौत कुछ होती नहीं पर तुम्हें तो यह ही लगा न कि मर भी गए और बड़ी गंदी मौत मरे। तुम्हें तो यही लगा, भले ही मौत होती नहीं।

तुम्हारे काम तो बात तब ही आई जब, जिसे तुम अपना जीवन काल कहते हो, उस जीवन काल में ही तुम्हारा मन ऐसा हो गया कि उसमें जीने-मरने की भावना ख़त्म हुई; उसमें मौत का खौफ़ ख़त्म हुआ; उसमें द्वैत का विश्वास ख़त्म हुआ। तब जीवन सार्थक है; उसी को फिर जीवन मुक्ति कहते हैं; उसी को सदेह मुक्ति भी कहते हैं कि जीते जी बात पकड़ ली। बात पैदा नहीं कर ली, बात तो है, पकड़ ली। जीते जी बात पकड़ ली।

किसने पकड़ ली? ‘न पकड़ने वाला’ कोई था। ‘पकड़ने वाला’ कोई नहीं होता। जिसे समझ में नहीं आ रही थी वह कोई था। वह कोई था इसीलिए समझ में नहीं आ रहा था उसे। जिसे समझ में आई वह कोई नहीं होता क्योंकि समझना कुछ होता ही नहीं है।

समझना क्या है? सफ़ाई, ख़ालीपन, शून्यता।

तो किसे समझ में नहीं आ रहा था? मक्खी को, वृत्ति को — दोनों को ही कुछ समझ में नहीं आ रहा था। समझ में किसे आ गया? किसी को भी नहीं। समझ में किसे नहीं आया? मुझे।

जब भी समझ में नहीं आया तो किसे नहीं समझ आया? मुझे। और जब भी समझ में आया तो किसे समझ में आया? किसी को भी नहीं। न समझने वाले बहुत होते हैं, समझने वाला कोई नहीं होता।

प्र: आपने जो बताया, उसे क्या ऐसे समझा जा सकता है कि यह जो मिट्टी है, पेड़ में जाएगी और उससे फल बनेगा, वह फल मैं खा लूंगा और मैं बन जाऊंगा, इस तरह से मिट्टी एक जीवन वृत्ति के संपर्क में आ रही है?

आचार्य: बिलकुल वही हो रहा है, बिलकुल वही चल रहा है।

प्र: फिर मुक्ति तो सदेह ही है?

आचार्य: बंधन सदेह है। बंधन का जब अभाव होता है तो उसमें देह का कोई महत्व नहीं रहता।

प्र: यह टर्म्स (शब्द) क्यों हैं अलग-अलग?

आचार्य: ताकि जो देह में है और बंधन में है, वह यह समझ सके कि बंधन के पार भी कुछ है। यह सारी बातें जिससे की जा रही हैं वह सदेही है न? जिससे सारी बातें की जा रही हैं वह देह में है न? तो उससे क्या कहना पड़ेगा?

प्र: सदेह मुक्ति।

आचार्य: पर जब मुक्त होगा तो पाएगा कि देह जैसा कुछ है ही नहीं। तुमको ट्यूमर है। ट्यूमर तुम्हारी बीमारी है और उसी से तुमने अपनी पहचान बैठा ली है। तुम कहते हो, “मैं कौन हूँ? वह जिसे ट्यूमर है।“ तुम्हारे ट्यूमर का इलाज़ कर दिया, काट दिया, हटा दिया और तुम ट्यूमर ही थे तो तुम भी नहीं बचे। अब तुम क्या बोलोगे? सट्यूमर मुक्ति? ट्यूमर है कहाँ? वही तो तुम थे, वही हट गया।

सदेह मुक्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि सदेह बंधन होते हैं। उन बंधनों से हटकर कुछ है इसलिए शब्दों में यह कहना पड़ता है, ”सदेह मुक्ति”। सदेह बंधन हैं न? बंधन से हटकर कुछ है इसलिए कहना पड़ता है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि जो मुक्त है, वह भी देह भाव में जी रहा है और कहे कि मैं सदेह मुक्त हूँ। देह भाव तो है, देह है पर मैं मुक्त हूँ।

जो बंधन में है वह तो यह कहेगा कि मैं देह हूँ और मैं बंधन में हूँ। पर जो मुक्त है वह यह थोड़े ही कहेगा कि मैं देह हूँ और मैं मुक्त हूँ। उसका तो इतना ही कहना काफ़ी है कि, “मुक्त हूँ” और अगर अभी कह ही रहा है कि मैं देह हूँ तो मुक्त कहाँ हुआ?

अभी यह धुआँ है; थोड़ी देर में बिल्ली बन जाएगा; फिर पत्ती बन जाएगा; बनेगा कि नहीं बनेगा? यही चक्र है। प्राणों से अलग है तो धुआँ कह देते हो, प्राणों के संपर्क में है तो जीव कह देते हो। प्राण, मैं किसको कह रहा हूँ? उपनिषद् जिसे प्राण कहते हैं उसको नहीं कह रहा। प्राण से आशय है, चेतना; डिवाइडेड कॉन्शियसनेस , जो द्वैत की भाषा करती है; जो कहती है, ‘मैं और संसार’। चेतना यही कहती है न? मैं और संसार। तो यही अस्तित्व है — पदार्थ और चेतना; प्रकृति और पुरुष।

तुम अपनेआप को आईने में देखते हो, तुम्हें चेहरा दिखाई देता है। वह तुम्हारा चेहरा नहीं है, वह पदार्थ का चेहरा है।

प्र: लेकिन जिसको दिखता है वह?

आचार्य: वह भी वही है।

प्र: जिसको दिख रहा है वह चेतना ही है?

आचार्य: हाँ। उसका ( एक श्रोतागण को इंगित करते हुए) आशय यह था कि जिसको दिख रहा है वह सत्य है। जिसको दिख रहा है वह सत्य नहीं है। जिसको दिख रहा है वह भी उसी खेल का हिस्सा है।

प्र: चेतना तो सत्य नहीं है न?

आचार्य: नहीं है।

प्र: जिसको दिख रहा है वह तो चेतना है?

आचार्य: वह चेतना है। चेतना सत्य नहीं है।

प्र: अभी जैसे बात कर रहे थे, शीशे में जिसका चेहरा दिखता है और जिसको दिखता है वह कॉन्शियसनेस (चेतना) है, वह सत्य नहीं है। जो अवेयरनेस (जागरूकता) है, जो आश्रित नहीं है विषय पर, वह सत्य है?

आचार्य: जो भी कुछ सत्य है, वह तुम्हारे देखने, तुम्हारे विचार, इन सबसे खाली होगा। कुछ नहीं से, दो होते प्रतीत होते हैं। अब कोई तो ताक़त है न जो दो को दो रखती है। शून्य होकर, विगलित नहीं होने देती। कोई तो ताक़त है न जो इसी कोशिश में रहती है कि दूरी बनी रहे, द्वैत बना रहे। वह ताक़त नहीं होगी तो यह सब जिसको तुम होना कहते हो, अस्तित्व कहते हो, ब्रह्मांड कहते हो, इसका लोप हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि कुछ बहुत बुरी बात हो जाएगी पर लोप हो जाएगा।

तो एक ताक़त है जो इस सबको, इसी रूप में कायम रखना चाहती है। तुम्हारे भीतर जीव भावना को कायम रखना चाहती है; तुम्हारे भीतर तमाम भेदों को कायम रखना चाहती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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