प्रश्नकर्ता: आज हमारे सामने वो हैं जिनके बारे में आप बहुत कुछ जानते हैं। आचार्य प्रशांत जी—फिलॉसफर, ऑथर और गुरु। बहुत सारी बुक्स लिखी हैं और क्लाइमेट चेंज पर बहुत सारी बात की है। सर, इतनी सारी उपाधियां आपकी जो हैं अगर मैं आपसे पूछना चाहूं, इनमें से आप सबसे ज़्यादा क्या हैं? तो वो क्या होगा?
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो सबका आभार, मुझे आमंत्रित करने के लिए। और मैं आशा करता हूं कि यह जो बातचीत होगी यह सभी के लिए बोध का और आनंद का थोड़ा स्रोत बनेगी, कम से कम एक घंटे के लिए।
तो आपने पूछा कि ये जितनी अलग-अलग पहचाने हैं, उन सब में मैं सबसे ज़्यादा क्या हूं या मुझे सबसे ज़्यादा पसंद क्या है? मैं एक शिक्षक हूं। मैं एक शिक्षक हूं। मैं समझता हूं कि हर इंसान के भीतर जो चेतना है वो बेहतर होना चाहती है। हर इंसान ऊपर उठना चाहता है। बाहरी ऊपर उठने के तरीके तो हमको सबको पता ही होते हैं। और सब कोशिश कर रहे होते हैं ज़िंदगी में आगे कैसे बढ़े, आगे कैसे बढ़े और आप बाहर भी जो उठना चाहते हैं वो इसीलिए क्योंकि भीतर से आपको बेहतर बनना है। भीतर एक बेचैनी रहती है। कुछ रहता है जो कहता है कि मुझे बेहतर बनना है। बेहतर होना है। तो वो काम कराना मेरा काम है। और वही मेरी पहचान है।
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल। जैसा कि आपने कहा कि ये लोगों को बेहतर बनाना भीतर से बेहतर बनाना तो ये जो सफर आपका रहा है जन्म से लेकर अब तक का, आपने अपने आप को कितना बेहतर पाया है।
आचार्य प्रशांत: अपनी ज़िंदगी में? मैं?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: मेरे लिए बहुत जरूरी है। मेरे लिए वो बहुत जरूरी है कि मैं लगभग प्रतिदिन पिछले दिन से बेहतर होता जाऊं इस अर्थ में कि मेरी जो सीमाएं हैं, मेरे बंधन हैं, जहां कहीं कमियां कमजोरियां हैं; मैं ईमानदारी के साथ उनको पहचानता चलूं। और जहां कहीं पिछले दिन कमी रह गई थी, पूरा प्रयास करूं कि अगले दिन ना रह जाए। और अगर यह प्रयास मैं अपनी ज़िंदगी में नहीं कर सकता तो मैं औरों को किस हक से बोलूंगा?
तो खुद को चुनौती देते रहना, हर तरीके से बहुत-बहुत जरूरी काम है। मुझे नहीं लगता कि नॉलेज ज्ञान किसी का पूरा हो सकता है। तो मैं लगातार सुनता रहता हूं, पढ़ता रहता हूं। जो लोग उम्र में मुझसे बहुत छोटे भी हैं वो स्टूडेंट्स हो सकते हैं, कॉलेज के, उनसे भी अगर मेरी बात होती है तो मैं लगातार लगातार सीखने की कोशिश करता हूं और स्वीकारता हूं कि मुझे नहीं पता।
आप अगर यही मान के चलोगे कि सब कुछ जानते हो तो कुछ नहीं जान पाओगे। फिजिकली मैं कोशिश करता हूं कि मैं जो, उदाहरण के लिए, स्पोर्ट्स मैं नहीं खेलता था पहले तो वो मैंने खेलने शुरू किए। बहुत लेट खेलना शुरू किया।
मैंने कहा मैं दो-तीन स्पोर्ट्स शुरू से खेलता आया हूं। मुझे उसमें रुकना नहीं है। तो अर्तीस-चालीस (३८-४०) की उम्र में आकर के मैंने कुछ और खेलना शुरू किया और मेरी कोशिश ये रहती है कि मुझसे जो आधी उम्र के खिलाड़ी हैं, मैं उनको चुनौती दे सकूं।
तो ये जरूरी है।
प्रश्नकर्ता: कौन-कौन से खेल है?
आचार्य प्रशांत: अभी आजकल मेरा ज़्यादा ध्यान टेनिस और स्क्वाश पे रहता है।
प्रश्नकर्ता: क्या बात है।
आचार्य प्रशांत: पहले बचपन से ही जो मेरे स्पोर्ट्स थे वो थे बैडमिंटन और क्रिकेट। फिर कॉलेज में आकर के टीटी शुरू हुआ। फिर जब मैं करीब अर्तीस (३८) का हो गया था तब टेनिस और स्क्वाश शुरू हुआ और मुझे लगा है कि मैं इवन एज अ प्लेयर जैसा पांच साल पहले था किसी भी स्पोर्ट में उससे आज बेहतर हूं। और बेहतर होते रहना है, यही मेरा काम है।
प्रश्नकर्ता: मतलब अपने आप को रिफ्रेश रखना उम्र के साथ। बहुत अच्छी बात जो आपने बताई कि वक्त के साथ झुकूं नहीं बल्कि और मजबूती के साथ खड़े हो जाओ।
सर आपके बारे में बहुत सारी चीज़ें मैंने रिसर्च करी। बहुत सारी चीज़ें मैंने जानी। आपने क्लाइमेट क्राइसिस को स्पिरिचुअल क्राइसिस से जोड़ा। इन दोनों का कैसे बंधन है? और क्लाइमेट एक अलग चीज़ है और स्पिरिचुअलिटी एक अलग चीज़ है।
आचार्य प्रशांत: देखिए जो क्लाइमेट क्राइसिस है वो एक कंजम्पशन की क्राइसिस है। ठीक है ना? जितनी भी चीज़ें जो ग्रीन हाउस गैसेस के एमिशन के लिए जिम्मेदार हैं वो सब हमारे कंजम्पशन से आता है।
पच्चीस प्रतिशत इलेक्ट्रिसिटी, तीस-पैतीस प्रतिशत फॉसिल फ्यूल जो कि ज़्यादातर ट्रांसपोर्ट में है। बीस-पच्चीस प्रतिशत एनिमल एग्रीकल्चर जिसमें ज़्यादा रोल मांसाहार का और डेरी का है। ये सारी चीज़ें अंततः जो आम आदमी है, उसके कंजम्पशन की ही तो है ना। हम जितना कंज्यूम करते जाते हैं कार्बन उतना ज़्यादा रिलीज होता जाता है।
और हम कंजम्पशन क्यों करते हैं? वजह क्या है कि हर आदमी को अपना कंजम्पशन बढ़ाना ही है। कुछ तो वो कंजम्पशन है जो प्राकृतिक है। उसमें कोई दोष नहीं हो सकता। उस हिसाब से तो जो दुनिया भर की सब पशु पक्षियों की प्रजातियां हैं वो भी कंज्यूम करती हैं। कंजम्पशन माने उपभोग, वो भी कंज्यूम करती हैं। तो उसमें क्या दिक्कत हो सकती है?
कुछ कंजम्पशन है जो जेन्युइन तरक्की के लिए बहुत जरूरी है। उदाहरण के लिए अगर मुझे स्कूल जाना है और स्कूल जाने में थोड़ी कार्बन डाइऑक्साइड रिलीज़ होती है ट्रांसपोर्टेशन में तो हम ये नहीं कह सकते कि इसमें कोई बुराई हो गई। ओके?
लेकिन बहुत सारा कंजम्पशन जो बल्क ऑफ द कंजम्पशन है वो इसलिए हो रहा है क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हमें ज़िंदगी में करना क्या है कि हमें पता ही नहीं कि हम कौन हैं। ज़िंदगी किस लिए है और भीतर लगातार एक बेचैनी बनी रहती है। तो हम उस बेचैनी को मिटाने की कोशिश करते हैं कंजम्पशन के द्वारा।
भाई, मैं नहीं जानता मैं कौन हूं? मैं अध्यात्म की बात क्यों करता हूं? क्योंकि अध्यात्म के केंद्र में होता है आत्मज्ञान। मुझे पता ही नहीं। कभी मैंने अपने आप को गौर से देखा नहीं। ये आम आदमी की स्थिति है हम सबकी। तो हमें अपने बारे में कुछ नहीं पता होता। सेल्फ नॉलेज आत्मज्ञान हमारा बहुत ही कम होता है। हम अनुभव लगातार कर रहे होते हैं कि भीतर कुछ कमी है, कुछ अपूर्णता है। कुछ कुछ है जो ठीक नहीं है।
आपको भी होता होगा। लगता है ना कि ज़िंदगी में अभी भी….
प्रश्नकर्ता: डिसबैलेंस है। वो चीज़ आई नहीं है बीच में।
आचार्य प्रशांत: पता नहीं कौन सी चीज़ है।
प्रश्नकर्ता: कौन सी चीज़ है। वो अगर किसी से भी पूछे तो पूछता है कि मुझे ही नहीं पता, मैं तुम्हें क्या बताऊँ?
आचार्य प्रशांत: लेकिन अनुभव होता रहता है कि कुछ गड़बड़ है।
प्रश्नकर्ता: राइट।
आचार्य प्रशांत: गड़बड़ है। कुछ तो गड़बड़ है। तो वो जो भीतर बेचैनी और बीमारी की भावना रहती है। हम उसका फिर इलाज कैसे करते हैं? हम उसका इलाज करते हैं और कंज्यूम कर करके। वीकेंड आ गया है। कुछ समझ में नहीं आ रहा कि करें क्या? और एक अजीब सी ऊब हो रही है। हां और ज़िंदगी के प्रति बड़ी एक बेकार सी भावना उठ रही है। तो क्या करा? मॉल चले गए।
प्रश्नकर्ता: डिस्को पब चले गए।
आचार्य प्रशांत: डिस्को पब चले गए। खा पी लिया, कुछ मूवी देख ली, कुछ खरीद लिया। ये सब कर लिया। मुझे नौकरी में आगे बढ़ना है, बढ़ना है, बढ़ना है। क्यों बढ़ना है मैं खुद नहीं जानता। अब आगे बढ़ लिए। बहुत तरीके से जो भी हथकंडे लगाकर आगे बढ़ लेते हैं तो आगे बढ़ लिए। उसके बाद क्या करें? पैसा आ गया। पैसा आ गया तो क्या करें? एक गाड़ी खरीद ली और बड़ी गाड़ी खरीद ली। ये सब वो कंजम्पशन है जो अल्टीमेटली जो कार्बन एमिशन है उसको बिल्कुल आसमान तक पहुंचा देता है।
तो मैं इसलिए बोलता हूं कि ये जो क्लाइमेट क्राइसिस है ये स्पिरिचुअल क्राइसिस है। और इसका कोई टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशन पूरी तरह नहीं हो सकता। टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशन हमें विकसित करने पड़ेंगे। लेकिन हमें भूलना नहीं होगा कि टेक्नोलॉजी तो इंसान के हाथ की बात होती है।
आप कितनी भी क्लीन टेक्नोलॉजी विकसित कर लो वो कुछ तो एमिशन करेगी ना। और आपने क्लीन टेक्नोलॉजी विकसित कर ली। आप अपने कंजम्पशन की दर बढ़ा दोगे। तो उससे क्लीनेस्ट टेक्नोलॉजी भी क्या कर लेगी? एक बहुत सीधा सा उदाहरण है। आज से चालीस-पचास साल पहले जो हमारी सड़कों पर गाड़ियां चलती थी, वो एमिशन के टर्म्स में आज की गाड़ियों से कहीं ज़्यादा डर्टी थी। हम उनको डर्टी व्हीकल्स बोल सकते हैं। बोल सकते हैं?
प्रश्नकर्ता: बहुत ज़्यादा कार्बन….
आचार्य प्रशांत: हां। चाहे वो कार्बन की बात हो, चाहे सल्फर डाइऑक्साइड हो, चाहे सूट हो। जितनी भी तरीके के एमिशंस हो सकते हैं उन गाड़ियों से ज़्यादा होते थे। आज की जो गाड़ियां हैं उन गाड़ियों से बहुत बेहतर हैं। इस मामले में हमारे इंजन, हमारी टेक्नोलॉजी बहुत बेहतर हो गई है। हमारे रेगुलेशंस बहुत बेहतर हो गए हैं। तो क्या आज प्रदूषण चालीस साल से पहले से कुछ कम हो गया क्या? चालीस साल पहले की जो गाड़ी थी वह हाईली पौल्युटिंग थी। लेकिन पोल्यूशन आज ज़्यादा है। क्यों ज़्यादा है?
प्रश्नकर्ता: क्योंकि सर मात्रा बढ़ गई है।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि क्वांटिटी बढ़ गई है और हम यही करते जा रहे हैं। हर आदमी जानता ही नहीं कि उसे करना क्या है? तो अपनी ज़िंदगी में चीज़ों की क्वांटिटी बढ़ाता रहता है। तो टेक्नोलॉजिकली हम कितनी भी कोशिश कर लें हमें पूरी सफलता नहीं मिलेगी। और याद रखिए हर वो चीज़ जो प्रजातियों को, इस ग्रह को नुकसान पहुंचाती है उसमें किसी ना किसी का स्टेक भी इनवॉल्वड है।
प्रश्नकर्ता: ये थोड़ा सा क्लियर कीजिए सर।
आचार्य प्रशांत: देखिए साहब, कस्टमर चाहता है कि उसको सस्ती चीज़ मिल जाए। आप जब भी कभी कोई एडवांस टेक्नोलॉजी की क्लीन चीज़ विकसित करोगे, किसी भी क्षेत्र में चाहे वो इलेक्ट्रिसिटी जेनरेशन हो चाहे वो ट्रांसपोर्टेशन हो कुछ भी हो। और चाहे वह एनिमल एग्रीकल्चर वाली चीज़ें हो। उसमें हमेशा कॉस्ट जो है वह थोड़ी बढ़ती है। तभी तो रिसर्च करना पड़ता है, टाइम लगाना पड़ता है। मैं सस्ती चीज़ क्यों ना ले लूं और जो बेच रहा है वो भी मुझे सस्ती चीज़ क्यों ना बेच दे। एमिशन होता होगा तो होगा।
तो जब तक भीतर से एक स्पिरिचुअल थोड़ी अवेकनिंग नहीं होगी कि यह मैं क्या कर रहा हूं और यह मैं क्यों कर रहा हूं या मुझे कहां जाना चाहिए। मुझे एक दिशा में बढ़ ही क्यों जाना चाहिए जब वो दिशा मुझे वह देगी ही नहीं जो मैं उधर से उम्मीद कर रहा हूं। हम कुछ भी करते हैं एक उम्मीद में करते हैं कि हम जो कर रहे हैं उससे हमें कुछ फायदा होगा।
और ये हम बहुत साफ-साफ देख नहीं पाते कि हमने आज तक ज़िंदगी में जो कुछ करा उससे हमें सचमुच कितना फायदा हुआ। क्योंकि हम देख नहीं पाते तो जिस दिशा में हम आज तक बढ़ते रहे हैं उसी दिशा में हम और आगे और आगे बढ़ते रहते हैं, ये सोच के कि तकलीफ अभी भीतर बनी हुई है क्योंकि हम पूरी तरीके से आगे नहीं बढ़ पाए।
साहब तकलीफ इसलिए बनी हुई है क्योंकि आप जिस दिशा में जा रहे हो उस दिशा में आप कितना भी आगे बढ़ जाओ तकलीफ मिटती नहीं है। बात ये नहीं है कि आपने दूरी कितनी तय करी है।
बात ये है कि आप जिस दिशा में दूरी तय कर रहे हो वो दिशा ही ऐसी नहीं है कि आपको आपकी मंज़िल तक पहुंचा दे।
प्रश्नकर्ता: आपको सुकून दे पाएगी।
आचार्य प्रशांत: आपको सुकून दे पाएगी। लेकिन जब हम खुद को नहीं जानते तो हमें ये भी नहीं पता होता है कि वो मंज़िल चीज़ क्या होती है। तो हमें लगता है कि मंज़िल का मतलब ही यही होता है कि मोर मटेरियल प्रोस्पेरिटी। और ये जो ब्लाइंड रेस फॉर मोर मटेरियल प्रोस्पेरिटी है वही आज की क्लाइमेट कैटस्ट्रोफी है।
प्रश्नकर्ता: क्या बात है।
(सभी तालियों से प्रशंसा करते हैं।)
मैं इस उदाहरण से इसलिए भी सहमत हूं क्योंकि हम अपने पूरे साल में सर कई बार सेल सुनते हैं। मॉल में कपड़ों की सेल लगी हुई है। घर में अच्छे खासे कपड़े रखे हुए हैं। फिर भी लोग सेल में ज़बरदस्ती खरीदे जा रहे हैं।
और अभी उदाहरण मैं यहां पर देना चाहूंगा शादी का। अगर मैं कहूं कि शादी आराम से अच्छे रीति रिवाज से थोड़े खर्चे के साथ हो सकती है। अब उसके अंदर इतनी सारी कंजम्पशन जैसे कि आप बात कर रहे थे चीज़ें होने लगी हैं या फिर हम यूं कहें कि हमने कुछ ऐसी शादीज़ अभी हाल फिलहाल में भी देखी हैं जिसमें अथाह खर्चा हुआ और उसमें लोगों ने देखकर अपने आप को यह भी महसूस किया अंदर से कि यार ये तो मैं नहीं कर सकता। अंदर एक और पीड़ा ले ली।
इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
आचार्य प्रशांत: देखिए ये एक साधारण साइकोलॉजी की बात है। आप एक तरफ को जा रहे होते हो। आपको रास्ते में थोड़ा एहसास होने लगे कि आपने गलत रोड पकड़ ली है। ठीक है ना? तो या तो आप यह कर सकते हो कि ईमानदारी से मान लो कि आपने गलत दिशा में आज तक जो इन्वेस्टमेंट किया वो एक Sunk Cost हो गई। अब वो गया तो गया मैं यू टर्न ले लेता हूं। ये एक ईमानदार आदमी की पहचान है। हुई ना?
प्रश्नकर्ता: हम्म।
आचार्य प्रशांत: मुझे जहां जाना था मैं वहां जा ही नहीं रहा। भले ही मैं गलत दिशा में गलत रोड पे तीन सौ कि.मी. आ गया तो मैं क्या करूं? यूटर्न। मुझे यह करना चाहिए कि यू टर्न लेना चाहिए और मानना चाहिए कि अब भाई ये छह सौ कि.मी. फालतू होगा। तीन सौ-तीन सौ लेकिन हम ऐसा करते नहीं।
हमें जब पता लगता भी है, ज़िंदगी हमें थोड़ा एहसास देना शुरू भी करती है कि कुछ गड़बड़ हो गई है, तुम जिस दिशा में बहुत आगे आ गए, यह दिशा तुम्हारी कभी थी ही नहीं। तो हम क्या करते हैं कि हम अपनी मंज़िल बदल देते हैं। हम कहते हैं हम जिधर को आ गए मैं उधर ही कोई मंज़िल खोज लूंगा।
प्रश्नकर्ता: इधर-उधर निकल जाऊंगा।
आचार्य प्रशांत: हम क्यों अपने आप को यह जताएं? हम यह क्यों स्वीकार करें? बड़ा बुरा लगता है। हर्टफुल होता है कि मैंने आज तक जो करा वो मुझे बस गलत दिशा में और आगे ले आया है। काफी ऐसा लगता है ना?
प्रश्नकर्ता: एक्सेप्ट नहीं कर पाते।
आचार्य प्रशांत: हां। तो इन्वेस्टमेंट भी डूबा और थोड़ी स्टूपिड सी फीलिंग आती है। मैं कैसा हूं? तो आदमी कहता है मैं जिधर को आ गया हूं, मैं उधर ही कोई नकली मंज़िल तलाश लूंगा। ताकि मुझे स्वीकारना ना पड़े कि ज़िंदगी जो है व्यर्थ सी गई है।
अब आप उधर मंज़िल तलाशोगे उधर मिलेगी नहीं तो क्या करना पड़ेगा गाड़ी और चलानी पड़ेगी। ये गाड़ी और चलाओगे तो एमिशन और होगा वही क्लाइमेट क्राइसिस है।
प्रश्नकर्ता: इससे अच्छा यू टर्न ले लो।
आचार्य प्रशांत: इससे अच्छा यू टर्न ले लो।
प्रश्नकर्ता: सर हम क्लाइमेट की बात कर रहे हैं और चारों तरफ इन दिनों हम घटनाएं भी सुन रहे हैं कि पहाड़ों पर लैंडस्लाइड हो गया, पुल टूट गए और यहां तक कि गर्मी में हमारे राजस्थान में भी कुछ ऐसी खबरें आई कि गर्मी के कारण कई लोगों ने अपनी जान खो दी। तो सर आपसे ये जानना चाहूंगा कि ये जो सारी चीज़ें हो रही हैं क्या हम इसको कलियुग कहेंगे?
आचार्य प्रशांत: नहीं कलियुग वगैरह तो कुछ नहीं है। हमारी मूर्खता है और अगर हम अपनी मूर्खता को ही कलियुग कहना चाहते हैं तो ठीक है। वास्तव में कलियुग का अर्थ ही यही है असली। कलियुग कोई कैलेंडर वाली चीज़ नहीं है।
कि इतना समय बीतता है तो त्रेता, द्वापर, सतयुग ये सब हो जाते हैं। जब तो फिर कलियुग आता है तो वो सब नहीं है। वो ज़्यादा गहरी बात है। ज़्यादा गूढ़ उसका अर्थ है।
आपके भीतर जो कालिमा है, आपके भीतर जो अज्ञान का अंधेरा है, वही कलियुग है। वो जब हट जाता है तो आपके लिए सतयुग हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: क्या बात है।
आचार्य प्रशांत: तो देखिए हम अपनी नज़र में ना बहुत स्मार्ट लोग हैं। सारी समस्या ये है। हमें लगता है हम बहुत ज़्यादा होशियार हैं। और हमको लगता है कि हम जैसे हैं केंद्र से अपने, दिल से अपने वैसे ही रहे, हम अपनी सारी समस्याओं का समाधान कर लेंगे। ये ऐसी सी बात है कि जैसे मुझे कोई भीतर बीमारी हो गई है और उसके छोटे-छोटे लक्षण मुझे अपनी देह में चारों तरफ दिखाई देते हैं। और मैं कहूं मुझे अपनी भीतरी बीमारी का इलाज नहीं करना। पर ये जो अलग-अलग तरीके के सिम्टम्स हैं, मैं इनका समाधान कर लेता हूं तो मैं अपने आप को ठीक मानूंगा।
है ना?
एक दृष्टि से यह स्मार्टनेस है, चतुराई और एक दृष्टि से ये पागलपन है। हम एक चीज़ का इलाज करते हैं। उससे हम कोई और समस्या खड़ी कर लेते हैं।
उन्नीस सौ बानवे (१९९२) में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल आया तो क्लोरोफ्लोरोकार्बंस हुआ करते थे। जिन्होंने पूरी जो ओजोन लेयर थी वो छेद दी थी। तब खूब बातें हुआ करती थी। आप छोटे रहे होगे।
प्रश्नकर्ता: मैं बहुत ही छोटा।
आचार्य प्रशांत: आप बहुत ही छोटे रहे होगे। उस समय पे बहुत बड़ा मुद्दा होता था। मैंने जब सिविल सर्विस दिया था उस समय पे मेरे जीएस के पेपर में इतना लंबा एक ओजोन डिप्लीशन पे था और उस पे ऐसे ही लिखा था पूरा। तो तब बातें होती थी कि अब उसका जो आकार है वो इतने फुटबॉल ग्राउंड्स के बराबर हो गया। यह हो गया, वो हो गया। तो हमने कहा नहीं अब हम ऐसा करते हैं कि सीएफसी को एचएफसी से रिप्लेस कर देते हैं। तो हमने बिल्कुल सफलता पा ली।
साहब हम स्मार्ट लोग हैं सीएफसी चले गए, अब पता चला ये जो एसएफसी आ रहे हैं ये ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि जो हम गैसेस इस्तेमाल कर रहे हैं उनका ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा सौ गुना, दो सौ गुना, हज़ार गुना, पंद्रह सौ गुना होता है। तो दो हज़ार सोलह (२०१६) में फिर हम अभी जो कि किगाली अमेंडमेंट है, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का उसको लेकर के आए हैं।
तो सीएफसी के बाद अब हम एचएफसी वाली समस्या में फंस गए हैं। अब एचएफसी की समस्या के बाद अब हम फंसने वाले हैं वेस्ट डिस्पोजल की समस्या में। आप लोग इंडस्ट्री के लोग हैं। मुझसे बेहतर ही जानते होंगे। पर अगले तीस साल में एस्टीमेट यह है कि इस ग्रह पर डोमेस्टिक एयर कंडीशनिंग यूनिट्स जो हैं वो लगभग चार सौ करोड़ से पांच सौ करोड़ के बीच में होंगी।
जिसका अर्थ है हर दो व्यक्तियों पर एक एसी यूनिट होगी। आप कितनी भी क्लीन टेक्नोलॉजी ले आ लो इनका वेस्ट डिस्पोजल कैसे करोगे? और इनका जो वेस्ट डिस्पोजल है वो अपने आप में एक कार्बन इंटेंसिव प्रोसेस है। आप कैसे डिस्पोजल करोगे?
प्रश्नकर्ता: सर अभी हम सारे लोग एसी की हवा ही खा रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: इंडस्ट्री के लिए बहुत अच्छी बात है और मैं समझता हूं कि बहुत बड़ी रिस्पांसिबिलिटी है सबके पास। क्योंकि ये तो तय है कि अब दो हज़ार दस (२०१०) से दो हज़ार बीस (२०२०) के ही बीच में जो नंबर ऑफ यूनिट्स थी वो लगभग तीन गुना हो गई हैं। आज सौ हाउसहोल्ड्स को अगर आप लें भारत में तो उसमें से चौबीस में एसी आप मौजूद पाते हैं। ये आंकड़ा है। और अगले तीस साल में अनुमान है कि ये आंकड़ा दस गुना हो जाना है।
ये इंडस्ट्री के लिए बहुत बड़ी एक खुशी की भी बात है। लेकिन ये बहुत बड़ी रिस्पांसिबिलिटी है। बहुत बड़ी रिस्पांसिबिलिटी है।
प्रश्नकर्ता: अगर सर आप देखें तो इसका क्या सॉल्यूशन हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: भाई सॉल्यूशन ये हो सकता है सबसे पहले कि जो कंजम्पशन की इकाई है और उसकी जो कंजम्पशन की टेंडेंसी है हमें इन दोनों को रोकना पड़ेगा। कंजम्पशन की इकाई होता है द इंडिविजुअल, द पर्सन आप और हम। और कंजम्पशन की टेंडेंसी होती है हमारे भीतर जितना घोर अज्ञान है वो। ये थोड़ा समझा के बताता हूं।
कंजम्पशन क्या होता है? टोटल कंजम्पशन होता है नंबर ऑफ कंज्यूमर्स मल्टीप्लाई बाय पर कैपिटा कंसमशन। यही होगा ना? नंबर ऑफ कंज्यूमर्स मल्टीप्लाई बाय पर कैपिटा कंसमशन।
नंबर ऑफ कंज्यूमर्स पॉपुलेशन है। पॉपुलेशन खुद एक तरह का कंजम्पशन है कि मां-बाप को पता नहीं होता ज़िंदगी में करना क्या है तो वो आबादी बढ़ा देते हैं।
वो सोचते हैं एक दूसरे को कंज्यूम कर लो, ज़िंदगी को कंज्यूम कर लो तो पॉपुलेशन आ जाती है तो पॉपुलेशन खुद अपने आप में एक तरह का कंजम्पशन है। उसके बाद जो लोग आ जाते हैं वो आते ही इसीलिए हैं कि वो भोगे। हमारे यहां पर आशीर्वाद में बोलते हैं दूधो नहाओ पुतो फलो यह कंजम्पशन नहीं है तो क्या है?
आप किसी को जो भी आशीर्वाद देते हो उस आशीर्वाद में यही बात निहित होती है कि तेरी मटेरियल प्रोस्पेरिटी बढ़े। तू और कंज्यूम करे, तू और कंज्यूम करे।
तो जब तक ये दोनों चीज़ें हम नियंत्रण में नहीं ला सकते और नियंत्रण का मतलब यह नहीं कि आप ऊपर कोई सेना पुलिस, कोई तानाशाह बैठा दो जो कि वहां पर एक हम पास कर दे। इसका स्पिरिचुअल सॉल्यूशन ही हो सकता है।
क्योंकि जब हम कह रहे हैं पॉपुलेशन मल्टीप्लाई बाय पर कैपिटा कंजम्पशन तो पॉपुलेशन भी आती है कंज्यूम करने की टेंडेंसी से ही। तो ले दे के ये जो पूरा क्लाइमेट एमिशन है ये हो गया द टेंडेंसी टू कंज्यूम का स्क्वायर।
क्योंकि दो वेरिएबल्स हैं और दोनों ही फंक्शन है द टेंडेंसी टू कंज्यूम का। तो ये जो कंजम्पशन की टेंडेंसी है ये इसके कारण एक्सपोनेंशियली बढ़ता है एमिशन और ये कंजम्पशन की टेंडेंसी तो किसी स्पिरिचुअल माध्यम से ही कम करी जा सकती है। मैं इसलिए बोलता हूं, "द क्लाइमेट क्राइसिस कैन ओनली हैव अ स्पिरिचुअल सॉल्यूशन।"
प्रश्नकर्ता: बट सर कंजम्पशन एंड ऑफ द डे तो एक बिजनेसमैन की कोर है। वो तो हमेशा ये चाहता है कि कंजम्पशन बढ़ता जाए और उसकी जो है तिजोरी भर दी जाए।
आचार्य प्रशांत: नहीं देखिए तिजोरी भरना अच्छी बात है। बहुत बढ़िया चीज़ है। लेकिन तिजोरी भी आप तिजोरी के लिए नहीं भरते हो। तिजोरी भी आप दिल के लिए भरते हो।
प्रश्नकर्ता: क्या बात है। अपने लिए भरते हो।
आचार्य प्रशांत: अपने लिए भरते हो। तो तिजोरी भर गई और दिल खाली हो गया तो ज़िंदगी बर्बाद गई। समस्या है। मैं नहीं कह रहा तिजोरी खाली होनी चाहिए। मटेरियल प्रोस्पेरिटी कई बार बहुत जरूरी चीज़ होती है। उसके बिना आप जो फुल ह्यूमन पोटेंशियल है उसको रियलाइज नहीं कर सकते। मटेरियल प्रोस्पेरिटी निश्चित रूप से चाहिए। पर मटेरियल प्रोस्पेरिटी को इनर फुलफिलमेंट का साधन होना चाहिए। विकल्प नहीं, रिप्लेसमेंट नहीं, ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। मटेरियल प्रोस्पेरिटी है एंड थ्रू मटेरियल प्रोस्पेरिटी आई विल अचीव इनर फुलफिलमेंट।
ठीक है?
ये एक बात है बिल्कुल कि मैं उसके द्वारा ऐसी चीज़ें विकसित करूंगा जिससे मेरी चेतना का उत्थान हो सके। ये एक बात है। और दूसरी बात ये है कि मेरे घर में मटेरियल प्रोस्पेरिटी आ रही है तो वो एक अल्टरनेटिव बन गई, रिप्लेसमेंट बन गई, विकल्प बन गई भीतरी पूर्णता का। ये जो दूसरी बात है ये बहुत गड़बड़ है। ये नहीं होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता: ये जो हम सामान भरते जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: सामान भरते जाते हैं ऐज ऐन अल्टरनेटिव टू द रियल थिंग।
एज एन अल्टरनेटिव टू द रियल थिंग। भाई आपके पास कितना भी कुछ होगा। आप यहां बैठे हो। आपका सर दर्द हो रहा है। आप चिंता में हो। आप ईर्ष्या में हो। आप खुद ज़िंदगी को नहीं जानते। इसीलिए आप अपने बच्चों को सही परवरिश नहीं दे पाए। आप हो सकते हो कि आप चालीस हज़ार करोड़ की आसामी हो। लेकिन अगर आपको यही नहीं पता कि आप कौन हो? ज़िंदगी चीज़ क्या है। तो आपके बच्चे ठीक नहीं निकलेंगे। आपके बच्चे ठीक नहीं निकलेंगे तो मां-बाप होने के नाते आपके मन को शांति रहेगी क्या?
प्रश्नकर्ता: नहीं रहेगी।
आचार्य प्रशांत: तो वो जो पैसा है वो एक साधन होना चाहिए। असली चीज़ का विकल्प नहीं।
प्रश्नकर्ता: सर आज इस प्रांगण में इतने सारे लोग बैठे हैं अलग-अलग बिजनेस से जुड़े हुए और आज हम यहां पर फ्यूचर की बात कर रहे हैं। ये बात और है कि एक बहुत बड़ा एसी इधर चल रहा है। और जैसे कि आपने क्लाइमेट के बारे में बात बोली कि आने वाले जो साल होंगे वो शायद और भी बदतर हो जाएंगे। उसके लिए हमें आज से ही सॉल्यूशन….
आचार्य प्रशांत: हमें आज से ही सॉल्यूशन खोजना होगा और जो पूरी इंडस्ट्री है मैं उनसे ये कहूंगा कि देखिए कमर्शियली तो इस इंडस्ट्री का भविष्य बहुत ज़बरदस्त है। कोई नई इंडस्ट्री होगी जिसके बारे में अभी से लगभग तय है कि अगले तीस साल में दस गुना सेल्स बढ़ जानी है। इस इंडस्ट्री की बढ़ जानी है और बढ़ जानी है। उसकी एक बड़ी वजह लगभग ये भी है कि क्लाइमेट चेंज होगा और ये जो सेल्स बढ़ जानी है इससे भी आशंका है कि जीरो पॉइंट फाइव (०.५) डिग्रीज की टेंपरेचर राइज, मात्र कूलिंग सॉल्यूशन से ही हो जानी है।
तो जब भाग्य ने हमको इतनी प्रिविलेज्ड जगह पर लाकर रख दिया है कि जहां हमें मालूम है कि कूलिंग की तो डिमांड बढ़नी ही बढ़नी है। तो क्यों ना हम अपनी ज़िम्मेदारी भी फिर जमकर निभाएं।
प्रारब्ध हमें बहुत कुछ दे रहा है तो फिर क्यों ना हम अपना कर्तव्य भी निभाएं और जितने तरीकों से और जिस हद तक संभव हो सकता है इस क्राइसिस मिटिगेशन के लिए जो संभव है वो हम करें और हम जो कर सकते हैं हम बहुत अच्छे तरीके से जानते हैं।
पहली बात हमें एनर्जी एफिशिएंट यूनिट्स बनानी है। दूसरी बात जो हम उसमें रेफ्रिजरेंट्स यूज़ कर रहे हैं। हमें उनको जल्दी से जल्दी फेज़ आउट करना है। हमको प्रोपेन अमोनिया कार्बन डाइऑक्साइड, आइसोब्यूटेन इनको लेकर के आना है।
तीसरी बात लीकेज कम से कम हो पाए। उसके जो तरीके संभव है हमको वो अख्तियार करने हैं। रेगुलर मेंटेनेंस होनी चाहिए यूनिट्स की। कंटीन्यूअस उनका इंस्पेक्शन होना चाहिए कि कहीं लीकेज हो रही है, नहीं हो रही है। जो जितने भी स्पेसेस हो रहे हैं क्योंकि हम कूलिंग स्पेसेस तैयार करते हैं ना। स्पेस कूलिंग का काम है। जितने स्पसेस तैयार हो रहे हैं। हम देखें कि वो ऐसे तो नहीं है कि उनमें ज़बरदस्ती की कूलिंग की रिक्वायरमेंट है।
तो ये सारे काम हैं, कर्तव्य हैं बल्कि, जो इंडस्ट्री को निभाने होंगे और यही मेरा आग्रह है आप सब से।